Author Topic: पूर्णागिरी मंदिर उत्तराखंड ,Purnagiri Temple Uttarakhand  (Read 145082 times)

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पूर्णागिरि मन्दिर भारत के उत्तराखण्ड प्रान्त  के चम्पावत जनपद में अन्नपूर्णा शिखर पर ५५०० फुट की ऊँचाई पर स्थित है  । यह १०८ सिद्ध पीठों में से एक है। यह स्थान महाकाली की पीठ माना जाता  है। कहा जाता है कि दक्ष प्रजापति की कन्या और शिव की अर्धांगिनी सती की  नाभि का भाग यहाँ पर विष्णु चक्र से कट कर गिरा था । प्रतिवर्ष इस शक्ति  पीठ की यात्रा करने आस्थावान श्रद्धालु कष्ट सहकर भी यहाँ आते हैं ।

कुछ  स्थान ऐसे होते हैं जहां पहुंचकर आपको उस सर्वशक्तिमान की सत्ता का एहसास  होता है। पूर्णागिरि एक ऐसी ही जगह है। यहां पर  आप ईश्‍वर के साथ एकरूप  महसूस करते हैं। यह उत्तराखंड में टनकपुर से 22 किलोमीटर, पिथौरागढ़ से  171 किलोमीटर और चंपावत से 95 किलोमीटर की दूरी पर समुद्र तल से 3000 मीटर  की ऊंचाई पर स्थित है।
काली नदी के तट पर स्थित यह पवित्र स्थान 108 सिद्ध  पीठों में से एक है। नवरात्र के दौरान यहां पर बहुत से मेले लगते हैं जब  आस-पास के इलाकों से बड़ी संख्या में श्रद्धालु देवी पूर्णागिरि के दर्शन  और पूजा के लिए पहुंचते हैं। यह मेला विशुवत संक्रांति से शुरू होकर चालीस  दिनों तक चलता है।
यहां  माता पूर्णागिरि के मंदिर में हजारों भक्त दर्शन के लिए आते हैं जो खासतौर  पर मार्च और अप्रैल के बीच चैत्र नवरात्र के समय आते हैं। यहीं से काली  नदी पहाड़ों से मैदानों में उतरती है।
इस तीर्थस्थान के लिए आप किसी गाड़ी  से थुलीगढ़ तक जाकर वहां से पैदल जा सकते हैं। बांस की चढ़ाई के बाद हनुमान चट्टी आता है जहां से ‘पुण्य पर्वत’ का दक्षिण-पश्चिमी हिस्सा दिखता है।
पूर्णागिरि  के सबसे ऊंचे बिंदु से काली नदी, उसके द्वीपों, टनकपुर शहर और कुछ नेपाली  गांवों का खूबसूरत नजारा दिखता है। माता पूर्णागिरि के आगे माथा टेकने के  बाद आप ब्रह्मदेव में बाबा सिद्धनाथ और नेपाल में महेंद्र नगर में भी  पूजा-अर्चना के लिए जा सकते हैं।

M S JAKHI

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                                            पूर्णागिरि मन्दिर की गाथा
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किंवदन्ती है कि दक्ष प्रजापति की पुत्री पार्वती (सती) ने अपने पति  महादेव के अपमान के विरोध में दक्ष प्रजापति द्वारा आयोजित यज्ञ कुण्ड में  स्वयं कूदकर प्राण आहूति दे दी थी। भगवान विष्णु ने अपने चक्र से महादेव  के क्रोध को शान्त करने के लिए सती पार्वती के शरीर के ६४ टुकडे कर दिये।  वहॉ एक शक्ति पीठ स्थापित हुआ। इसी क्रम में पूर्णागिरि शक्ति पीठ स्थल पर  सती पार्वती की नाभि गिरी थी।यह स्थान चम्पावत से ९५ कि.मी.की  दूरी पर तथा टनकपुर से मात्र २५ कि.मी.की दूरी पर स्थित है। इस देवी दरबार  की गणना भारत की ५१ शक्तिपीठों में की जाती है। शिवपुराण में रूद्र संहिता  के अनुसार दश प्रजापति की कन्या सती का विवाह भगवान शिव के साथ किया गया  था।

