Author Topic: Route For Various Places In Uttarakhand - उत्तराखंड कैसे पहुचे  (Read 8551 times)

सुधीर चतुर्वेदी

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How to Reach Lohaghat & Champawat from Delhi

START at New Delhi20 km
NH-24Through Nizamuddin Bridge via Ghazipur Border & Dabar Chowk

Mohan Nagar
4 kmAt Mohan Nagar T Junction, Turn Right & then left from Ghaziabad border traffic light on to NH 24 Hapur Road

Ghaziabad
40 kmContinue on NH 24 - towards Dasna, Pilkhuwa, Hapur Byepass before Hapur City

Babugarh
49 kmContinue on NH 24 via Kuchesar, Garhmukhteshwar

Gajraula
22 kmGo on NH 24 towards Salarpur, Rajabpur

Joya
34 kmContinue on NH 24 and take Moradabad Byepass before Moradabad City

Moradabad
23 kmContinue on NH 24 - towards Rampur

Rampur
25 km
NH-87At Rampur Turn Left for NH 87 and move towards Bilaspur

Bilaspur15 kmGo Straight on NH 87


Rudrapur

25 kmContinue on NH 87 via Chhatarpur and take left from T junction point

Lalkuan
16 kmGo on NH 87

Haldwani
5 kmContinue on NH-87 - towards Kathgodam

Kathgodam
17 kmGo Straight on NH 87 cross Ranibagh, Dungsil Shah

Bhimtal
3 km
SH-37Go on SH 37

Khutani
14 kmContinue on SH 37

Padampuri
13 kmContinue on SH 37 via Dhari

Dhanachuli Bend
15 kmGo on SH 37 cross Paharpani

Shilalekh
8 kmGo on SH 37

Shahr Phatak
36 kmGo Straight on SH 37 via Mornaula, Galiabend

Devidhura
18 kmContinue on

Chhilka Chhina
27 kmGo on SH 37 cross Dunaghat, Ketikhan, Karan Karyat


END                     at                               Lohaghat


13 Km go on NH 125   Champawat

Rajen

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From Rudrapur I take Kichcha, Sitarganj, Khatima, Banbasa, Tanakpur, Chalthi, Champawat, Lohaghat.......... Pithoragarh.


I have never travelled via Bhimtal - Khutani - Lohaghat.  How is the Road condition?

सुधीर चतुर्वेदी

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राजन जी वाया रुद्रपुर शोर्ट रास्ता है चम्पावत, लोहाघाट, पिथोरागढ़ के लिये पर सुखीधांग से चल्थी उस्से आगे तक रास्ता काफी ख़राब हो गया बरसात मे रास्ता बंद हो जाता है नहीं तो धुल बहुत आती है |

वाया हल्द्वानी रास्ता काफी लम्बा हो जाता है यानि दुगना लेकिन रास्ता ठीक है साफ़ - सुथरा





From Rudrapur I take Kichcha, Sitarganj, Khatima, Banbasa, Tanakpur, Chalthi, Champawat, Lohaghat.......... Pithoragarh.


I have never travelled via Bhimtal - Khutani - Lohaghat.  How is the Road condition?


Rajen

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बिलकुल सही कहा आपने.  ये रास्ता अक्सर ख़राब रहता है लेकिन हल्द्वानी के रस्ते में चल्थी और चम्पावत वाला "वो" वाला खीरे का रायता शायद ही मिले.   ;D

सुधीर चतुर्वेदी

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हा राजन जी यह रायता तो आपको वाया हल्द्वानी नहीं मिलेगा | लकिन आप चलते - चलते माँ बरही धाम (देवीधुरा ) के दर्शन जरुर कर लेंगे|

हम लोग तो यही चाहते है की जल्द से जल्द टनकपुर से तवाघाट वाला रास्ता ठीक हो जाये कम से यह रास्ता हल्द्वानी की अपेक्षा शोर्ट तो है और रायता अलग से 

बिलकुल सही कहा आपने.  ये रास्ता अक्सर ख़राब रहता है लेकिन हल्द्वानी के रस्ते में चल्थी और चम्पावत वाला "वो" वाला खीरे का रायता शायद ही मिले.   ;D


एम.एस. मेहता /M S Mehta 9910532720

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कस्तूरी की खुशबू खींच लाएगी जहां बेरीनाग

