Author Topic: Fairs & Festivals Of Uttarakhand - उत्तराखण्ड के प्रसिद्ध त्यौहार एवं मेले  (Read 93725 times)

sanjupahari

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Re: FAMOUS FESTIVALS & MELAS OF UTTARAKHAND !!
« Reply #10 on: October 04, 2007, 08:23:10 PM »
waah waah mehta jew tumul to ekdam khatarnaak khabar di di hooo hamuku....jai hoo mehta jew kee jai hooo

एम.एस. मेहता /M S Mehta 9910532720

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Re: FAMOUS FESTIVALS & MELAS OF UTTARAKHAND !!
« Reply #11 on: October 05, 2007, 01:14:04 PM »
नंदादेवी मेला-अल्मोड़ा

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समूचे पर्वतीय क्षेत्र में हिमालय की पुत्री नंदा का बड़ा सम्मान है । उत्तराखंड में भी नंदादेवी के अनेकानेक मंदिर हैं । यहाँ की अनेक नदियाँ, पर्वत श्रंखलायें, पहाड़ और नगर नंदा के नाम पर है । नंदादेवी, नंदाकोट, नंदाभनार, नंदाघूँघट, नंदाघुँटी, नंदाकिनी और नंदप्रयाग जैसे अनेक पर्वत चोटियाँ, नदियाँ तथा स्थल नंदा को प्राप्त धार्मिक महत्व को दर्शाते हैं । नंदा के सम्मान में कुमाऊँ और गढ़वाल में अनेक स्थानों पर मेले लगते हैं । भारत के सर्वोच्य शिखरों में भी नंदादेवी की शिखर श्रंखला अग्रणीय है लेकिन कुमाऊँ और गढ़वाल वासियों के लिए नंदादेवी शिखर केवल पहाड़ न होकर एक जीवन्त रिश्ता है । इस पर्वत की वासी देवी नंदा को क्षेत्र के लोग बहिन-बेटी मानते आये हैं । शायद ही किसी पहाड़ से किसी देश के वासियों का इतना जीवन्त रिश्ता हो जितना नंदादेवी से इस क्षेत्र के लोगों का है ।

कुमाऊँ मंड़ल के अतिरिक्त भी नंदादेवी समूचे गढ़वाल और हिमालय के अन्य भागों में जन सामान्य की लोकप्रिय देवी हैं । नंदा की उपासना प्राचीन काल से ही किये जाने के प्रमाण धार्मिक ग्रंथों, उपनिषद और पुराणों में मिलते हैं । रुप मंडन में पार्वती को गौरी के छ: रुपों में एक बताया गया है । भगवती की ६ अंगभूता देवियों में नंदा भी एक है । नंदा को नवदुर्गाओं में से भी एक बताया गया है । भविष्य पुराण में जिन दुर्गाओं का उल्लेख है उनमें महालक्ष्मी, नंदा, क्षेमकरी, शिवदूती, महाटूँडा, भ्रामरी, चंद्रमंडला, रेवती और हरसिद्धी हैं । शिवपुराण में वर्णित नंदा तीर्थ वास्तव में कूर्माचल ही है । शक्ति के रुप में नंदा ही सारे हिमालय में पूजित हैं ।

नंदा के इस शक्ति रुप की पूजा गढ़वाल में करुली, कसोली, नरोना, हिंडोली, तल्ली दसोली, सिमली, तल्ली धूरी, नौटी, चांदपुर, गैड़लोहवा आदि स्थानों में होती है । गढ़वाल में राज जात यात्रा का आयोजन भी नंदा के सम्मान में होता है ।

कुमाऊँ में अल्मोड़ा, रणचूला, डंगोली, बदियाकोट, सोराग, कर्मी, पौथी, चिल्ठा, सरमूल आदि में नंदा के मंदिर हैं ।अनेक स्थानों पर नंदा के सम्मान में मेलों के रुप में समारोह आयोजित होते हैं । नंदाष्टमी को कोट की माई का मेला और नैतीताल में नंदादेवी मेला अपनी सम्पन्न लोक विरासत के कारण कुछ अलग ही छटा लिये होते हैं परन्तु अल्मोड़ा नगर के मध्य में स्थित ऐतिहासिकता नंदादेवी मंदिर में प्रतिवर्ष भाद्र मास की शुक्ल पक्ष की अष्टमी को लगने वाले मेले की रौनक ही कुछ अलग है ।

अल्मोड़ा में नंदादेवी के मेले का इतिहास यद्यपि अधिक ज्ञात नहीं है तथापि माना जाता है कि राजा बाज बहादुर चंद (सन् १६३८-७८) ही नंदा की प्रतिमा को गढ़वाल से उठाकर अल्मोड़ा लाये थे । इस विग्रह को वर्तमान में कचहरी स्थित मल्ला महल में स्थापित किया गया । बाद में कुमाऊँ के तत्कालीन कमिश्नर ट्रेल ने नंदा की प्रतिमा को वर्तमान से दीप चंदेश्वर मंदिर में स्थापित करवाया था ।

अल्मोड़ा शहर सोलहवीं शती के छटे दशक के आसपास चंद राजाओं की राजधानी के रुप में विकसित किया गया था । यह मेला चंद वंश की राज परम्पराओं से सम्बन्ध रखता है तथा लोक जगत के विविध पक्षों से जुड़ने में भी हिस्सेदारी करता है ।

पंचमी तिथि से प्रारम्भ मेले के अवसर पर दो भव्य देवी प्रतिमायें बनायी जाती हैं । पंचमी की रात्रि से ही जागर भी प्रारंभ होती है । यह प्रतिमायें कदली स्तम्भ से निर्मित की जाती हैं । नंदा की प्रतिमा का स्वरुप उत्तराखंड की सबसे ऊँची चोटी नंदादेवी के सद्वश बनाया जाता है । स्कंद पुराण के मानस खंड में बताया गया है कि नंदा पर्वत के शीर्ष पर नंदादेवी का वास है । कुछ लोग यह भी मानते हैं कि नंदादेवी प्रतिमाओं का निर्माण कहीं न कहीं तंत्र जैसी जटिल प्रक्रियाओं से सम्बन्ध रखता है । भगवती नंदा की पूजा तारा शक्ति के रुप में षोडशोपचार, पूजन, यज्ञ और बलिदान से की जाती है । सम्भवत: यह मातृ-शक्ति के प्रति आभार प्रदर्शन है जिसकी कृपा से राजा बाज बहादुर चंद को युद्ध में विजयी होने का गौरव प्राप्त हुआ । षष्ठी के दिन गोधूली बेला में केले के पोड़ों का चयन विशिष्ट प्रक्रिया और विधि-विधान के साथ किया जाता है ।

षष्ठी के दिन पुजारी गोधूली के समय चन्दन, अक्षत, पूजन का सामान तथा लाल एवं श्वेत वस्र लेकर केले के झुरमुटों के पास जाता है । धूप-दीप जलाकर पूजन के बाद अक्षत मुट्ठी में लेकर कदली स्तम्भ की और फेंके जाते हैं । जो स्तम्भ पहले हिलता है उससे नन्दा बनायी जाती है । जो दूसरा हिलता है उससे सुनन्दा तथा तीसरे से देवी शक्तियों के हाथ पैर बनाये जाते हैं । कुछ विद्धान मानते हैं कि युगल नन्दा प्रतिमायें नील सरस्वती एवं अनिरुद्ध सरस्वती की हैं । पूजन के अवसर पर नन्दा का आह्मवान 'महिषासुर मर्दिनी' के रुप में किया जाता है । सप्तमी के दिन झुंड से स्तम्भों को काटकर लाया जाता है । इसी दिन कदली स्तम्भों की पहले चंदवंशीय कुँवर या उनके प्रतिनिधि पूजन करते है । उसके बाद मंदिर के अन्दर प्रतिमाओं का निर्माण होता है । प्रतिमा निर्माण मध्य रात्रि से पूर्व तक पूरा हो जाता है । मध्य रात्रि में इन प्रतिमाओं की प्राण प्रतिष्ठा व तत्सम्बन्धी पूजा सम्पन्न होती है ।

