Author Topic: Different Castes Residing In Uttarakhand - उत्तराखंड मे रहने वाले विभिन्न जातिया  (Read 58900 times)

एम.एस. मेहता /M S Mehta 9910532720

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BUKSHA



The Bukshas are inhabitants of the Terai, although their locality falls in the Western fringes of Nainital (now Udham Singh Nagar) and borders that of the Tharus. Although they claim descent from Rajputs (like the Tharus they are of Tibetan descent), the Bukshas have merged all their castes and even today, observe only septs (family names) among their people. Bukshas still worship Hindu gods, though also accept the existence of spirits and eat meat. In addition, a Seyana (literally, "Wise One") also administers to their medical/spirit needs.

Bukshas build their houses in two rows, with the space in between serving as a courtyard. As shifting cultivators, the Bukshas made the best of the protection afforded them by the inhospitable and malarial marshes of the Terai. However, since the coming of migrants from other states throughout the 1950s and 1960s, the Bukshas have lost much of their land. Many have ended up as labourers for the new masters who gained their land through foul and unlawful means.



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एम.एस. मेहता /M S Mehta 9910532720

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RAJI


The Rajis, also know as Vanrawats (forest lords) are few in number and live in the forest. They inhabit the woods around Ascot in southern Pithoragarh (now Champawat district), and hold to a tradition of saluting no one except the Ascot Raja. They once practiced shifting cultivation until it was banned by the forest department. Although their agriculture was never well developed, they subsisted on the products of the forests, from edible roots to fruits to the crafting of wooden utensils to trade for other commodities.

The Raji religion also reflects their unique world view, that keeps them aloof from most others around them. For their own gods and some adopted Hindu ones, the Raji construct simple open-air altars with prayer flags and cloth swaying in nearby trees. Their marriage rites are also simple, without Brahmin or priest.

With the acceleration of development and communication with the outside world, the Raji have struggled to maintain a way of life they greatly value. Onerous forest laws have also made life difficult. 




Source : http://uttarakhand.prayaga.org/info4.html

एम.एस. मेहता /M S Mehta 9910532720

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Bhotia Tribe Family PHoto.


Most woollens in the market today are made with mill yarn. We use hand spun yarn which gives a unique feel. This also means that employment is available to a number of local women.

All our products are hand woven in the villages of Dhanaulti, Thatur and Dunda.






एम.एस. मेहता /M S Mehta 9910532720

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मरचा एवं तोलचा समूह
विकिपीडिया, एक मुक्त ज्ञानकोष से
यहाँ जाएँ: नेविगेशन, ख़ोज
मारचा एवं तोलचा

ऊपरी चमोली के ठंडे एवं सूखे भागों में माणा एवं नीति घाटियों में मारचा वास करते हैं। यद्यपि वे तिब्बती भाषा बोलते हैं, उनके मुखाकृति की विशेषता आर्यो से मिलती-जुलती दिखती है। चूंकि मूल रूप से वे तिब्बत से आये हैं इसलिए मारचा हिन्दू धर्म मानते हैं। अन्य भोटिया समूहों के विपरित, वे हिन्दू मंदिरों में पूजा करते हैं तथा धार्मिक समारोहों का आयोजन करने में हिन्दू ब्राम्हणों पर विश्वास करते हैं।

परंपरागत रूप से मारचा यायावरी गडेरिये एवं चरवाहे होते हैं। लाक्ष्णिक रूप से पुरूष गडेरियों का कार्य करते हुए भेड़ों एवं बकरियों को पालते हैं जबकि महिलाएं गांव में रहकर खेती करती हैं। इन उच्च पर्वतीय क्षेत्रों की प्रमुख फसलें राजमा, आलू, मटर तथा अन्य प्रकार के अन्न हैं। गर्मियों में जानवर ऊंचे घने चारागाहों में चरते हैं तथा जाडों में नीचे चले आते हैं। चरवाहे जीविका के लिए पशुओं के ऊन, मांस एवं दूध बेचते हैं।

