Author Topic: Historical & Geographical Introduction - उत्तराखंड का इतिहास एव भौगोलिक परिचय  (Read 32505 times)

एम.एस. मेहता /M S Mehta 9910532720

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उत्तराचंल की प्रमख नदियां

गंगा, यमुना, काली, रामगंगा, भागीरथी, अलकनन्दा, कोसी, गोमती, टौंस, मंदाकिनी, धौली गंगा, गौरीगंगा, पिंडर नयार(पू) पिंडर नयार (प) आदी प्रमुख नदीयां हैं।

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उत्तराचंल के प्रमुख हिमशिखर

गंगोत्री (6614), दूनगिरि (7066), बंदरपूछ (6315), केदारनाथ (6490), चौखंवा (7138), कामेत (7756), सतोपंथ (7075), नीलकंठ (5696), नंदा देवी (7817), गोरी पर्वत (6250), हाथी पर्वत (6727), नंदा धुंटी (6309), नंदा कोट (6861) देव वन (6853), माना (7273), मृगथनी (6855), पंचाचूली (6905), गुनी (6179), यूंगटागट (6945)।

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उत्तराचंल के प्रमुख ग्लेशियर

1. गंगोत्री 2. यमुनोत्री 3. पिण्डर 4. खतलिगं 5. मिलम 6. जौलिंकांग, 7. सुन्दर ढूंगा इत्यादि।

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उत्तराचंल की प्रमुख झीलें (ताल)

गौरीकुण्ड, रूपकुण्ड, नंदीकुण्ड, डूयोढ़ी ताल, जराल ताल, शहस्त्रा ताल, मासर ताल, नैनीताल, भीमताल, सात ताल, नौकुचिया ताल, सूखा ताल, श्यामला ताल, सुरपा ताल, गरूड़ी ताल, हरीश ताल, लोखम ताल, पार्वती ताल, तड़ाग ताल (कुंमाऊँ क्षेत्र) इत्यादि।


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 उत्तराचंल के प्रमुख दर्रे

बरास- 5365मी.,(उत्तरकाशी), माणा- 6608मी. (चमोली), नोती-5300मी. (चमोली), बोल्छाधुरा-5353मी.,(पिथौरागड़), कुरंगी-वुरंगी-5564 मी.( पिथौरागड़), लोवेपुरा-5564मी. (पिथौरागड़), लमप्याधुरा-5553 मी. (पिथौरागड़), लिपुलेश-5129 मी. (पिथौरागड़), उंटाबुरा, थांगला, ट्रेलपास, मलारीपास, रालमपास, सोग चोग ला पुलिग ला, तुनजुनला, मरहीला, चिरीचुन दर्रा।

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उत्तराचंल के वन अभ्यारण्य

1. गोविन्द वन जीव विहार 2. केदारनाथ वन्य जीव विहार 3. अस्कोट जीव विहार 4. सोना नदी वन्य जीव विहार 5. विनसर वन्य जीव विहार