मौसम इतना ठंडा कि शाम को टैरेस पर बैठना मुश्किल। कंपकंपाते हाथों से कोई पहाड़ी चाय का आनंद ले रहा है तो कोई गुम है दूर दिख रही श्रृंखलाओं को निहारने में। शहरों में रहने वाले लोग जहां उमस भरी गर्मी से बेचैन हो रहे हैं, वहीं आप इस वीकएंड पर जा सकते हैं इस जगह यानी बेरीनाग, जहां प्रकृति और आपके बीच और कोई नहीं होगा।

उत्तराखंड के जिला पिथौरागढ़ में स्थित यह हिल स्टेशन देश के सुंदरतम हिल स्टेशनों में से एक है। बेरीनाग मंदिरों के अलावा चाय बागानों के लिए भी मशहूर है। चाय उत्पादन के लिए यहां का मौसम उत्तम माना जाता है, जिससे स्थानीय लोगों को रोजगार भी मिल रहा है। यहां सड़क मार्ग से आसानी से पहुंचा जा सकता है। यहां से हिमालय का एक अलग नजारा देखने को मिलता है। यह एक छोटा-सा हिल स्टेशन है। इस क्षेत्र में बहुत से नाग मंदिर हैं मसलन धौरीनाग, फेनीनाग, कालीनाग, बासुकीनाग, पिंगलिनाग और हरिनाग। बेरीनाग

वॉटरफॉल के लिए भी जाना जाता है, जो 50 मी ऊंचा है।  इसके अलावा त्रिपुरा देवी मंदिर, कोटेश्वर गुफा मंदिर, कोटमान्या का डियर पार्क भी देखने लायक स्थान हैं। डियर पार्क में कस्तूरी मृग को देखा जा सकता है। दरअसल कस्तूरी की खुशबू आपको यहां पहुंचने से करीब 7 किमी पहले से ही आने लगेगी। माना जाता है कि बेरीनाग नाम यहां हुए नागवेनी राजा बेनीमाधव के नाम पर पड़ा।

यहां घुमड़-घुमड़ कर कब बादल बरसने लगेंगे, आपके लिए अंदाज करना जरा मुश्किल होगा, इसलिए अपनी तैयारी कुछ इस तरह करके जाएं, जिससे घूमने-फिरने का मजा किरकरा न हो। दरअसल शहरों की और यहां होने वाली बारिश में बहुत अंतर होता है और आमतौर पर बारिश के बाद मौसम में ठंडक पहले से कहीं अधिक बढ़ जाती है। यहां की सुबह-शाम बेहद ठंडी हवाएं लिये होती हैं और यहां आकर होटल के कमरे में तो कैद कोई भी नहीं होना चाहेगा। इसलिए जब भी सैर-सपाटे पर निकलें तो मौसम के अनुसार कुछ गर्म कपड़े जरूर साथ रखें। यह क्षेत्र अपनी प्राकृतिक छटा व मौसम के लिहाज से देश के खूबसूरत पर्यटक स्थलों में से एक माना जाता है। इसके आसपास कोई ऊंची पहड़ियां नहीं हैं, जिससे इन उज्जवल पर्वत श्रृंखलाओं को देख पाना बेहद मनमोहक होता है। जब सुबह-सुबह का वक्त होता है तो बर्फीली पहाड़ियों पर सूरज की किरणें पड़ना, दोपहर व शाम के वक्त देखने का अलग-अलग नजारा भी क्या खूब होता है। प्राकृतिक सुन्दरता लिए मशहूर चौकोड़ी भी यहां से 10 किमी दूरी पर है। यह करीब 290 मी की ऊंचाई पर बसा है। बेरीनाग को जब चौकोड़ी से देखा जाता है तो ऐसा लगता है मानो आकाश के साथ जमीं पर तारे बिछा दिए गए हों। शहर की जलती रोशनी भी तारों सी झिलमिलाती दिखाई देती है। इस क्षेत्र का नजदीक शहर भी बेरीनाग ही है। यहीं से कुछ किमी की दूर पर है धर्माघर, जहां हिमदर्शन कुटीर भी है। जैसा नाम से ही पता चलता है, यहां से हिमालयन श्रृंखलाओं का नजारा देखने लायक होता है। धर्माघर के जंगलों में एशियाई भालू की विशेष प्रजाति की भी संख्या काफी अधिक है।

