Author Topic: Cereals Of Uttarakhand - उत्तराखंड मे पैदा होने वाले खाद्यान  (Read 65471 times)

हेम पन्त

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मडुआ या कोदा : Cereals Of Uttarakhand
« Reply #40 on: March 13, 2011, 03:11:17 AM »

फोटो - लोकेश डसीला जी के फेसबुक एल्बम से साभार

Devbhoomi,Uttarakhand

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मंडुवा की अच्छी पैदावार से खिले चेहरे

 


 नैनबाग: जौनपुर क्षेत्र में इस बार मंडुवा की अच्छी पैदावार होने से काश्तकारों के चेहरे खिले हुए हैं।जौनपुर क्षेत्र के लोगों का पशुपालन व खेती आजीविका का मुख्य साधन है।

अनाजों में सबसे अधिक प्रोटीन की मात्रा मंडुवा में होने से इसकी बाजार में काफी मांग है। काश्तकार सुमन लाल रतूड़ी, गोपाल सिंह पंवार, हुकम सिंह, कुन्दन सिंह, सोवत सिंह, सुमारी लाल आदि का कहना है कि पहले की अपेक्षा पट्टी ईडवालस्यूं, सिलवाड़,

लालूर व पालीगाड़ थत्यूड़ में आज भी किसान पुरानी फसल मंडुवा की पैदावार करते आ रहे हैं। इस साल मंडुवा की अच्छी पैदावार होने की उम्मीद है। इससे काश्तकारों को अच्छा मुनाफा होने की उम्मीद है।
   


source dainik jagran

हेम पन्त

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डीडीहाट। डीडीहाट के ओगला कस्बे में तीन साल पूर्व महज प्रयोग के लिए लगाए गए पाइरिथम के बीज अंकुरित होने के बाद जम्मू-कश्मीर की जलवायु में पैदा होने वाले पाइरिथम को टक्कर देंगे, इसकी शायद किसी ने कल्पना भी नहीं की थी। मच्छर मारने की दवा बनाने के काम आने वाले पाइरिथम का उत्पादन भारत में अभी तक सिर्फ जम्मू और कश्मीर में होता है। ओगला में उत्पादित पाइरिथम के फूलों से निकलने वाले रस की प्रायोगिक जांच के बाद इसे जम्मू-कश्मीर के मुकाबले नंबर वन श्रेणी का दर्जा दिया गया है।
फूलों के रस से ही एंटी मॉस्कीटोमेट तैयार होता है। रस में कीटनाशक की मात्रा यील्ड में मापी जाती है। यहां के पाइरिथम में सबसे ज्यादा 1.7 प्रतिशत यील्ड पाया गया है जबकि जम्मू-कश्मीर में पैदा होने वाले पाइरिथम के फूलों के रस में यील्ड महज 0.8 प्रतिशत तक ही मिलता है। वर्ष 2008 में लखनऊ ईको केयर सेंटर के सहयोग से ओगला के पूर्व सैनिक नारायण सिंह जिमवाल ने अपनी आधा हेक्टेयर जमीन पर पाइरिथम के दो हजार बीज बोए थे। 2009 में जमीन में कुछ नहीं उगा लेकिन 2010 के दिसंबर में बीज अंकुरित हुए। जून 2011 में जब पौधों में फूल आए तो लखनऊ ईको केयर सेंटर की टीम इसके फूलों को जांच के लिए साथ ले गई। प्रायोगिक जांच के बाद जो रिपोर्ट आई है, उससे जम्मू-कश्मीर का पाइरिथम पीछे छूट गया है। ईको केयर सेंटर के निदेशक आरएस कैड़ा ने सोमवार को लखनऊ से फोन पर बताया कि रस में कीटनाशक की मात्रा 1.7 यील्ड मिली है। भारत में पाइरिथम का बहुत कम उत्पादन होता है। वर्तमान में इसकी खेती जम्मू-कश्मीर के ऊंचाई वाले इलाकों में है। वहां से हर साल फूल समेटकर उनका रस निकाला जाता है और मच्छर मारने की दवा बनाई जाती है। वहां के फूलों के रस में यील्ड 0.8 प्रतिशत से आगे नहीं बढ़ा। कैड़ा का कहना है कि 2008 में ही नैनीताल के रामगढ़ में भी प्रयोग के लिए पाइरिथम लगाया गया था और रामगढ़ के पाइरिथम के फूलों से निकले रस में यील्ड जम्मू-कश्मीर के यील्ड के बराबर 0.7 फीसदी ही पाया गया है।
Source - Amar Ujala

Devbhoomi,Uttarakhand

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Devbhoomi,Uttarakhand

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कोणी  की लहराती हुई बालें


Devbhoomi,Uttarakhand

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हेम पन्त

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भट्ट (सोयाबीन) की तैयार फलियां.
फोटो – अजय कन्याल

satinder

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Good Information of Cereals of Uttarakhand.