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उत्तराखण्ड के लोक गीतः

गीत और संगीत उत्तराखण्ड संस्कृति का अनादिकाल से महत्तवपूर्ण अंग रहा है। हर मौकों पर गीत गाए जाते हैं। यहाँ तक कि जब पर्वतीय महिलाएँ घास काटने जंगलों में जाती हैं वहां भी लोकगीत गाये या गुनगुनाए जाते हैं। कुछ लोक गीतों का विवरण इस प्रकार हैः-
मांगलः- यह गीत शभ कार्यों एंव शादी विवाह के मौकपर गाये जाते हैं।
जागरः- जागर देवताओं के गीत है जैसे- विनसर, नागर्जा, नरसिंह, भैरों, ऐड़ी, आछरी, जीतू, लाटू, भगवती, चण्डिका, गालू देवता आदी।
पंडोवः - पंडोव गढ़वाली लोक साहित्य के मौलिक महाकाव्य तथा खण्ड काव्य है। इन गीतों में ठाकुरी राजाओं के वीर गाथाओं को गाया जाता है। जैसे तीलूरोतेली, जोतरमाला, पत्थरमाला, नौरंगी, राजुला, राजा, जिते सिंह आदी।
चौफुलाः - यह नृत्य चांदनी रात में गोल दायरे में घूमकर पुरूष तथा महिलाएं मिलकर गाते हैं। इसमें प्रकृति तथा उत्सवों के गीत गाये जाते हैं। यह नृत्य काफी कुछ गुजरात के “ गरबा ” नृत्य से मिलता है।
खुदेड़ गीतः - करूणात्मक शैली के गीत “खुदेड़” हैं। यह गीत माँ-बाप, भाई-बहन, सखी, वन, पशु-पक्षी, नदी, फल-फलों की स्मृति ताजा कराते है और इनकी याद आ जाने पर सबसे मिलने की चाह पैदा हो जाती है तथा न मिल पाने की स्थिति में ये गीत मुखार बिन्दु पर फूट पड़ते हैं।
चौमासाः - वर्षा ऋतु में हिमालय की गोद में बसे उत्तराखण्ड का सौंदर्य निराला होता है। इस ऋतु के दिनों में अक्सर परदेश में गये साथी की ज्यादा याद सताती है तब यह गीत अपने आप मुखार बिन्दु पर फूट पड़ते हैं।
थड़याँ - यह नृत्य बसंत पंचमी से लेकर विषुवत सक्रान्ति तक नेक सामाजिक व देवताओं के नृत्य गीतों के साथ खुले मैदान में गोलाकार होकर स्त्रियों द्वारा किया जाता है।

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कुमाऊँ की आलेखन परम्परा

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कुमाऊँ का प्राचीन इतिहास अनेक कबीलों तथा विभिन्न संस्कृतियों को अपने आँचल में समेटे हुए है। कुमाऊँ में अल्पना तथा भिप्ति चित्रों का प्रत्यक्ष रुप व चलन चन्द शासन काल से होता है।

कुमाऊँ में चन्द वंश की स्थापना का सूत्रपात चम्पावत में सोमचन्द से आरम्भ होता है। सोमचन्द तथा उसके दश वंशजों का शासन ९७५ ई. से ११७८ ई. तक माना जाता है। इस काल की सबसे उल्लेखनीय घटना इन्द्र चन्द का चीनी राजकन्या से विवाह होना है। इस विवाह के कारण स्थानीय जनता ने विद्रोह कर दिया और उसे तथा उसके शासन काल में बाहर से आये हुए ब्राह्मण, क्षत्रिय (राजपूत) लोगों को कुमाऊँ से बाहर भगा दिया। यह लोग २०० से २५० वर्ष तक कुमाऊँ में नहीं आ सके। परन्तु १३६५ ई. में उन्होंने पुन: काली कुमाऊँ में अपना राज्य स्थापित किया।

सबसे ध्यान देने वाली बात यह है कि यहाँ के प्रशासक अथवा शासक राजपूत वर्ग - महरा, फड़त्याल, जिन्ना, जलाल, मनराल, रोतौला, रजबार आदि में यह कला समृद्ध नहीं है और न उनके सांस्कृतिक जीवन का अटूट अंग। ऐपण व भिप्ति चित्रकला परम्परा कुमाऊँ में मात्र साह (साह) व ब्राह्मणों में ही अपने सम्पूर्ण विकसित स्वरुप तथा जीवन के समस्त सांस्कृतिक कार्यकलापों की गहराई की हद तक जुड़ी हुई है।

