तेईस हज़ार फुट की ऊँचाई पर एक तरफ़ बर्फ़ से ढकी चोटियाँ दिखाई देती हैं तो दूसरी ओर खुली पठारी शिखर श्रेणियाँ छाती ताने खड़ी रहती हैं। हिमशिखरों से समय-समय पर हिमनद का हिस्सा टूटता है। काले-कबरे पहाड़ों से पत्थर गिरते हैं। इनके बीच नागिन की तरह बल खाती पतली-सी पगडंडी पर होता है, आम आदमी। घबराया, आशंकित-सा।
गौरीकुंड से १४ किलोमीटर दूर मंदाकिनी के तट पर स्थित पवित्र केदारनाथ धाम तक के दुर्गम मार्ग का कोई भी यात्री यही वर्णन कर सकता है। चरम सुख को मृत्यु के भय के साथ देखना हो, बर्फ़ीली हवाओं का आनंद लेना हो, तो इस जोखिमभरी यात्रा का अनुभव आवश्यक है। केदारनाथ की ओर चलें तो प्रकृति और वातावरण, दोनों में भारी अंतर है। नीचे मंदाकिनी नदी बेताबी से बहती चली जाती है अलकनंदा से रुद्रप्रयाग में मिलने। तीर्थयात्रियों के लिए यह यात्रा कौतूकतापूर्ण होती है, परंतु यहाँ के निवासियों के लिए जीवन एक कठोर संघर्ष है। एक ऐसा संघर्ष जो दिन-रात चलता रहता है, लेकिन फिर भी माथे पर कोई शिकन नहीं।
पुण्यभूमिः उत्तराखंड
उत्तराखंड धर्म के हिसाब से चार धाम, पंचप्रयाग, पंचकेदार, पंचबदरी की पुण्यभूमि के रूप में जाना जाता है। यमुनोत्री, गंगोत्री, केदारनाथ व बदरीनाथ चार धाम हैं। देवप्रयाग, रुद्रप्रयाग, कर्णप्रयाग, सोनप्रयाग एवं विष्णुप्रयाग नामक पाँच प्रयाग हैं। इनके अतिरिक्त भी गंगा और व्यास गंगा का संगम व्यास प्रयाग, भागीरथी का संगम गणेश प्रयाग नाम से प्रसिद्ध है। देवप्रयाग में अलकनंदा और भागीरथी नदियाँ मिलती हैं। देवप्रयाग में इन दो नदियों के संगम के बाद जो जलधारा हरिद्वार की ओर बहती है, वही गंगा है। देवप्रयाग से पहले गंगा नाम का कहीं अस्तित्व नहीं है। यात्रा दुर्गम भी है और रोचक भी। देवप्रयाग से ६८ किलोमीटर दूर दो पहाड़ियों के मध्य में स्थित है रुद्रप्रयाग। रुद्रप्रयाग दो तीर्थयात्राओं का संगम भी है। यहाँ से मंदाकिनी नदी के साथ चलकर केदारनाथ पहुँचते हैं और अलकनंदा के किनारे चलकर बद्रीनाथ। पौराणिक मान्यता के अनुसार पहले केदारनाथ की यात्रा करना चाहिए, उसके बाद बदरीनाथ की। अगर दुर्गम पहाड़ियों को काटकर बनाए सर्पिल रास्तों से न जाकर सीधे नाक की सीध में जाया जाए, तो वह दूरी बीस कि.मी. से ज़्यादा नहीं।