Bhishma Kukreti

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                      क्या उत्तराखंड को अरसा देव प्रयागी ब्रह्मणो की देन है ?

                         उत्तराखंड में कृषि व भोजन का इतिहास --53 

                    आलेख :  भीष्म कुकरेती
                           
  कल मै गढ़वाली फिल्मो के प्रसिद्ध निदेशक श्री अनुज जोशी से मुम्बई में मिला।  वहीं अरसा के इतिहास पर भी चर्चा हुई।
श्री अनुज जोशी ने अपने अन्वेषणों के आधार पर कहा कि अरसा कर्नाटकी ब्रह्मणो के द्वारा ही गढ़वाल में आया।
श्री जोशी  तर्क है कि कर्नाटकी ब्राह्मण बदरीनाथ के पण्डे थी जो शंकराचार्य के साथ ही नवीं सदी में गढ़वाल आये थे. और कर्नाटक में भी देवालयों व अन्य धार्मिक अनुष्ठानो में अरसा  आवश्यक है व प्राचीन काल में भी था।
देव प्रयाग के रघुनाथ मंदिर में शंकराचार्य के स्वदेशीय , स्व्जातीय  भट्ट पुजारी आठवीं -नवीं सदी से ही हैं।  ये भट्ट पुजारी शंकराचार्य के समय देव प्रयाग में बसे होंगे।
देव प्रयाग में सभी पुजारी या पंडे बंशीय लोग केरल से नही आये अपितु दक्षिण के कई भागों जैसे कर्नाटक , तामिल नाडु , महारास्त्र व गुजरात से आये थे (डा मोहन बाबुलकर  का देव प्रयागियों का जातीय इतिहास ).
श्री  अनुज जोशी का तर्क है कि कर्नाटकी देव प्रयागियों के कारण अरसा गढ़वाल में आया।
अरसा का जन्म आंध्र या ओडिसा सीमा के पास कंही हुआ जो बाद में दक्षिण में सभी प्रांतों में फैला व सभी स्थानो में धार्मिक अनुष्ठानो में पयोग होता है।
हो सकता है कि अरसा केरल /तामील या कर्नाटक ब्राह्मण प्रवासियों द्वारा गढ़वाल में धार्मिक अनुष्ठानो में प्रयोग हुआ हो और फिर अरसे का गढ़वाल में प्रसार हुआ होगा।  यदि केरल के नम्बूदिपराद (जो रावल हैं )अरसा लाते तो आज भी बद्रीनाथ में बद्रीनाथ में अरसा का भोग लगता .
केरल के ब्रह्मणो से अरसा का आगमन नही हो सकता क्योंकि अरसा या अरिसेलु केरल में उतना प्रसिद्ध नही है।
यदि  मान लें कि अरसा गढ़वाल में देव प्रयागी पुजारियों द्वारा  आया है तो भी कई  अंनुत्तरित हैं ।  जैसा कि अनुज जोशी का तर्क है कि  अरसा देवप्रयाग के कर्नाटकी प्रवासी ब्रह्मणो द्वारा आया है तो अरसा का नाम काज्जया होना चाहिए था।  कन्नड़ी में अरसा को kajjaya कहते हैं। कर्नाटक में काज्ज्या दीपावली का मुख्य मिस्ठान है।
यदि अरसा तमिल नाडु के प्रवासी ब्राह्मणो द्वारा गढ़वाल में आया तो अरसा का नाम अधिरसम होना चाहिए था क्योंकि अरसा को तमिल में आदिरसम /अधिरसम कहते हैं।

निम्न लेख मैंने 14 /9 / 2013 को लिखा था

                          उत्तराखंड में अरसा प्रचलन या तो ओड़िसा से आया या आन्ध्र प्रदेश से हुआ !

                              उत्तराखंड में कृषि व भोजन का इतिहास --10                                       
                                   

 अरसा उत्तराखंड का एक लोक मिष्ठान है और  आज भी अरसा  बगैर शादी-व्याह ,  बेटी के लिए भेंट सोची ही नही जा सकती है। किन्तु अरसा का अन्वेषण उत्तराखंड में नही हुआ है।
संस्कृत में अर्श का अर्थ होता है -Damage , hemorrhoids नुकसान।  संस्कृत से लिया गया शब्द अरसा को हिंदी में समय या वक्त , देर को भी कहते हैं।  अत : अरसा उत्तरी भारत का मिष्ठान या वैदिक मिस्ठान नही है।अरसा प्राचीन कोल मुंड शब्द भी नही  लगता है।