ब्राह्मणों में पंत व जोशी अपना मूल स्थान महाराष्ट्र व गुजरात मानते हैं। कहा जाता है कि सोम चन्द ८ वीं शताब्दी में गुजरात से ही आकर यहाँ बसा था। दूसरा मान्यता है कि सोम चन्द 'झूसी' इलाहाबाद का राजकुमार था और बैस राजवंश से सम्बन्धित था। तीसरी जनश्रुति कहती है कि सोम चन्द कन्नौज के शासक का भाई था, जो ज्योतिषियों की भविष्यवाणी के अन्तर्गत नये राज्य की कामना हेतु कुमाऊँ में आया था। उसका यहाँ आगमन उसकी बद्रीनाथ यात्रा के निमित्त हुआ था। तत्कालीन शासक ब्रह्मदेव ने अपनी कन्या का विवाह इससे किया और दहेज में चम्पावत के सुई क्षेत्र, दुर्ग तथा तराई की कुछ भूमि भी इसे प्रदान की। इस कथन का साक्ष्य कुमाऊँ क्षेत्र में घसने वाले 'साह' लोगों की इस मान्यता से होता है कि साह अपना पूर्व स्थान 'झूसी' इलाहाबाद को मानते हैं और आज भी साह लोग विशेष रुप से बढ़े-बूढ़े जब कभी प्रयाग व कुम्भ स्नान के लिए जाते हैं, तब झूसी में ही रहना सार्थक समझते हैं। दूसरी बात यह है कि कुमैया साह अपना पूर्ववर्ती स्थान चम्पावत को मानते हैं। इन सब बातों से यही विश्वास होता है कि 'साह' लोग चन्दों के साथ ही बाहर से आये।

ऐपणों व भिप्ति चित्रों, जिनको 'लिख थाप' या थापा कहते हैं, में अनेक प्रकार के प्रतीक व लाक्षणिक अन्तर दृष्टिगोचर होते हैं। साहों व ब्राह्मणों के ऐपणों में सबसे बड़ा अन्तर यह है कि ब्राह्मणों में चावल की पिष्ठि निर्मित घोल द्वारा धरातलीय अल्पना अनेक आलेखन प्रतीकों, कलात्मक डिजाइनों, बेलबूटों में प्रकट होती है। साहों में धरातलीय आलेखन ब्राह्मणों के समान ही होते हैं परन्तु इनमें भिप्ति चित्रों की रचना की ठोस परम्परा है। थापा श्रेणी में चित्रांकन दीवलों या कागज में होता है। यह शैली ब्राह्मणों में नहीं के बराबर है। जिन आलेखनों या चित्रों की रचना कागज में की जाती है। उन्हें प कहते हैं। इसी प्रकार नवरात्रि पूजन के दिनों में दशहरे का पट्टा केवल साह लोग बनाते हैं। विवाहोत्सव में विवाहित स्रियों के लिए विशेष प्रकार का कुसुमी पिछौड़ा (विशेष ओढ़नी) सारे कुमाऊँ में प्रचलित है परन्तु इनके निर्माण व रंगों की आभी साह व ब्राह्मणों में विशेष है। साहों के कुसुमी पिछौड़े विशिष्ट रंगों व प्रकाश के कारण तथा केन्देर स्थल के निर्माण के कारण सर्वश्रेष्ठ समझे जाते हैं और यही ब्राह्मणों के कुसुमी पिछौड़े के आलेखन व रंग आभा तथा साहों के कुसुमी पिछौड़े के रंगों के प्रयोग तथा केन्द्र के आलेखन का प्रबल लाक्षणिक अन्तर स्पष्ट करते हैं। ऐपणों में एक स्पष्ट अन्तर यह है कि ब्राह्मण गेरु मिट्टी से धरातल का आलेपन कर चावल के आटे के घोल से सीधे ऐपणों का आलेखन करते हैं परन्तु साहों के यहाँ चावल की पिष्टि के घोल में हल्दी डालकर उसे हल्का पीला अवश्य किया जाता हैं तभी ऐपणों का आलेखन होता है। ज्ञात हुआ कि उच्चकुलीन ब्राह्मणों में जो दीवानों की कोटि में आते हैं, वे भी 'बिस्वार' (चावल की पिष्ठि का घोल) में कच्ची अथवा सूखी हल्दी पीस कर डाल दी जाती है और पीली आभा युक्त ऐपण दिये जाते हैं।

