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SURPRISE & UNIQUE NEWS OF RELATED TO UTTARAKHAND- जरा हट के खबर उत्तराखंड की
एम.एस. मेहता /M S Mehta 9910532720:
जरा हट के खबर उत्तराखंड की
दोस्तों,
यहाँ पर उत्तराखंड की कुछ एसे खबरे देंगे दे देंगे आम खबरों से जरा हटे होंगे! इस प्रकार की खबरे आप यहाँ पर पोस्ट कर सकते है !
रेगार्ड्स,
एम् एस मेहता
एम.एस. मेहता /M S Mehta 9910532720:
14 फीट लंबा मिर्च का पेड़
Oct 13, 01:53 am
देहरादून, हो सकता है कि इस आश्चर्यजनक खबर पर यकीन न आए, लेकिन यह सोलह आने सच है। मिर्च का एक ऐसा पेड़ है, जिसकी लंबाई 14 फीट है और उसमें बारह में से आठ महीने मिर्च लगी रहती है। हालांकि, यह पेड़ जितना लंबा है, उसमें लगने वाली मिर्च उतनी ही छोटी। मिर्चो का तीखापन इतना कि एक पूरी मिर्च खाना ही मुश्किल हो जाता है।
इस अद्भुत पेड़ को देखने के लिए विकासनगर विकासखंड की जमनीपुर ग्राम पंचायत में आना होगा। गांव के निवासी मुकेश गौड़ पुश्तैनी काश्तकार हैं। एक वर्ष पूर्व उन्होंने घर में रखा मिर्च का बीज आंगन में बो दिया। उनसे पैदा हुए 5-6 पौधे अप्रत्याशित रूप से लंबे होने लगे। पांच पेड़ों की लंबाई लगभग 5-6 फीट पर आकर रुक गई, लेकिन एक पेड़ लंबा होता चला गया। इस समय इस पेड़ की लंबाई करीब 14 फीट है। पेड़ मुकेश गौड़ के मकान से भी ऊंचा हो गया है। इस पेड़ के बारे में जो भी सुनता है, उसे देखने जमनीपुर जरूर आता है। श्री गौड़ के मुताबिक, पेड़ पर हरे नहीं, बल्कि काले रंग की मिर्चे लगती हैं, जो बाद में लाल हो जाती हैं। मिर्चो की लंबाई मात्र आधे से पौन इंच तक होती है। ये मिर्चे देखने में छोटी जरूर हैं, लेकिन खाने में इतनी तीखी कि जीभ में लगते ही खाने वाले की नाक और आंख से पानी निकलने लगता है। मुकेश गौड़ का कहना है कि इस पेड़ पर मार्च से अक्टूबर तक लगातार मिर्च लगी रहती हैं। बहरहाल, यह अद्भुत पेड़ कई विशेषताएं लिए हुए पूरे क्षेत्र में चर्चा का विषय बना हुआ है।
http://in.jagran.yahoo.com/news/local/uttranchal/4_5_5859472.html
हेम पन्त:
Source : Dainik Hindustan
पूरे देश में दीपावली कार्तिक मास की अमावस्या को मनाई जाती है लेकिन पर्वतीय राज्य उत्तराखंड में कुछ जगहों पर यह त्योहार एक माह बाद मार्गशीर्ष (अगहन) मास की अमावस्या को मनाया जाता है। इन क्षेत्रों में इस दीवाली को (देवलांग) के नाम से जाना जाता है।
देशवासी जब कार्तिक मास की अमावस्या को दीवाली का जश्न मनाने में मशगूल रहते हैं तब टिहरी गढवाल और उत्तरकाशी के रवांई और देहरादून जिले के जौनसार बावर क्षेत्र के लोग सामान्य दिनों की तरह अपने कामधंधों में लगे रहते हैं। उस दिन वहां कुछ भी नहीं होता। इसके ठीक एक माह बाद मार्गशीर्ष (अगहन) अमावस्या को वहां दीवाली मनाई जाती है,जिसका उत्सव चार-पांच दिन तक चलता है।
इन क्षेत्रों में दीवाली का त्योहार एक माह बाद मनाने का कोई ठीक इतिहास तो नहीं मिलता है लेकिन इसके कुछ कारण लोग बताते हैं। कार्तिक मास में किसानों की फसल खेतों और आंगन में बिखरी पडी रहती है, जिसकी वजह से वे अपने काम में व्यस्त रहते हैं और एक माह बाद जब सब कामों से फुर्सत होकर घर में बैठते हैं, तब वहां दीवाली मनाई जाती है।