अरसा, अरिसेलु  शब्द तेलगु या द्रविड़ शब्द हैं ।
उडिया में अरसा को अरिसा  कहते हैं।
अरसा मिष्ठान  आंध्रा और उड़ीसा में एक  परम्परागत  धार्मिक अनुष्ठान में प्रयोग होने वाला मिष्ठान  है।
आन्ध्र में मकर संक्रांति  अरिसेलु /अरसा पकाए बगैर नही मनाई जाती है
उड़ीसा में जगन्नाथ पूजा में अरिसा /अरसा  भोगों में से एक भोजन है।
अरसा , अरिसा  या अरिसेलु एक ही जैसे विधि से पकाया जाता है। याने चावल के आटे (पीठ ) को गुड में पाक लगाकर फिर तेल में पकाना . तीनो स्थानों में चावल के आटे को पीठ कहते हैं।  उत्तराखंड में बाकी अनाजों के आटे को आटा कहते हैं।

                   ओड़िसा के पुरातन बुद्ध साहित्य में अरिसा या अरसा

प्राचीनतम विनय और अंगुतारा निकाय में उल्लेख है कि  गौतम बुद्ध को उनके ज्ञान प्राप्ति के सात दिन के बाद त्रापुसा (तापुसा ) और भाल्लिका (भाल्लिया ) दो बणिकों  ने बुद्ध भगवान को चावल -शहद भेंट में दिया था।  उड़ीसा के कट्टक जिले के अथागढ़ -बारम्बा के बुद्धिस्ट मानते हैं यह भेंट अरिसा पीठ याने अरसा ही था।
पश्चमी उड़ीसा में नुआखाइ (धन कटाई की बाद का धार्मिक अनुष्ठान ) में अरिस एक मुख्या पकवान होता है। उड़ीसा के सांस्कृतिक इतिहासकारों जैसे भागबाना साहू ने अरिसा को प्राचीनतम मिष्ठानो में माना है।

                     आंध्र प्रदेश में अरिसेलु का इतिहास

      आन्ध्र प्रदेश के बारे में कहा जाता है कि आन्ध्र  प्रदेश वाले भोजन प्रिय होते हैं।  दक्षिण भारत में अधिकतर आधुनिक भोजन आंध्र  की देन  माना जाता है। 
चौदहवीं सदी के एक कवि की  'अरिसेलु नूने बोक्रेलुनु ' कविता का सन्दर्भ मिलता है (Prabhakara Smarika Vol -3 Page 322 )।

                        अरसा  का उत्तराखंड में आना 

  उत्तराखंड में अरसा का प्रचलन में उड़ीसा का हाथ है या आंध्र प्रदेश का इस प्रश्न के उत्तर हेतु हमे अंदाज  ही लगाना पड़ेगा  क्योंकि इस लेखक को उत्तराखंड में अरसे का प्रसार का कोई ऐतिहासिक विवरण अभी तक नही मिल पाया है। 
पहले सिद्धांत के अनुसार    अरसा का प्रवेश उत्तराखंड में सम्राट अशोक या उससे पहले उड़ीसा या आंध्र प्रदेश के बौद्ध विद्वानों , बौद्ध भिक्षुओं अथवा अशोक के किसी उड़ीसा निवासी राजनायिक के साथ हुआ। इसी समय उड़ीसा /उत्तरी आंध्र के साथ उत्तराखंड वासियों का सर्वाधिक सांस्कृतिक विनियम  हुआ।
यदि अशोक या उससे पहले अरसा का प्रवेश -प्रचलन उत्तराखंड में हुआ तो इसकी शुरुवात गोविषाण (उधम सिंह नगर ), कालसी , बिजनौर (मौर ध्वज ) क्षेत्र से हुआ होगा ।
 अरसा के प्रवेश में उड़ीसा का अधिक हाथ लगता है।
यदि अरसा उत्तराखंड में अशोक के पश्चात प्रचलित हुआ तो कोई उड़ीसा या आंध्र वासी उत्तराखंड में बसा होगा और उसने अरसा बनाना सिखाया होगा ।किन्तु यदि वह व्यक्ति आंध्र का होता तो वह  इसे अरिसेलु नाम  दिलवाता और उड़ीसा का होता तो अरिसा।  भाषाई बदलाव के हिसाब से उड़ीसा का संबंध/प्रभाव  उत्तराखंड में अरसा प्रचलन से अधिक लगता है।
 कोई उडिया या तेलगु भक्त उत्तराखंड भ्रमण पर आया हो और उसने अरसा बनाने की विधि सिखाई हो !
या कोई उत्तराखंड वासी जग्गनाथ मन्दिर गया हो और वंहा से अपने साथ अरसा बनाने की विधि अपने साथ लाया हो !
 लगता नही कि अरसा ब्रिटिश राज में आया हो।  कारण  सन 1900 के करीब अरसा उत्तरकाशी और टिहरी में भी उतना ही प्रसिद्ध था जितना कुमाओं और ब्रिटिश गढ़वाल में।
यह भी हो सकता है कि नेपाल के रास्ते अरसा प्रचलन आया हो किन्तु बहुत कम संभावना लगती है !