साहों के यहाँ ऐपणों के अन्तर्गत एक और विशेष शैली है, जिसे 'वर' कहा जाता है। क्योंकि इसमें बूँदों तथा उनकी सँख्या द्वारा समान रुप से वरों व डिज़ाईनों का निर्माण किया जाता है। हर डिजाइन व अभिप्राय के लिए बूंदों की अलग-अलग संख्या निर्धारित है। प्रत्येक आलेखन विशेष ज्योमितीय अलंकरण, बूंदों की संख्या, विशेष रंग द्वारी निर्धारित व नामांकित है। पट्टे पर वर बूंद मुख्यत: उपासना या पारिवारिक पूजा गृह में ही सुशोभित रहते हैं। पर बूंदों का चित्रांकन पूजा गृह के अतिरिक्त भी दृष्टिगोचर होता है। यदि उनके निर्माण का कारण जाना जाय तो शत प्रतिशत यह तथ्य उजागर होता है कि अमुक समय में विवाह या यज्ञोपवीत संस्कार उस स्थान पर हुआ था, इसलिए वहाँ वरों का निर्माण हुआ था। थापा पट्टा शैली, ज्यूति मातृका इत्यादि शैलियाँ चम्पावत या संलग्न क्षेत्र में मात्र कुछ ब्राह्मण अथवा साह परिवारों के अतिरिक्त कहीं भी दृष्टिगोचर नहीं होतीं। अन्य इनका ज्ञान नहीं रखते। इन शैलियों की विगत १०० वर्षों से सुरक्षित अनेक रचनाएँ आज भी अल्मोड़ा, रानीखेत में हैं। इनका आलेखन आज भी उसी उत्साह व मान्यताओं के आधार पर होता है जो विगत शताब्दियों से था। प्रयुक्त संकेतों, कोणों, बिन्दुओं, चित्रकृतियों व विभिन्न अनुष्ठानों के लिए विभिन्न संख्या को बिन्दुओं द्वारा निर्मित यंत्र चौकियों के देखने से स्पष्ट होता है कि कुमाऊँ की इस कला में वज्र यानी, शैव व शाक्त तांत्रिक अवुष्ठानों व मान्यताओं का प्रत्यक्ष प्रभाव पड़ा है।

रेखाचित्रों वाले पट्टों व ज्यूतियों में 'जैनशैली' जो अपनी प्रारम्भिक अवस्था में गुजरात में 'अपभ्रंश' शैली के रुप में विकसित व प्रतिष्ठित हुई थी, स्पष्ट रुप से दिखाई देती है। इसके अतिरिक्त राजस्थानी शैली, जो कि अपभ्रंश शैली का ही विकसित रुप थी व विशेष रुप से 'मालवा शैली', जो राजस्थानी शैली की ही एक धारा है, से भी विकसित होकर उभरी। इसका उदाहरण ज्यूति मात्रिका पट्टा, शेष शय्या (शेषनाग की शय्या पर विराजमान विष्णु व लक्ष्मी), महालक्ष्मी पट्टा, डोर दुबज्योड़ पट्टा, कृष्ण जन्माष्टमी पट्टा व नवदुर्गा पट्टा (नवरात्रि पूजन के समय) में दृष्टिगोचर होता है।

