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Lohaghat : Hill Station - लोहाघाट

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Anubhav / अनुभव उपाध्याय:
 चंद शासन के दौरान लोहाघाट एक सांस्कृतिक केंद्र था। कुछ किलोमीटर दूर चंपावत आधारित राजाओं ने कला एवं हस्तकला, विचारकों तथा बौद्धिकों को प्रोत्साहित तथा बढ़ावा दिया। शहर के बौद्धिक विकास में 19वीं सदी के उत्तरार्द्ध में स्वामी विवेकानंद द्वारा स्थापित अद्वैत आश्रम का भी भारी योगदान रहा था। लोहाघाट साबर नाम के जूते, जिसे भारत के अन्य भागों में भेजा जाता, तथा तांबे व लोहे के बर्तनों एवं खासकर कढ़ाई की कारीगरी के लिये भी प्रसिद्ध था। भारत, नेपाल तथा तिब्बत के साथ व्यापार में भी भारत उन्नतिशील केंद्र था जो वर्ष 1962 के भारत-चीन युद्ध के कारण एकाएक ठप्प पड़ गया।

गीत एवं नृत्य
अपने आवास पर्वतों की सुंदरता एवं दूरता के कारण इस क्षेत्र के लोग अपनी विशिष्ट सांस्कृतिक परंपरा को बचाये रखने में सक्षम हुए है जो नृत्यों एवं गीतों में दिखाई पड़ता है। अधिकांश गीतों एवं नृत्यों की प्रकृति धार्मिक या फिर ये लोगों की पारंपरिक जीवन-शैली खासकर कृषि के तौर-तरीकों के प्रतीक हैं। वास्तव में लोहाघाट के सर्वोत्तम लोकगीतों में से एक ‘वोडू पाको बार मासौ’ एक स्थायी फल से संबंधित है।

प्रत्येक समारोहों में लोकगीत एवं नृत्य होते हैं। इन अवसरों पर देवी-देवताओं को उपस्थित होने के लिये विभिन्न देवताओं को आमंत्रित करने के लिये भक्तिपरक गीत या जागर गान होता है। इसके अलावा चांचरी जैसे मनोरंजक नृत्य में पुरूष एवं महिलायें दोनों भाग लेते हैं जो समूह नृत्य एवं गान हैं।

हुड़किया बोल कृषि से संबद्घ है। इसमें खास तौर पर सामूहिक पौधे रोपने या धान के खेतों की तैयारी करते समय एक हुड़किया हुडका बजाते हुए स्थानीय देवताओं की प्रशंसा में भक्तिगीत गाया जाता है ताकि वे अच्छी फसल का आशीर्वाद दें, एवं खेतों में काम करती महिलाएं गाने में साथ देती हैं।

विवाहों तथा मेलों के अवसर पर किया जाने वाला छोलिया नृत्य में युद्ध कला का प्रदर्शन होता है। दो या इससे अधिक लोग एक हाथ में ढाल तथा दूसरे हाथ में तलवार लेकर घात-प्रतिघात तथा बचाव की मुद्रा पेश करते हुए ढोल, दामौ, रणसिंघे एवं तुरही की धुन पर थिरकते हैं।

इस क्षेत्र की लोक साहित्य परंपरा काफी समृद्ध है, जिसमें स्थानीय/राष्ट्रीय मिथकों, नायकों, नायिकाओं, बहादुरी के कारनामों तथा प्रकृति के विभिन्न पहलुओं का समावेश होता है। गीतों में पृथ्वी के सृजन, देवी-देवताओं, स्थानीय वंशों/नायकों तथा रामायण  एवं महाभारत के पात्रों का वर्णन होता है। सामान्यत: इन गीतों का आधार स्थानीय इतिहास की घटनाओं से होता है तथा भड़ाऊ सामान्यत: सामूहिक कृषि-कार्यों के दौरान किया जाता है तथा हुडकिया बोल एवं अन्य गीत विभिन्न सामाजिक एवं सांस्कृतिक अवसरों पर गाया जाता है। इसी प्रकार भोटिया जनजाति के शौका लोगों का अपना लोकगीत एवं नृत्य होता है। इनका आयोजन प्रमुखत: उत्सवों एवं सामाजिक समारोहों के अवसर पर होता है।

बोली की भाषाएं
कुमाऊंनी, हिन्दी, नेपाली तथा खडी।

वास्तुकला
लोहाघाट के पुराने घरों का निर्माण मोटे पत्थरों की दीवारों एवं छतों से हुआ है तथा उनके रहने के स्थान तक एक संकरे लकड़ी के सीढ़ीनुमा ढांचे द्वारा पहुंचा जा सकता है। नीचे की मंजिलों में पहले मवेशी रखे जाते थे, पर अब इनका इस्तेमाल भंडार घरों की तरह होता है। आज उत्तरी-भारत की तरह ही यहां भी कंक्रीट एवं सीमेंट से बने घरों का चलन हो गया है।