मारचा का तिब्बतियों से संबंध बना हुआ है जो 5,800 मीटर ऊंचाई पर स्थित माणा एवं नीति दर्रो द्वारा उनके साथ विनिमय-व्यापार करते हैं। वर्ष 1962 में भारत-तिब्बत सीमा बंद हो गयी। इसके बंद होने से पहले बड़ी संख्या में खच्चरों, याकों के साथ कठोरतम परिश्रमी लोग भारतीय सामानों को लादकर तिब्बत ले जाते, जब बर्फ पिघल जाता। व्यापार केंद्रो में वे अपने सामानों का विनिमय तिब्बती ऊन एवं नमक से करते, जिसे वे भारत में स्थानीय बाजारों में फिर बेच देते। व्यापारी लोग अक्टूबर में जाड़ा शुरू होने से पहले भारत लौट आते। वर्ष 1962 में भारत-तिब्बत सीमा बंद हो जाने के बाद मारचा लोगों ने अर्द्ध-कृषि एवं अर्द्ध बंजारी-जीवन शैली को अपना लिया। वर्ष 1992 में सीमित व्यापारिक संबंध कायम किया गया।

मारचा जनजाति के बीच नीति घाटी में बसने वाले छोटे भोटिया समूह तोलचा हैं जो मारचा की तरह ही हिन्दू हैं। उनके तिब्बती मूल होने के बावजूद सदियों से आर्यो के साथ परस्पर विवाह होते रहने से तोलचा जनजाति तिब्बतियों की अपेक्षा आर्यो के जौनसारी से अधिक निकटता रखते


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मारचा एवं तोलचा

ऊपरी चमोली के ठंडे एवं सूखे भागों में माणा एवं नीति घाटियों में मारचा वास करते हैं। यद्यपि वे तिब्बती भाषा बोलते हैं, उनके मुखाकृति की विशेषता आर्यो से मिलती-जुलती दिखती है। चूंकि मूल रूप से वे तिब्बत से आये हैं इसलिए मारचा हिन्दू धर्म मानते हैं। अन्य भोटिया समूहों के विपरित, वे हिन्दू मंदिरों में पूजा करते हैं तथा धार्मिक समारोहों का आयोजन करने में हिन्दू ब्राम्हणों पर विश्वास करते हैं।

परंपरागत रूप से मारचा यायावरी गडेरिये एवं चरवाहे होते हैं। लाक्ष्णिक रूप से पुरूष गडेरियों का कार्य करते हुए भेड़ों एवं बकरियों को पालते हैं जबकि महिलाएं गांव में रहकर खेती करती हैं। इन उच्च पर्वतीय क्षेत्रों की प्रमुख फसलें राजमा, आलू, मटर तथा अन्य प्रकार के अन्न हैं। गर्मियों में जानवर ऊंचे घने चारागाहों में चरते हैं तथा जाडों में नीचे चले आते हैं। चरवाहे जीविका के लिए पशुओं के ऊन, मांस एवं दूध बेचते हैं।

मारचा का तिब्बतियों से संबंध बना हुआ है जो 5,800 मीटर ऊंचाई पर स्थित माणा एवं नीति दर्रो द्वारा उनके साथ विनिमय-व्यापार करते हैं। वर्ष 1962 में भारत-तिब्बत सीमा बंद हो गयी। इसके बंद होने से पहले बड़ी संख्या में खच्चरों, याकों के साथ कठोरतम परिश्रमी लोग भारतीय सामानों को लादकर तिब्बत ले जाते, जब बर्फ पिघल जाता। व्यापार केंद्रो में वे अपने सामानों का विनिमय तिब्बती ऊन एवं नमक से करते, जिसे वे भारत में स्थानीय बाजारों में फिर बेच देते। व्यापारी लोग अक्टूबर में जाड़ा शुरू होने से पहले भारत लौट आते। वर्ष 1962 में भारत-तिब्बत सीमा बंद हो जाने के बाद मारचा लोगों ने अर्द्ध-कृषि एवं अर्द्ध बंजारी-जीवन शैली को अपना लिया। वर्ष 1992 में सीमित व्यापारिक संबंध कायम किया गया।

मारचा जनजाति के बीच नीति घाटी में बसने वाले छोटे भोटिया समूह तोलचा हैं जो मारचा की तरह ही हिन्दू हैं। उनके तिब्बती मूल होने के बावजूद सदियों से आर्यो के साथ परस्पर विवाह होते रहने से तोलचा जनजाति तिब्बतियों की अपेक्षा आर्यो के जौनसारी से अधिक निकटता रखते हैं।