मुख्य मेला अष्टमी को प्रारंभ होता है । इस दिन ब्रह्ममुहूर्त से ही मांगलिक परिधानों में सजी संवरी महिलायें भगवती पूजन के लिए मंदिर में आना प्रारंभ कर देती हैं । दिन भर भगवती पूजन और बलिदान चलते रहते हैं । अष्टमी की रात्रि को परम्परागत चली आ रही मुख्य पूजा चंदवंशीय प्रतिनिधियों द्वारा सम्पन्न कर बलिदान किये जाते हैं । मेले के अन्तिम दिन परम्परागत पूजन के बाद भैंसे की भी बलि दी जाती है । अन्त में डोला उठता है जिसमें दोनों देवी विग्रह रखे जाते हैं । नगर भ्रमण के समय पुराने महल ड्योढ़ी पोखर से भी महिलायें डोले का पूजन करती हैं । अन्त में नगर के समीप स्थित एक कुँड में देवी प्रतिमाओं का विसर्जन किया जाता है ।

मेले के अवसर पर कुमाऊँ की लोक गाथाओं को लय देकर गाने वाले गायक 'जगरिये' मंदिर में आकर नंदा की गाथा का गायन करते हैं । मेला तीन दिन या अधिक भी चलता है । इस दौरान लोक गायकों और लोक नर्तको की अनगिनत टोलियाँ नंदा देवी मंदिर प्राँगन और बाजार में आसन जमा लेती हैं । झोड़े, छपेली, छोलिया जैसे नृत्य हुड़के की थाप पर सम्मोहन की सीमा तक ले जाते हैं । कहा जाता है कि कुमाऊँ की संस्कृति को समझने के लिए नंदादेवी मेला देखना जरुरी है । मेले का एक अन्य आकर्षण परम्परागत गायकी में प्रश्नोत्तर करने वाले गायक हैं, जिन्हें बैरिये कहते हैं । वे काफी सँख्या में इस मेले में अपनी कला का प्रदर्शन करते हैं । अब मेले में सरकारी स्टॉल भी लगने लगे हैं ।

 

 

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« Reply #12 on: October 05, 2007, 01:14:19 PM »
नंदादेवी मेला-नैनीताल

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अल्मोड़ा की ही भांति नैनीताल में भी नंदादेवी मेला आस्था और विश्वास के साथ मनाया जाता है । कहा जाता है कि अल्मोड़ा से जाकर लोगों ने ही नैनीताल में भी इस मेले की शुरुआत की थी । वर्ष १९१८-१९ ई. में स्थानीय लोगों की पहल पर इस त्यौहार को नैनीताल में भी जातीय पर्व के रुप में मनाया जाने लगा । मेले को सुचारु रुप से संचालित करने के लिए श्री राम सेवक सभा द्वारा वर्ष १९३८ में व्यवस्था अपने हाथ में ले ली गयी । वर्तमान में भी इस संस्था के पास व्यवस्था का सारा कार्य है ।

नैनीताल में मेले के धार्मिक कार्य कार्यकलाप पंचमी से ही प्रारंभ होते हैं । यहाँ भी नंदा प्रतिमाओं को कदली स्तम्भों से ही निर्मित किया जाता है । मेले के लिए ब्राह्मण नैनीताल के पास बसे ज्योलीकोट से आते हैं । अल्मोड़ा की ही तरह कदली स्तम्भों का चयन विधिविधान से किया जाता है । मल्लीताल में स्थित धर्मशाला में तब विधि अनुसार चयनित किये गये कदली स्तम्भों के पूजन अर्चन के बाद मेले की गतिविधियाँ प्रारम्भ हो जाती है । तब स्थानीय शिल्पी अपनी प्रतिभा और प्रज्ञा से परम्परानुसार नंदामुखाकृतियाँ निर्मित करते हैं । मुखाकृतियों के आंगिक श्रंगार और उनके आभूषणों से अलंकृत करने के बाद उनका पूजन किया जाता है, प्राण प्रतिष्ठा की जाती है ।

मेले को चूँकि महोत्सव का रुप दे दिया गया है, इसलिए विसर्जन होने तक लगातार पूजन, अर्चन चलता है, साँस्कृतिक कार्यक्रम आयोजित किये जाते हैं ।

मेले के अन्तिम दिन परम्परागत रुप से शोभा यात्रा निकाली जाती है । नन्दा माँ की जय जयकार करते हजारों लोग इस शोभायात्रा में सम्मिलित होते हैं । प्रतिमाओं पर अक्षत, पुष्प आदि अर्पित किये जाते हैं । अन्त में पाषाण देवी मंदिर के पास इन देवी विग्रहों को विसर्जित किया जाता है ।

मेले के दौरान दूर-दर से आये लोकगायक, नर्तक अपनी कला का प्रदर्शन करते हैं ।


 

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Re: FAMOUS FESTIVALS & MELAS OF UTTARAKHAND !!
« Reply #13 on: October 05, 2007, 01:14:41 PM »
कोट की माई का मेला

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कोट की माई का मंदिर अल्मोड़ा से ग्वालदम जानेवाले रास्ते पर बैजनाथ से ३ कि.मी. की दूरी पर ऊँची चोटी पर स्थित है । यहाँ पहुँचने के लिए १ से ११/२ कि.मी. की खड़ी चढ़ाई चढ़नी पड़ती है । रणचूला नाम से विख्यात इस स्थान पर कभी कव्यूरी राजाओं ने अपना किला बनवाया था । गढ़वाल यात्रा के समय जगतगुरु शंकराचार्य भी इस स्थान पर कव्यूरी राजाओं के अतिथि बने थे । उन्होंने बैजनाथ मंदिर की शिला की यहाँ प्राणप्रतिष्ठा की और पूजन आरम्भ करवाया । बाद में वे ही कोटा की माई के नाम से पूजित हुई ।

एक कथा यह भी है कि एक समय यह समूची कव्यूर घाटी जल प्लावन के कारण पानी में डूबी हुई थी तथा जल के भीतर अरुण नामक दैव्य ने अपनी राजधानी बनाई हुई थी । इस दैव्य के आतंक से परेशान देवताओं को प्राण देने के लिए शक्ति रुपा देवी ने भ्रामरी रुप धारण कर दैव्य का अंत किया था । यह कथा दुर्गासप्तशती में भी मिलती है ।

स्थानीय जनश्रुतियों के अनुसार भी एक समय में समूची कव्यूरी घाटी में जल प्लावन था । इस कारण गरुड़ के पास वर्तमान में अवस्थित अणां गाँव की भूमि भी पानी में डूबी हुई थी । पहाड़ में छीना उस स्थान को कहते हैं जहाँ दो पर्वत के पास चक्रवर्तवेश्वर नामक स्थान को अपनी राजधानी बनाया था । अरुण दैव्य का यह राजधानी जल के अंदर बनी थी । इन्द्र की प्रार्थना पर भगवती ने भ्रामरी रुप धारण कर हरछीना पर्वत को तोड़कर जल के निकास का आदेश दिया और जब पानी समाप्त होने पर अरुण अपनी राजधानी से बाहर आया तो उसकी जीवन लीला समाप्त कर दी । यह देवी तब से कोट की भ्रमरी के नाम से पूजित हुई ।

चंद राजाओं के शासन काल में नंदादेवी, कोट मंदिर के नीचे झालामाली गाँव में स्थापित थीं । तब से मेलाडुंगरी के भन्डारी ठाकुर उनकी पूजा का कार्य सँभालते हैं । चंद राजाओं के शासनकाल में बकरों तथा भैंसे की बलि नीचे ही दी जाती थी । उस समय नंदादेवी का मेला हर तीसरे वर्ष नीचे ही लगता था । भ्रामरी के मंदिर में चेत्र की अष्टमी को प्रति वर्ष मेला लगता था । बाद में नंदा की स्थापना भी कोट में भ्रामरी के साथ की गयी । चंद वंशीय राजा जगतचंद ने ग्राम झालामाली तथा ग्राम डूंगरी मंदिर को गूँठ में चढ़ाया । रोज चंड़ी पाठ के लिए भेंटा ग्राम के लोहूमी ब्राह्मणों को नियुक्त किया । जखेड़ा के पड्यारों ने हर वर्ष मेला बनाने का निर्णय लिया और अब उनकी ओर से भंडारा होता है ।