 एक समय दक्ष प्रजापति द्वारा यज्ञ का आयोजन किया गया जिसमें समस्त  देवी देवताओं को आमंत्रित किया गया परन्तु शिव शंकर का अपमान करने की  दृष्टि से उन्हें आमंत्रित नहीं किया गया। सती द्वारा अपने पति भगवान शिव  शंकर का अपमान सहन न होने के कारण अपनी देह की आहुति यज्ञ मण्डप में कर दी  गई।

 सती की जली हुई देह लेकर भगवान शिव शंकर आकाश में विचरण करने लगे  भगवान विष्णु ने शिव शंकर के ताण्डव नृत्य को देखकर उन्हें शान्त करने की  दृष्टि से सती के शरीर के अंग पृथक-पृथक कर दिए। जहॉ-जहॉ पर सती के अंग  गिरे वहॉ पर शान्ति पीठ स्थापित हो गये। पूर्णागिरी में सती का नाभि अंग  गिरा वहॉ पर देवी की नाभि के दर्शन व पूजा अर्चना की जाती है।




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                             पूर्णागिरि मन्दिर का मार्ग दर्शन
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यह स्थान टनकपुर से मात्र १७ कि.मी. की दूरी पर है । अन्तिम १७ कि.मी. का  रास्ता श्रद्धालु अपूर्व आस्था के साथ पार करते हैं । नेपाल इसके बगल में  है ।समुद्र तल से ३००० मीटर की ऊचाई पर स्थित है।

पूर्णागिरी मन्दिर  टनकपुर से २० कि॰ मी॰, पिथौरागढ से १७१ कि॰मी॰ और चम्पावत से ९२ कि॰मी॰ की  दूरी पर स्थित है। पूर्णागिरी मे वर्ष भर तीर्थयात्रियो का भारत के सभी  प्रान्तो से आना लगा रहता है। विसेशकर नवरात्री ( मार्च-अप्रिल) के महीने  मे भक्त अधिक मात्रा मे यहा आते है। भक्त यहा पर दर्शनो के लिये भक्तिभाव  के साथ पहाड पर चढाई करते है।

पूर्णागिरी पुण्यगिरी के नाम से भी जाना  जाता है। यहा से काली नदी निकल कर समतल की ओर जाती है वहा पर इस नदी को  शारदा के नाम से जाना जाता है। इस तीर्थस्थान पर पहुचने के लिये टनकपुर से  ठूलीगाड तक आप वाहन से जा सकते हैं। ठूलीगाड से टुन्यास तक सडक का निर्माण  कार्य प्रगति पर होने के कारण पैदल ही बाकी का रास्ता तय करना होता है।

 ठूलीगाड से बांस की चढाई पार करने के बाद हनुमान चट्टी आता है। यहां से  पुण्य पर्वत का दक्षिण-पश्चिमी हिस्सा दिखने लगता है। यहां से अस्थाई बनाई  गयी दुकानें और घर शुरू हो जाते हैं जो कि टुन्यास तक मिलते हैं। यहा के  सबसे ऊपरी हिस्से (पूर्णागिरी) से काली नदी का फैलाव,टनकपुर शहर और कुछ  नेपाली गांव दिखने लगते हैं। यहां का द्रश्य बहुत ही मनोहारी होता है।  पुराना ब्रह्मदेव मण्डी टनकपुर से काफी नज़दीक है।

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यहाँ आने के लिये आप सड्क या रेल के द्वारा पहुच सकते है। यहाँ का निकटतम  रेलवे स्टेशन टनकपुर है। जो यहाँ से २० कि॰ मी॰ है। सड़क से यहाँ आने के  लिये मोटर मार्ग ठूलीगाड तक है जोकि टनकपुर से १४ कि॰ मी॰ है। उसके बाद  टुन्यास तक सडक का निर्माण कार्य चल रहा है जिसकी दूरी ५ कि॰मी॰ है।

 तत्पश्चात ३ कि॰मी॰ का रास्ता पैदल ही पूरा करना होता है। वायु मार्ग से  आने के लिए यहाँ का निकटतम हवाई अड़डा पन्तनगर है जो कि खटीमा नानकमत्त्था  के रास्ते १२१ कि॰ मी॰ की दूरी पर है।


