Author Topic: Blogs Related To Uttarakhand - उत्तराखण्ड से संबंधित ब्लाग  (Read 32909 times)

एम.एस. मेहता /M S Mehta 9910532720

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Re: Blogs related to Uttarakhand
« Reply #20 on: February 09, 2008, 01:27:33 PM »


उत्तराखंड का इतिहास एंव परिचय

नये राज्य का उदयः

9 नवंबर सन्‌ 2000 को भारत के सत्ताईसवें राज्‍य के रूप में उत्तरांचल (अब उत्तराखंड) नाम से इस प्रदेश का जन्‍म हुआ , इससे पहले ये उत्तर प्रदेश का ही एक हिस्‍सा था। यह 13 जिलों में विभक्त है, 7 गढ़वाल में - देहरादून , उत्तरकाशी , पौड़ी , टेहरी (अब नई टेहरी) , चमोली , रूद्रप्रयाग और हरिद्वार और 6 कुमाऊँ में अल्‍मोड़ा , रानीखेत , पिथौरागढ़ , चम्‍पावत , बागेश्‍वर और उधम सिंह नगर । यह पूर्व में नेपाल , उत्तर में चीन , पश्‍चिम में हिमाचल प्रदेश और दक्षिण में उत्तर प्रदेश से घिरा हुआ है। इस क्षेत्र की सबसे बड़ी विशेषता यह है कि धरातल पर यदि कहीं समाजवाद दिखाई देता है तो वह इस क्षेत्र में देखने को मिलता है इसलिए यहाँ की संस्कृति संसार की श्रेष्ठ संस्कृतियों में मानी जाती है। इस भूमि की पवित्रता एवं प्राकृतिक विशेषता के कारण यहाँ के निवासीयों में भी इसका प्रभाव परिलक्षित होता है अर्थात् प्रकृति प्रदत शिक्षण द्वारा यहाँ के निवासी ईमानदार, सत्यवादी, शांत स्वभाव, निश्छल, कर्मशील एवं ईश्वर प्रेमी होते हैं।

उत्तराखंड का इतिहास एंव परिचय

भारत का शीर्ष भाग उत्तराखंड के नाम से जाना जाता है। जिसका उल्लेख वेद, पुराणों विशेषकर केदारखण्ड में पाया जाता है। देवताओं की आत्मा हिमालय के मध्य भाग में गढ़वाल अपने ऐतिहासिक एंव सांस्कृतिक महत्व तथा प्राकृतिक सौंदर्य में अद्भुत है। 55845 कि. मी. में फैला उत्तराखंड जहाँ 80 लाख जनसंख्या निवास करती है, उत्तरांचल दो शब्‍दों के मिलाने से मिला है - उत्तर यानि कि नोर्थ और अंचल यानि कि रीजन , भारत के उत्तर की तरफ फैला प्रान्‍त यानि कि उत्तरांचल। इसी उत्तराखंड में आदिगुरू शंकाराचार्य ने स्वर्गीय आभा वाले बद्रीनाथ, केदारनाथ, गंगोत्री, यमुनोत्री चारों धामों की स्थापना करके भारतीय संस्कृति के समन्वय की अद्भुत मिसाल कायम की है। ये चारों धाम की स्थापना करके भारत वासियों के ही नहीं विश्व जनमास के श्रद्धा विश्वास के धर्म स्थल हैं। यहाँ भिन्न- भिन्न जातियों के पशु-पक्षी, छोटी- छोटी नदीयां, पनी के प्राकृतिक झरने, बाँज, बुरॉस, देवदार के हरे पेड़, उँची- उँची चोटीयों पर सिद्धपीठ, प्राकृतिक सुन्दरता से भरपूर शहर, हरिद्वार, ऋषिकेश जौसे धार्मिक नगर, माँ गंगा, यमुना जैसी पवित्र नदियाँ अपनी कल-कल ध्वनी करती हुई युगों से लाखों जीवों की प्राण रक्षा का भार उठाते हुए सम्पूर्ण मलिनताओं को धोते हुए अंतिम गंतव्य तक पंहुचती हैं।

