अद्घोषित आपातकाल!
उत्तराखण्ड के मुख्यमंत्री रमेश पोखरियाल 'निशंक' लेखक हैं, पत्रकार और संपादक भी। पत्रकारिता और समाचार पत्रों की स्वच्छंदता और स्वतंत्रता
एक स्वस्थ लोकतंत्र के लिए कितनी जरूरी है यह बखूबी समझते हैं। फिर हाल ही में सूचना निदेशक की ओर से उनके निर्देशों पर जारी पत्र के क्या
मायने निकाले जाएं। पत्र के मुताबिक मुख्यमंत्री 'निशंक' ने राज्य में बढ़ रही समाचार पत्रों की संख्या पर गंभीर चिंता व्यक्त की है। साथ ही समाचार पत्रों की बढ़ती संख्या पर अंकुश लगाने के लिए प्रभावी पहल की बात कही है। यही नहीं जिला सूचना मुख्यालय की निरीक्षण शाखा को नियमित रूप से सभी पत्र-पत्रिकाओं का निरीक्षण करने के निर्देश हैं। आदेश यह भी है कि सरकार की छवि को आँाूमिल करने वाले पत्र-पत्रिकाओं के संबंआँा में गोपनीय रिपोर्ट सूचना निदेशक को भेजी जाए। कहीं मुख्यमंत्री को सरकार के जनविरोआँाी फैसलों को प्रकाशित करने वाले स्थानीय समाचार पत्र-पत्रिकाओं से खतरा तो महसूस नहीं होने लगा जिसकी वजह से उन्हें इन पर अंकुश लगाने के आदेश देने पड़ रहे हैं भारतीय जनता पार्टी के शिखर पुरुष लालकूष्ण आडवाणी की जीवनी 'माई कण्ट्री माई लाइफ' शायद उत्तराखण्ड के युवा, कवि हृदय मुख्यमंत्री रमेश पोखरियाल 'निशंक' पढ़े नहीं हैं। अन्यथा प्रेस की आजादी को कुचलने के जितने कुचक्र उनके शासनकाल में देखने को मिल रहे हैं, शायद आडवाणी जी की भावनाओं की, जो कुछ आपातकाल के दौरान उन्होंने देखा-भोगा, इंदिरा गांधी की प्रेस के प्रति दमनकारी नीतियों का जिस विस्तार से उन्होंने अपनी आत्मकथा में उल्लेख किया है उसे पढ़ने के बाद निशंक सरकार ऐसे आदेश जारी करने का दुस्साहस कतई नहीं करती। तेइस मार्च २०१० को राज्य के संयुक्त निदेशक सूचना अनिल चंदोला के हस्ताक्षरयुक्त एक नोट 'दि संडे पोस्ट' के पास मौजूद है। इस कार्यालय नोट में मुख्यमंत्री द्वारा अधिकारियों को दिए गए निर्देशों का जिक्र है। इस नोट के अनुसार 'माननीय मुख्यमंत्री जी द्वारा प्रदेश में फैल रहे समाचार पत्रों की बढ़ती हुई संख्या पर गंभीर चिंता व्यक्त की गई है। उन्होंने निर्देश दिए हैं कि समाचार पत्रों की इस बढ़ती हुई संख्या पर अंकुश लगाने के लिए सूचना विभाग प्रभावी पहल सुनिश्चित करे।' सूचना विभाग के एक वरिष्ठ अफसर के इस नोट से साफ-साफ समझा जा सकता है कि भाजपा सरकार प्रेस की स्वतंत्रता को लेकर क्या दृष्टिकोण रखती है। राज्य के सूचना निदेशक को लिखे इस पत्र में संयुक्त निदेशक आगे लिखते हैं कि 'माननीय मुख्यमंत्री जी द्वारा यह भी निर्देश दिए गए कि प्रदेश से प्रकाशित होने वाले सभी समाचार पत्र-पत्रिकाओं की जिला सूचना अधिकारी/मुख्यालय की निरीक्षण शाखा नियमित निरीक्षण करे और प्रेस एक्ट के विपरीत कार्य करने वाले, सरकार की छवि धूमिल करने वाले तथा मनगढंत और तथ्यहीन समाचार प्रकाशित करने वाले पत्र-पत्रिकाओं के संबंध में प्रत्येक १५ दिनों में एक गोपनीय