उपलब्ध सुविधाएँ- यहाँ  अस्पताल, डाक घर, टेलीफोन, दवा की दूकाने आदि सामान्य सुविधा की वस्तुएँ  यहाँ उपलब्ध हैं। निकटतम पेट्रोल/डीज़ल पम्प टनकपुर में है एवम बाकी सभी  साधारण सुविधाओं के लिए टनकपुर सबसे पास का स्थान है।

यहाँ पर्यटन  के लिए सबसे उपयुक्त समय वर्षा ऋतु का है। सर्दी के मौसम में गरम कपड़े  ज़रूरी हैं। ग्रीष्म ऋतु मे हल्के ऊनी कपडों की ज़रूरत हो सकती है। यहाँ  कुमांउनी, हिन्दी और अंग्रेजी़ भाषा बोली जाती है।

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देवी पूर्णागिरि का खूबसूरत मंदिर आपको एक अलग सा  आध्यात्मिक अनुभव देता है। मंदिर जाने के लिए चढ़ाई करते भक्त देवी  पूर्णागिरि का आशीर्वाद प्राप्त करने के लिए भजन गाते चलते हैं। 

पूर्णागिरि से 22 किलोमीटर दूर टनकपुर  शारदा नदी के किनारे स्थित एक शांत और छोटा सा शहर है। यह तराई में स्थित  है और कुमाऊं जाने के रास्ते में आखिरी समतल मैदान है। यह कैलाश-मानसरोवर  यात्रा का प्रथम बिंदु भी है।
चंपावत प्रकृति  प्रेमियों के लिए स्वर्ग है। यहां की खुशनुमा जलवायु से लेकर यहां का वन्य  जीवन और ट्रेकिंग के लिए अच्छी जगहें मन को खुश कर देती हैं। चंपावत लंबे  समय तक कुमाऊं के शासकों की राजधानी रही। चंपावत में चंद शासकों के किले  के अवशेष देखे जा सकते हैं। इस शहर में स्थित बालेश्वर और रत्‍नेश्वर  मंदिरों की खूबसूरत नक्काशी देखने योग्य है।
उत्तराखंड के सबसे पूर्वी पहाड़ी जिले पिथौरागढ़ को  अक्सर मिनी कश्मीर कहा जाता है। यह जिला 1960 में अल्मोड़ा जिले को काटकर  बनाया गया था। इसके उत्तर में चीन (तिब्बत) और पूर्व में नेपाल की सीमा  लगती है।

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                              पूर्णागिरि मन्दिर दर्शन के बाद पूरी होती हैं आपकी मनोकामना
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उत्तराखंड में स्थित अनेकों देवस्थलों में दैवीय-शक्ति व आस्था के अद्भुत  केंद्र बने पूर्णागिरि धाम की विशेषता ही कुछ और है। जहां अपनी मनोकामना  लेकर लाखों लोग बिना किसी नियोजित प्रचार व आमंत्रण के उमड पडते हैं जिसकी  उपमा किसी भी लघु-कुंभ से दी जा सकती है। टनकपुर से टुण्यास तक का संपूर्ण  क्षेत्र जयकारों व गगनभेदी नारों से गूंज उठता है।

 वैष्णो देवी की ही  भांति पूर्णागिरि मंदिर भी सभी को अपनी ओर आकर्षित किए रहता है। हिंदू हो  या मुस्लिम, सिख हो या ईसाई- सभी पूर्णागिरि की महिमा को मन से स्वीकार  करते हैं। देश के चारों दिशाओं में स्थित कालिकागिरि, हेमलागिरि व  मल्लिकागिरि में मां पूर्णागिरि का यह शक्तिपीठ सर्वोपरि महत्व रखता है। 

समुद्रतल से लगभग 3 हजार फीट ऊंची धारनुमा चट्टानी पहाड के पूर्वी छोर पर  सिंहवासिनी माता पूर्णागिरि का मंदिर है जिसकी प्रधान पीठों में गणना की  जाती है। संगमरमरी पत्थरों से मण्डित मंदिर हमेशा लाल वस्त्रों,  सुहाग-सामग्री, चढावा, प्रसाद व धूप-बत्ती की गंध से भरा रहता है।

