मां महाकाली महात्म्य
छठी शताब्दी में आदि गुरु शंकराचार्य जब जागेश्वर आये तो शिव प्रेरणा से उनके मन में यहां आने की इच्छा जागृत हुई, लेकिन यहां पहुंचने पर नरबलि की बात सुन कर दैवीय स्थल की सत्ता को स्वीकार करने से इंकार कर वे शक्ति के दर्शन करने से विमुख हो गये। कहा जाता है कि विश्राम के बाद जब शंकराचार्य जी ने देवी जगदम्बा की माया से मोहित होकर मंदिर के शक्ति परिसर में जाने की इच्छा व्यक्त की तो शक्ति स्थल पहुंचने से पहले स्थित गणेश प्रतिमा से आगे नहीं बढ़ पाये और अचेत होकर वहीं गिर गये। कई दिनों तक ऎसे ही पड़े रहने के कारण उनकी आवाज भी बंद हो गई, वे प्यास से भी बिलख रहे थे। तब उन्हें अपने अहं भाव व कटु वचनों के लिये पश्चाताप भी हो रहा था, पश्चाताप का भाव जागृत होने और मां भगवती का अन्तःमन से स्मरण करने पर देवी ने गुरु शंकराचार्य को दर्शन दिये और स्वयं उन्हें जल पिलाया।
चेतन अवस्था में लौटने पर शंकराचार्य ने मंत्र शक्ति और योगसाधना के बल पर शक्ति के दर्शन किये और महाकाली के रौद्र रुप को शान्त कर लोहे के सात भदेलों (कड़ाही) से कीलन कर प्रतिष्ठित किया। ऎसा भी कहा जाता है कि आदि गुरु शंकराचार्य ने यहां पर श्री यंत्र की भी स्थापना की थी, जो शालिग्राम से ढका हुआ है, इसकी ऊपरी सतह तांबे की परत से ढकी है। पूरे उत्तराखण्ड में विख्यात इस शक्ति पीठ के विषय में कहा जाता है कि महिषासुर, चण्ड-मुण्ड और शुम्भ-निशुम्भ आदि राक्षसों का वध करने के बाद भी जब महाकाली का यह रौद्र रुप शांत नहीं हुआ तो उन्होंने महाकाल का भयंकर रुप ले लिया और यहां देवदार के वृक्ष में चढ़कर जागनाथ और भुवनेश्वर नाथ को आवाज लगाने लगीं। ऎसा भी कहा जाता है कि यह आवाज जिस किसी को भी सुनाई देती थी, उसकी मौत हो जाती थी। बाद में स्वयं शिव जी ने उनके रास्ते में लेट्कर उनके गुस्से को शांत किया।