रिपोर्ट निदेशक सूचना को प्रेषित करें। निदेशक उस रिपोर्ट पर अग्रिम कार्यवाही सुनिश्चित करें।' राज्य के मुख्यमंत्री द्वारा दिए गए इन निर्देशों का ही असर है कि देहरादून के सूचना अधिकारी नितिन उपाध्याय ने अपने राजनीतिक आकाओं को प्रसन्न करने की नीयत से 'दि संडे पोस्ट' पर निशाना साधते हुए उसे अनियमित प्रकाशित होने वाला समाचार पत्र साबित करने का षड्यंत्र रच डाला। यहां यह भी उल्लेखनीय है कि २३ मार्च २०१० को ही मुख्यमंत्री द्वारा देहरादून के जिला सूचना अधिकारी को तत्काल प्रभाव से हटा कर उनका दायित्व नितिन उपाध्याय को सौंपा गया। आजादी के बाद से ही सरकार और प्रेस के बीच संबंध हमेशा से ही तनावपूर्ण रहते आए हैं। १९४७ के तत्काल बाद भारत में प्रेस की आजादी को बाधित करने के प्रयास शुरू हो गए थे। जहां भारतीय प्रेस ने कश्मीर के भारत के साथ विलय पर नेहरू सरकार को सराहा था, वहीं पंडित नेहरू द्वारा इस मुद्दे को संयुक्त राष्ट्र संद्घ के सामने रखने का जबरदस्त विरोध भी किया। इसके चलते १९५१ में प्रेस को नियंत्रित करने के उद्देश्य से संविधान में पहला संशोधन किया गया। इसके बाद लगातार नाना प्रकार के तरीकों से प्रेस को साधने-बांधने के प्रयास हुए। १९७५-७७ में आपातकाल के दौरान तत्कालीन प्रधानमंत्री इंदिरा गांधी ने तमाम लोकतांत्रिक मर्यादाओं का संपूर्ण हनन् करते हुए प्रेस और न्यायपालिका तक को पूरी तरह गुलाम बनाने का काम किया। यही वह दौर था जिसे भाजपा के शिखर पुरुष अपनी आत्मकथा में भारतीय लोकतंत्र का बदनुमा दाग करार देते हैं। दूसरी तरफ प्रेस की स्वतंत्रता से तिलमिलाए उनकी ही पार्टी द्वारा शासित उत्तराखण्ड के मुख्यमंत्री 'निशंक' इंदिरा गांधी की प्रेरणा से लोकतंत्र के चौथे स्तम्भ को ढहाने का मंसूबा पाले बैठे हैं। पूरे मामले की गंभीरता को इससे समझा जा सकता है कि २३ मार्च २०१० को मुख्यमंत्री के निर्देशों का कड़ाई से पालन सुनिश्चित कराने की नीयत से राज्य के प्रमुख सचिव एवं महानिदेशक सूचना एवं लोक संपर्क विभाग सुभाष कुमार ने बकायदा एक अप्रैल २०१० को पत्र संख्या १७/२०१० द्वारा समस्त जिलाधिकारियों को कड़े निर्देश जारी करते हुए सरकार के खिलाफ लिखने वाले समाचार पत्रों के विरुद्ध आवश्यक कार्रवाई करने के आदेश दिए हैं। गौरतलब है कि मुख्यमंत्री द्वारा समाचार पत्रों की बढ़ती हुई संख्या पर गंभीर चिंता व्यक्त करने का कोई कारण सूचना विभाग के नोट में उल्लिखित नहीं है। ऐसे दौर में जब भूमंडलीकरण और इंटरनेट के चलते क्षेत्रीय भाषाओं, यहां तक कि राष्ट्रभाषा हिन्दी के सिमटने का खतरा अपने चरम पर पहुंच चुका हो, राज्य में समाचार पत्रों की बढ़ती संख्या को सकारात्मक दृष्टि से देखने के बजाय राज्य के मुख्यमंत्री द्वारा चिंता व्यक्त करना और सरकार के खिलाफ समाचार प्रकाशित करने वाले समाचार पत्रों के विरुद्ध कानूनी कार्रवाई का भय दिखाया जाना शर्मनाक है। संयुक्त निदेशक सूचना के उक्त पत्र