 माता का  नाभिस्थल पत्थर से ढका है जिसका निचला छोर शारदा नदी तक गया है। देवी की  मूर्ति के निकट स्थित इस स्थल पर ही भक्तगण प्रसाद चढाते व पूजा करते हैं।  मंदिर में प्रवेश करते ही कई मीटर दूर से पर्वत शिखर पर यात्रियों की  सुरक्षा के लिए लगाई गई लोहे के लंबे पाइपों की रेलिंग पर रंग-बिरंगी  पोलोथीन पन्नियों व लाल चीरों को बंधा देकर यात्रीगण विस्मित से रह जाते  हैं।

देवी व उनके भक्तों के बीच एक अलिखित अनुबंध की साक्षी ये रंग-बिरंगी  लाल-पीली चीरें आस्था की महिमा का बखान करती हैं। मनोकामना पूरी होने पर  फिर मंदिर के दर्शन व आभार प्रकट करने और चीर की गांठ खोलने आने की  मान्यता भी है। टनकपुर से टुण्यास व मंदिर तक रास्ते भर सौर ऊर्जा से  जगमगाती ट्यूबलाइटें, सजी-धजी दुकानें, स्टीरियो पर गूंजते भक्तिगीत,  मार्ग में देवी-देवताओं की प्रतिमाएं, देवी के छंद गाती गुजरती स्त्रियों  के समूह सभी कुछ जंगल में मंगल सा अनोखा दृश्य उपस्थित करते हैं।

 रात हो  या दिन चौबीस घंटे मंदिर में लंबी कतारें लगी रहती हैं। मस्तक पर लाल चूनर  बांध या कलाई में लपेटे भूख प्यास की चिंता किए बिना जोर-जोर से जयकारे  लगाते लोगों की श्रद्धा व आध्यात्मिक अनुशासन की अद्भुत मिसाल यहां बस  देखते ही बनती है।



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चारों ओर बिखरा प्राकृतिक सौंदर्य  ऊंची चोटी पर अनादि काल से स्थित माता पूर्णागिरि का मंदिर व वहां के  रमणीक दृश्य तो स्वर्ग की मधुर कल्पना को ही साकार कर देते हैं।
नीले आकाश  को छूती शिवालिक पर्वत मालाएं, धरती में धंसी गहरी घाटियां, शारदा घाटी  में मां के चरणों का प्रक्षालन करती कल-कल निनाद करती पतित पावनी सरयू,  मंद गति से बहता समीर, धवल आसमान, वृक्षों की लंबी कतारें, पक्षियों का  कलरव- सभी कुछ अपनी ओर आकर्षित किए बिना नहीं रहते।

चैत्र व शारदीय नवरात्र प्रारंभ होते ही लंबे-लंबे बांसों पर लगी लाल  पताकाएं हाथों में लिए सजे-धजे देवी के डोले व चिमटा, खडताल मजीरा, ढोलक  बजाते लोगों की भीड से भरी मिनी रथ-यात्राएं देखते ही बनती हैं। वैसे  श्रद्धालुओं का तो वर्ष भर आवागमन लगा ही रहता है।

 यहां तक कि नए साल, नए  संकल्पों का स्वागत करने भी युवाओं की भीड हजारों की संख्या में मंदिर में  पहुंच साल की आखिरी रात गा-बजा कर नए वर्ष में इष्ट मित्रों व परिजनों के  सुख, स्वास्थ व सफलता की कामना करती हैं।

मंदिर में दर्शन के बाद निकट ही  नेपाल में स्थित ब्रह्मदेव बाजार में उपलब्ध दैनिक उपयोग की विदेशी  वस्तुएं खरीदने के लोभ से भी लोग बच नहीं पाते। जूता, जींस, छाता, कपडा व  इलेक्ट्रॉनिक वस्तुएं वहां आसानी से मिल जाती है।


प्रचुरता पर्यटन-स्थलों की   पर्यटन में दृष्टिकोण से टनकपुर व पूर्णागिरि का संपूर्ण क्षेत्र अत्यंत  महत्वपूर्ण है। प्राचीन ब्रह्मदेव मंडी, परशुराम घाट,  ब्रह्मकुंड, सिद्धनाथ समाधि, बनखंडी महादेव, ब्यान, धुरा,