कुछ लोगों का कहना है कि लंका के राजा रावण पर विजय हासिल करके भगवान राम कार्तिक माह की अमावस्या को अयोध्या लौटे थे। इस खुशी में वहां दीवाली मनाई गई थी लेकिन यह समाचार इन दूरस्थ क्षेत्रों में देर से पहुंचा, इसलिए अमावस्या को ही केन्द्रबिंदु मानकर ठीक एक माह बाद दीपोत्सव मनाया जाता है।
एक अन्य प्रचलित कहानी के अनुसार एक समय टिहरी नरेश से किसी व्यक्ति ने वीर माधो सिंह भंडारी की झूठी शिकायत की, जिस पर उन्हें दरबार में तत्काल हाजिर होने का आदेश दिया गया। उस दिन कार्तिक मास की दीपावली थी। रियासत के लोगों ने अपने प्रिय नेता को त्योहार के अवसर पर राजदरबार में बुलाए जाने के कारण दीपावली नहीं मनाई और इसके एक माह बाद भंडारी के लौटने पर अगहन माह में अमावस्या को दीवाली मनाई गई।
ऐसा कहा जाता है कि किसी समय जौनसार बावर क्षेत्र में सामू शाह नाम के राक्षस का राज था, जो बहुत निरंकुश था। उसके अत्याचार से क्षेत्रीय जनता का जीना दूभर हो गया था, तब पूरे क्षेत्र की जनता ने उसके आतंक से मुक्ति दिलाने के लिए अपने ईष्टदेव महासू से प्रार्थना की। उनकी करुण पुकार सुनकर महासू देवता ने सामू शाह का अंत किया। उसी खुशी में यह त्योहार मनाया जाता है।
शिवपुराण और लिंग पुराण की एक कथा के अनुसार एक समय प्रजापति ब्रह्मा और सृष्टि के पालनहार भगवान विष्णु में श्रेष्ठता को लेकर आपस में संघर्ष होने लगा और वे एक-दूसरे के वध के लिए तैयार हो गए। इससे सभी देवी-देवता व्याकुल हो उठे और उन्होंने देवाधिदेव शिवजी से प्रार्थना की। शिवजी उनकी प्रार्थना सुनकर विवाद स्थल पर ज्योतिर्लिंग महाग्नि स्तम्भ के रूप में दोनों के बीच खडे हो गए। उस समय आकाशवाणी हुई कि दोनों में से जो इस ज्योतिर्लिंग के आदि और अंत का पता लगा लेगा, वही श्रेष्ठ होगा। ब्रह्माजी ऊपर को उडे और विष्णुजी नीचे की ओर। कई वर्षों तक वे दोनों खोज करते रहे लेकिन अंत में जहां से निकले थे, वहीं पहुंच गए। तब दोनों देवताओं ने माना कि कोई उनसे भी श्रेष्ठ है और वे उस ज्योतिर्मय स्तंभ को श्रेष्ठ मानने लगे।
इन क्षेत्रों में महाभारत में वर्णित पांडवों का विशेष प्रभाव है। कुछ लोगों का कहना है कि कार्तिक मास की अमावस्या के समय भीम कहीं युद्ध में बाहर गए थे। इस कारण वहां दीवाली नहीं मनाई गई। जब वह युद्ध जीतकर आए तब खुशी में ठीक एक माह बाद दीवाली मनाई गई और यही परम्परा बन गई।
कारण कुछ भी हो लेकिन यह दीवाली जिसे इन क्षेत्रों में नई दीवाली भी कहा जाता है, जौनसार बावर के चार-पांच गांवों में मनाई जाती है। वह भी महासू देवता के मूल हनोल और अटाल के आसपास। इन इलाकों में एक परम्परा और भी है। महासू देवता हमेशा भ्रमण पर रहते हैं और अपने निश्चित ग्रामीण ठिकानों पर 10-12 साल बाद ही पहुंच पाते हैं। वह जिस गांव में विश्राम करते हैं, वहां उस साल नई दीवाली मनाई जाती है जबकि बाकी क्षेत्र में (बूढी दीवाली) का आयोजन होता है।
Anubhav / अनुभव उपाध्याय:
Badi kamaal ki khabar khoj ke laae ho Hem bhai.
