Author Topic: Enrich Your Knowledge On Uttarakhand - उत्तराखंड के बारे संक्षिप्त जानकारी  (Read 89923 times)

Bhishma Kukreti

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 ठंठोली संदर्भ में ढांगू गढ़वाल  की तिबारियों पर अंकन कला -1
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  हिमालय की भवन काष्ठ अंकन लोक कला ( तिबारी अंकन )  -1   
चूँकि आलेख अन्य पुरुष में है तो श्रीमती , श्री व जी शब्द नहीं जोड़े गए है )   
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 संकलन - भीष्म कुकरेती

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  गोरखा काल याने 1815 तक गढ़वाल में पक्के मकान ढूंढने से भी नहीं मिलते थे।  कच्चे व घास फूस के मकानों में ही जनता रहती थी।  हम में से बहुतों को गलत फहमी होती है कि गढ़वाल में तिबारी संस्कृति (नक्कासीदार भवन काष्ठ  कला युक्त मकान ) बहुत पुरानी है।  गढ़वाली राजा युग में मकान निर्माण वास्तव में पाप समझा जाता था क्योंकि नए मकान पर भारी कूड़ कर देना पड़ता था।  जब गढ़वाल में सम्पनता आनी शुरू हुयी तो ही 1860 के पश्चात ही आधुनिक , पक्के एक मजिला मकान निर्माण शुरू  हुआ।  तिबारी निर्माण का प्रचलन लगता है 1890 या उसके बाद शुरू हुआ होगा जब अन्न उत्पादन से कुछ परिवार सौकार (शाहूकार ) बनने लगे व पधानचारी में अधिक बचत होने लगी।  ढांगू में भी 1890 लगभग तिबारियों , डंड्यळ / डंड्यळियों  का निर्माण शुरू हुआ।  अभी तक इस लेखक को कोई ठोस , तर्कयुक्त प्रमाण नहीं मिला कि दक्षिण गढ़वाल (ढांगू , डबरालस्यूं , उदयपुर ) में कोई मकान 1860 से पहले बना हो या तिबारी 1890 से पहले निर्मित हुयी होगी। 
  तिबारी का अर्थ है दुभित्या उबर के ऊपर बरामदे में काष्ठ की नक्कासी  हो।  यदि काष्ठ नक्कासी ना  हो तो ऐसे एक मंजिले खुले बरामदे या बंद बरामदे को डंड्यळ कहते हैं यदि बरामदा न हो और ऊपर कमरा हो तो उस कमरे को मंज्यूळ  ही कहते हैं। 
    सर्वेक्षण से इस  शोधकर्ता ने पाया कि ढांगू के तकरीबन हर गाँव में दो से अधिक तिबारियां अवश्य थीं  जो कुछ बर्बाद हो गयीं है या समाप्ति के बिलकुल निकट हैं।  यह भी पाया गया है कि जिनके मालिक गाँव में नहीं थे व तिबारी नष्ट हो गयी तो तिबारी की नक्कासीदार लकड़ी को लोग ऐसे ही उठाकर ले गए हैं या तिबारी के मालिक ने किसी को अन्य प्रयोग हेतु दे दी गयीं।  कुछ तिबारियों की लकड़ी जला भी दी गयी थीं। 
    सर्वेक्षण से पाया कि लगभग सभी तिबारी सूचनादाता कहते हैं कि तिबारी पर काष्ठ कला अंकन हेतु कलाकार श्रीनगर से आये थे।  श्रीनगर के कारीगर वास्तव में एक जनरिक ब्रांडिंग का उदाहरण है।  किसी को कुछ नहीं पता कि वे अनाम कलाकार कहाँ से आये थे व कहाँ ठहरा करते थे।  केवल ग्वील की सूचना मिलती है कि काष्ठ  कलाकार रामनगर से आये थे व  सौड़ की तिबारी अंकन कलाकर श्रीनगर के थे व छतिंड में रहते थे (अस्थायी निवास ) .
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       ठंठोली के  मलुकराम बडोला की तिबारी में काष्ठ अंकन कला