हिमालय पर्वत की बर्फ से अच्छादित चोटियाँ तथा ऋतुओं के परिवर्तन के अद्वितीय सौंदर्य को देखकर मानव, देवता, किन्नर, गंधर्व ही नहीं पशु-पक्षी भी यही अभिलाषा रखते हैं कि वे अपना निवास इसी पवित्र धरती को बनाएं। महान संतों, देवताओं, ऋषियों, मुनियों, योगीयों, तपस्वीयों, ईश्वरीय अवतारों की तपो स्थली होने के कारण यह भूमि देव भूमि के नाम से विख्यात है। इस भूमि की पवित्रता एवं प्राकृतिक विशेषता के कारण यहाँ के निवासीयों में भी इसका प्रभाव परिलक्षित होता है अर्थात् प्रकृति प्रदत शिक्षण द्वारा यहाँ के निवासी ईमानदार, सत्यवादी, शांत स्वभाव, निश्छल, कर्मशील एवं ईश्वर प्रेमी होते हैं। इन गुणों को किसी के द्वारा सिखाने की आवश्यकता नहीं होती है अपितु वे स्वाभाविक रूप से उक्त गुणों के धनी होते हैं।

उत्तराखंड का इतिहास उतना ही पुराना है जितना कि मानव जाति का। यहाँ कई शिलालेख, ताम्रपत्र व प्राचीन अवशेष भी प्राप्त हुए हैं। जिससे गढ़वाल की प्राचीनता का पता चलता है। गोपेश्नर में शिव-मंदिर में एक शिला पर लिखे गये लेख से ज्ञात होता है कि कई सौ वर्ष से यात्रियों का आवागमन इस क्षेत्र में होता आ रहा है। मार्कण्डेय पुराण, शिव पुराण, मेघदूत व रघुवंश महाकाव्य में यहाँ की सभ्यता व संस्कृति का वर्णन हुआ है। बौधकाल, मौर्यकाल व अशोक के समय के ताम्रपत्र भी यहाँ मिले हैं। इस भूमी का प्राचीन ग्रन्थों में देवभूमि या स्वर्गद्वार के रूप में वर्णन किया गया है। पवित्र गंगा हरिद्वार में मैदान को छूती है। प्राचीन धर्म ग्रन्थों में वर्णित यही मायापुर है। गंगा यहाँ भौतिक जगत में उतरती है। इससे पहले वह सुर-नदी देवभूमि में विचरण करती है। इस भूमी में हर रूप शिव भी वास करते हैं, तो हरि रूप में बद्रीनारायण भी। माँ गंगा का यह उदगम क्षेत्र उस देव संस्कृति का वास्तविक क्रिड़ा क्षेत्र रहा है जो पौराणिक आख्याओं के रूप में आज भी धर्म-परायण जनता के मानस में विश्वास एवं आस्था के रूप में जीवित हैं। उत्तराखंड की प्राचीन जातियों में किरात, यक्ष, गंधर्व, नाग, खस, नाथ आदी जातियों का विशेष उल्लेख मिलता है। आर्यों की एक श्रेणी गढ़वाल में आई थी जो खस (खसिया) कहलाई। यहाँ की कोल भील, जो जातियाँ थी कालांतर में स्वतंत्रता प्राप्ति के बात हरिजन कहलाई। देश के विभिन्न क्षेत्रों से लोग यात्री के रूप में बद्रीनारायण के दर्शन के लिए आये उनमें से कई लोग यहाँ बस गये और उत्तराखंड को अपना स्थायी निवास बना दिया। ब्राह्मण, क्षत्रीय, वैश्य, मुस्लिम, सिख, ईसाई सभी यहाँ रहने लगे। मुख्य रूप से इस क्षेत्र में ब्राह्मण एवं क्षत्रीय जाति के लोगों का निवास अधिक है। उत्तराखंड राज्य बनने के बाद हरिद्वार, उधमसिंह नगर एवं कुछ अन्य क्षेत्रों को मिलाने से अन्य जाती के लोगों में अब बढोत्री हो गई है। इस क्षेत्र की सबसे बड़ी विशेषता यह है कि धरातल पर यदि कहीं समाजवाद दिखाई देता है तो वह इस क्षेत्र में देखने को मिलता है इसलिए यहाँ की संस्कृति संसार की श्रेष्ठ संस्कृतियों में मानी जाती है। सातवीं सदी के गढ़वाल का एतिहासिक विवरण प्राप्त है। 688 ई0 के आसपास चाँदपुर, गढ़ी (वर्तमान चमोली जिले में कर्णप्रयाग से 13 मील पूर्व ) में राजा भानुप्रताप का राज्य था। उसकी दो कन्यायें थी। प्रथम कन्या का विवाह कुमाऊं के राजकुमार राजपाल से हुआ तथा छोटी का विवाह धारा नगरी के राजकुमार कनकपाल से हुआ इसी का वंश आगे बढा।