प्राय: मेला तीन दिन में सम्पन्न होता है । नौटी गाँव से आया हुआ नंदाराजजात का पूजा का सामान यहाँ पहले से ही मंगा लिया जाता है । मेला आरम्भ होने पर सबसे पहले नंदा की जागर लगाने वाले जगरिये न्योते जाते हैं, ये जगरियें भेटी ग्राम से आते हैं । चंद राजाओं ने जागर लगाने की एवज में इन जगरियों को भेटी ग्राम में जमीन दी थी । तब से परम्परा बनी हुई है कि जगरिये मेले में जागर लगाने के लिए न्योते जायेंगे । पंचमी को जगरिये न्योते जाते हैं तथा षष्ठी एवं सप्तमी को जागर लगती है । सप्तमी के दिन केले के स्तम्भ लाने से पहले केले के खामें का पूजन करने के बाद इनसे प्रतिमा का निर्माण किया जाता है । प्रतिमा निर्माण को देवी का डिकरा बनाना कहा जाता है । बताया जाता है कि प्रतिमा का श्रंगार चंद राजाओं के समय में एक लाख रुपये का व्यय होता था । अब इस धरोहर सुरक्षा की जिम्मेदारी द्योनाई के बोरा लोगों की है । वे ही देवी के श्रंगार का सामान उत्सव के मौके पर मंदिर में लाते हैं । जेवर को भी ढ़ोल-नगाड़ों के साथ ही लाया जाता है । अपराह्म ४ बजे तक देवी की प्रतिमा तैयार हो जाती है । पुजारी के ऊपर देवी अवतरित होती है । रात्रि में भैंसे का बलिदान होता है । महिष को मेला ड़ूँगरी के लोग आते हैं । दूसरा बलिदान अष्टमी के दिन अपराह्म डेढ़ बजे होता है । तब तक भारी सँख्या में दूर दराज के गाँवों से आये श्रद्धालु जमा हो जाते है । सायं डोला उठने से पहले देवी का भोग लगाया जाता है । यह भोग छत्तीस प्रकार के व्यंजनों से तैयार किया जाता है । व्यंजन बनाने के लिए रसोईया गाँव से विशेष रुप से आता है । देवी को भोग लगाने की जिम्मेदारी इसी रसोईये की है । सभी कार्य सम्पन्न हो जाने पर ही डोला उठता है । अवतरित देवी को जगह-जगह नचाया जाता है । अन्त में डोला झालामाली गाव होता हुआ देवीधारा नामक जल धाराओं के पास पहुँचता है । जहाँ देवी प्रतिमा का प्रतिष्ठापूर्वक विसर्जन किया जाता है ।


 

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Re: FAMOUS FESTIVALS & MELAS OF UTTARAKHAND !!
« Reply #14 on: October 05, 2007, 01:15:03 PM »
स्याल्दे - बिखौती का मेला

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अल्मोड़ा जनपद के द्वाराहाट कस्बे में सम्पन्न होने वाला स्याल्दे बिखौती का प्रसिद्ध मेला प्रतिवर्ष वैशाख माह में सम्पन्न होता है । हिन्दू नव संवत्सर की शुरुआत ही के साथ इस मेले की भी शुरुआत होती है जो चैत्र मास की अन्तिम तिथि से शुरु होता है । यह मेला द्वाराहाट से आठ कि.मी. दूर प्रसिद्ध शिव मंदिर विभाण्डेश्वर में लगता है । मेला दो भागों में लगता है । पहला चैत्र मास की अन्तिम तिथि को विभाण्डेश्वर मंदिर में तथा दूसरा वैशाख माह की पहली तिथि को द्वाराहाट बाजार में । मेले की तैयारियाँ गाँव-गाँव में एक महीने पहले से शुरु हो जाती हैं । चैत्र की फूलदेई संक्रान्ति से मेले के लिए वातावरण तैयार होना शुरु होता है । गाँव के प्रधान के घर में झोड़ों का गायन प्रारम्भ हो जाता है ।

चैत्र मास की अन्तिम रात्रि को विभाण्डेश्वर में इस क्षेत्र के तीन धड़ों या आलों के लोग एकत्र होते हैं । विभिन्न गाँवों के लोग अपने-अपने ध्वज सहित इनमें रास्ते में मिलते जाते हैं । मार्ग परम्परागत रुप से निश्चित है । घुप्प अंधेरी रात में ऊँची-ऊँची पर्वतमालाओं से मशालों के सहारे स्थानीय नर्तकों की टोलियाँ बढ़ती आती है इस मेले में भाग लेने । स्नान करने के बाद पहले से निर्धारित स्थान पर नर्तकों की टोलियाँ इस मेले को सजीव करने के लिए जुट जाती है ।

विषुवत् संक्रान्ति ही बिखौती नाम से जानी जाती है । इस दिन स्नान का विशेष महत्व है । मान्यता है कि जो उत्तरायणी पर नहीं नहा सकते, कुम्भ स्नान के लिए नहीं जा सकते उनके लिए इस दिन स्नान करने से विषों का प्रकोप नहीं रहता । अल्मोड़ा जनपद के पाली पछाऊँ क्षेत्र का यह एक प्रसिद्ध मेला है, इस क्षेत्र के लोग मेले में विशेष रुप से भाग लेते हैं ।

इस मेले की परम्परा कितनी पुरानी है इसका निश्चित पता नहीं है । बताया जाता है कि शीतला देवी के मंदिर में प्राचीन समय से ही ग्रामवासी आते थे तथा देवी को श्रद्धा सुमन अर्पित करने के बाद अपने-अपने गाँवों को लौट जाया करते थे । लेकिन एक बार किसी कारण दो दलों में खूनी युद्ध हो गया । हारे हुए दल के सरदार का सिर खड्ग से काट कर जिस स्थान पर गाड़ा गया वहाँ एक पत्थर रखकर स्मृति चिन्ह बना दिया गया । इसी पत्थर को ओड़ा कहा जाता है । यह पत्थर द्वारहाट चौक में रखा आज भी देखा जा सकता है । अब यह परम्परा बन गयी है कि इस ओड़े पर चोट मार कर ही आगे बढ़ा जा सकता है । इस परम्परा को 'ओड़ा भेटना' कहा जाता है । पहले कभी यह मेला इतना विशाल था के अपने अपने दलों के चिन्ह लिए ग्रामवासियों को ओड़ा भेंटने के लिए दिन-दिन भर इन्तजार करना पड़ता था । सभी दल ढोल-नगाड़े और निषाण से सज्जित होकर आते थे । तुरही की हुँकार और ढोल पर चोट के साथ हर्षोंल्लास से ही टोलियाँ ओड़ा भेंटने की र अदा करती थीं । लेकिन बाद में इसमें थोड़ा सुधारकर आल, गरख और नौज्यूला जैसे तीन भागों में सभी गाँवों को अलग-अलग विभाजित कर दिया गया । इन दलों के मेले में पहुँचने के क्रम और समय भी पूर्व निर्धारित होते हैं । स्याल्दे बिखौती के दिन इन धड़ों की सजधज अलग ही होती है । हर दल अपने-अपने परम्परागत तरीके से आता है और रस्मों को पूरा करता है । आल नामक घड़े में तल्ली-मल्ली मिरई, विजयपुर, पिनौली, तल्ली मल्लू किराली के कुल छ: गाँ है । इनका मुखिया मिरई गाँव का थौकदार हुआ करता है । गरख नामक घड़े में सलना, बसेरा, असगौली, सिमलगाँव, बेदूली, पैठानी, कोटिला, गवाड़ तथा बूँगा आदि लगभग चालीस गाँव सम्मिलित हैं । इनका मुखिया सलना गाँव का थोकदार हुआ करता है । नौज्यूला नामक तीसरा घड़ छतीना, बिदरपुर, बमनपुरु, सलालखोला, कौंला, इड़ा, बिठौली, कांडे, किरौलफाट आदि गाँव हैं । इनका मुखिया द्वाराघट का होता है । मेले का पहला दिन बाट्पुजे - मार्ग की पूजा या नानस्याल्दे कहा जाता है । बाट्पुजे का काम प्रतिवर्ष नौज्यूला वाले ही करते हैं । वे ही देवी को निमंत्रण भी देते हैं ।