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ठंठोली मल्ला ढांगू का महत्वपूर्ण गाँव है।  कंडवाल जाति किमसार या कांड से कर्मकांड व वैदकी हेतु बसाये गए थे।  बडोला जाति ढुंगा , उदयपुर से बसे।  शिल्पकार प्राचीन निवासी है।  ठंठोली की सीमाओं में  पूर्व  में रणेथ  , बाड्यों , छतिंडा व दक्षिण पश्चिम में ठंठोली गदन (जो बाद में कठूड़ गदन बनता है ) , दक्षिण पश्चिम में कठूड़ की सारी , उत्तर में पाली गाँव हैं।   
 चंडी प्रसाद बडोला की सूचना अनुसार लकड़ी की नक्कासीदार आलिशान तिबारियां भी ठंठोली में थी व  मलुकराम बडोला (नंदराम बडोला , नारायण दत्त बडोला के पिता  ) , , राजाराम बडोला , बासबा नंद कंडवाल,  जय दत्त कंडवाल, पुरुषोत्तम कंडवाल , रामकिसन कंडवाल आदि सात  तिबारियां थीं। 
    इस लेखक को ठंठोली के मलुकराम बडोला के पड़पोते (great grandson ) हरगोपाल बडोला ने अपनी तिबारी की फोटो भेजीं हैं. यदि स्व मलुक राम  बडोला,  उनके पुत्र स्व नंदराम बडोला   उनके पुत्र स्व प्रेम लाल बडोला व पड़पोते हरगोपाल बडोला (जन्म 1952 ) के मध्य  समय की गणना करें तो हर साखी में 25 साल के अंतर् से मलुकराम बडोला का जन्म  लगभग सन 1875  बैठता है।  याने तिबारी मलुकराम बडोला के यौवन काल के बाद ही निर्मित हुयी होगी।  याने यह तिबारी 1900 के लगभग ही निर्मित  हुयी होगी।  तिबारी की शैली बताती है कि नक्कासी शैली प्राचीन व  नहीं है  याने किसी भी प्रकार से तिबारी 1900  से पहले नहीं निर्मित हुयी होगी। 
  काष्ठ तिबारी साधारण दुभित्या उबर (तल मंजिल ) के ऊपर बरामदा  नक्कासी तिबारी है युक्त है।   तिबारी का काष्ठ  कला चौकोर है , चार खम्बों या स्तम्भों  वाली तिबारी में कोई धनुषाकार मेहराब (arch ) नहीं है सभी चौकोर हैं । चारों स्तम्भ छज्जे के ऊपर स्थापित हैं।  चारों खड़े स्तम्भों में  सुंदर चित्रकारी हुयी है अथवा अंकन किया गया है।   यह पता नहीं चल सका है कि स्तम्भ  एक ही लकड़ी के स्लीपर /लट्ठ से उकेर कर किया गया हो या कई कलाकृतियों को जोड़कर निर्मित किये गए हों  जैसे ग्वील के क्वाठा भीतर के स्तम्भ हैं। 
 
   स्तम्भ में आधार के कुछ ऊपर पहले अधोमुखी कुछ  कुछ कमलाकार अंकन व उसके ऊपर  एक अंडाकार आकृति के ऊपर  उर्घ्वमुखी  कमला की पंखुड़ियां     अंकन हुआ है।  बीच में भी कला कृती में  उभार है जो गोल है व स्तम्भ के चारों और है।  फिर स्तम्भ की गोलाई कम होती है और कुछ कुछ चौकोर  आकृति में स्तम्भ ऊपर के  काष्ठ आकृति जो ऊपरी छज्जे (छत के नीचे ) छज्जे के मिलता है।  यह रेखायुक्त हैं और काष्ठ की कई पत्तियों से बने लगते हैं।  कई परतों में ऊपर का भाग है जो छत से मिलते हैं।  चारों स्तम्भों को मिलाने वाली ऊपर भू समांतर  वाली परत सीधी प्लेट हैं किन्तु दो बीच की प्लेटों में बेल बूटे  अंकित हैं  . ऊपर की परतों में से दो स्तम्भों से बने  दोनों किनारे की खिड़की (?) के ऊपर मध्य में दो गुच्छे हैं व बीच की खिड़की के ऊपर चक्राकार फूल की पंखुड़ियां अंकित है।   स्तम्भों में भी वर्टिकली  बेल बूटे अंकित हैं जो ऊपर की परतों से मिलती हैं व समानता प्रदान करती हैं याने शौक (shock ) से छुटकारा देते हैं। 
    उबर/तल मंजिल  के ऊपर पत्थर के छज्जे  है व छज्जा पत्थर के दासों (टोड़ी ) पर टिके  हैं।   पत्थरों के निर्मित हैं व दास उलटा s की आकृति आभास देता है।  ढांगू में अधिकतर दास (टोड़ी ) इसी आकृति के होते थे।   इस तिबारी में छत के नीचे का छज्जे  का वह  भाग जो स्तम्भों से संबंधित में दास लकड़ी के हैं चौकोर।  उन दासों (टोड़ीयों ) के सबसे आगे नीचे  तीन लम्बे शंकुनुमा आकृतियां लटकी दिखती हैंजबकि वे चिपकी हैं । 
हर स्तम्भ के मध्य एक उभरी लकीर है जिस पर बड़े कमल पंखुड़ियों के ऊपर छोटे ऊर्घ्वाकार कमल पखुड़ियां अंकित हैं और फिर एक उभरी काष्ठ लकीर है इस  उभरी काष्ठ लकीर पर बेल बूटे जैसे कुछ  अंकन है
  नक्कासी में अधिकतर आकृतियां बेल बूटे के ही आभास देते हैं या हैं। 
तिबारी मेंक हीं  भी पशु या पक्षी अंकित नहीं हैं
अपने जमाने में यह तिबारी मेहमानों की खातिरदारी हेतु गाँव वाले प्रयोग  करते थे।  अब तो रंगदार तिबारी लग रही है किन्तु पहले नहीं थी।  कब रंग लगाया में भी शोध आवश्यक है। 
      ठंठोली की इस तिबारी का अभी भौतिक रूप से देखकर शोध आवश्यक है व बारीकियां व अति वैशिष्ठ्य तभी पता चल सकेगा।       
साधारणतया किसी को आज पता नहीं कि इन तिबारियों के बढ़ई /काष्ठ कलाकार कौन थे , कहाँ के थे।  ठंठोली की इस तिबारी के उत्तराधिकारियों के पास भी इस बाबत कोई सूचना नहीं बस एक ही सूचना है वे शायद श्रीनगर गढ़वाल के थे।  वैसे यह भी निश्चित नहीं है कि वे श्रीनगर के थे या जनरिक ब्रैंडिंग हिसाब से  श्रीनगर नाम पड़ा है। 
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फोटो व सूचना आभार - ठंठोली के पंडित  हरगोपाल बडोला

सर्वाधिकार @ भीष्म कुकरेती

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