आज पहाड़ में समय बदल गया है | आज पहाड़ की नारी में वो नेतृत्व कि वह क्षमता है जो शहर की नारी में देखि जाती है | अपितु यह कहना अतिशयोक्ति नही होगी की वे शहर कि महिलाओ से बेहतर और कुशलता से अपने परिवार और समाज की जिम्मेदारी निभाती हैं |
बुटोला जी, मैं आपसे सहमत तो हूं, लेकिन पूर्णतया नहीं, पहाड़ सड़्क के किनारे बसने वाले गांव नहीं है, पहाड़ वह है, जहां पहुंचने के लिये आज भी १२-१२, १४-१४ कि०मी० पैदल चलना होता है। मेरी पीड़ा उन गांवो की है, जहां प्राथमिक शिक्षा के लिये भी ५ मील पैदल जाना होता है, इस स्थानों में महिला की भूमिका चूल्हा चौका और उसकी हाबीज़ घास-लकड़ी लाना तक ही सीमित है। इन गांवों में भी महिला प्रधान और जिला पंचायत बनेंगी, तो क्या जिलाधिकारी के चपरासी को भी बहुत बड़ा सैप समझने वाली नारियां, उसी जिलाधिकारी के सामने प्लान और नान प्लान के बजट पर बहस कर पायेंगी?
दूसरे गांव के मर्द से ना बोल पाने वाली ये महिलायें क्या नेतृत्व दे पायेंगी? अपना नाम तक ना लिख पाने वाली यह बेचारी महिलायें, जो अपने अधिकारों के लिये नहीं लड़ पाई, समाज से......वह समाज के अधिकारों के लिये कैसे लडॆ़ पायेंगी?