ओड़ा भेंटने का काम उपराह्म में शुरु होता है । गरख-नौज्यूला दल पुराने बाजार में से होकर आता है । जबकि आल वाला दल पुराने बाजार के बीच की एक तंग गली से होता हुआ मेले के वांछित स्थान पर पहुँचता है । लेकिन इस मेले का पारम्परिक रुप अभी भी मौजूद है । लोक नृत्य और लोक संगीत से यह मेला अभी भी सजा संवरा है । मेले में भगनौले जैसे लोकगीत भी अजब समां बाँध देते हैं । बाजार में ओड़ा भेंटने की र को देखने और स्थानीय नृत्य को देखने अब पर्यटक भी दूर-दूर से आने लगे हैं । इसके बाद ही मेले का समापन होता है ।

कभी यह मेला व्यापार की दृष्टि से भी समृद्ध था । परन्तु पहाड़ में सड़कों का जाल बिछने से व्यापारिक स्वरुप समाप्त प्राय: है । मेले में जलेबी का रसास्वादन करना भी एक परम्परा जैसी बन गयी है । मेले के दिन द्वाराहाट बाजार जलेबी से भरा रहता है ।

इस मेले की प्रमुख विशेषता है कि पहाड़ के अन्य मेलों की तरह इस मेले से सांस्कृतिक तत्व गायब नहीं होने लगे हैं । पारम्परिक मूल्यों का निरन्तर ह्रास के बावजूद यह मेला आज भी किसी तरह से अपनी गरिमा बनाये हुए है ।


 

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« Reply #15 on: October 05, 2007, 01:15:47 PM »
उत्तरायणी मेला - बागेश्वर

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यूँ तो मकर संक्रान्ति या उत्तरायणी के अवसर पर नदियों के किनारे जहाँ-तहाँ मेले लगते हैं, लेकिन उत्तरांचल तीर्थ बागेश्वर में प्रतिवर्ष आयोजित होने वाली उतरैणी की रौनक ही कुछ अलग है ।

उत्तराखंड में बागेश्वर की मान्यता 'तीर्थराज' की है । भगवान शंकर की इस भूमि में सरयू और गोमती का भौतिक संगम होने के अतिरिक्त लुप्त सरस्वती का भी मानस मिलन है । नदियों की इस त्रिवेणी के कारण ही उत्तरांचलवासी बागेश्वर को
तीर्थराज प्रयाग के समकक्ष मानते आये हैं ।

बागेश्वर का कस्बा पुराने इतिहास और सुनहरे अतीत को संजोये हुए है । स्कन्द पुराण के मानस खण्ड में कूमचिल के विभिन्न स्थानों का विशद् वर्णन उपलब्ध होता है । बागेश्वर के गौरव का भी गुणगान किया गया है । पौराणिक आख्यानों के अनुसार बागेश्वर शिव की लीला स्थली है । इसकी स्थापना भगवान शिव के गण चंडीस ने महादेव की इच्छानुसार 'दूसरी काशी' के रुप में की और बाद में शंकर-पार्वती ने अपना निवास बनाया । शिव की उपस्थिति में आकाश में स्वयंभू लिंग भी उत्पन्न हुआ जिसकी ॠषियों ने बागीश्वर रुप में अराधना की ।

स्कन्दपुराण के ही अनुसार मार्कण्डेय ॠषि यहाँ तपस्यारत थे । ब्रह्मर्षि वशिष्ठ जब देवलोक से विष्णु की मानसपुत्री सरयू को लेकर आये तो सार्कण्डेय ॠषि के कारण सरयू को आगे बढ़ने से रुकना पड़ा । ॠषि की तपस्या भी भंग न हो और सरयू को भी मार्ग मिल जाये, इस आशय से पार्वती ने गाय और शिव ने व्याघ्र का रुप धारण किया और तपस्यारत ॠषि से सरयू को मार्ग दिलाया । कालान्तर व्याघ्रेश्वर ही बागेश्वर बन गया ।

विष्णु की मानस पुत्री सरयू का स्नान पापियों को मोक्ष और सद्गति प्रदान करने वाला है । सरयू पापनाशक है । यम मार्ग को रोकने वाली सरयू के जल का पान करने से सोमपान का फल और स्नान अश्वमेघ का फल प्रदान करता है । बागेश्वर तीर्थ में मृत्यु से प्राणी शिव को प्राप्त होता है । इस प्रकार सूर्य तीर्थ तथा अग्नि तीर्थ के बीच स्थित विश्वेश्वर ही बागेश्वर है । सरयू का निर्मल जल सतोगुणी फल देता है । नदी की दूसरी धारा गोमती है जो अम्बरीष मुनि के आश्रम में पालित नन्दनी गाय के सींगों के प्रहार से उत्पन्न हुई । इसके जल को तमोगुण की वृद्धि करने वाला माना गया है । सरस्वती यहाँ केवल आस्था है । भौतिक रुप से जलधारा कही दृष्टिगोचर नहीं होती ।

बागेश्वर के सुनहरे अतीत में ही उतरैणी का भी गौरवमय पृष्ठ है । प्राप्त प्रमाणों के आधार पर माना जाता है कि चंद वंशीय राजाओं के शासनकाल में ही माघ मेले की नींव पड़ी थी । बागेश्वर की समस्त भूमि का स्वामित्व था । भूमि से उत्पन्न उपज का एक बड़ा भाग मंदिरों का रख-रखाव में खर्च होता था ।

चंद राजाओं ने ऐतिहासिक बागनाथ मंदिर में पुजारी नियुक्त किये । तब शिव की इस भूमि में कन्यादान नहीं होता था ।

मेले की सांकृतिक और धार्मिक पृष्ठभूमि का स्वरुप संगम पर नहाने का था । मकर स्नान एक महीने का होते था । सरयू के तट को सरयू बगड़ कहा जाता है । सरयू बगड़ के आक-पास स्नानार्थी माघ स्नान के लिए छप्पर डालना प्रारंभ कर देते थे । दूर-दराज के लोग मोहर मार्ग के अभाव में स्नान और कुटुम्बियों से मिलने की लालसा में पैदल रास्ता लगते । बड़-बूढ़े बताते हैं कि महीनों पूर्व से कौतिक में चलने का क्रम शुरु होता । धीरे-धीरे स्वजनों से मिलने के आह्मलाद ने हुड़के का थाप को ऊँचा किया । फलस्वरुप लोकगीतों और नृत्य की महफिलें जमनें लगीं . हुड़के की थाप पर कमर लचकाना, हाथ में हाथ डाल स्वजनों के मिलने की खुशी से नृत्य-गीतों के बोल का क्रम मेले का अनिवार्य अंग बनता गया । लोगों को आज भी याद है उस समय मेले की रातें किस तरह समां बाँध देती थी । प्रकाश की व्यवस्था अलाव जलाकर होती । काँपती सर्द रातों में अलाव जलते ही ढोड़े, चांचरी, भगनौले, छपेली जैसे नृत्यों का अलाव के चारों ओर स्वयं ही विस्तार होता जाता । तब बागेश्वर ही मेले में नृत्य की महफिलों से सजता रहता । दानपुर और नाकुरु पट्टी की चांचली होती । नुमाइश खेत में रांग-बांग होता जिसमें दारमा लोग अपने यहाँ के गीत गाते । सबके अपने-अपने नियत स्थान थे । नाचने गाने का सिलसिला जो एक बार शुरु होता तो चिड़ियों के चहकने और सूर्योदय से पहले खत्म ही नहीं होता । परम्परागत गायकी में प्रश्नोत्तर करने वाले बैरिये भी न जाने कहाँ-कहाँ से इकट्ठे हो जाते । काली कुमाऊँ, मुक्तेश्वर, रीठआगाड़, सोमेश्वर और कव्यूर के बैरिये झुटपूटा शुरु होने का ही जैसे इन्तजार करते । इनकी कहफिलें भी बस सूरज की किरणें ही उखाड़ पातीं । कौतिक आये लोगों की रात कब कट जाती मालूम ही नहीं पड़ता था ।