में इस बाबत स्पष्ट लिखा गया है कि 'माननीय मुख्यमंत्री जी द्वारा यह भी निर्देश दिए गए कि विभाग में कानूनी सेल को सुदृढ़ करने के लिए एक अनुभवी एडवोकेट की सेवाएं ली जाए जिनके माध्यम से अनर्गल समाचार प्रकाशित करने वाले पत्र-पत्रिकाओं के विरुद्ध कानूनी कार्रवाई सुनिश्चित की जा सके। मुख्यमंत्री 'निशंक' के इस तुगलकी फरमान में एक ऐसा आदेश भी है जो छोटे अखबारों की कमर तोड़ने का काम कर रहा है। मुख्यमंत्री ने आदेश दे दिए हैं कि गैर मान्यता प्राप्त समाचार पत्रों को विज्ञापन सूची में छह माह के पश्चात शामिल करने की व्यवस्था को तत्काल प्रभाव से समाप्त कर १८ माह कर दिया जाए। हालांकि पिछले दस वर्षों से प्रकाशित हो रहे 'दि संडे पोस्ट' चूंकि ऐसे किसी भी आदेश के दायरे में नहीं आता इसलिए तमाम कायदे-कानूनों को ताक पर रख उसे किसी भी प्रकार के विज्ञापन न दिए जाने संबंधी निर्देश उच्च स्तर से दिए गए हैं। निशंक सरकार की इन दमनकारी नीतियों से स्पष्ट होता है कि राज्य के कवि हृदय और साहित्यिक मिजाज के मुख्यमंत्री लोकतांत्रिक व्यवस्था एवं मूल्यों का कितना आदर करते हैं। डॉ 'निशंक' स्वयं पत्रकार हैं। सत्ता से हटने के साथ ही वह अपने समाचार पत्र का संपादन स्वयं अपने हाथों में लेते हैं। पत्रकारिता से जुड़े होने के कारण उनसे यह अपेक्षा शायद ही किसी ने की होगी कि वह प्रेस की आजादी का गला द्घोटने के लिए सरकारी तंत्र का बेजा इस्तेमाल करने से हिचकिचाएंगे नहीं। अब देखना यह है कि भाजपा का शीर्ष नेतृत्व निशंक सरकार के इन तुगलकी आदेशों पर क्या प्रतिक्रिया देता है।
बात अपनी अपनी
डरे हुए मुख्यमंत्री की गंध
यह आदेश सेंसरशिप का संकेत देता है। साथ ही इसमें डरे हुए मुख्यमंत्री का गंध है। जो अखबार की बढ़ती हुई संख्या से चिंतित हो वह एक दिन लोकतंत्र से भी चिंतित होने लगेगा। क्योंकि उसे अपने गलत कामों के विरोध का डर सताता रहेगा। ऐसा पहले भी कुछ राज्यों में हुआ है। लेकिन वैसी सरकार को उखाड़ फेंका गया है। अस्सी के दशक में बिहार में तत्कालीन मुख्यमंत्री जगन्नाथ मिश्र ने प्रेस पर अंकुश लगाने वाला विधेयक लाया था। उसी दौरान दिल्ली में भी ऐसा प्रयास किया गया था। उस समय भी अखबार के लोगों (पत्रकार, मालिकों) और समाज के बुद्धिजीवियों ने इसका देशव्यापी विरोध किया था। 'निशंक' ने इस आदेश से अपना वास्तविक चेहरा उजागर किया है। लोकलुभावन नारों से उत्तराखण्ड की जनता को वह गुमराह करना चाहते हैं। वह अपनी आलोचना को रोकने की कोशिश में हैं। यदि वे इसमें कामयाब होते हैं तो यह पत्रकारों के उत्पीड़न में बदल जाएगा। इससे निडरता से सच्चाई रखने वाले अखबार और पत्रकार प्रभावित होंगे। जो मैनेज होते हैं उस पर इसका प्रभाव नहीं पड़ेगा। मुझे यह भी आश्चर्य होता है कि मार्च-अप्रैल के इस आदेश को उत्तराखण्ड के किसी पत्रकार और पत्रकारों के संगठनों ने सामने नहीं लाया। इतना विलम्ब से इसका सामने आना पत्रकार बिरादरियों के लिए चिंता का विषय है।