Copyright @ Bhishma  Kukreti  14 /9/2013




                 परवर्ती महाभारत कुलिंद जनपद (500 -400 BC )में कृषि , खाद्य यंत्र व भोजन इतिहास

Gastronomy, culinary, cooking, food, cuisine, food recipe, food items, agriculture, agro--products in Post Mahabharata Kulinda Janpad   

                                 उत्तराखंड में कृषि व भोजन का इतिहास --11                                          History of Gastronomy in Uttarakhand 11 
                                      आलेख :  भीष्म कुकरेती

कुलिंद जनपद का वर्णन महभारत में तो हुआ ही था।  इसके अतिरिक्त अष्टाध्यायी ,  साहित्य व जैन साहित्य में कुलिंद जनपद का वर्णन मिलता है।  अशोक से पहले कुलिंद जनपद  (500 -400 BC ) समृद्ध जनपद था और फिर अशोक के पश्चात भी कुलिंद जनपद का अस्तित्व था. पाणिनि गन्थ में दो ग्रामों आयर पतांजलि ग्रन्थ में इस क्षेत्र (उत्तराखंड व  सहारनपुर आदि ) के दो  वर्णन मिलता है।

                                      परवर्ती महाभारत कुलिंद जनपद (500 -400 में घरेलू सामग्री


 -बैठने के स्थान - , पराल, मांदरा, चारपाई या चौपाई, चौकी , पीढ़े , कम्बल।  पिंडार घाटी से रांकव कम्बल निर्यात होता था। जंगली व पालतू जानवरों के चरम भी बैठने या सोने बिछौने के  आते थे ।
पात्र /वर्तन मुख्यतया मिट्टी , काष्ट , पत्थर व पत्तों के बनते थे।
अनादि रखने के लिए बड़ी बड़ी चाटियां (दबल ) होते थे।
सामग्री रखने के लिए खालों के थैले , लौकी की तुम्बी , आदि थे।
कांस्य व ताम्र पात्र उपयोग में आते थे।

                               अन्न पान

दूध , दही ,  घी , मांश आवश्यक भोजन अंग थे।
आयतित मसाले भी रहे होंगे क्योंकि मिर्च का यदि वर्णन है तो  काली मिर्च लौंग रहा होगा।
अदरक , पीपल आदि मसालों का प्रयोग होता था।
दालचीनी या तमालपत्रम का उपयोग भी होता रहा होगा क्योंकि यह उत्तरी भारत का बहुत पुराना मसाला है।
सम्भवत: भंग , राई आदि का प्रयोग होता रहा होगा और धनिया या जंगली धनिया भी प्रयोग में  आता होगा .
मधु मक्खी व शहद - पहाड़ी शहद की मैदानों में बड़ी मांग थॆ. शहद जंगली व  मधु मक्खियों से मिलता था।
 प्रयोग भोजन में होता था और नमक संभवत: तिब्बत से आयात  होता होगा। .
कंद , मूल , फलों का ताजा व सुखाकर प्रयोग होता था।  बनैले पत्तों का भी तेमन (साग -भाजी ) प्रयोग होता था. भिस की जडे  बार जिक्र अप्पणजातक में मिलता है ।
यवागू या पतली खिचड़ी सभी को भाति थी।
मांडी , छाछयुक्त मांडी (लपसी , पलेऊ ) का भी प्रयोग होता था।
सत्तू सेवन आम बात थी
कच्चे या पके बालियों /फलियों को भुनकर खाने की  व्यापक प्रथा थी।
भात , खीर , तिल सहित  चावल -झंगोरा का रिवाज था
चावल -झंगोरा तरीदार साग, दालों , मांस मच्छी , दूध के साथ  जाने का वर्णन साहित्यों में मिलता है।
फलों का रस व मदिरा पान भी सामान्य रिवाज था।
धूम्रवर्तिका (पतिब्यड़ी )   से औषधि या नशायुक्त औषधी का धुंवा पिया जाता था।
उत्तराखंड की जड़ी -बूटियाँ   प्रसिद्ध थीं

                       कृषि

आजीविका के साधन थे - कृषि , पशु चारण , आयुध -शस्त्र जीविका और ट्व्यापार /रेडिंग
      अनाजों में मंडुवा , नीवार (झंगोरा ) , श्यामाक  अनाज थे
जौ -गेंहू की खेती भी होती थी
दालों में मूंग , उड़द , तुअर थे
तिल , कपास व गन्ने का उत्पादन भी होता था।
                       पालतू पशु