--- Quote from: हेम पन्त on October 14, 2009, 01:58:42 PM ---Source : Dainik Hindustan
पूरे देश में दीपावली कार्तिक मास की अमावस्या को मनाई जाती है लेकिन पर्वतीय राज्य उत्तराखंड में कुछ जगहों पर यह त्योहार एक माह बाद मार्गशीर्ष (अगहन) मास की अमावस्या को मनाया जाता है। इन क्षेत्रों में इस दीवाली को (देवलांग) के नाम से जाना जाता है।
देशवासी जब कार्तिक मास की अमावस्या को दीवाली का जश्न मनाने में मशगूल रहते हैं तब टिहरी गढवाल और उत्तरकाशी के रवांई और देहरादून जिले के जौनसार बावर क्षेत्र के लोग सामान्य दिनों की तरह अपने कामधंधों में लगे रहते हैं। उस दिन वहां कुछ भी नहीं होता। इसके ठीक एक माह बाद मार्गशीर्ष (अगहन) अमावस्या को वहां दीवाली मनाई जाती है,जिसका उत्सव चार-पांच दिन तक चलता है।
इन क्षेत्रों में दीवाली का त्योहार एक माह बाद मनाने का कोई ठीक इतिहास तो नहीं मिलता है लेकिन इसके कुछ कारण लोग बताते हैं। कार्तिक मास में किसानों की फसल खेतों और आंगन में बिखरी पडी रहती है, जिसकी वजह से वे अपने काम में व्यस्त रहते हैं और एक माह बाद जब सब कामों से फुर्सत होकर घर में बैठते हैं, तब वहां दीवाली मनाई जाती है।
कुछ लोगों का कहना है कि लंका के राजा रावण पर विजय हासिल करके भगवान राम कार्तिक माह की अमावस्या को अयोध्या लौटे थे। इस खुशी में वहां दीवाली मनाई गई थी लेकिन यह समाचार इन दूरस्थ क्षेत्रों में देर से पहुंचा, इसलिए अमावस्या को ही केन्द्रबिंदु मानकर ठीक एक माह बाद दीपोत्सव मनाया जाता है।
एक अन्य प्रचलित कहानी के अनुसार एक समय टिहरी नरेश से किसी व्यक्ति ने वीर माधो सिंह भंडारी की झूठी शिकायत की, जिस पर उन्हें दरबार में तत्काल हाजिर होने का आदेश दिया गया। उस दिन कार्तिक मास की दीपावली थी। रियासत के लोगों ने अपने प्रिय नेता को त्योहार के अवसर पर राजदरबार में बुलाए जाने के कारण दीपावली नहीं मनाई और इसके एक माह बाद भंडारी के लौटने पर अगहन माह में अमावस्या को दीवाली मनाई गई।
ऐसा कहा जाता है कि किसी समय जौनसार बावर क्षेत्र में सामू शाह नाम के राक्षस का राज था, जो बहुत निरंकुश था। उसके अत्याचार से क्षेत्रीय जनता का जीना दूभर हो गया था, तब पूरे क्षेत्र की जनता ने उसके आतंक से मुक्ति दिलाने के लिए अपने ईष्टदेव महासू से प्रार्थना की। उनकी करुण पुकार सुनकर महासू देवता ने सामू शाह का अंत किया। उसी खुशी में यह त्योहार मनाया जाता है।
शिवपुराण और लिंग पुराण की एक कथा के अनुसार एक समय प्रजापति ब्रह्मा और सृष्टि के पालनहार भगवान विष्णु में श्रेष्ठता को लेकर आपस में संघर्ष होने लगा और वे एक-दूसरे के वध के लिए तैयार हो गए। इससे सभी देवी-देवता व्याकुल हो उठे और उन्होंने देवाधिदेव शिवजी से प्रार्थना की। शिवजी उनकी प्रार्थना सुनकर विवाद स्थल पर ज्योतिर्लिंग महाग्नि स्तम्भ के रूप में दोनों के बीच खडे हो गए। उस समय आकाशवाणी हुई कि दोनों में से जो इस ज्योतिर्लिंग के आदि और अंत का पता लगा लेगा, वही श्रेष्ठ होगा। ब्रह्माजी ऊपर को उडे और विष्णुजी नीचे की ओर। कई वर्षों तक वे दोनों खोज करते रहे लेकिन अंत में जहां से निकले थे, वहीं पहुंच गए। तब दोनों देवताओं ने माना कि कोई उनसे भी श्रेष्ठ है और वे उस ज्योतिर्मय स्तंभ को श्रेष्ठ मानने लगे।