कुमाऊँ की ज्यूति मातृका पट्टों, थापों तथा वर बूदों में श्वेताम्बर जैन अपभ्रंश शैली का भी स्पष्ट प्रभाव दिखाई देता है। श्वेताम्बर जैन पोथियों की श्रृंखला में बड़ौदा के निकट एक जैन पुस्तकागार में ११६१ ई. की एक ही पुस्तक में औधनियुक्ति आदि सात ग्रंथ मिले, जिनमें १६ विद्या देवियों, सरस्वती, लक्ष्मी, अम्बिका, चक्र देवी तथआ यक्षों के २१ चित्र बने हैं। इन ग्रंथ चित्रों में चौकोर स्थान बनाकर एक चौखट सी बनाई गई हैं और इनके मध्य में आकृतियाँ बिठाई गई हैं। ठीक इसी प्रकार का चित्र नियोजन कुमाऊँ के समस्त ज्यूति पट्टो, थापों व बखूदों में किया जाता है। कुमाऊँ में ज्यूति पट्टों में महालक्ष्मी, महासरस्वती व महाकाली ३ देवियाँ बनाई जाती है साथ में १६ षोडश मातृकाएं तथा गणेश, चन्द्र व सूर्य निर्मित किये जाते हैं। अपभ्रंश शैली में रंग व उनकी संख्या भी निश्चित है। जैसे लाल, हरा, पीला, काला, बैगनी, नीला व सफेद। इन्हीं सात रंगों का प्रयोग कुमाऊँ की भिप्ति चित्राकृतियों अथवा थापों व पट्टों में किया जाता है।

 

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कुमाऊँ में प्रचलित मुख्य ऐपणों व चौकियों की सविस्तार चर्चा इस प्रकार की जा सकती है -

सरस्वती पीठ -

तीन प्रकार से बनाई जाती है। धरातल को पहले गेरु मिट्टी के घोल से लीप लेते हैं। फिर चावल पिष्ठिका (विस्तार) से रेखांकन किया जाता है। साह इसमें पीली आभा लाते हैं व ब्राह्मण विस्तार का रंग सफेद ही रहने देते हैं।


(अ) ९ (नौ) बिन्दुओं द्वारा इसका निर्माण होता है। इन बिन्दुओं को रेखा द्वारा इस प्रकार जोड़ा जाता है कि आठ (८) भद्र स्वरुप निकल आते हैं। यह कृति सरस्वती चौकी या अष्टदल कंवल कहलाती है। इसको बनाने के बाद ही इस पर देव प्रतिमाएँ स्थापित की जाती है।

(ब) सरस्वती पीठ में ९ (नौ) बिन्दु बनाये जाते हैं और इन्हें रेखा द्वारा इस प्रकार एक दुसरे से मिलाया जाता है कि ९ (नै) षोडश या स्वस्तिक बन जाते हैं। इस पीठ का निर्माण नवरात्रियों में देव स्थापना व पूजन हेतु किया जाता है।

(स) एक तारा का निर्माण किया जाता है। इसके ५ (पांच) कोण होते हैं। इसे स्वस्तिक यंत्र, पंच शिखा या पंचानन भी कहा जाता है। यह चिन्ह सृष्टि की रचना का सूचक है। इसके ५ कोण पांच तत्वों - पृथ्वी, जल, आकाश, वायु, अग्नि - के द्योतक हैं। महा उग्र तारा यंत्र भी ५ कोणीय या शिखा वाला होता है। इस यंत्र को जटा शंकरी भी कहा जाता है। मुख्यत: इसका प्रयोग अध्र्य स्थापना व देव स्थल के मुख्य दीया जलाने के समय किया जाता है। इसे निर्मित कर इसके ऊपर मुख्य दिये को रख दिया जाता है।

(द) सरस्वती या श्री यंत्र देवी चौकी २ (दो) समत्रिबाहु त्रिभुजों को एक दूसरे के विपरीत तथा ऊपर बैठाकर किया जाता है। इसमें ६ भुजाऐं तथा ६ कोण होते हैं। यह काली या नवदुर्गा पूजन के कार्य में निर्मित होती है।

महालक्ष्मी पूजन हेतु चौकी का निर्माण - इस चौकी का निर्माण ९ (नौ) बिन्दुओं द्वारा किया जाता है। सरस्वती चौकी अथवा अष्टदल कंवल की ही भांति होती है। अन्तर मात्र यह होता है कि चौकी के चारों ओर दो पाँवों की छाप बनाई जाती है। इसका आयोजन इस प्रकार होता है कि पाँवों की छाप एक अलंकृत बेल की तरह दृष्टिगोचर होती है। कहीं-कहीं कोई परिवार ८ (अष्ट) कोणीय कमल का निर्माण करते हैं।