महाराजा कनकपाल का समय

कनकपाल ने 756 ई0 तक चाँदपुर गढ़ी में राज किया। कनकपाल की 37 वीं पीढ़ी में महाराजा अजयपाल का जन्म हुआ। इस लम्बे अंतराल में कोई शक्तिशाली राजा नहीं हुआ। गढ़वाल छोटे-छोटे ठाकुरी गढ़ों में बंटा था, जो आपस में लड़ते रहते थे। कुमाऊं के कत्यूरी शासक भी आक्रमण करते रहते थे। कत्यूरियों मे ज्योतिष्पुर (वर्तमान जोशीमठ) तक अधिकार कर लिया था।

महाराजा अजयपाल का समय

राजा कनकपाल की 37 वीं पीढ़ी में 1500 ई0 के महाराजा अजयपाल नाम के प्रतापी राजा हुए। गढ़वाल राज्य की स्थापना का महान श्रेय इन्ही को है। इन्होने 52 छोटे-छोटे ठाकुरी गढ़ों को जीतकर एक शक्तिशाली गढ़वाल का अर्थ है, गढ़­­ = किला, वाल = वाला अर्थात किलों का समुह। कुमाऊं के राजा कीर्तिचन्द व कत्यूरियों के आक्रमण से त्रस्त होकर महाराजा अजयपाल ने 1508 ई0 के आसपास अपनी राजधानी चाँदपुर गढ़ी से देवलगढ़ तथा 1512 ई0 में देवलगढ़ से श्रीनगर में स्थापित की। इनके शासनकाल में गढ़वाल की सामाजिक, राजनैतिक व धार्मिक उन्नति हुई।

शाह की उपाधिः महाराजा अजयपाल की तीसरी पीढ़ी में बलभद्र हुए। ये दिल्ली के शंहशाह अकबर के समकालीन थे, कहते हैं कि एक बार नजीबाबाद के निकट शिकार खेलते समय बलभद्र ने शेर के आक्रमण से दिल्ली के शंहशाह की रक्षा की। इसलिए उन्हे शाह की उपाधि प्राप्त हुई, तबसे 1948 तक गढ़वाल के राजाओं के साथ शाह की उपाधि जुड़ी रही।

गढ़वाल का विभाजनः -1803 में महाराजा प्रद्दुम्न शाह संपूर्ण गढ़वाल के अंतिम नरेश थे जिनकी राजधानी श्रीनगर थी। गोरखों के आक्रमण और संधि-प्रस्ताव के आधार पर प्रति वर्ष 25000 /- रूपये कर के रूप में गोरखों को देने के कारण राज्य की आर्थिक स्थिति दयनीय हो गई थी। इसी अवसर का लाभ उठाकर गोरखों ने दूसरी बार गढ़वाल पर आक्रमण किया और पूरे गढ़वाल को तहस-नहस कर डाला। राजा प्रद्दुम्न शाह देहरादून के खुड़ब़ड़ा के युद्ध में लड़ते हुए वीरगति को प्राप्त हुए और गढ़वाल में गोरखों का शासन हो गया। इसके साथ ही गढ़वाल दो भागों में विभाजित हो गया।