कहां ठहरें

नदी पार करके खूबसूरत व शांत जंगलों के बीच से गुजरते हुए आप जहां पहुंचेंगे, वहीं कुमाऊ मंडल विकास निगम का बंगला है, जो चौकोड़ी क्षेत्र के अंतर्गत आता है। कुमाऊ मंडल विकास निगम के गेस्ट हाउस में ठहरने के लिए अग्रिम बुकिंग जरूर करवाएं, वरना घूमने-फिरने का मजा किरकिरा हो सकता है। इसके अलावा कुछ प्राइवेट लॉज भी है, जिनमें अपनी सुविधानुसार ठहरा जा सकता है।

पहुंचने का रूट

दिल्ली से करीब 490 किमी दूर है बेरीनाग, जबकि नैनीताल से यही दूरी 183 किमी रह जाती है। यहां के लिए नजदीकी  रेलवे स्टेशन है काठगोदाम। इसके बाद आपको बस या टैक्सी से आगे का सफर तय करना होगा। आप चाहें तो काठगोदाम में एक दिन रुक भी सकते हैं, क्योंकि आगे का 214 किमी़ पहाड़ी सफर जो तय करना होगा। पिथौरागढ़ में स्थित नैनी-सैनी यहां के लिए सबसे करीबी हवाई अड्डा है, जहां से बेरीनाग की दूरी 123 किमी है। बेरीनाग, अल्मोड़ा से 134 किमी दूर है।


http://www.livehindustan.com/news/lifestyle/lifestylenews/50-50-124470.html

Devbhoomi,Uttarakhand

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                                          थोड़ा ठोडा हो जाए,देवुधुरा कुमाऊ
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हरियाली ओढे, सीढीनुमा खेतों से सजी, स्वास्थ्यव‌र्द्धक चीड व अन्य वृक्षों से आबाद पहाडियों के बीच मैदाननुमा खुली जगह पर चारों ओर भीड लगी है। सुंदर, सजीली, भोली, लजीली, कोमल पहाडी युवतियां मेले में पारंपरिक सलवार कुर्ता, घाघरा पहने सर पर चटकीले रंगबिरंगे ढाठू बांधे, मेले में लगी दुकानों पर खिलखिलाते हुए मंडरा रही हैं। उधर मैदान के हर ओर हजारों गांववासी मनपसंद परिधानों में जमे हुए प्रतीक्षा कर रहे हैं। गप्पे लड रही हैं, आंखें मटक रही हैं। पुराने संबंधियों व मित्रों से मुलाकातों के बीच अपनी पसंद का साथी खोजा जा रहा है। कहीं रोमांस भी अंकुरित हो रहा है। पहाडी नाटी के साथ साथ रीमिक्स भी बज रहा है। इसी सैलाब में बिखरे दूर-दूर से आए सैलानी भी खुद को माहौल के अनुरूप ढाल रहे हैं।

मैदान के आसपास रोमांच की सुगबुगाहट है, दर्शकों की बातचीत के बीच प्रतिस्पद्र्धा जवान हो रही है। मैदान के एक ओर से ढोल-नगाडे, शहनाई, रणसिंघा, करताल, मृदंग, दमामठू व तुरही की जोश बढाती रणभेरी सी आवाजों की बीच तलवारें, भाले, खुखरिया, डांगरे, लाठियां, बंदूकें व तीर-कमान लहराते हुए एक योद्धा दल युद्धस्थल की ओर बढ रहा है। मैदान के दूसरे छोर से आ रहा दूसरा दल भी जोश-खरोश के साथ अपने जौहर दिखाने को बेताब है। दोनों दलों के सदस्य व समर्थक कंधे उचकाकर एक-दूसरे के विरोधी लोकगीत गा रहे हैं। माहौल में उत्सव घुल गया है ठोडा के लिए सब तैयार हैं।

दुनिया में तीरंदाजी की कितनी ही शैलियां हैं मगर हिमाचल व उत्तराखंड की पर्वतावलियों के बाशिंदों की यह तीरकमानी अद्भुत व निराली है। माना जाता है कि कौरवों व पांडवों की यादें इन पर्वतीय क्षेत्रों में अभी तक रची-बसी हैं। ठोडा योद्धाओं में एक दल पाशी (पाश्ड, पाठा, पाठडे) यानी पांच पांडवों का है और दूसरा शाठी (शाठड, शाठा, शठडे) यानी कौरवों का। जनश्रुतियों के अनुसार कौरव साठ थे सो शाठड (साठ) कहे जाते हैं। कभी कबीलों में रह चुके यह दल अपने को कौरवों व पांडवों के समर्थन में लडे योद्धाओं का वशंज मानते हैं।

