Author Topic: Districts Of Uttarakhand - उत्तराखंड के जिलों का विवरण एवं इतिहास  (Read 95753 times)

Devbhoomi,Uttarakhand

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हरिद्वार जिले के पश्चिम में सहारनपुर, उत्तर और पूर्व में देहरादून, पूर्व में पौड़ी गढ़वाल, और दक्षिण में रुड़की, मुज़फ़्फ़र नगर और बिजनौर हैं। नवनिर्मित राज्य उत्तराखंड ने सम्मिलित किए जाने से पूर्व यह सहारनपुर डिविज़नल कमिशनरी का भाग था।

पूरे जिले को मिलाकर एक संसदीय क्षेत्र बनता है, और यहाँ उत्तराखंड विधानसभा की ९ सीटे हैं जो हैं - भगवानपुर, रुड़कि , इकबालपुर, मंगलौर, लांधौर, लस्कर, भद्रबाद, हरिद्वार, और लालडांग।

जिला प्रशासनिक रूप से तीन तहसिलों में बँटा हुआ है: हरिद्वार, रुड़कि, और लस्कर। यह और छः विकास खण्डों में बँटा हुआ है: भगवानपुर, रुड़कि, नर्सान, भद्रबाद, लस्कर, और खानपुर। हरिद्वार लोकसभा सीट से वर्तमान सांसद हैं 'राजेन्द्र कुमार बादी', और हरिद्वार नगर से उत्तराखंड विधानसभा सदस्य हैं 'मदन कौशिक'।

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हरिद्वार उन पहले शहरों में से एक है जहाँ गंगा पहाडों से निकलकर मैदानों में प्रवेश करती है. गंगा का पानी, अधिकतर वर्षा ऋतु जब कि उपरी क्षेत्रों से मिटटी इसमें घुलकर नीचे आ जाती है के अतिरिक्त एकदम स्वच्छ व ठंडा होता है. गंगा नदी विच्छिन्न प्रवाहों जिन्हें जज़ीरा भी कहते हैं की श्रृंखला में बहती है जिनमें अधिकतर जंगलों से घिरे हैं. अन्य छोटे प्रवाह हैं: रानीपुर राव, पथरी राव, रावी राव, हर्नोई राव, बेगम नदी आदि. जिले का अधिकांश भाग जंगलों से घिरा है व राजाजी राष्ट्रीय प्राणी उद्यान जिले की सीमा में ही आता है जो इसे वन्यजीवन व साहसिक कार्यों के प्रेमियों का आदर्श स्थान बनाता है. राजाजी इन गेटों से पहुंचा जा सकता है:
 रामगढ़ गेट व मोहंद गेट जो देहरादून से २५ किमी पर स्थित है जबकि मोतीचूर, रानीपुर और चिल्ला गेट हरिद्वार से केवल ९ किमी की दूरी पर हैं. कुनाओ गेट ऋषिकेश से ६ किमी पर है. लालधंग गेट कोट्द्वारा से २५ किमी पर है. २३६० वर्ग किलोमीटर क्षेत्र से घिरा हरिद्वार जिला भारत के उत्तराखंड राज्य के दक्षिण पश्चिमी भाग में स्थित है. इसके अक्षांश व देशांतर क्रमशः २९.९६ डिग्री उत्तर व ७८.१६ डिग्री पूर्व हैं. हरिद्वार समुन्द्र तल से २४९.७ मी की ऊंचाई पर उत्तर व उत्तर- पूर्व में शिवालिक पहाडियों तथा दक्षिण में गंगा नदी के बीच स्थित है.

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हरिद्वार में हिन्दू वंशावलियों की पंजिका

वह जो अधिकतर भारतीयों व वे जो विदेश में बस गए को आज भी पता नहीं, प्राचीन रिवाजों के अनुसार हिन्दू परिवारों की पिछली कई पीढियों की विस्तृत वंशावलियां हिन्दू ब्राह्मण पंडितों जिन्हें पंडा भी कहा जाता है
द्वारा हिन्दुओं के पवित्र नगर हरिद्वार में हस्त लिखित पंजिओं में जो उनके पूर्वज पंडितों ने आगे सौंपीं जो एक के पूर्वजों के असली जिलों व गांवों के आधार पर वर्गीकृत की गयीं सहेज कर रखी गयीं हैं. प्रत्येक जिले की पंजिका का विशिष्ट पंडित होता है. यहाँ तक कि भारत के विभाजन के उपरांत जो जिले व गाँव पाकिस्तान में रह गए व हिन्दू भारत आ गए उनकी भी वंशावलियां यहाँ हैं. कई स्थितियों में उन हिन्दुओं के वंशज अब सिख हैं, तो कई के मुस्लिम अपितु ईसाई भी हैं. किसी के लिए किसी की अपितु सात वंशों की जानकारी पंडों के पास रखी इन वंशावली पंजिकाओं से लेना असामान्य नहीं है.

शताब्दियों पूर्व जब हिन्दू पूर्वजों ने हरिद्वार की पावन नगरी की यात्रा की जोकि अधिकतर तीर्थयात्रा के लिए या/ व शव- दाह या स्वजनों के अस्थि व राख का गंगा जल में विसर्जन जोकि शव- दाह के बाद हिन्दू धार्मिक रीति- रिवाजों के अनुसार आवश्यक है के लिए की होगी. अपने परिवार की वंशावली के धारक पंडित के पास जाकर पंजियों में उपस्थित वंश- वृक्ष को संयुक्त परिवारों में हुए सभी विवाहों, जन्मों व मृत्युओं के विवरण सहित नवीनीकृत कराने की एक प्राचीन रीति है.