रामबहादुर राय, संपादक 'प्रथम प्रवक्ता'
मीडिया को डराने का प्रयास
मीडिया के डराने, धमकाने और ब्लैकमेल करने का यह पहला प्रयास नहीं है। इसके पहले इमरजेंसी के दौरान और बिहार के पूर्व मुख्यमंत्री जग्गनाथ मिश्र अपने कार्यकाल में प्रेस कानून लाकर यह कार्य कर चुके हैं। कायदे से लोकतंत्र में जितनी ज्यादा पत्र-पत्रिकाएं प्रकाशित होंगी लोकतंत्र उतना ही मजबूत होगा। समाचार पत्र-पत्रिकाओं से आम लोगों को सरकार की गतिविधियों का पता चलता है। सिर्फ द्घटनाएं ही नहीं शासन-प्रशासन की अंदरूनी सच्चाई भी सामने आती है। यह पूर्णतः तानाशाही ट्रेडेंसी है। किसी सरकार का इस प्रकार का आदेश व्यक्त करता है कि वह बहुत ज्यादा गड़बड़ कर रही है। जिला, ब्लॉक स्तर पर भी गड़बड़ियां हो रही हैं। राष्ट्रीय स्तर पर स्थापित कुछ समाचार पत्र को मैनेज किया जा सकता है लेकिन जिला, ब्लॉक स्तर पर निकल रहे छोटे-छोटे अखबारों के संपादक और संवाददाताओं को सच्चाई की जानकारी रहती है। जिनमें से सभी को मैनेज नहीं किया जा सकता। इसीलिए ऐसे अखबारों को डराने के लिए यह तानाशाही आदेश है।
अरविन्द मोहन, कार्यकारी संपादक 'अमर उजाला'
यह बंदिश ठीक नहीं
उत्तराखण्ड पंचक में बना था इसलिए सभी काम उत्तराखण्ड में उल्टे ही हो रहे हैं। अखबारों पर इस प्रकार की बंदिश लगाना ठीक नहीं।
राकेश चन्दोला, वरिष्ठ पत्रकार
बगैर तथ्य कहना उचित नहीं
जहां तक प्रदेश की विज्ञापन मान्यता छह माह से १८ किए जाने का प्रश्न है तो ये ठीक है परन्तु जब तक हाथ में तथ्य न हो तो मैं कुछ कहना उचित नहीं समझता।
विश्वजीत सिंह नेगी, महामंत्री उत्तराखण्ड श्रमजीवी पत्रकार यूनियन
हर दृष्टि से गलत
समाचार पत्रों पर इस प्रकार का अंकुश लगाया जाना किसी भी दृष्टि से उचित नहीं है। इससे प्रेस की स्वतंत्रता प्रभावित होगी। यदि प्रदेश सरकार अखबारों की बढ़ती संख्या पर अंकुश लगाना चाहती है तो एक परिवार के पते पर प्रकाशित होने वाले दर्जनों समाचार पत्रों पर अंकुश लगाए।
अविक्षित रमन, राष्ट्रीय पार्षद आईएफडब्ल्यूजे
पत्रकारिता पर कुठारद्घात
मुख्यमंत्री का यह निर्णय पत्रकारिता पर कुठाराद्घात है। समाचार पत्रों की संख्या में इजाफा होने से समाज में फैली कुरीतियां और अच्छी तरह से सामने आ सकेंगी। समाचार पत्रों को प्रोत्साहन दिए जाने की आवश्यकता है।
विक्रम छाछर, वरिष्ठ पत्रकार
अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता का हनन
यह आदेश अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता के खिलाफ है। कोई भी सरकार, वह राज्य सरकार हो या केन्द्र सरकार इस प्रकार के आदेश जारी नहीं कर सकती है। सरकार का यह निर्णय विवेकपूर्ण नहीें है।
प्रयाग पाण्डे, महामंत्री उत्तराखण्ड श्रमजीवी पत्रकार यूनियन
शासन का कदम स्वागत योग्य