मरचा एवं तोलचा समूह
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मथुरा के ही मूल निवासी हैं छानी के चतुर्वेदी

Almora | अंतिम अपडेट 22 मई 2013 5:30 AM IST पर
चौखुटिया। विकास खंड के छानी गांव में बसे चतुर्वेदी 500 साल पूर्व मथुरा के चौबे पाड़ा गांव से देघाट के पिपौड़ा गांव में आकर पंडिताई करने लगे थे। 300 साल पूर्व चौकोट के बंगारी रावत उनके पूर्वज श्रीपति चतुर्वेदी को पिपौड़ा से पालकी में बैठाकर ससम्मान छानी गांव ले आए थे। इस गांव के 14 चतुर्वेदी परिवार उन्हीं के वंशज हैं। इनमें सात परिवार दिल्ली और सात परिवार गांव में रहते हैं।
जानकारी के अनुसार छानी गांव में रहने वाले चतुर्वेदी परिवारों के पूर्वज पांच शताब्दी पूर्व उत्तराखंड की देवभूमि में देव दर्शन के लिए आए थे। उन दिनों यात्राएं पैदल होती थीं। विभिन्न क्षेत्रों का भ्रमण करते हुए वह बिचला चौकोट पट्टी देघाट के पिपौड़ा गांव में बस गए। जानकारी के अनुसार उन्हें यह गांव पर्यावरण और आध्यात्मिक दृष्टि से उत्तम लगा जिस कारण उन्होंने वहीं रहने का मन बना लिया। चतुर्वेदी इस गांव में रहकर पंडिताई करने लगे।
कहा जाता है कि करीब तीन सदी पूर्व चौकोट के बंगारी रावत तल्ला गेवाड़ के छानी में रहकर थोकदारी करते थे। बंगारी रावत ही देघाट के पिपौड़ा गांव से श्रीपति चतुर्वेदी को अपने कुल पुरोहित के रूप में पालकी में बैठाकर गाजे-बाजे के साथ ससम्मान छानी ले आए। बंगारी रावतों ने अपनी जमीन का कुछ हिस्सा उनके नाम कर दिया। वर्तमान में इस गांव में तीन धड़ों के 14 चतुर्वेदी परिवार हो गए हैं जिसमें से सात परिवार आजीविका के लिए दिल्ली में बस गए हैं। जबकि सात परिवार गांव में ही रहते हैं। वैसे गांव में सभी जातियों के कुल 35 परिवार रहते हैं।
छानी में है चतुर्वेदी लोगों की अलग बाखली चौखुटिया। छानी गांव निवासी शिक्षक आनंद प्रकाश चतुर्वेदी ने बताया कि उनके पिता स्व.हरिकृष्ण चतुर्वेदी ने उन्हें मथुरा के चौबे पाड़ा गांव और देघाट के पिपौड़ा गांव से छानी पहुंचने तक के बारे में विस्तृत जानकारी दी थी। छानी गांव में चतुर्वेदी लोगों की अलग बाखली है। अलबत्ता अब कुछ परिवारों ने अपनी सुविधा अनुसार गांव में ही दूसरे स्थानों पर मकान बना लिए हैं। श्री चतुर्वेदी ने बताया कि गांव में करीब ढाई सौ साल पहले का भूमियां मंदिर भी चतुर्वेदी लोगों ने ही बनाया था। इस मंदिर में चढ़ाया गया नगाड़ा और दमूवा आज भी निशानी के तौर पर संभाल कर रखे गए हैं।

वंशावली भी बनी है
चौखुटिया। शिक्षक आनंद प्रकाश चतुर्वेदी द्वारा बनाई गई वंशावली के अनुसार श्रीपति चतुर्वेदी के एक पुत्र मानदेव थे। उनके पुत्र तुलाराम हुए फिर उनके पुत्र जीवन राम के तीन पुत्र शिवदत्त, तिलमणि और बचीराम हुए। इन्हीं तीन धड़ों के पुत्र, पौत्र और पड़पौत्रों के परिवार छानी गांव से जुडे़ हैं। वंशावली में फिलहाल तीन धड़ों के 43 पुरुषों के नाम दर्शाए गए हैं। जबकि नई पीढ़ी के हिसाब से अब संख्या और बढ़ चुकी है। http://www.amarujala.com