वर्तमान में हरिद्वार जाने वाले भारतीय हक्के- बक्के रह जाते हैं जब वहां के पंडित उनसे उनके नितांत अपने वंश- वृक्ष को नवीनीकृत कराने को कहते हैं. यह खबर उनके नियत पंडित तक जंगल की आग की तरह फैलती है. आजकल जब संयुक्त हिदू परिवार का चलन ख़त्म हो गया है व लोग नाभिकीय परिवारों को तरजीह दे रहे हैं,
 पंडित चाहते हैं कि आगंतुक अपने फैले परिवारों के लोगों व अपने पुराने जिलों- गाँवों, दादा- दादी के नाम व परदादा- परदादी और विवाहों, जन्मों और मृत्युओं जो कि विस्तृत परिवारों में हुई हों अपितु उन परिवारों जिनसे विवाह संपन्न हुए आदि की पूरी जानकारी के साथ वहां आयें. आगंतुक परिवार के सदस्य को सभी जानकारी नवीनीकृत करने के उपरांत वंशावली पंजी को भविष्य के पारिवारिक सदस्यों के लिए व प्रविष्टियों को प्रमाणित करने के लिए हस्ताक्षरित करना होता है. साथ आये मित्रों व अन्य पारिवारिक सदस्यों से भी साक्षी के तौर पर हस्ताक्षर करने की विनती की जा सकती है.

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२००१ की भारत की जनगणना के अनुसार हरिद्वार जिले की जनसँख्या २,९५,२१३ थी. पुरुष ५४% व महिलाएं ४६% हैं. हरिद्वार की औसत साक्षरता राष्ट्रीय औसत ५९.५% से अधिक ७०% है: पुरुष साक्षरता ७५% व महिला साक्षरता ६४% है. हरिद्वार में, १२% जनसँख्या ६ वर्ष की आयु से कम है.

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मनोरंजन के स्थान

हिन्दू परम्पराओं के अनुसार, हरिद्वार में पांच तीर्थ गंगाद्वार (हर की पौडी), कुश्वर्त (घाट), कनखल, बिलवा तीर्थ (मनसा देवी), नील पर्वत (चंडी देवी) हैं.

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हर की पौडी:

यह पवित्र घाट राजा विक्रमादित्य ने पहली शताब्दी ईसा पूर्व में अपने भाई भ्रिथारी की याद में बनवाया था. मान्यता है कि भ्रिथारी हरिद्वार आया था और उसने पावन गंगा के तटों पर तपस्या की थी. जब वह मरे, उनके भाई ने उनके नाम पर यह घाट बनवाया, जो बाद में हरी- की- पौड़ी कहलाया जाने लगा.


 हर की पौड़ी का सबसे पवित्र घाट ब्रह्मकुंड है. संध्या समय गंगा देवी की हरी की पौड़ी पर की जाने वाली आरती किसी भी आगंतुक के लिए महत्वपूर्ण अनुभव है. स्वरों व रंगों का एक कौतुक समारोह के बाद देखने को मिलता है जब तीर्थयात्री जलते दीयों को नदी पर अपने पूर्वजों की आत्मा की शान्ति के लिए बहाते हैं. विश्व भर से हजारों लोग अपनी हरिद्वार यात्रा के समय इस प्रार्थना में उपस्थित होने का ध्यान रखते हैं. वर्तमान के अधिकांश घाट १८०० के समय विकसित किये गए थे.

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चंडी देवी मन्दिर

यह मन्दिर चंडी देवी जो कि गंगा नदी के पूर्वी किनारे पर "नील पर्वत" के शिखर पर विराजमान हैं, को समर्पित है. यह कश्मीर के राजा सुचत सिंह द्वारा १९२९ ई में बनवाया गया.
 स्कन्द पुराण की एक कथा के अनुसार, चंड- मुंड जोकि स्थानीय राक्षस राजाओं शुम्भ- निशुम्भ के सेनानायक थे को देवी चंडी ने यहीं मारा था जिसके बाद इस स्थान का नाम चंडी देवी पड़ गया. मान्यता है कि मुख्य प्रतिमा की स्थापना आठवीं सदी में आदि शंकराचार्य ने की थी. मन्दिर चंडीघाट से ३ किमी दूरी पर स्थित है व एक रोपवे द्वारा भी पहुंचा जा सकता है. फोन: ०१३३४- २२०३२४, समय- प्रातः ८.३० से साँय ६.०० बजे तक.


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मनसा देवी मन्दिर

बिलवा पर्वत के शिखर पर स्थित, मनसा देवी का मन्दिर, शाब्दिक अर्थों में वह देवी जो मन की इच्छा (मनसा) पूर्ण करतीं हैं, एक पर्यटकों का लोकप्रिय स्थान, विशेषकर केबल कारों के लिए, जिनसे नगर का मनोहर दृश्य दिखता है. मुख्य मन्दिर में दो प्रतिमाएं हैं, पहली तीन मुखों व पांच भुजाओं के साथ जबकि दूसरी आठ भुजाओं के साथ.



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माया देवी मन्दिर

११वीं शताब्दी का माया देवी, हरिद्वार की अधिष्ठात्री ईश्वर का यह प्राचीन मन्दिर एक सिद्धपीठ माना जाता है व इसे देवी सटी की नाभि व ह्रदय के गिरने का स्थान कहा जाता है. यह उन कुछ प्राचीन मंदिरों में से एक है जो अब भी नारायणी शिला व भैरव मन्दिर के साथ खड़े हैं.


 

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