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वैष्णो देवी की ही  भांति पूर्णागिरि मंदिर भी सभी को अपनी ओर आकर्षित किए रहता है। हिंदू हो  या मुस्लिम, सिख हो या ईसाई-सभी पूर्णागिरि की महिमा को मन से स्वीकार  करते हैं। देश के चारों दिशाओं में स्थित कालिकागिरि, हेमलागिरि व  मल्लिकागिरि में मां पूर्णागिरि का यह शक्तिपीठ सर्वोपरि महत्व रखता है
कहा  जाता है कि जो भक्त सच्ची आस्था लेकर पूर्णागिरी की दरबार में आता है,  मनोकामना साकार कर ही लौटता है।

देवभूमि उत्तराखंड में स्थित अनेकों  देवस्थलों में दैवीय-शक्ति व आस्था के अद्भुत केंद्र बने पूर्णागिरि धाम  की विशेषता ही कुछ और है। जहां अपनी मनोकामना लेकर लाखों लोग बिना किसी  नियोजित प्रचार व आमंत्रण के उमड़ पड़ते हैं, जिसकी उपमा किसी भी लघु-कुंभ  से दी जा सकती है। टनकपुर से टुण्यास तक का संपूर्ण क्षेत्र जयकारों व  गगनभेदी नारों से गूंज उठता है।

वैष्णो देवी की ही भांति पूर्णागिरि मंदिर  भी सभी को अपनी ओर आकर्षित किए रहता है। हिंदू हो या मुस्लिम, सिख हो या  ईसाई-सभी पूर्णागिरि की महिमा को मन से स्वीकार करते हैं। देश के चारों  दिशाओं में स्थित कालिकागिरि, हेमलागिरि व मल्लिकागिरि में मां पूर्णागिरि  का यह शक्तिपीठ सर्वोपरि महत्व रखता है।


 समुद्रतल से लगभग तीन हजार फीट  ऊंची धारनुमा चट्टानी पहाड़ के पूर्वी छोर पर सिंहवासिनी माता पूर्णागिरि  का मंदिर है जिसकी प्रधान पीठों में गणना की जाती है। संगमरमरी पत्थरों से  मण्डित मंदिर हमेशा लाल वस्त्रों, सुहाग-सामग्री, चढ़ावा, प्रसाद व  धूप-बत्ती की गंध से भरा रहता है। माता का नाभिस्थल पत्थर से ढका है जिसका  निचला छोर शारदा नदी तक गया है।

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                                                         पूर्णागिरी मेला
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नैनीताल जनपद के पड़ोस में और पिथौरागढ़ जनपद  में अवस्थित पूर्णागिरी का मंदिर अन्नपूर्णा शिखर पर ५५०० फुट की ऊँचाई पर  है । कहा जाता है कि दक्ष प्रजापति की कन्या और शिव की अर्धांगिनी सती की  नाभि का भाग यहाँ पर विष्णु चक्र से कट कर गिरा था । प्रतिवर्ष इस शक्ति  पीठ की यात्रा करने आस्थावान श्रद्धालु कष्ट सहकर भी यहाँ आते हैं । यह  स्थान टनकपुर से मात्र १७ कि.मी. की दूरी पर है ।

अन्तिम १७ कि.मी. का  रास्ता श्रद्धालु अपूर्व आस्था के साथ पार करते हैं ।
लेकिन शरद् ॠतु की नवरात्रियों के स्थान पर मेले का आनंद चैत्र की  नवरात्रियों में ही अधिक लिया जा सकता है क्योंकि वीरान रास्ता व इसमें  पड़ने वाले छोटे-छोटे गधेरे मार्ग की जगह-जगह दुरुह बना देते हैं । चैत्र  की नवरात्रियों में लाखों की संख्या में भक्त अपनी मनोकामना लेकर यहाँ आते  हैं ।

 अपूर्व भीड़ के कारण यहाँ दर्शनार्थियों का ऐसा ताँता लगता है कि  दर्शन करने के लिए भी प्रतीक्षा करनी पड़ती है । मेला बैसाख माह के अन्त तक  चलता है ।               ऊँची चोटी पर गाढ़े गये त्रिशुल आदि ही शक्ति के उस स्थान को इंगित करते हैं जहाँ सती का नाभि प्रवेश गिरा था ।  पूर्णगिरी क्षेत्र की महिमा और उसके सौन्दर्य से एटकिन्सन भी बहुत अधिक प्रभावित था उसने लिखा है -