Devbhoomi,Uttarakhand

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पौराणिक धरोहरों को संजोए है यह जनजाति

सर्दियों में जब हिमालय क्षेत्र में कड़ाके की सर्दी पड़नी शुरू हो जाती है, मारछा जनजाति के लोग शिवालिक पहाड़ियों का रुख करते है।

मारछा जनजाति के लोग आज के युग में भी अपनी पारंपरिक धरोहरों और लोकसंस्कृति को बचाए हुए हैं। जिसकी जीवंत झलक आज भी क्षेत्र में नयारघाटी क्षेत्र से लेकर उत्तराखंड के कोटद्वार भाबर तक दिखाई देती है।

इस क्षेत्र से आज भी सीमांत चमोली जपद के मारछा जनजाति के लोग अपनी भेड़-बकरियों के झुंड के साथ गुजरते हैं। हालांकि वर्तमान समय में पहाड़ों में कई जगह यातायात के साधन और दूरसंचार की सुविधाएं मौजूद हैं। मगर मारछा लोगों के द्वारा आज भी पौराणिक परंपराएं निभाई जा रही है।

क्या कहते हैं इतिहासकार
इतिहासकार एवं पुरातत्वविद् डॉ. यशवंत सिंह कठौत बताते हैं कि मारछा जनजाति के लोग पूर्व में जब गढ़वाल क्षेत्र में सड़कें नहीं थी, तब यह लोग अपने साथ भेड़, बकरी, ऊन, शिलाजीत, कस्तूरी और सुहागा लेकर आते थे।

इसके जगह में गढ़वाल की एक मात्र दुगड्डा मंडी से नमक और अनाज ले जाते थे।

संदेश वाहक भी थी यह जनजाति
मासौ निवासी कैलाश थपलियाल का कहना है कि मारछा जनजाति के लोग क्षेत्र में संदेश वाहक का कार्य भी करते थे। पहाड़ों में सड़के और संचार व्यवस्थाएं नहीं थी तब यह लोग सीमांत चमोली जनपद से कोटद्वार भाबर तक डाकिए का कार्य भी करते थे।

वे उनके मार्ग में पड़ने वाले गांवों में विवाहिता बेटियों (ध्याणियों) की कुशल क्षेम उनके परिजनों तक पहुंचाने का कार्य करते थे।

क्या कहते हैं समुदाय के लोग
बकरियों के झुंड के साथ सतपुली पहुंचे मारछा जनजाति के सदस्य जोशीमठ के टुगासी निवासी रघुवीर सिंह, कलम सिंह ने बताया कि सितंबर माह से उनके गांव में बर्फ पड़नी शुरू हो जाती है, और पूरा गांव बर्फ से ढक जाता है


http://www.dehradun.amarujala.com/news/shahar-nama-dun/marcha-tribe-in-uttarakhand/