इन क्षेत्रों में महाभारत में वर्णित पांडवों का विशेष प्रभाव है। कुछ लोगों का कहना है कि कार्तिक मास की अमावस्या के समय भीम कहीं युद्ध में बाहर गए थे। इस कारण वहां दीवाली नहीं मनाई गई। जब वह युद्ध जीतकर आए तब खुशी में ठीक एक माह बाद दीवाली मनाई गई और यही परम्परा बन गई।
कारण कुछ भी हो लेकिन यह दीवाली जिसे इन क्षेत्रों में नई दीवाली भी कहा जाता है, जौनसार बावर के चार-पांच गांवों में मनाई जाती है। वह भी महासू देवता के मूल हनोल और अटाल के आसपास। इन इलाकों में एक परम्परा और भी है। महासू देवता हमेशा भ्रमण पर रहते हैं और अपने निश्चित ग्रामीण ठिकानों पर 10-12 साल बाद ही पहुंच पाते हैं। वह जिस गांव में विश्राम करते हैं, वहां उस साल नई दीवाली मनाई जाती है जबकि बाकी क्षेत्र में (बूढी दीवाली) का आयोजन होता है।
--- End quote ---
एम.एस. मेहता /M S Mehta 9910532720:
लंदन के म्यूजिम में सजा है उत्ताराखंड का हुनर
देहरादून। भगवान विष्णु के विभिन्न अवतारों से जुड़ी गढ़ंवाली चित्रकला शैली की जो सात चित्रकृतियां लंदन के विक्टोरिया एंड एल्बर्ट म्यूजियम में अपनी आभा बिखेर रही हैं, वह कहींगढ़वाल के मशहूर चित्रकार मोला राम की तो नहीं, इस पर संशय बरकरार है, लेकिन चित्रों की शैली से लगता है कि ये मोलाराम की कृतियां हो सकती हैं। वे कब और कैसे ब्रिटेन के इस म्यूजियम में पहुंची, यह एक रहस्य ही है। रानी विक्टोरिया और राजकुमार एल्बर्ट के नाम से बना यह म्यूजियम सजावटी कला और अन्य चीजों का दुनिया का सबसे बड़ा म्यूजियम है।
सन 1775 से 1870 तक की अवधि की ये चित्रकृतियां संभवत: गढ़वाली चित्रकला शैली का विकास करने वाले महान चित्रकार मोलाराम की हो सकती हैं। 'अर्ली वालपेंटिंग्स ऑफ गढ़वाल' के लेखक व वरिष्ठ चित्रकार शोधकर्ता प्रो.बीपी कांबोज का कहना है कि गढ़वाल रियासत के राजकीय चित्रकार मोलाराम तोमर मुगल दरबार के दो चित्रकारों शामदास और हरदास या केहरदास के वंशज थे। शामदास व हरदास 1658 में दाराशिकोह के पुत्र सुलेमान शिकोह के साथ औरंगजेब के कहर से बचने के लिए गढ़वाल के राजा पृथ्वीशाह की शरण में श्रीनगर गढ़वाल पहुंचे थे। राजा के दरबार में वे शाही तसबीरकार बन गए। मोलाराम के बाद उनके पुत्र ज्वालाराम व पौत्र आत्माराम ने चित्रकारी जारी रखी, लेकिन बाद में तुलसी राम के बाद उनके वंशजों ने चित्रकला छोड़ दी। लंदन के म्यूजियम में जो लघुचित्र हैं वे जल रंगों से बने हैं। इनमें सबसे पुराना चित्र रुक्मणी-हरण का है। चित्र में झरोखे में बैठी रुक्मणी, कृष्ण के संदेशवाहक से संदेश सुन रही है। म्यूजियम में 1820 में बना यमुना में नहाती गोपियों द्वारा पेड़ पर चढ़े श्रीकृष्ण से उनके वस्त्र लौटाने की प्रार्थना का दुर्लभ चित्र भी है। अन्य तीन चित्रों में विष्णु के मत्स्य और कूर्मावतार और विष्णु के छठे अवतार परशुराम को दर्शाया गया है। एक अन्य चित्र में श्रीकृष्ण और राधा को एक पलंग पर दर्शाया गया है। म्यूजियम की आधिकारिक जानकारी के मुताबिक इनमें से ज्यादातर चित्र म्यूजियम ने विभिन्न निजी संग्रह कर्ताओं से नीलामी में खरीदे हैं। मोलाराम के वंशज डा. द्वारिका प्रसाद तोमर का कहना है कि बहुत संभव है कि ब्रिटिश शासन के दौरान अंग्रेज इन कृतियों को अपने साथ ले गए हों या गढ़वाल के राजवंश के मार्फत ही ये विदेशियों के हाथ लग गई हों। प्रो. कांबोज का कहना है कि यह गहन शोध से ही पता चल सकता है कि लंदन म्यजियम की कृतियां मोलाराम की है या गढ़वाली शैली के किसी अन्य चित्रकार की।
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