पहले तो मैं सूचना विभाग के उस नोट को देख लूं तब कुछ कह पाऊंगा। लेकिन आज की तारीख में हर चाय, पान वाला अखबार निकाल लेता है। ऐसे में देखना होगा कि अखबार का मोटिव क्या है। प्रदेश में यह परंपरा नारायण दत्त तिवारी जी के कार्यकाल में शुरू हुई। विज्ञापन के लोभ में हर दूसरा आदमी अखबार निकालने लगा। ये अखबार दो कॉपी से ज्यादा नहीं छपते। इनकी वजह से पत्रकारों की छवि इतनी खराब हो गई है कि खुद को पत्रकार बताने में संकोच होता है। इस तरह के अखबार कितनी ज्यादा तादाद में निकल रहे हैं और उनमें क्या छप रहा है यह आप खुद सूचना विभाग में जाकर देख सकते हैं। इस तरह के समाचार पत्रों पर अंकुश लगाना गलत नहीं है। मैं शासन के इस कदम का स्वागत करता हूं।
संजय कोठियाल, संपादक 'युगवाणी' मासिक
यह अद्घोषित आपातकाल है
मुख्यमंत्री खुद पत्रकार रहे हैं। संपादक, मुद्रक, प्रकाशक रहे हैं। उन्हें पत्रकारिता का पूरा अनुभव है कि कितनी कठिनाई झेलनी पड़ती है। उनके शासन का ये आदेश तो स्वच्छ पत्रकारिता पर अंकुश है। 'पेड' न्यूज के इस दौर में स्थानीय और छोटे अखबार ही पत्रकारिता को जीवित रखे हुए है। वरना सभी बड़े समूह तो धन लेकर खबरें छापने लगे हैं। सरकार से समझौते पर चल रहे हैं। उन पर बाजार का दबाव है। स्थानीय अखबार दबाव में काम नहीं करते। उन पर अंकुश लगाना जनता की आवाज को रोकना है। यह तो एक तरह से अद्घोषित आपातकाल की तरह है।
डॉ. शमशेर सिंह बिष्ट, सामाजिक कार्यकर्ता
अखबारों की विश्वसनीयता में कमी
अखबारों की स्वतंत्रता तो हमेशा से रही है। प्रिंट मीडिया स्वतंत्र रूप से कार्य करता है। लेकिन आज अखबारों की कोई नीति नहीं है, ऐसे में उनकी विश्वसनीयता कम हुई है। उन पर सवाल उठ रहे हैं। अखबारों को भी अपनी गाइडलाइन बनाकर काम करना चाहिए ताकि विश्वसनीयता बनी रहे।
गोविंद कपटियाल, ईटीवी उत्तराखण्ड
निशंक जी अब जाने वाले हैं
ये तो बिल्कुल गलत है। तानाशाही कदम है। मुख्यमंत्री या किसी भी सरकार को यह अधिकार नहीं कि वह तय करे कि कितने अखबार निकलें। लोकतंत्र में सबको स्वच्छ आलोचना का अधिकार है। यह तो लोकतंत्र विरोधी कदम है। लगता है 'निशंक' जी बहुत जल्दी जाने वाले हैं। अगर सरकार अखबारों के संबंध में इस तरह की पहल करती है तो इसका पुरजोर विरोध किया जाएगा।
रमेश पहाड़ी, वरिष्ठ पत्रकार
लोकतंत्र की मूल भावना के खिलाफ
अगर ऐसा है तो यह एक तरह का सेंसर है। लोकतंत्र की मूल भावना के बिल्कुल खिलाफ है। किसी सरकार को यह हक नहीं। इसका विरोध किया जाना चाहिए। हालांकि व्यापार करने वाले अखबारों की संख्या बहुत बड़ी है। यह बीमारी उत्तर प्रदेश से आई है और सूचना विभाग ने इसे बढ़ावा दिया है। सरकार को अगर सच में इन पर रोक लगानी है तो वह वरिष्ठ पत्रकारों और पत्रकार संगठनों को विश्वास में लेकर कोई पहल करे। सब साथ देंगे। इसके लिए लोकतांत्रिक तरीका निकाला जाना चाहिए।
राजीव लोचन शाह, नैनीताल समाचार पत्र
जांच तो मुख्यमंत्री की होनी चाहिए