"पूर्णागिरी के मनोरम दृष्यों की विविधता एवं प्राकृतिक सौन्दर्य की महिमा  अवर्णनीय है, प्रकृति ने जिस सर्व व्यापी वर सम्पदा के अधिर्वक्य में इस  पर्वत शिखर पर स्वयं को अभिव्यक्त किया है, उत्तरी और दक्षिणी अमेरिका का  कोई भी क्षेत्र शायद ही इसकी समता कर सके किन्तु केवल मान्यता व आस्था के  बल पर ही लोग इस दुर्गम घने जंगल में अपना पथ आलोकित कर सके हैं ।"



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 यह स्थान महाकाली की पीठ माना जाता है,  नेपाल इसके बगल में है । जिस चोटी पर सती का नाभि प्रदेश गिरा था उस  क्षेत्र के वृक्ष नहीं काटे जाते । टनकपुर के बाद ठुलीगाढ़ तक बस से तथा  उसके बाद घासी की चढ़ाई चढ़ने के उपरान्त ही दर्शनार्थी यहाँ पहुँचते हैं  । रास्ता अत्यन्त दुरुह और खतरनाक है । क्षणिक लापरवाही अनन्त गहराई में  धकेलकर जीवन समाप्त कर सकती है । नीचे काली नदी का कल-कल करता रौख स्थान  की दुरुहता से हृदय में कम्पन पैदा कर देता है । रास्ते में टुन्नास नामक  स्थान पर देवराज इन्द्र ने तपस्या की, ऐसी भी जनश्रुती है ।
         
  मेले के लिए विशेष बसों की व्यवस्था की जाती है जो टनकपुर से ठुलीगाढ़ तक  निसपद पहुँचा देती है । भैरव पहाड़ और रामबाड़ा जैसे रमणीक स्थलों से गुजरने  के बाद पैदल यात्री अपने विश्राम स्थल टुन्नास पर पहुँचते हैं जहाँ भोजन  पानी इत्यादि की व्यवस्थायों हैं । यहाँ के बाद बाँस की चढ़ाई प्रारम्भ  होती है जो अब सीढियाँ बनने तथा लोहे के पाइप लगने से सुगम हो गयी है ।  मार्ग में पड़ने वाले सिद्ध बाबा मंदिर के दर्शन जरुरी हैं ।
         
  रास्ते में चाय इत्यादि के खोमचे मेले के दिनों में लग जाते हैं । नागा  साधु भी स्थान-स्थान पर डेरा जमाये मिलते हैं । झूठा मंदिर के नाम से  ताँबे का एक विशाल मंदिर भी मार्ग में कोतूहल पैदा करता है ।
         
  प्राचीन बह्मादेवी मंदिर, भीम द्वारा रोपित चीड़ वृक्ष, पांडव रसोई आदि भी  नजदीक ही हैं । ठूलीगाड़ पूर्णागिरी यात्रा का पहला पड़ाव है ।
         
  झूठे मंदिर से कुछ आगे चलकर काली देवी तथा महाकाल भैंरों वाला का प्राचीन  स्थान है जिसकी स्थापना पूर्व कूमार्ंचल नरेश राजा ज्ञानचंद के विद्वान  दरबारी पंडित चंद्र त्रिपाठी ने की थी । मंदिर की पूजा का कार्य  बिल्हागाँव के बल्हेडिया तथा तिहारी गाँव के त्रिपाठी सम्भालते हैं ।
         
  वास्तव में पूर्णागिरी की यात्रा अपूर्व आस्था और रमणीक सौन्दर्य के कारण  ही बार-बार श्रद्धालुओं और पर्यटकों को भी इस ओर आने को उत्साहित सा करती  है । इस नैसर्गिक सौन्दर्य को जो एक बार देश लेता है वह अविस्मरणीय आनंद  से विभोर होकर ही वापस जाता है । कुमाऊँ क्षेत्र के कुमैंये, पूरब निवासी  पुरबिये, थरुवाट के थारु, नेपाल के गौरखे, गाँव शहर के दंभ छोड़े निष्कपट  यात्रा करने वाले श्रद्धालु मेले की आभी को चतुर्दिक फैलायो रहते हैं ।

 

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