गढ़वाल रियासत (टिहरी गढ़वाल)- महाराजा प्रद्दुम्न शाह की मृत्यू के बाद इनके 20 वर्षिय पुत्र सुदर्शन शाह इनके उत्तराधिकारी बने। सुदर्शन शाह ने बड़े संघर्ष और ब्रिटिश शासन की सहयाता से, जनरल जिलेस्पी और जनरल फ्रेजर के युद्ध संचालन के बल पर गढ़वाल को गोरखों की अधीनता से मुक्त करवाया। इस सहयाता के बदले अंग्रेजों ने अलकनंदा व मंदाकिनी के पूर्व दिशा का सम्पूर्ण भाग ब्रिटिश साम्राज्य में मिला दिया, जिससे यह क्षेत्र ब्रिटिश गढ़वाल कहलाने लगा और पौड़ी इसकी राजधानी बनी।

टिहरी गढ़वाल-

महाराजा सुदर्शन शाह ने भगिरथी और भिलंगना के सगंम पर अपनी राजधानी बसाई, जिसका नाम टिहरी रखा। राजा सुदर्शन शाह के पश्चात क्रमशः भवानी शाह ( 1859-72), प्रताप शाह (1872-87), कीर्ति शाह (1892-1913), नरेन्द्र शाह (1916-46) टिहरी रीयासत की राजगद्दी पर बैठे। महाराजा प्रताप शाह तथा कीर्ति शाह की मृत्यु के समय उत्तराधिकारियों के नबालिग होने के कारण तत्कालीन राजमाताओं ने क्रमशः राजमाता गुलेरिया तथा राजमाता नैपालिया ने अंग्रेज रिजेडेन्टों की देख-रेख में (1887-92) तथा (1913-1916) तक शासन का भार संभाला। रियासत के अंतिम राजा मानवेन्द्र शाह के समय सन् 1949 में रियासत भारतीय गणतंत्र में विलीन हो गई।
द्वारा जय सिंह नेगी

उत्तराचंल के जिलेः

उत्तराचंल को 13 जिलों में विभक्त किया गया है 7 गढ़वाल में - देहरादून , उत्तरकाशी , पौड़ी , टेहरी (अब नई टेहरी) , चमोली , रूद्रप्रयाग और हरिद्वार और 6 कुमाऊँ में अल्‍मोड़ा , रानीखेत , पिथौरागढ़ , चम्‍पावत , बागेश्‍वर और उधम सिंह नगर ।

पौड़ी गढ़वाल

यह कान्डोंलिया पर्वत के उतर तथा समुद्रतल से 5950 फुट की ऊँचाई पर स्थित है। यहां से मुख्य शहर कोटद्वार, पाबौ, पैठाणी, थैलीसैण, घुमाकोट, श्रीनगर, दुगड्डा, सतपुली इत्यादी हैं। ब्रिटीश शासनकाल में यहाँ राज्सव इकट्ठा करने का मुख्य केन्द्र था। यहाँ पं. गोविन्द वल्लभ पंत इंजिनियरिंग कालेज भी है। इतिहासकारों के अनुसार गढ़वाल में कभी 52 गढ़ थे जो गढ़वाल के पंवार पाल और शाह शासकों ने समय समय पर बनाये थे। इनमें से अधिकांश पौड़ी में आते हैं। यहाँ से 2 कि. मी. की दूरी पर स्थित क्युंकलेश्वर महादेव पौड़ी का मुख्य दर्शनीय स्थल है जो कि 8वीं शताब्दी में निर्मित भगवान शिव का मंदिर है। यंहा से श्रीनगर घाटी और हिमालय का मनोरम दृष्य दिखाई देता है। यहाँ पर कण्डोलिया देवता और नाग देवता के मंदिर भी धार्मिक आस्था के प्रतीक हैं। यहाँ से ज्वालपा देवी का मंदिर शहर से 34 कि. मी. दूर है। यहाँ प्रतिवर्ष नवरात्रियों के अवसर पर दूर दूर से श्रद्धालु दर्शन और पूजा के लिए आते हैं। यहां का निकटतम रेलवे स्टेशन कोटद्वार 100 कि. मी. और ऋषिकेश से 142 कि. मी.की दूरी पर स्थित है।

उत्तराचंल की प्रमख नदियां

गंगा, यमुना, काली, रामगंगा, भागीरथी, अलकनन्दा, कोसी, गोमती, टौंस, मंदाकिनी, धौली गंगा, गौरीगंगा, पिंडर नयार(पू) पिंडर नयार (प) आदी प्रमुख नदीयां हैं।