यह बहुत अलोकतांत्रिक है। ऐसा तो इमरजेंसी में इंदिरा गांधी ने भी नहीं किया था। जांच होनी है तो 'निशंक' जी की किताबों की होनी चाहिए कि उन्हें कौन लिखता है। मुख्यमंत्री बांध का विरोध करने वालों को अपने सहयोगी दल के एक मंत्री से सीआईए का एजेंडा कहलवा रहे हैं। सरकार जनविरोधी नीति को सामने रखने वाले अखबारों पर अंकुश लगाने की बात कर रही है। कोई बड़ा अखबार राज्य की जनविरोधी खबरें नहीं प्रकाशित करता है। स्थानीय अखबार ही जनता के हित की बात रखते हैं। अगर 'दि संडे पोस्ट' ही सिटूरगिया भूमि द्घोटाले को सामने नहीं लाता तो यह उजागर नहीं होता। किसी बड़े अखबार ने इसे प्रकाशित करने की हिम्मत नहीं दिखाई। दरअसल मुख्यमंत्री को इन छोटे अखबारों से खतरा महसूस होने लगा है। लोकतंत्र ये नहीं कहता कि कितने अखबार निकले, कितने नहीं। अखबार तो बाकायदा रजिस्ट्रेशन के बाद निकलते हैं, ऐसे ही नहीं कोई अखबार निकाल लेता।
चारु तिवारी, कार्यकारी संपादक 'जनपक्ष'
लोकतंत्र विरोधी कदम
समाचार पत्रों की संख्या बढ़ना लोकतंत्र की ताकत को बताता है। इन पर अंकुश लगाना तो लोकतंत्र विरोधी पहल है। हां, अगर कोई गलत खबर छापता है तो उस पर कार्रवाई करने का पहले से प्रावधान है। मुख्यमंत्री खुद पत्रकार हैं। ऐसा आदेश निकालने से पहले उन्हें खुद मंथन करना चाहिए। कोई भी राजनेता या नौकरशाह इस तरह का आदेश जारी नहीं कर सकता। इसकी निंदा होनी चाहिए। मुख्यमंत्री इस तरह का आदेश निकालने की बजाय इस पर खुली बहस करवा सकते हैं।
पी.सी. तिवारी, पत्रकार एवं वर्किंग जर्नलिस्ट एशोसिएशन ह्यूमन सेल के राष्ट्रीय अआँयक्ष
ऐसा कोई आदेश नहीं
सरकार ने इस प्रकार के कोई आदेश जारी नहीं किया है। भारतीय जनता पार्टी पत्रकारों और मीडिया का सम्मान करने वाली पार्टी है। हमारी पार्टी के कई वरिष्ठ नेता पत्रकार रह चुके हैं। सरकार के आदेश को तोड़-मरोड़कर पेश किया गया है।
थावर चन्द्र गहलोत, उत्तराखण्ड प्रभारी बीजेपी
जांच की आवश्यकता नहीं
अखबारों के लिए पहले से ही कायदे-कानून बने हैं। जो कानून के अनुसार चल रहे हैं उनके लिए मैं नहीं समझता कि अन्य किसी जांच की आवश्यकता है। जहां तक अखबारों की गोपनीय रिपोर्ट का सवाल है तो इस संबंध में मैं ज्यादा कुछ नहीं कहूंगा।
भुवन चन्द खण्डूड़ी, पूर्व मुख्यमंत्री उत्तराखण्ड
मीडिया को प्रतिबंधित करना संभव नहीं
आप जिस आदेश की बात कर रहे हैं, उसकी जानकारी मुझे नहीं है। बिना आदेश को पढ़े टिप्पणी करना गलत होगा। यदि इसमें सच्चाई है तो यह भी देखना चाहिए कि वह आदेश किस आशय से दिया गया है। उत्तराखण्ड सरकार अच्छा काम कर रही है। पहले की तुलना में पत्रकारिता का स्तर बहुत गिरा है। फिर भी अपने देश में मीडिया को लोकतंत्र का चौथा स्तम्भ कहा गया है। मीडिया को प्रतिबंधित नहीं किया जा सकता।
शाहनवाज हुसैन, बीजेपी सांसद
कार्य क्षेत्र से बाहर का मामला
यह प्रदेश का मामला है। इसकी मुझे कोई जानकारी नहीं है। आप बेहतर होगा उत्तराखण्ड के बीजेपी प्रवक्ता से बात करें या फिर उत्तराखण्ड के प्रभारी ही इस पर बोलेंगे। मैं इस पर कुछ नहीं बोल सकता।