धीरे-धीरे धार्मिक और आर्थिक रुप से समृद्ध यह मेला व्यापारिक गतिविधियों का भी प्रमुख केन्द्र बन गया । भारत और नेपाल के व्यापारिक सम्बन्धों के कारण दोनों ही ओर के व्यापारी इसका इन्तजार तरते । तिब्बती व्यापारी यहाँ ऊनी माल, चँवर, नमक व जानवरों की खालें लेकर आते । भोटिया-जौहारी लोग गलीचे, दन, चुटके, ऊनी कम्बल, जड़ी बूटियाँ लेकर आते । नेपाल के व्यापारी लाते शिलाजीत, कस्तूरी, शेर व बाघ की खालें । स्थानीय व्यापार भी अपने चरमोत्कर्ष पर था । दानपुर की चटाइयाँ, नाकुरी के डाल-सूपे, खरदी के ताँबे के बर्तन, काली कुमाऊँ के लोहे के भदेले, गढ़वाल और लोहाघाट के जूते आदि सामानों का तब यह प्रमुख बाजार था । गुड़ की भेली से लेकर मिश्री और चूड़ी चरेऊ से लेकर टिकूली बिन्दी तक की खरीद फरोख्त होती । माघ मेला तब डेढ़ माह चलता । दानपुर के सन्तरों, केलों व बागेश्वर के गन्नों का भी बाजार लगता और इनके साथ ही साल भर के खेती के औजारों का भी मोल भाव होता । बीस बाईस वर्ष पहले तक करनाल, ब्यावर, लुधियाना और अमृतसर के व्यापारी यहाँ ऊनी माल खरीदने आते थे ।

मेले की इस समृद्ध पृष्ठभूमि का लाभ आजादी के दीवानों ने स्वराज की बात को आम जन मालस तक पहुँचाने में उठाया । बागेश्वर की उतरैणी आजादी से पहले ही राजनैतिक जन जागरण के लिए प्रयुक्त होने लगी थी । 'स्वराज हुनैर छु' - स्वराज्य होने वाला है, की भावना गाँव-गाँव में पहुँच रही थी । सरयू बगड़ राजनैतिक हलचलों का केन्द्र था । काँग्रेसी झंड़े के यहाँ लगते ही हलचल प्रारम्भ हो जातीं । झंडा फहरता देख लोगों के झुंड के झुंड आ इकट्ठे होते । मीटिंग प्रारम्भ हो जाती । जुलूस उठते । गाँव-गाँव से स्वयं सेवक आते । खद्दर का कुर्त्ता-पायजामा, सफेद टोपी उनकी पहचान होती । लोग विक्टर मोहन जोशी, बद्रीदत्त पाण्डे सरीखे-नेताओं को सुनने सरयू बगड़ का रुख करते । स्वतंत्रता की भावना को गाँव-गाँव तक पहुँचाने का यह सबसे श्रेष्ठ अवसर होता ।

अँग्रेजों ने कुली उतार एवं कुली बेगार जैसी अमानवीय प्रथायें पहड़वासियों पर लादी थी । एक समय था जब पहाड़ में अँग्रेजों को अपना सामान लादने के लिए कुली मिलना कठिन था । इस प्रथा के अन्तर्गत प्रत्येक गाँव में बोझा ढोने के लिए कुलियों के रजिस्टर बनाये गये थे । अँग्रेज साहब के आने पर ग्राम प्रधान या पटवारी 'घात' आवाज लगाता । जिसके नाम की आवाज़ पड़ती उसे अपना सारा काम छोड़कर जाना अनिवार्यता थी । बच्चे, बूढ़े, बीमार होने का भी प्रश्न न था । सन् १८५७ में कमिश्नर हैनरी रैमजे ने ४० कैदियों से क्षमादान की शर्त पर कुलियों का काम लिया था । लेकिन ज्यों-ज्यों अँग्रेज बढ़ते गये समस्या विकट होती गयी । तब ज़ोर ज़बरदस्ती से मैनुअल आॅफ़ गवर्नमेंट आडर्स में कुली प्रथा को निर्धारित किया गया । लेकिन भूमिहीन और कर्मचारियों को कुली नहीं माना गया । कुली का कार्य वह करता था जिसके पास जमीन होती । इस तरह कुमाऊँ का प्रत्येक भूमिपति अँग्रेजों की न में कुली था । यही नहीं कुली का काम करने वाले व्यक्ति को साहब के शिविरों में खाद्य पदार्थ इत्यादि भी ले जाने पड़ते । यह भार 'बर्दायश' कहलाता ।

सन् १९२९ में कुमाऊँ केसरी बद्रीदत्त पाण्डे के नेतृत्व में इसी सरयू बगड़ में कुली बेगार के रजिस्टरों को डुबोया गया । तब से लेकर आज तक राजनैतिक दल इस पर्व का उपयोग अपनी आवाज बुलन्द करने में करते हैं ।

 
 

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Re: FAMOUS FESTIVALS & MELAS OF UTTARAKHAND !!
« Reply #16 on: October 05, 2007, 01:16:18 PM »
 
दशहरा महोत्सव - अल्मोड़ा

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हिमालय में अवस्थित अल्मोड़ा अत्यंत सुन्दर व सुरम्य पर्वतीय स्थलों में से एक है । यदि एक बार अल्मोड़ा के आसपास की नैसर्गिक सुन्दरता एवं दशहरा महोत्सव को देख लिया तो निश्चित ही मन बार-बार यहाँ आने के लिए प्रयत्न करेगा ।

कार्तिक मास में मनाये जाने वाले दशहरा समारोहों में देशभर में बुराई के प्रतीक राक्षस परिवारों के पुतलों का दहन किया जाता है । लेकिन कुमाऊँ के सांस्कृतिक केन्द्र तथा सांस्कृतिक चेतना के उद्गमस्थल अल्मोड़ा में मनाये जाने वाला दशहरा महोत्सव रामकथा के रसिकों को कल्पना के आलोक की सैर करवा देता है मानों इन पात्रों की जीवन यात्रा उनके सम्मुख ही घट रही हो । दशहरे के दिन रंग-बिरंगे पुतलों के सम्मुख खड़ा दर्शक अपने को वर्तमान से कहीं दूर अतीत में घटनाचक्र के नजदीक पाता है ।