गाय, भेड़ , बकरी , घोड़े , कुत्ते आदि।  भोटान्तिक क्षेत्र में  पालतू पशु था।
जनपद  से बैल, भार्गवी घोड़े व उन निर्यात होते थे

               निर्यात या व्यापार होने वाली वस्तुएं


अंजन , लवण , गुग्गल , मूंज , बाबड़ घास , देवदारु के फूल , उन , ऊनी वस्त्र , भांग व भांग -वस्त्र -रस्सियाँ , कम्बल , पशु खाल , लाख , चमड़े के थैले , दूध , दही , घी , ताम्बा , लौह व पशु
जड़ी बूटियाँ , विष , बांस -रिंगाल व उपकरण ; भोजपत्र , हाथीदांत , सुवर्ण चूर्ण , सुहागा , शहद , गंगाजल , लवण , टिमर आदि भी निर्यात होते थे। 
 
 


Reference-
Dr. Shiv Prasad Dabral, Uttarakhand ka Itihas 1- 9 Parts
Dr K.K Nautiyal et all , Agriculture in Garhwal Himalayas in History of Agriculture in India page-159-170
B.K G Rao, Development of Technologies During the  Iron Age in South India
V.D Mishra , 2006, Prelude Agriculture in North-Central India (Pragdhara ank 18)
Anup Mishra , Agriculture in Chalolithic Age in North-Central India
Mahabharata
All Vedas
Inquiry into the conditions of lower classes of population
Lallan Ji Gopal (Editor), 2008,  History of Agriculture in India -1200AD
K.K Nautiyal History of Agriculture in Garhwal , an article in History of Agriculture in India -1200AD
Steven A .Webber and Dorien Q. Fuller,  2006, Millets and Their Role in Early Agriculture. paper Presented in 'First Farmers in Global Prospective' , Lucknow 
Joshi A.B.1961, Sesamum, Indian central Oil Seeds Committee , Hyderabad
Drothea Bradigian, 2004, History and Lore of Sesame , Economic Botany vol. 58 Part-3
Chitranjan  Kole , 2007  ,  Oilseeds

Gopinath Mohanty et all, 2007, Tappasu Bhallika of Orissa : Their Historicity and Nativity

Copyright @ Bhishma  Kukreti  15 /9/2013

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                       History aspects of Arrival of Arsa /Ariselu / Arisa in Uttarakhand

                              उत्तराखंड में अरसा प्रचलन या तो ओड़िसा से आया या आन्ध्र प्रदेश से हुआ !

                              उत्तराखंड में कृषि व भोजन का इतिहास --10                                          History of Gastronomy in Uttarakhand 10 
                                      आलेख :  भीष्म कुकरेती

 अरसा उत्तराखंड का एक लोक मिष्ठान है और  आज भी अरसा  बगैर शादी-व्याह ,  बेटी के लिए भेंट सोची ही नही जा सकती है। किन्तु अरसा का अन्वेषण उत्तराखंड में नही हुआ है।
संस्कृत में अर्श का अर्थ होता है -Damage , hemorrhoids नुकसान।  संस्कृत से लिया गया शब्द अरसा को हिंदी में समय या वक्त , देर को भी कहते हैं।  अत : अरसा उत्तरी भारत का मिष्ठान या वैदिक मिस्ठान नही है।अरसा प्राचीन कोल मुंड शब्द भी नही  लगता है।

अरसा, अरिसेलु  शब्द तेलगु या द्रविड़ शब्द हैं ।
उडिया में अरसा को अरिसा  कहते हैं।
अरसा मिष्ठान  आंध्रा और उड़ीसा में एक  परम्परागत  धार्मिक अनुष्ठान में प्रयोग होने वाला मिष्ठान  है।
आन्ध्र में मकर संक्रांति  अरिसेलु /अरसा पकाए बगैर नही मनाई जाती है
उड़ीसा में जगन्नाथ पूजा में अरिसा /अरसा  भोगों में से एक भोजन है।
अरसा , अरिसा  या अरिसेलु एक ही जैसे विधि से पकाया जाता है। याने चावल के आटे (पीठ ) को गुड में पाक लगाकर फिर तेल में पकाना . तीनो स्थानों में चावल के आटे को पीठ कहते हैं।  उत्तराखंड में बाकी अनाजों के आटे को आटा कहते हैं।