उत्तराचंल के प्रमुख हिमशिखर

गंगोत्री (6614), दूनगिरि (7066), बंदरपूछ (6315), केदारनाथ (6490), चौखंवा (7138), कामेत (7756), सतोपंथ (7075), नीलकंठ (5696), नंदा देवी (7817), गोरी पर्वत (6250), हाथी पर्वत (6727), नंदा धुंटी (6309), नंदा कोट (6861) देव वन (6853), माना (7273), मृगथनी (6855), पंचाचूली (6905), गुनी (6179), यूंगटागट (6945)।

उत्तराचंल के प्रमुख ग्लेशियर

1. गंगोत्री 2. यमुनोत्री 3. पिण्डर 4. खतलिगं 5. मिलम 6. जौलिंकांग, 7. सुन्दर ढूंगा इत्यादि।

उत्तराचंल की प्रमुख झीलें (ताल)

गौरीकुण्ड, रूपकुण्ड, नंदीकुण्ड, डूयोढ़ी ताल, जराल ताल, शहस्त्रा ताल, मासर ताल, नैनीताल, भीमताल, सात ताल, नौकुचिया ताल, सूखा ताल, श्यामला ताल, सुरपा ताल, गरूड़ी ताल, हरीश ताल, लोखम ताल, पार्वती ताल, तड़ाग ताल (कुंमाऊँ क्षेत्र) इत्यादि।

उत्तराचंल के प्रमुख दर्रे

बरास- 5365मी.,(उत्तरकाशी), माणा- 6608मी. (चमोली), नोती-5300मी. (चमोली), बोल्छाधुरा-5353मी.,(पिथौरागड़), कुरंगी-वुरंगी-5564 मी.( पिथौरागड़), लोवेपुरा-5564मी. (पिथौरागड़), लमप्याधुरा-5553 मी. (पिथौरागड़), लिपुलेश-5129 मी. (पिथौरागड़), उंटाबुरा, थांगला, ट्रेलपास, मलारीपास, रालमपास, सोग चोग ला पुलिग ला, तुनजुनला, मरहीला, चिरीचुन दर्रा।

उत्तराचंल के वन अभ्यारण्य

1. गोविन्द वन जीव विहार 2. केदारनाथ वन्य जीव विहार 3. अस्कोट जीव विहार 4. सोना नदी वन्य जीव विहार 5. विनसर वन्य जीव विहार


Posted by Kamal at 10:03 PM   

Labels: उत्तराखंड






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अपणु उत्तराखंड (Apnu Uttarakhand)
« Reply #21 on: February 14, 2008, 04:58:19 PM »

भालू के हमले में सास-बहू गम्भीर रूप से घायल

भालू के हमले में सास-बहू गम्भीर रूप से घायल

डीडीहाट(पिथौरागढ़)। जंगल में घास काटने गयी दो महिलाओं को भालू ने हमला कर गम्भीर रूप से घायल कर दिया। दोनों महिलाओं का सामुदायिक स्वास्थ्य केन्द्र में प्राथमिक उपचार करने के बाद जिला चिकित्सालय रेफर कर दिया है। दोनों घायल महिलाएं आपस में सास-बहू है। भालू की सक्रियता से पूरे क्षेत्र में दहशत का माहौल है।