अल्मोड़ा का दशहरा महोत्सव भी साम्प्रदायिक सौहार्द की ही एक अनुभूति है । दर्जन भर से अधिक पुतलों के निर्माण में शौकिया कलाकारों की कल्पना और सृजनशीलता ने इन पुतलों को प्रतीक भर ही नहीं रहने दिया है वरन् रामकथा के प्रस्तुतकर्ताओं की वैचारिकता को गढ़ने का सफल प्रयास किया है । रामकथा के खलनायकों को जीवन्त रुप में इस प्रकार से गढ़ दिया जाता है कि थोड़ी सी विषयवस्तु के आधार पर तैयार भावभंगिमा और अलंकरण से सुसज्जित पुतला अपनी पात्रगत विशेषता के अनुसार मूक सम्प्रेषण दे सके । यूँ तो अल्मोड़ा में राक्षस परिवार के पुतले देश के अन्य भागों की तरह ही बनाये जाते हैं लेकिन अन्य स्थानों की अपेक्षा यहाँ के पुतले कलात्मकता और भव्यता के साथ उन कलाकारों के द्वारा निर्मित होते हैं जो किसी भी तरह से पेशेवर नहीं है । यह कलाकार हिन्दू, मुस्लिम, ईसाई अथवा किसी भी धर्म अथवा सम्प्रदाय के हो सकते हैं । साथ ही सम्भवत: दशहरे के अतिरिक्त कभी ही कोई पुतला बनाते हैं लेकिन जब दशहरे में पुतला निर्माण की कला को प्रदर्शित करते हैं तो लोग आश्चर्य से अंगुली दबा जाते हैं । जैसा शरीर सौष्ठव, रुप विन्यास, कलासज्जा, शारीरिक मुद्रायें इन पुतलों में प्रदर्शित होती हैं, अन्य जगहों पर दुर्लभ हैं । दशहरे के दिन इन पुतलों का जुलूस भी निकलता है ।
अल्मोड़ा में दशहरा महोत्सव की तैयारी एक माह पहले से ही हो जाती है । मोहल्ले-मोहल्ले में रावण परिवार के पुतलों के निर्माण के लिए युवा सक्रिय हो जाते हैं । आब तो स्थान-स्थान पर पुतला निर्माण कमेटियाँ बन गयी हैं । पुतले बाँस की खपच्चियों से तैयार नहीं किये जाते । यहाँ ऐंगिल अचरन के फ्रेम पर पुतलों का निर्माण होता है । पुतलों में पराल भरकर उन्हें बोरे से सिलकर तथा उस पर कपड़े से मनोनुकूल आकृति दी जाती है । चेहरा प्लास्टर आफ पेरिस का भी बनाया जाता है ।

इन पुतलों की नयनाभिराम छवि, आँख, नाक तथा विशिष्ट अवयवों को अनुपात देने में यहाँ के शिल्पी अपनी समस्त कला झोंक देते हैं । इन शिल्पियों का हस्तलाघव, कल्पनाशीलता, कौशल देखते ही बनता है । पूरा धड़ एक साथ बनाया जाता है, केवल चेहरा अलग से तैयार किया जाता है । प्रत्येक पुतले में उसकी भाव भंगिमा और मुद्राओं को सूक्ष्मतम रुप में प्रस्फुटित किया जाता है । इन सबके बाद शुरु होता है पुतले का अलंकरण । अल्मूनियम की पन्नियों, चमकदार कागज से किरीट, कुँडल, माला, कवच, बाजूबन्ध तथा विभिन्न आयुध बनाये जाते हैं ।

दशहरे के दिन दोपहर से यह पुतले अपने निर्माण स्थल से निकलते हैं । तब इनकी सज्जा देखते ही बनती है । पुतलों की यात्रा लाला बाजार से एक जुलूस के रुप में प्रारंभ होती है । इन पुतलों में रावण, मेघनाद, कुम्भकर्ण, ताड़िका, सुबाहु, त्रिशरा, अक्षयकुमार, मकराक्ष, खरदूषण, नौरा आदि के पुतले शोख रंगों से संवारे जाने से अनोखी आभा लिए हुए होते हैं । इनके साथ-साथ पुतला निर्माण समितियों के लोग भी चलते हैं । जूलुस को क्योंकि अपने गन्तव्य पर पहुँचते-पहुँचते काफी रात हो जाती है इसलिए प्रकाश की भी समुचित व्यवस्था की जाती है । बाल कलाकार भी इस जूलुस में अपनी कला का प्रदर्शन करते हैं । दशहरे के ही दिन विजयदायनी देवी दुर्गा की प्रतिमायें क्रमश: नंदादेवी एवं गंगोल मुहल्ले के निवासी शोभा यात्रा हेतु लाते हैं । भजन कीर्तन के मध्य लाल वस्र धारण किये माँ दुर्गा की प्रतिमायें विसर्जन के लिए क्वारव ले जायी जाती हैं जहाँ कोसी और सुआल नदियों के संगम पर प्रतिष्ठापूर्वक उनका विसर्जन किया जाता है ।

दशहरे की शाम अल्मोड़ा में देखते ही बनती है । विद्युत की सजावट से सारा शहर दिपदिप करता है । एक माह से चली आ रही गतिविधियों के यह उत्कर्ष का दिन होता है जिसका आनंद यहाँ आये देश-विदेश के पर्यटक देर रात तक लेते हैं ।

इस उत्सव की एक विशेषता यह भी है कि हर मुहल्ले के लोग जूलूस के रुप में अपने-अपने पुतले लेकर आते हैं, इसलिए जितनी सक्रिय भागीदारी पूरे नगरवासियों की इस उत्सव में होती है अन्य किसी भी उत्सव में शायद ही कहीं होती हो । पहले पुतले शहर में जूलूस के रुप में नहीं आते थे । एक दशक पूर्व अख्तर भारती जैसे कलाकारों ने मेघनाद के पुतले से इस उत्सव को जो दिशा दी उसी का परिणाम आज बनने वाले एक दर्जन से ज्यादा पुतलों का जूलूस है ।

पिछले कुछ वर्षों में स्थानीय जनता के प्रयासों से यह महोत्सव लोकानुरंजन का पहत्वपूर्ण आधार बन गया है ।

 
 

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« Reply #17 on: October 05, 2007, 01:16:34 PM »
बगवाल : देवीधुरा मेला

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देवीधुरा में वाराही देवी मंदिर के प्रांगण में प्रतिवर्ष रक्षावन्धन के अवसर पर श्रावणी पूर्णिमा को पत्थरों की वर्षा का एक विशाल मेला जुटता है । मेले को ऐतिहासिकता कितनी प्राचीन है इस विषय में मत-मतान्तर हैं । लेकिन आम सहमति है कि नह बलि की परम्परा के अवशेष के रुप में ही बगवाल का आयोजन होता है ।

लोक मान्यता है कि किसी समय देवीधुरा के सघन बन में बावन हजार वीर और चौंसठ योगनियों के आतंक से मुक्ति देकर स्थानीय जन से प्रतिफल के रुप में नर बलि की मांग की, जिसके लिए निश्चित किया गया कि पत्थरों की मार से एक व्यक्ति के खून के बराबर निकले रक्त से देवी को तृप्त किया जायेगा, पत्थरों की मार प्रतिवर्ष श्रावणी पूर्णिमा को आयोजित की जाएगी । इस प्रथा को आज भी निभाया जाता है । लोक विश्वास है कि क्रम से महर और फव्यार्ल जातियों द्वारा चंद शासन तक यहाँ श्रावणी पूर्णिमा को प्रतिवर्ष नर बलि दी जाती थी ।

इतिहासकारों का मानना है कि महाभारत में पर्वतीय क्षेत्रों में निवास कर रही एक ऐसी जाति का उल्लेख है जो अश्म युद्धमें प्रवीण थी तथा जिसने पाण्डवों की ओर से महाभारत के युद्ध में भाग लिया था । ऐसी स्थिति में पत्थरों के युद्ध की परम्परा का समय काफी प्राचीन ठहरता है । कुछ इतिहासकार इसे आठवीं-नवीं शती ई. से प्रारम्भ मानते हैं । कुछ खास जाति से भी इसे सम्बिन्धित करते हैं ।