Anubhav / अनुभव उपाध्याय:
लोहाघाट के अधिकांश लोगों के पूर्वज उत्तरी-भारत के मैदानों से आकर पीढ़ियों पहले इस पहाड़ी पर बस गये तथा कोलो के वंशज वे शिल्पकार हैं जो यहां के मूलवासी थे। हाल के वासियों में भोटिया जनजाति के लोग हैं जो वर्ष 1962 के बाद अपनी आव्रजक जीवन-शैली एवं व्यवसाय को जारी रखने की असमर्थता के कारण यहीं बस गये तथा कुछ नेपाली भी हैं जो पास ही सीमा को पार कर यहां बसे।

इस क्षेत्र के लोगों की मुख्य आजीविका कृषि एवं पशुपालन रही है और आज भी ऐसा ही है। भंगीरा एवं मडुआ दाने तथा गेहूं एवं चावल परंपरागत रूप से सीड़ीनूमा खेतों में पैदा होते हैं और यहां प्राय: महिलाएं ही खेतों में कार्य करती हैं क्योंकि पुरूष रोजगार की तलाश में उत्तरी-भारत के मैदानों की ओर चले जाते हैं। हाल ही में आलू पैदा करना एवं सेव, केले तथा संतरों के बागीचों को लगाना भी एक प्रिय खेती हो चला है।

इन परंपरागत आजीविकाओं के अलावा साबर बनाना, यहां की प्रसिद्घ जूते-चप्पलें तथा चर्म उद्योग शामिल थे। यहां से जूते निर्माताओं को चमड़े की आपूर्ति तथा धातु के बर्तनों पर नक्काशी, आदि की जाती थी। दुर्भाग्यवश इन दोनों कार्यों को अब नहीं किया जाता, धातु कारगरी का स्थान अब लोहे के उपकरणों ने ले लिया है।

फिर भी, लोगों ने व्यापार तथा वाणिज्य की अपनी पारंपरिक कुशलता को बनाये रखा है। इनमें से कुछ अब पर्यटन उद्योग की आवश्यकताओं की पूर्ति के कार्यों में लग गये हैं।

चंपावत जिले में लोगों ने इस क्षेत्र की परंपरागत लोक कलाओं को जीवित रखा है। इसमें ऐपन शामिल हैं जो सजावट के कार्यों, धार्मिक अवसरों के लिये ज्यामितिक रूपरेखा में रेखा कला का उपयोग करना होता है तथा इसमें चावल का पीठा, लाल छनी मिट्टी तथा वनस्पति रंगों का इस्तेमाल होता है।

Anubhav / अनुभव उपाध्याय:
लोहाघाट लंबे देवदार के जंगलों तथा बुराँज पेड़ों के बीच लोहावती नदी के किनारे अवस्थित है और यह चंपावत जिले का एक मनमोहक एवं सुंदर स्थान है। वास्तव में, यहां आने वाले प्रथम यूरोपीय पी बैरोन्स इसकी प्राकृतिक मनोहरता देखकर स्तब्ध रह गये। उनके विचार में यह शिमला से भी अधिक सुंदर है तथा उन्हें आश्चर्य हुआ कि अंग्रेजी सरकार इसे ग्रीष्म कालीन राजधानी के रूप में विकसित क्यों नहीं कर रही।

वनस्पतियां
लोहाघाट ऊंचे देवदारों तथा मजबूत बुराँज के पेड़ों के बीच स्थित है तथा बसंत ऋतु में इसके चारों ओर बुराँज पेड़ों के समूह दिखाई पड़ते हैं। पास की प्रवाहित नदी तथा कुछ दूरी पर पूर्वी हिमालयी ऋंखला का दृश्य शहर को प्रकृति प्रेमी का स्वर्ग बना देता है।

जीव-जन्तु
शहर को घेरे घने जंगलों में, विभिन्न प्रकार के जानवर पाये जाते हैं। सालभर हिरणों एवं बंदरों की भरमार दिखाई पड़ती है तथा इसके अलावा गर्मियों एवं जाड़ों दोनों मौसमों में कई प्रकार के आव्रजक पक्षियों का आना-जाना लगा रहता है। जाड़ों में शहर के इर्द-गिर्द पेड़ों के बीच कठफोड़वा तथा इसी प्रकार की कई प्रजातियों की वृद्धि होती है। गर्मियों में यहां प्राय: लाल रंग के पक्षी, बकवादी पक्षी, सारिकाएं तथा बुलुबुल की कई प्रजातियां जिनमें शामिल हैं– असामान्य काले बुलबुल, आदि को देखा जा सकता है। अधिक उत्साही लोग नीचे उतरकर नदी की ओर जाते हुए भौरों तथा कई तेज उड़ने वाली गौरैयों को देख पाते हैं, जो वहां अपने घोंसलों के लिये मिट्टी जमा करने आते हैं।

Anubhav / अनुभव उपाध्याय:


मायावती में अद्वैत आश्रम

Anubhav / अनुभव उपाध्याय:


बाणासुर किला।

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