पहले ठोडा हो जाए

इसके लिए धनुर्धारी कमर से नीचे मोटे कपडे, बोरी या ऊन का घेरेदार वस्त्र लपेटते हैं या फिर चूडीदार वस्त्र (सूथन) पहनते हैं। मोटे-मोटे बूट, कहीं-कहीं भैंस के चमडे से बनाए गए घुटनों तक के जूते साधारण कमीज व जैकेट धारण होता है। पहाडी संस्कृति के विद्वान बताते हैं कि ठोडा का धणु (धनुष) डेढ से दो मीटर लंबा होता है और चांबा नामक एक विशेष लकडी से बनाया जाता है। शरी (तीर) धनुष के अनुपात में एक से डेढ मीटर का होता है और स्थानीय बांस की बीच से खोखली लकडी नरगली या फिरल का बनाया जाता है, जिसके एक तरफ खुले मुंह में अनुमानत दस बारह सेंटीमीटर की लकडी का एक टुकडा फिक्स किया जाता है जो एक तरफ से चपटा व दूसरी तरफ से पतला व तीखा होता है और नरगली के छेद से गुजारा जाता है। चपटा जानबूझ कर रखा जाता है ताकि प्रतिद्वंद्वी की टांग पर प्रहार के समय लगने पर ज्यादा चोट न पहुंचे। दिलचस्प यह है कि इस लकडी को ही ठोडा कहते हैं। इस खेल युद्ध में घुटने से नीचे तीर सफलता से लगने पर खिलाडी को विशेष अंक दिए जाते हैं। वहीं घुटने से ऊपर वार न करने का सख्त नियम है। जो करता है उसे फाउल करार दिया जाता है। ठोडा में अपने चुने हुए प्रतिद्वंद्वी की पिंडली पर निशाना साधा जाता है, दूसरे प्रतिद्वंद्वी पर नहीं। जिस व्यक्ति पर वार किया जाता है वह हाथ में डांगरा लिए नृत्य करते हुए वार को बेकार करने का प्रयास करता है। बच जाता है तो वह प्रतिद्वंद्वी का मजाक उडाता है, मसखरी करता है। इस तरह खेल-खेल में मनोरंजन हो जाता है और ठोडा खेलने वालों का जोश भी बरकरार रहता है। फिर दूसरा खिलाडी निशाना साधता है। लगातार जोश का माहौल बनाने वाले लोक संगीत के साथ-साथ खेल यूं ही आगे बढता रहता है। कई बार खेलने वाले जख्मी हो जाते हैं मगर ठोडा के मैदान में कोई पीठ नहीं दिखाता। खेल की समयावधि सूर्य डूबने तक निश्चित होती है। शाम उतरती है तो थकावट चढती है और रात मनोरंजन चाहती है। स्वादिष्ट स्थानीय खाद्यों के साथ मांस, शराब पेश की जाती है और नाच-गाना होता है। अगले दिन फिर ठोडा आयोजित किया जाता है।

पाशी और शाठी दोनों की परंपरागत खुन्नस शाश्वत मानी जाती है मगर खुशी गम और जरूरत के मौसम में वे मिलते-जुलते हैं और एक दूसरे के काम आते हैं। उनमें आपस में रिश्तेदारियां भी हैं। जब बिशु (बैसाख का पहला दिन) आता है तो पुरानी नफरत थोडी सी जवान होती है, गांव-गांव में युद्ध की तैयारियां शुरू हो जाती हैं जिसे किसी वर्ष शाठी आयोजित करते हैं तो कभी पाशी। कबीले का मुखिया बिशु आयोजन के दिन प्रात: कुलदेवता की पूजा करता है और अपने सहयोगियों के साथ ठोडा खेलने आ रहे लोगों के आतिथ्य और अपनी जीत के लिए मंत्रणा करता है। युद्ध प्रशिक्षण का अवशेष माने जाने वाले ठोडा में खेल, नृत्य व नाट्य का सम्मिश्रण है। धनुष बाजी का खेल, वाद्यों की झंकार में नृत्यमय हो उठता हैं। खिलाडी व नाट्य वीर रस में डूबे इसलिए होते हैं क्योंकि यह महाभारत के महायुद्ध से प्रेरित है। भारतीय संस्कृति के मातम के मौसम में पहाड वासियों ने लुप्त हो रही सांस्कृतिक परंपरा को जैसे-तैसे करके जीवित रखा है। कौशल, व्यायाम व मनोरंजन के पर्याय ठोडा को हमारी लोक संस्कृति के कितने ही उत्सवों में जगह मिलती है जहां पर्यटक भी होते हैं और स्थानीय लोग भी।