बगवाल को इस परम्परा को वर्तमान में महर और फव्यार्ल जाति के लोग ही अधिक सजीव करते हैं । इनकी टोलियाँ ढोल, नगाड़ो के साथ किंरगाल की बनी हुई छतरी जिसे छन्तोली कहते हैं, सहित अपने-अपने गाँवों से भारी उल्लास के साथ देवी मंदिर के प्रांगण में पहुँचती हैं । सिर पर कपड़ा बाँध हाथों में लट्ठ तथा फूलों से सजा फर्रा-छन्तोली लेकर मंदिर के सामने परिक्रमा करते हैं । इसमें बच्चे, बूढ़े, जवान सभी बढ़-चढ़ कर हिस्सा लेते हैं । बगवाल खेलने वाले द्यौके कहे जाते हैं । वे पहले दिन से सात्विक आचार व्यवहार रखते हैं । देवी की पूजा का दायित्व विभिन्न जातियों का है । फुलारा कोट के फुलारा मंदिर में पुष्पों की व्यवस्था करते हैं । मनटांडे और ढ़ोलीगाँव के ब्राह्मण श्रावण की एकादशी के अतिरिक्त सभी पर्वों� पर पूजन करवा सकते हैं । भैंसिरगाँव के गढ़वाल राजपूत बलि के भैंसों पर पहला प्रहार करते हैं ।

बगवाल का एक निश्चित विधान है । मेले के पूजन अर्चन के कार्यक्रम यद्यपि आषाढि कौतिक के रुप में एक माह तक लगभग चलते हैं लेकिन विशेष रुप से श्रावण माह की शुक्लपक्ष की एकादशी से प्रारम्भ होकर भाद्रपद कष्णपक्ष की द्वितीया तिथि तक परम्परागत पूजन होता है । बगवाल के लिए सांगी पूजन एक विशिष्ट प्रक्रिया के साथ सम्पन्न किया जाता है जिसे परम्परागत रुप से पूर्व से ही सम्बन्धित चारों खाम (ग्रामवासियों का समूह) गढ़वाल चम्याल, वालिक तथा लमगडिया के द्वारा सम्पन्न किया जाता है । मंदिर में रखा देवी विग्रह एक सन्दुक में बन्द रहता है । उसी के समक्ष पूजन सम्पन्न होता है । यही का भार लमगड़िया खाम के प्रमुख को सौंपा जाता है । जिनके पूर्वजों ने पूर्व में रोहिलों के हाथ से देवी विग्रह को बचाने में अपूर्व वीरता दिखाई थी । इस बीच अठ्वार का पूजन होता है । जिसमें सात बकरे और एक भैंस का बलिदान दिया जाता है ।

पूर्णिमा को भक्तजनों की जयजयकार के बीच डोला देवी मंदिर के प्रांगण में रखा जाता है । चारों खाम के मुखिया पूजन सम्पन्न करवाते है । गढ़वाल प्रमुख श्री गुरु पद से पूजन प्रारम्भ करते है । चारों खामों के प्रधान आत्मीयता, प्रतिद्वेंदिता, शौर्य के साथ बगवाल के लिए तैयार होते हैं ।

द्यीकों के अपने-अपने घरों से महिलाये आरती उतार, आशीर्वचन और तिलक चंदन लगाकर हाथ में पत्थर देकर ढोल-नगाड़ों के साथ बगवाल के लिए भेजती हैं । इन सबका मार्ग पूर्व में ही निर्धारित होता है । मैदान में पहँचने का स्थान व दिशा हर खाम की अलग होती है । उत्तर की ओर से लमगड़ीया, दक्षिण की ओर से चम्याल, पश्चिम की ओर से वालिक और पूर्व की ओर से गहड़वाल मैदान में आते हैं । दोपहर तक चारों खाम देवी के मंदिर के उत्तरी द्वार से प्रवेश करती हुई परिक्रमा करके मंदिर के दक्षिण-पश्चिम द्वार से बाहर निकलती है । फिर वे देवी के मंदिर और बाजार के बीच के खुले मैदान में दो दलों में विभक्त होकर अपना स्थान घेरने लगते हैं ।

दोपहर में जब मैदान के चारों ओर भीड़ का समुद्र उमड़ पड़ता है तब मंदिर का पुजारी बगवाल प्रारम्भ होने की घोषणा शुरु करता है । इसके साथ ही खामों के प्रमुख की अगुवाई में पत्थरों की वर्षा दोनों ओर से प्रारम्भ होती है । ढ़ोल का स्वर ऊँचा होता जाता है, छन्तोली से रक्षा करते हुए दूसरे दल पर पत्थर फेंके जाते हैं । धीरे-धीरे बगवाली एक दूसरे पर प्रहार करते मैदान के बीचों बीच बने ओड़ (सीमा रेखा) तक पहुँचने का प्रयास करते हैं । फर्रों� की मजबूत रक्षा दीवार बनायी जाती है । जिसकी आड़ से वे प्रतिद्वन्दी दल पर पत्थरों की वर्षा करते हैं । पुजारी को जब अंत:करण से विश्वास हो जाता है कि एक मानव के रक्त के बराबर खून बह गया होगा तब वह ताँबें के छत्र और चँबर के साथ मैदान में आकर बगवाल सम्पन्न होने की घोषणा करता है ।

बगवाल का समापन शंखनाद से होता है । तब एक दूसरे के प्रति आत्मीयता दर्शित कर द्यौके धीरे-धीरे खोलीखाण दूबाचौड़ मैदान से बिदा होते हैं । मंदिर में अर्चन चलता है ।

कहा जाता है कि पहले जो बगवाल आयोजित होती थी उसमें फर का प्रयोग नहीं किया जाता था, परन्तु सन् १९४५ के बाद फर का प्रयोग किया जाने लगा । बगवाल में आज भी निशाना बनाकर पत्थर मारना निषेध है ।

रात्रि में मंदिर जागरण होता है । श्रावणी पूर्णिमा के दूसरे दिन बक्से में रखे देवी विग्रह की डोले के रुप में शोभा यात्रा भी सम्पन्न होती है । कई लोग देवी को बकरे के अतिरिक्त अठ्वार-सात बकरे तथा एक भैंस की बलि भी अर्पित करते हैं ।

वैसे देवीधुरा का वैसर्गिक सौन्दर्य भी मोहित करने वाला है, इसीलिए भी बगवाल को देखने दूर-दूर से सैलानी देवीधुरा पहँचते हैं ।

 

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Re: FAMOUS FESTIVALS & MELAS OF UTTARAKHAND !!
« Reply #18 on: October 05, 2007, 01:16:53 PM »
पूर्णागिरी मेला

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नैनीताल जनपद के पड़ोस में और पिथौरागढ़ जनपद में अवस्थित पूर्णागिरी का मंदिर अन्नपूर्णा शिखर पर ५५०० फुट की ऊँचाई पर है । कहा जाता है कि दक्ष प्रजापति की कन्या और शिव की अर्धांगिनी सती की नाभि का भाग यहाँ पर विष्णु चक्र से कट कर गिरा था । प्रतिवर्ष इस शक्ति पीठ की यात्रा करने आस्थावान श्रद्धालु कष्ट सहकर भी यहाँ आते हैं । यह स्थान टनकपुर से मात्र १७ कि.मी. की दूरी पर है । अन्तिम १७ कि.मी. का रास्ता श्रद्धालु अपूर्व आस्था के साथ पार करते हैं ।

लेकिन शरद् ॠतु की नवरात्रियों के स्थान पर मेले का आनंद चैत्र की नवरात्रियों में ही अधिक लिया जा सकता है क्योंकि वीरान रास्ता व इसमें पड़ने वाले छोटे-छोटे गधेरे मार्ग की जगह-जगह दुरुह बना देते हैं । चैत्र की नवरात्रियों में लाखों की संख्या में भक्त अपनी मनोकामना लेकर यहाँ आते हैं । अपूर्व भीड़ के कारण यहाँ दर्शनार्थियों का ऐसा ताँता लगता है कि दर्शन करने के लिए भी प्रतीक्षा करनी पड़ती है । मेला बैसाख माह के अन्त तक चलता है ।

ऊँची चोटी पर गाढ़े गये त्रिशुल आदि ही शक्ति के उस स्थान को इंगित करते हैं जहाँ सती का नाभि प्रवेश गिरा था ।

पूर्णगिरी क्षेत्र की महिमा और उसके सौन्दर्य से एटकिन्सन भी बहुत अधिक प्रभावित था उसने लिखा है -