                   ओड़िसा के पुरातन बुद्ध साहित्य में अरिसा या अरसा

प्राचीनतम विनय और अंगुतारा निकाय में उल्लेख है कि  गौतम बुद्ध को उनके ज्ञान प्राप्ति के सात दिन के बाद त्रापुसा (तापुसा ) और भाल्लिका (भाल्लिया ) दो बणिकों  ने बुद्ध भगवान को चावल -शहद भेंट में दिया था।  उड़ीसा के कट्टक जिले के अथागढ़ -बारम्बा के बुद्धिस्ट मानते हैं यह भेंट अरिसा पीठ याने अरसा ही था।
पश्चमी उड़ीसा में नुआखाइ (धन कटाई की बाद का धार्मिक अनुष्ठान ) में अरिस एक मुख्या पकवान होता है। उड़ीसा के सांस्कृतिक इतिहासकारों जैसे भागबाना साहू ने अरिसा को प्राचीनतम मिष्ठानो में माना है।

                     आंध्र प्रदेश में अरिसेलु का इतिहास

      आन्ध्र प्रदेश के बारे में कहा जाता है कि आन्ध्र  प्रदेश वाले भोजन प्रिय होते हैं।  दक्षिण भारत में अधिकतर आधुनिक भोजन आंध्र  की देन  माना जाता है। 
चौदहवीं सदी के एक कवि की  'अरिसेलु नूने बोक्रेलुनु ' कविता का सन्दर्भ मिलता है (Prabhakara Smarika Vol -3 Page 322 )।

                        अरसा  का उत्तराखंड में आना 

  उत्तराखंड में अरसा का प्रचलन में उड़ीसा का हाथ है या आंध्र प्रदेश का इस प्रश्न के उत्तर हेतु हमे अंदाज  ही लगाना पड़ेगा  क्योंकि इस लेखक को उत्तराखंड में अरसे का प्रसार का कोई ऐतिहासिक विवरण अभी तक नही मिल पाया है। 
पहले सिद्धांत के अनुसार    अरसा का प्रवेश उत्तराखंड में सम्राट अशोक या उससे पहले उड़ीसा या आंध्र प्रदेश के बौद्ध विद्वानों , बौद्ध भिक्षुओं अथवा अशोक के किसी उड़ीसा निवासी राजनायिक के साथ हुआ। इसी समय उड़ीसा /उत्तरी आंध्र के साथ उत्तराखंड वासियों का सर्वाधिक सांस्कृतिक विनियम  हुआ।
यदि अशोक या उससे पहले अरसा का प्रवेश -प्रचलन उत्तराखंड में हुआ तो इसकी शुरुवात गोविषाण (उधम सिंह नगर ), कालसी , बिजनौर (मौर ध्वज ) क्षेत्र से हुआ होगा ।
 अरसा के प्रवेश में उड़ीसा का अधिक हाथ लगता है।
यदि अरसा उत्तराखंड में अशोक के पश्चात प्रचलित हुआ तो कोई उड़ीसा या आंध्र वासी उत्तराखंड में बसा होगा और उसने अरसा बनाना सिखाया होगा ।किन्तु यदि वह व्यक्ति आंध्र का होता तो वह  इसे अरिसेलु नाम  दिलवाता और उड़ीसा का होता तो अरिसा।  भाषाई बदलाव के हिसाब से उड़ीसा का संबंध/प्रभाव  उत्तराखंड में अरसा प्रचलन से अधिक लगता है।
 कोई उडिया या तेलगु भक्त उत्तराखंड भ्रमण पर आया हो और उसने अरसा बनाने की विधि सिखाई हो !
या कोई उत्तराखंड वासी जग्गनाथ मन्दिर गया हो और वंहा से अपने साथ अरसा बनाने की विधि अपने साथ लाया हो !
 लगता नही कि अरसा ब्रिटिश राज में आया हो।  कारण  सन 1900 के करीब अरसा उत्तरकाशी और टिहरी में भी उतना ही प्रसिद्ध था जितना कुमाओं और ब्रिटिश गढ़वाल में।
यह भी हो सकता है कि नेपाल के रास्ते अरसा प्रचलन आया हो किन्तु बहुत कम संभावना लगती है !

Reference-
Dr. Shiv Prasad Dabral, Uttarakhand ka Itihas 1- 9 Parts
Dr K.K Nautiyal et all , Agriculture in Garhwal Himalayas in History of Agriculture in India page-159-170
B.K G Rao, Development of Technologies During the  Iron Age in South India
V.D Mishra , 2006, Prelude Agriculture in North-Central India (Pragdhara ank 18)
Anup Mishra , Agriculture in Chalolithic Age in North-Central India
Mahabharata
All Vedas
Inquiry into the conditions of lower classes of population
Lallan Ji Gopal (Editor), 2008,  History of Agriculture in India -1200AD
K.K Nautiyal History of Agriculture in Garhwal , an article in History of Agriculture in India -1200AD
Steven A .Webber and Dorien Q. Fuller,  2006, Millets and Their Role in Early Agriculture. paper Presented in 'First Farmers in Global Prospective' , Lucknow 
Joshi A.B.1961, Sesamum, Indian central Oil Seeds Committee , Hyderabad
Drothea Bradigian, 2004, History and Lore of Sesame , Economic Botany vol. 58 Part-3
Chitranjan  Kole , 2007  ,  Oilseeds