कहां, कब व कैसे

ठोडा आम तौर पर हर साल बैसाखी के दो दिनों- 13 व 14 अप्रैल को होता है। शिमला जिले के ठियोग डिवीजन, नारकंडा ब्लॉक, चौपाल डिवीजन, सिरमौर व सोलन में कहीं भी इसका आनंद लिया जा सकता है। नारकंडा, सिरमौर व सोलन- इन सभी स्थानों पर ठहरने की पर्याप्त व्यवस्था है।

दैनिक जागरण

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                                 नाग देवता का सेममुखेम की यात्रा कैसे करें
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दिल्ली से पहले पौडी और फिर श्रीनगर होते हुए हम पहुंचे गडोलिया नाम के छोटे से कस्बे में। यहां से एक रास्ता नई टिहरी के लिए जाता है तो दूसरा लंबगांव। हमने लंबगांव वाला रास्ता पकडा क्योंकि सेम नागराजा के दर्शनों के लिए लंबगांव होते हुए ही जाया जाता है। घुमावदार सडकों पर टिहरी झील का विस्तृत फलक साफ दिखाई दे रहा था। पुरानी टिहरी नगरी इसी झील के नीचे दफन हो चुकी है। हल्की धुंधली यादें पुरानी टिहरी की ताजा हो उठी, और मैं चारों और पसरी झील के पानी में पुराने टिहरी को देखने की कोशिश करने लगा। रास्ता जैसे-जैसे आगे बढता जा रहा था, मैं इस झील के पानी में पुरानी टिहरी की संस्कृति को ढूंढने की कोशिश कर रहा था। अतीत में खोए हुए मुझे पता नहीं चला कि कब में टिहरी झील को पीछे छोड आया और लंबगांव पहुंच गया। खैर मेरे ड्राइवर ने मेरी तंद्रा तोडी। लंबगांव सेम जाने वाले यात्रियों का मुख्य पडाव है। पहले जब सेम मुखेम तक सडक नहीं थी तो यात्री एक रात यहां विश्राम करने के बाद दूसरे दिन अपना सफर शुरू करते थे। यहां से 15 किलोमीटर की खडी चढाई चढने के बाद ही सेम नागराजा के दर्शन किए जाते थे। अब भी मंदिर से मात्र ढाई किलोमीटर नीचे तलबला सेम तक ही सडक है। फिर भी यात्रा काफी सुगम हो गई है। लंबगांव से आप 33 किलोमीटर का सफर बस या टैक्सी द्वारा तय करने के बाद तबला सेम पहुंच सकते हैं। जैसे-जैसे आप इस रास्ते पर बढते हैं, प्रकृति और सम्मोहन के द्वार खुद-ब-खुद खुलते जाते हैं। लंबगांव से 10 किलोमीटर का सफर तय करने के बाद हम पहुंचे कोडार जो लंबगांव से उत्तरकाशी जाते हुए एक छोटा सा कस्बा है। यहां हम बांई तरफ मुड गए। अब गाडी घुमावदार और संकरी सडकों पर चलने लगी थी। हम प्रकृति का आनंद उठाते चल रहे थे। यहां की मनभावन हरियाली आंखों को काफी सुकून पहुंचा रही थी। पहाडों के सीढीनुमा खेतों को हम अपने कैमरे में कैद करते जा रहे थे। कब 18 किलोमीटर का सफर कट गया पता ही नहीं चला। हम पहुंच गए मुखेम गांव- सेम मंदिर के पुजारियों का गांव। गंगू रमोला जो रमोली पट्टी का गढपति का था उसी का ये गांव है। गंगू रमोला ने ही सेम मंदिर का निर्माण करवाया था।

                कैसे पहुंचे

आप को बस या टैक्सी द्वारा टिहरी के लंबगांव कस्बे में पहुंचना होता है। यहां से यदि आप मंदिर तक पैदल सफर करना चाहें तो 15 किलोमीटर की चढाई चढनी होती है। लेकिन यदि आप टैक्सी से जाना चाहें तो आपको दस किलोमीटर आगे उत्तरकाशी मार्ग पर कोडार नामक कस्बे में पहुंचना होगा। वहां से बांई और करीब 23 किलोमीटर की दूरी तय करने के बाद आप तलबला सेम पहुंच सकते हैं और यहां करीब ढाई किलोमीटर की चढाई के बाद सेम नागराजा के दर्शन किए जा सकते हैं।

 

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