"पूर्णागिरी के मनोरम दृष्यों की विविधता एवं प्राकृतिक सौन्दर्य की महिमा अवर्णनीय है, प्रकृति ने जिस सर्व व्यापी वर सम्पदा के अधिर्वक्य में इस पर्वत शिखर पर स्वयं को अभिव्यक्त किया है, उत्तरी और दक्षिणी अमेरिका का कोई भी क्षेत्र शायद ही इसकी समता कर सके किन्तु केवल मान्यता व आस्था के बल पर ही लोग इस दुर्गम घने जंगल में अपना पथ आलोकित कर सके हैं ।"

यह स्थान महाकाली की पीठ माना जाता है, नेपाल इसके बगल में है । जिस चोटी पर सती का नाभि प्रदेश गिरा था उस क्षेत्र के वृक्ष नहीं काटे जाते । टनकपुर के बाद ठुलीगाढ़ तक बस से तथा उसके बाद घासी की चढ़ाई चढ़ने के उपरान्त ही दर्शनार्थी यहाँ पहुँचते हैं । रास्ता अत्यन्त दुरुह और खतरनाक है । क्षणिक लापरवाही अनन्त गहराई में धकेलकर जीवन समाप्त कर सकती है । नीचे काली नदी का कल-कल करता रौख स्थान की दुरुहता से हृदय में कम्पन पैदा कर देता है । रास्ते में टुन्नास नामक स्थान पर देवराज इन्द्र ने तपस्या की, ऐसी भी जनश्रुती है ।

मेले के लिए विशेष बसों की व्यवस्था की जाती है जो टनकपुर से ठुलीगाढ़ तक निसपद पहुँचा देती है । भैरव पहाड़ और रामबाड़ा जैसे रमणीक स्थलों से गुजरने के बाद पैदल यात्री अपने विश्राम स्थल टुन्नास पर पहुँचते हैं जहाँ भोजन पानी इत्यादि की व्यवस्थायों हैं । यहाँ के बाद बाँस की चढ़ाई प्रारम्भ होती है जो अब सीढियाँ बनने तथा लोहे के पाइप लगने से सुगम हो गयी है । मार्ग में पड़ने वाले सिद्ध बाबा मंदिर के दर्शन जरुरी हैं ।

रास्ते में चाय इत्यादि के खोमचे मेले के दिनों में लग जाते हैं । नागा साधु भी स्थान-स्थान पर डेरा जमाये मिलते हैं । झूठा मंदिर के नाम से ताँबे का एक विशाल मंदिर भी मार्ग में कोतूहल पैदा करता है ।

प्राचीन बह्मादेवी मंदिर, भीम द्वारा रोपित चीड़ वृक्ष, पांडव रसोई आदि भी नजदीक ही हैं । ठूलीगाड़ पूर्णागिरी यात्रा का पहला पड़ाव है ।

झूठे मंदिर से कुछ आगे चलकर काली देवी तथा महाकाल भैंरों वाला का प्राचीन स्थान है जिसकी स्थापना पूर्व कूमार्ंचल नरेश राजा ज्ञानचंद के विद्वान दरबारी पंडित चंद्र त्रिपाठी ने की थी । मंदिर की पूजा का कार्य बिल्हागाँव के बल्हेडिया तथा तिहारी गाँव के त्रिपाठी सम्भालते हैं ।

वास्तव में पूर्णागिरी की यात्रा अपूर्व आस्था और रमणीक सौन्दर्य के कारण ही बार-बार श्रद्धालुओं और पर्यटकों को भी इस ओर आने को उत्साहित सा करती है । इस नैसर्गिक सौन्दर्य को जो एक बार देश लेता है वह अविस्मरणीय आनंद से विभोर होकर ही वापस जाता है । कुमाऊँ क्षेत्र के कुमैंये, पूरब निवासी पुरबिये, थरुवाट के थारु, नेपाल के गौरखे, गाँव शहर के दंभ छोड़े निष्कपट यात्रा करने वाले श्रद्धालु मेले की आभी को चतुर्दिक फैलायो रहते हैं ।

 
 

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Re: FAMOUS FESTIVALS & MELAS OF UTTARAKHAND !!
« Reply #19 on: October 05, 2007, 01:17:16 PM »
थल मेला

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सीमान्त जनपद पिथौरागढ़ में जिला मुख्यालय से लगभग ५० कि.मी. की दूरी पर थल नामक कस्बा है । इसी कस्बे में प्रतिवर्ष वैशाखी के अवसर पर क्षेत्र का प्रसिद्ध व्यवसायिक मेला लगता है जो स्थान के अनुसार थल मेला कहलाता है ।

थल में स्थित प्रसिद्ध शिव मंदिर ही इस मेले का केन्द्र है । थल के अन्य मंदिरों में बालेश्वर मंदिर की महिमा का वर्णन भी मिलता है । इस मंदिर में स्थित शिवलिंग का मेले के अवसर पर विशेष दर्शन प्राप्त किया जाता है । स्कन्द पुराण के यात्री को रामगंगा में स्नानकर बालीश तथा शिव के गणों का पूजन कर पावन पर्वत की ओर जाना चाहिए । आज भी थल यात्री मानसरोवर की ओर प्रस्थान करते हैं ।

यह भी कहा जाता है कि वर्ष १९४० में रामगंगा नदी के तट पर क्रान्तिवीरों ने जालियाँवाला दिवस मनाया था तभी से इस स्थान पर मेले के आयोजन का प्रथम सूत्रपात हुआ था तथा इस स्थान पर मेले की पृष्ठभूमि बनी । पहाड़ के अन्य मेलों की तरह यहाँ भी सांस्कृतिक और व्यापारिक गतिविधियाँ बाज़ी गयीं तथा कालान्तर में यह प्रसिद्ध सांस्कृतिक व व्यापारिक मेला बन गया ।

पहले यह मेला दस से पन्द्रह दिनों तक चला था । तीन दशक पहले तक तो मेला बीस दिनों से भी ज्यादा जुटता था ।

इस मेले के व्यापारिक महत्व के कारण दूर-दूर से व्यापारी अपना माल बेचने के लिए आया करते थे ।

मुंश्यारी, कपकोट, धारचूला जैसे हस्तकला के केन्द्र तब से इस मेले से सशक्त रुप से जुड़े हुए थे । किंरगाल की टोकरियाँ, मोस्तो, रस्से, डोके, कुर्सियाँ, कृषकों के लिए हल, कुदाल-कुटले से लेकर गृहणियों के काम में आने वाले सामान और चूड़ी-बिन्दी से लेकर टीकुली तक यहाँ बिकती थी । खरदी के ताँबे के बर्तन, भांग से बने हुए कुथले भी यहँ भारी मात्रा में बिकते थे । ऊनी वस्रों के लिए तो लोग साल-साल भर इस मेले की इंतजार करते । नेपाल के व्यापारी यहाँ खालें लेकर आते थे । उन्नत नस्ल के पशुओं की भी खरीद फरोख्त होती थी ।

इस मेले की सांस्कृतिक पृष्ठभूमि भी समृद्ध थी । बैर, झोड़ा, चांचरी व हुड़के की थाप पर सामयिक गीतों से वादियाँ गूँजती रहतीं । काली कुमाऊँ, सोर घाटी, गंगोली, नेपाली तथा गोरखा साँस्कृतियों के कारण मेला अनूठा संगम स्थल बन गया था ।

आवागमन के साधनों में वृद्धि के कारण इस मेले का व्यापारिक पक्ष आब उतना सशक्त नहीं रहा जितना चार दशक पहले था । तिब्बत से व्यापार बन्द होने के कारण अब मेले में रौनक कम हो गयी है । बीस दिनों तक चलने वाला यह मेला मात्र चार दिनों तक के लिए ही सिमट कर रहा गया है । फिर भी कुमाऊँ की हस्तकला के यहाँ आज भी सजीव दर्शन होते हैं तथा लोकगीतों, भगलौल, झोड़े, चांचरी आदि के कारण मेले का कुछ-कुछ परम्परागत स्वरुप जीवित है ही ।

 
 

 

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