प्रकाश जावेड़कर, बीजेपी प्रवक्ता
ऐसी सरकार को सत्ता में रहने का अधिकार नहीं
भारतीय जनता पार्टी पहले धर्म के नाम पर जनता को गुमराह करती थी। हालांकि यह चेहरा अभी बदला नहीं है। अब वह तानाशाहों की भी पार्टी हो गई है। सरकार का विरोध करने वालों को वह जेल का खौफ दिलाकर शासन कर रही है। बीजेपी शासित सभी प्रदेशों का यही हाल है। लोकतंत्र के चौथे स्तम्भ को मजबूत करने की जगह उन्हें डराया जा रहा है। ऐसी सरकार को सत्ता में रहने का कोई अधिकार नहीं है।
अभिषेक मनु सिंद्घवी, राष्ट्रीय प्रवक्ता कांग्रेस
तानाशाही भरा कदम
लोकतंत्र के चौथे स्तम्भ पर ये सरकार का सीधा हमला है। बड़े अखबार तो सरकार के विरुद्ध समाचार प्रकाशित नहीं कर रहे हैं। अगर छोटे समाचार पत्र सरकार के विरुद्ध छापते हैं तो सरकार उनका गला द्घोटने का षड्यंत्र कर रही है। यह अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता पर सरकारी हमला है।
हरक सिंह रावत, नेता प्रतिपक्ष
बेहद दुर्भाग्यपूर्ण
यह द्घटना तो बहुत ही दुर्भाग्यपूर्ण है। यह लोकतंत्र के चौथे स्तम्भ का गला द्घोटने जैसा है। यूकेडी इस प्रकार के तुगलकी फरमान का कड़ा विरोध करती है। ये क्या बात हुई जो आपके खिलाफ छापे वह आपका दुश्मन है। ऐसा नहीं होना चाहिए। यह प्रदेश हित में नहीं है। यह तो इंदिरा गांधी द्वारा बनाई गई इमरजेंसी से भी अधिक दुर्भाग्यपूर्ण है।
त्रिवेन्द्र सिंह पंवार, केन्द्रीय अआँयक्ष उक्रांद
तानाशाहीपूर्ण रवैया
इसमें मैं एक ही बात कहूंगा जब अंग्रेजों की हुकूमत थी तो ब्रिटिश गवर्नर जनरल वॉरेन हेस्टिंग्स ने कहा था कि अगर हिन्दुस्तान को लम्बे समय तक गुलाम बनाकर रखना है तो प्रेस पर प्रतिबंध लगा देना चाहिए। प्रेस, सप्रेस, डिप्रेस। तो ये इसी तरह का उदाहरण है। मीडिया छोटा हो, बड़ा सब जनता की बात रखते हैं। हर क्रांति में मीडिया का बड़ा योगदान रहा है। यह तो बेहद तानाशाहीपूर्ण रवैया है। नियंत्रण करना है तो राज्य में फैली विसंगतियों पर करें, माफिया पर करें। अगर ऐसा होता तो स्वागत योग्य कदम होता। इस नियंत्रण का कोई मतलब नहीं।
पुष्पेश त्रिपाठी, विआँाायक उक्रांद
बगैर तथ्य कहना उचित नहीं
इस मामले में तथ्य सामने आने पर ही कुछ कहा जा सकता है। आप आदेश की कॉपी भिजवाए तब देखते हैं क्या कहा जा सकता है।
मो. शहजाद, नेता बसपा विधायक दल उत्तराखण्ड
ऑल इज वेल
जारी किया गया परिपत्र समाचार पत्र के मालिकों द्वारा दिए जाने वाले द्घोषणा पत्र की सही प्रकार से जांच किए जाने के विषय में है। जहां तक अखबारों की गोपनीय रिपोर्ट १५ दिन में भेजने का प्रश्न है तो वह एकतरफा समाचार छापने, साम्प्रदायिकता को बढ़ावा देने वाले समाचार पत्रों के लिए है। इससे पत्रकारिता का कोई मतलब नहीं है।
डॉ. अनिल चंदोला, संयुक्त निदेशक सूचना आयोग लोक संपर्क विभाग उत्तराखण्ड
साथ में अहसान अंसारी
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