Gopinath Mohanty et all, 2007, Tappasu Bhallika of Orissa : Their Historicity and Nativity

Copyright @ Bhishma  Kukreti  14 /9/2013

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                      उत्तराखंड में पतब्यड़ी (पत्तों की चिलम ) -धूम्र वर्तिका का प्रचलन इतिहास


                                     उत्तराखंड में कृषि व भोजन का इतिहास --9
                                        History of Gastronomy in Uttarakhand 9 
                                      आलेख :  भीष्म कुकरेती

          उत्तराखंड में सन   सहत्तर तक पतब्यड़ी (पत्तों की चिलम )   तम्बाकू पीने का प्रचलन  बहुत था ।  बीडी , सिगरेट और माचिस प्रचलित होने से  पतब्यड़ी (पत्तों की चिलम ) का प्रचलन अब समाप्त हो गया है। पतब्यड़ी का  अर्थ है पत्तों की चिलम या धूम्रवर्तिका।  बांज के दो पत्तों को बिछाकर तिकोन या शंकुनुमा मोड़ा जाता और यह आकार में बिलकुल चिलम  दिखता है।  फिर इसके निम्न तिकोन में एक छोटी सी गारी डाली जाती थी ।  फिर तम्बाकू से इस शंकु को भरा जाता है।  इसके ऊपर कबासलू  रुई या बुगुल   के  फूल चूर कर रखे जाते थे। फर अग्यलू  (चकमक पत्थर व लोहा रगड़ यंत्र ) से आग सुलगाई जाती थी।  फिर तम्बाकू के
           तम्बाकू और चिलम का प्रचलन वास्तव में सत्तरहवीं या अट्ठारहवीं सदी में हुआ होगा।  तब तक भारत में और उत्तराखंड में तम्बाकू पीने का प्रचलन नही था।
किन्तु धूम्रपान याने धुंये को पीने का रिवाज शायद महाभारत काल से पहले हो चुका था।
          संस्कृत के महान विद्वान् अग्रवाल 'पाणिनि कालीन भारत वर्ष' में लिखते हैं कि परवर्ती कुलिंद जनपद (400 BC ) उत्तराखंड आदि स्थानों में धूम्रवर्तिका बनती थी. जड़ी बूटी पीसकर , उसे धूप बत्ती रूप देकर   जलाकर सीधा धुंवा  सूंघा या नाक के रास्ते निगला जाता था। याने कि पतब्यड़ी (पत्तों की चिलम )से औषधि धूम्र पान करने का रिवाज महभारत काल से पहले हो चुका होगा
भांग की डंठलों या तुअर (तोर ) की डंठलों में औषधि भरकर फिर आग लगाकर धूम्र पान करना एक   आम रिवाज था।  इन डंठलों में वही औषधि भरी जाती थी जो शीघ्र ज्वलित होती हो।   
उत्तराखंड में बहुत सी औषधियां मिलती थीं और इन औषधियों का प्रयोग धूम्र पान के लिए किया जाता था।
डा अग्रवाल लिखते हैं कि उत्तराखंड में भ्रमण करने वाले भिक्षुओं (साधू , विद्यार्थी ) में धूम्रवर्तिका का सेवन अति    प्रिय था।

   
                             

Reference-
Dr. Shiv Prasad Dabral, Uttarakhand ka Itihas 1- 9 Parts
Dr K.K Nautiyal et all , Agriculture in Garhwal Himalayas in History of Agriculture in India page-159-170
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V.D Mishra , 2006, Prelude Agriculture in North-Central India (Pragdhara ank 18)
Anup Mishra , Agriculture in Chalolithic Age in North-Central India
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All Vedas
Inquiry into the conditions of lower classes of population
Lallan Ji Gopal (Editor), 2008,  History of Agriculture in India -1200AD
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Steven A .Webber and Dorien Q. Fuller,  2006, Millets and Their Role in Early Agriculture. paper Presented in 'First Farmers in Global Prospective' , Lucknow 
Joshi A.B.1961, Sesamum, Indian central Oil Seeds Committee , Hyderabad
Drothea Bradigian, 2004, History and Lore of Sesame , Economic Botany vol. 58 Part-3
Chitranjan  Kole , 2007  ,  Oilseeds