जानकारी के अनुसार डीडीहाट तहसील के कुकरौली(भांतड़) गांव की पार्वती देवी (50) और उनकी बहू सुनीता देवी शुक्रवार की सुबह आठ बजे के लगभग भूलगांव के नजदीकी जंगल में घास काटने गई थी। इसी दौरान ऊपर से भालू ने दोनों महिलाओं पर हमला कर दिया। भालू ने पार्वती देवी के सिर पर बुरी तरह से काट दिया और सुनीता देवी को दूर पटक दिया। भालू द्वारा हमले की जानकारी सबसे पहले समीप के जंगल में घास काट रही एक अन्य महिला बसंती देवी को हुई। जानकारी मिलते ही बसंती देवी ने हो-हल्ला मचाना शुरू कर दिया। चीख-पुकार सुनकर कुकरौली से दर्जनों ग्रामीण मौके पर पहुंचे। इस दौरान हल्ला सुनकर भालू जंगल की ओर भाग गया। ग्रामीणों ने खून में लथपथ गम्भीर रूप से घायल दोनों महिलाओं को तत्काल सामुदायिक स्वास्थ्य केन्द्र डीडीहाट पहुंचाया। जहां पर चिकित्सकों द्वारा गम्भीर रूप से घायल पार्वती देवी के सिर पर 21 और सुनीता देवी को 12 टांके लगाये। दोनों महिलाओं के सिर और शरीर के अन्य हिस्सों में गहरे घाव बने है। बाद में दोनों की गम्भीर स्थिति को देखते हुये जिला चिकित्सालय रेफर कर दिया गया। क्षेत्र के सामाजिक कार्यकर्ता लोकेश भड़ ने तहसील प्रशासन और वन विभाग को सूचित कर भालू के आतंक से निजात दिलाये जाने और घायलों को उचित मुआवजा दिये जाने की मांग की है। भालू द्वारा दो महिलाओं को घायल कर दिये जाने के बाद क्षेत्र में दहशत का माहौल है।

http://in.jagran.yahoo.com/news/local/uttranchal/4_5_3910305.html



Posted by We are Pahari (Uttarakhandi) at 9:05 PM 
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हेम पन्त

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यहाँ पढें काकेश जी की बेहद सुन्दर कहानी "परुली"....

Part 1
http://kakesh.com/?p=320

Part 2
http://kakesh.com/?p=331


हेम पन्त

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मैने भी ब्लोग लिखा है
« Reply #23 on: March 20, 2008, 05:11:58 PM »
काकेश जी और तरूण भाई से प्रेरणा लेकर मैने भी ब्लोग लिखने का प्रयास किया है...
आप को कैसा लगा टिप्पणी के रूप में जरूर बतायें

http://hempantt.blogspot.com

कहानी अजर-अमर लोकगीत "बैङू पाको बारामासा" की - http://hempantt.blogspot.com/2008/03/blog-post_20.html
ढहते मकान और जंग लगे ताले - http://hempantt.blogspot.com/2008/03/blog-post.html
बचपन के वो दिन - http://hempantt.blogspot.com/2008/02/blog-post.html

Anubhav / अनुभव उपाध्याय

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Re: Blogs related to Uttarakhand
« Reply #24 on: March 20, 2008, 05:19:18 PM »
Ati sundar bhai chha gaye aap +1 karma aapko.

Anubhav / अनुभव उपाध्याय

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Re: Blogs related to Uttarakhand
« Reply #25 on: June 19, 2008, 04:24:53 PM »
Humare member Sandeep ji ka blog:

http://devbhumiuk.blogspot.com/

पंकज सिंह महर

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Re: Blogs related to Uttarakhand
« Reply #26 on: June 27, 2008, 03:48:49 PM »
हिसालू-काफल

हिसालू और काफल हिमालयी इलाकों में उगने वाली जंगली बेरियां हैं। मेरे जैसे लोगों के लिए जो न पहाङी ही रहे न शहरी बन पाए ये भी धागे का काम करते हैं जङों से बांधने का।


http://deepapathak.blogspot.com/

पंकज सिंह महर

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Re: Blogs related to Uttarakhand
« Reply #27 on: June 27, 2008, 03:52:59 PM »
काकेश दा का एक और ब्लाग

http://buransh.blogspot.com/

पंकज सिंह महर

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Re: Blogs related to Uttarakhand
« Reply #28 on: June 27, 2008, 03:55:37 PM »
परमार जी का ब्लाग "बुरांस"- पहाड़ की सही व्याख्या

द्वी दिनू की हौरि छ अब खैरि मुट्ट बोटीकि रख
तेरि हिकमत आजमाणू बैरि
मुट्ट बोटीक रख।


http://buraansh.blogspot.com/

Dinesh Bijalwan

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Re: Blogs related to Uttarakhand
« Reply #29 on: June 27, 2008, 03:58:45 PM »
Sandeepji ka blog bahut acchha laga.  Geet sune to the padhkar aur bhi anand aa gaya.   jaari rakho sandeepji

 

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