एम.एस. मेहता /M S Mehta 9910532720

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BY बालकृष्ण डी ध्यानी
 
गढ़वाल में ब्राह्मण जातियां
मूल रूप से गढ़वाल में ब्राह्मण जातियां तीन हिस्सो में बांटी गई है
1 सरोला
2 गंगाड़ी
3 नाना
सरला और गंगाड़ी 8 वीं और 9वीं शताब्दी के दौरान मैदानी भाग से उत्तराखंड आए थे। पवार शासक के राजपुरोहित के रूप में सरोला आये थे।
गढ़वाल में आने के बाद सरोला और गंगाड़ी लोगो ने नाना गोत्र के ब्राह्मणों से शादी की।
सरोला ब्राह्मण के द्वारा बनाया गया भोजन सब लोग खा लेते है परंतु गंगाड़ी जाती का अधिकार केवल अपने सगे-सम्बन्धियो तक ही सिमित है।
1. नौटियाल -
700 साल पहले टिहेरी से आकर तली चांदपुर में नौटी गाव में आकर बस गए !
आप के आदि पुरष है नीलकंठ और देविदया, जो गौर ब्राहमण है।।
नौटियाल चांदपुर गढ़ी के राजा कनकपाल के साथ सम्वत 945 मै धर मालवा से आकर यहाँ बसी, इनके बसने के स्थान का नाम गोदी था जो बाद मैं नौटी नाम मैं परिवर्तित हो गया और यही से ये जाती नौटियाल नाम से प्रसिद हुई।
2. डोभाल -
गढ़वाली ब्राह्मणों की प्रमुख शाखा गंगाडी ब्राह्मणों मैं डोभाल जाती सम्वत 945 मै संतोली कर्नाटक से आई मूलतः कान्यकुब्ज ब्रह्मण जाती थी।
मूल पुरुष कर्णजीत डोभा गाँव मैं बसने से डोभाल कहलाये।
गढ़वाल के पुराने राजपरिवार मैं भी इस जाती के लोग उचे पदों पे भी रहे है .
ये चोथोकी जातीय सरोलाओ की बराथोकी जातियों के सम्कक्ष थी जो नवी दसवी सदी के आसपास आई और चोथोकी कहलाई।
3. रतुड़ी -
सरोला जाती की प्रमुख जाती रतूडी मूलत अद्यागौड़ ब्रह्मण है, जो गौड़ देश से सम्वत 980 मैं आये थे।
इनके मुल्पुरुष सत्यानन्द, राजबल सीला पट्टी के चांदपुर के समीप रतुडा गाँव मैं बसे थे और यही से ये रतूडी नाम से प्रसिद हुए।
इस जाती के लोगो का भी गढ़वाल नरेशों पर दबदबा लम्बे समय तक बरकरार रहा था।
गढ़वाल का सर्व प्रथम प्रमाणिक इतिहास लिखने का श्रेय इसी जाती के युग पुरुष टिहरी राजदरबार के वजीर पंडित हरीकृषण रतूडी को जाता है।
रतुडा मैं माँ भगवती चण्डिका का प्रसिद्ध थान भी है।
4. गैरोला -
आपका पैत्रिक गाव चांदपुर तैल पट्टी है।
आप के आदि पुरष है गयानन्द और विजयनन्द।।
5. डिमरी -
आप दक्षिण से आकर पट्टी तली चांदपुर दिमार गाव में आकर बस गए !
आप द्रविड़ ब्राह्मन है।।

एम.एस. मेहता /M S Mehta 9910532720

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6. थपलियाल -
आप 1100 साल पहीले पट्टी सीली चांदपुर के ग्राम थापली में आकर बस गए।
आप के आदी पुरुष जैचानद माईचंद और जैपाल, जो गौर ब्राहमण है।।
गढ़वाली ब्राह्मणों की बेहद खास जाती जिनकी आराध्य माँ ज्वाल्पा है।
इस जाती के विद्वानों की धाक चांदपुर गढ़ी, देवलगढ़ , श्रीनगर, और टिहरी राजदरबार मैं बराबर बनी रही थी।
थपलियाल अद्यागौड़ है जो गौड देश से सम्वत 980 में थापली गाँव में बसे और इसी नाम से उनकी जाती संज्ञा थपलियाल हुई।
ये जाती भी गढ़वाल के मूल बराथोकी सरोलाओ मैं से एक है।
नागपुर मैं थाला थपलियाल जाती का प्रसिद गाँव है, जहा के विद्वान आयुर्वेद के बडे सिद्ध ब्राह्मण थे।
7. बिजल्वाण -
आपके आदि पुरूष है बीजो / बिज्जू। इन्ही के नाम पर ही इनकी जाती संज्ञा बिज्ल्वान हुई।
गढ़वाल की सरोला जाती मैं बिज्ल्वान एक प्रमुख जाती सज्ञा है, इनकी पूर्व जाती गौड़ थी जी 1100 के आसपास गढ़वाल के चांदपुर परगने मैं आई थी, और इस जाती का मूल स्थान वीरभूमि बंगाल मैं है।।
8. लखेड़ा -
लगभग 1000 साल पहले कोलकत्ता के वीरभूमि से आकर उत्तराखंड में बसे।
उत्तराखंड के लगभग 70 गांवों में फैले लखेड़ा लोग एक ही पुरूष श्रद्धेय भानुवीर नारद जी की संतानें हैं।
ये सरोला ब्राह्मण है।।
9. बहुगुणा -
गढ़वाली ब्राह्मणों की प्रमुख शाखा गंगाडी ब्राह्मणों में बहुगुणा जाती सम्वत 980 में गौड़ बंगाल से आई मूलतः अद्यागौड़ जाती थी।

 

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