Copyright @ Bhishma  Kukreti  13 /9/2013

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( इस अध्याय में पिथोरागढ़ में पतब्यड़ी (पत्तों की चिलम ) -धूम्र वर्तिका का प्रचलन ;इस अध्याय में अल्मोड़ा में पतब्यड़ी (पत्तों की चिलम ) -धूम्र वर्तिका का प्रचलन ;इस अध्याय में नैनीताल जिले में पतब्यड़ी (पत्तों की चिलम ) -धूम्र वर्तिका का प्रचलन; इस अध्याय में उधम सिंह नगर में पतब्यड़ी (पत्तों की चिलम ) -धूम्र वर्तिका का प्रचलन ;इस अध्याय में पौड़ी  गढ़वाल में पतब्यड़ी (पत्तों की चिलम ) -धूम्र वर्तिका का प्रचलन ;इस अध्याय में चमोली में पतब्यड़ी (पत्तों की चिलम ) -धूम्र वर्तिका का प्रचलन ;इस अध्याय में रूद्र प्रयाग में पतब्यड़ी (पत्तों की चिलम ) -धूम्र वर्तिका का प्रचलन ;इस अध्याय में टिहरी में पतब्यड़ी (पत्तों की चिलम ) -धूम्र वर्तिका का प्रचलन ;इस अध्याय में हरिद्वार में पतब्यड़ी (पत्तों की चिलम ) -धूम्र वर्तिका का प्रचलन ;इस अध्याय में उत्तरकाशी में पतब्यड़ी (पत्तों की चिलम ) -धूम्र वर्तिका का प्रचलन ;इस अध्याय में देहरादून में पतब्यड़ी (पत्तों की चिलम ) -धूम्र वर्तिका का प्रचलन);


                              उत्तराखंड के परिपेक्ष में तिल , भांग और सरसों की  कहानी


                                      उत्तराखंड में कृषि व भोजन का इतिहास --8
                                   History of Gastronomy in Uttarakhand -8   
                   
                              आलेख :  भीष्म कुकरेती
        उत्तराखंड के इतिहास में महाभारतीय कालीन कुलिंद  परिवर्ती कुलिंद जनपद के भोज्य पदार्थ और कृषि के बारे में डा डबराल ने पाणिनि कालीन भारत के लेखक  डा अग्रवाल, अष्टाध्यायी , मखराम  सन्दर्भ देकर लिखा है कि उत्तराखंड में तिल व टिल -भात खूब प्रचलित था.
वास्तव में तिल मनुष्य का पुरानतम खाद्य पदार्थों में  भोज्य पदार्थ है.
  यद्यपि पहले   माना जाता था कि तिल का जन्म अफ्रीका में हुआ।  किन्तु दमानिया , जोशी  और ब्रैडीजियेन की खोंजों से सिद्ध हुआ कि तिल का जन्म भारत में हुआ।  भांग और तिल का पुराना इतिहास है।  किन्तु यह पता नही लग सक रहा है कि भांग का प्रयोग रेशे के लिए होता था कि तेल हेतु।
  तिल का कृषि करण पहले भारत में हुआ और फिर कांस्य युग के प्रथम भाग में मेसोपोटेमिया में तिल का कृषि करण   ज्ञान गया।
हडप्पा के अवशेषों में तिल के अवशेष मिले हैं। इसका अर्थ हुआ कि तिल का नामकरण व कृषिकरण 2600 BC  पहले हो चुका था।
पुरानी सभ्यता के अवशेषों से पता चलता है कि तिल और कोदा  झंगोरा या मिलेट गर्मियों में बोये जाते थे और तिल से तेल निकालने के लिए सिल्ल बट्ट या पत्थर के इमामदस्ता अथवा ओखली -मूसल (उर्ख्यळ - गंज्यळ )  प्रयोग होता रहा होगा।
संस्कृत में तिल का अर्थ है -मलहम , राजतिलक , और द्रविड़  में तिल  एल कहते हैं।

 इसी तरह भांग का कृषिकरण या प्रयोग भी मनुष्य सभ्यता के साथ ही हो चुका था।  भांग का मुख्य उपयोग रेशे के लिए किया जाता  था . भांग तिल से पहले  चुकी होगी।

सरसों का जिक्र बुद्ध की कथाओं में मिलता है। संस्कृत में सरसों का जिक्र पांच हजार साल पहले आता  है।  सरसों का औषधि प्रयोग  था। 
 अत: साफ़ है कि महाभारत और परवर्ती महाभारत काल के कुलिंद जनपद में भांग , तिल और सरसों की कृषि उत्तराखंड में हो चुकी थी।

Reference-
Dr. Shiv Prasad Dabral, Uttarakhand ka Itihas 1- 9 Parts
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Drothea Bradigian, 2004, History and Lore of Sesame , Economic Botany vol. 58 Part-3
Chitranjan  Kole , 2007  ,  Oilseeds



Copyright @ Bhishma  Kukreti  12  /9/2013

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 ( उत्तराखंड में

 

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