जनेऊ पीठ - जनेऊ पीठ या यंत्र का निर्माण षट्कोण के अन्दर प्रत्येक भुजा पर आठ (८) बिन्दुओं का अंकन किया जाता है। इसी प्रकार मध्य भाग में बराबर दूरी में तथा समानान्तर ८ बिन्दुओं का अंकन किया जाता है। मध्य भागीय बिन्दुओं को रेखा द्वारा इस प्रकार जोड़कर व्यवस्थित किया जाता है कि रचना ७ श्री यंत्रों की छटा लिए हुए प्रकट होती है। इन्हें सप्तॠषि मण्डल कहा जाता है। यह हैं कश्यप, अत्रि, भारद्वाज, जमदग्नि, गौतम, विश्वामित्र तथा वशिष्ठ। इस सम्पूर्ण यंत्र के शीष में मुकुट तथा दाईं व बाईं तरफ २-२ हाथ अथवा कांगें तथा चरण पीठ बनाई जाती है। इस यंत्र को मां गायत्री देवी के रुप में चतुर्भुजी माना जाता है। इस यंत्र का निर्माण जनेऊ या उपनयन संस्कार के समय अत्यावश्यक होता है।

शिव पीठ यंत्र - इस यंत्र स्वरुप अल्पना का आलेखन १२न्१२ बिन्दुओं द्वारा, दूसरे प्रकार में १६न्१६ बिन्दुओं द्वारा किया जाता है। बाह्य धरातल को कुण्डी (ताम्र पात्र) के स्वरुप में अंकित किया जाता है। ईषाण व ऊषाण का अंकन होता है। यह श्रावण मास में शिव पूजन हेतु बनाई जाती है।

सूर्य चौकी - इसका निर्माण नामकरण संस्कार के बाद नव शिशु को बाहर प्रकाश में लाये जाने पर किया जाता है। इसके अतिरिक्त इसका निर्माण सूर्य व्रत के उपलक्ष्य में रविवार को पौष माह में भी किया जाता है। इसमें चन्द्र, सूर्य, शुक्र (विष्णु-लक्ष्मी), अठ जल (अष्ट कोणीय यंत्र), शंख, घंटा, कुण्डी या चक्र आसन, आरती, गड़ु़वा, धूपदान पुन: आसन निर्मित किया जाता है।

स्यो - नामकरण संस्कार के बाद छटी का चाक विसर्जन करने नौला जाते हैं। तब आंगन में स्यो का चित्रांकन अल्पना द्वारा होता है। ब्राह्मणों तथा साहों में अलग-अलग प्रकार का स्यो बनता है। ब्राह्मणों में कमल दलो का सिंहासन सदृश स्यो निर्मित होता है। सबसे नीचे ५ कमल पंखुड़ियाँ निर्मित की जाती है, उनके स्वर ४,३,२,१ के हिसाब से निर्माण होता है। ऊपर शीर्षमुकुट नीचे पद वेदी बनती है। साहों में स्यो कलश या गडुवे के रुप में बनता है।

नाता - साहों में नातों का निर्माण व मान्यता विशिष्ट है। नाते दो समय अथवा कालों में बनाये जाते हैं। इनका अलंकरण व रेखांकन केवल चूल्हे या भोजन कक्ष में होताहै। जो नाते चैत्र मास में बनाये जाते हैं उन्हें चैतु नाता कहते हैं। इसके बाद दीपावली में नातों को बनाया जाता है। यह भी ऐपण का प्रकार है जो केवल पीली मिट्टी के धरातल पर बिस्वार से अंकित किया जाता है। बाईं और विशिष्ट शैली में अंगुलियों की पोरों से ३ मानवीय आकृतियां बनाई जाती हैं जिनके हाथ एक दूसरे के हाथों को पकड़े हुए बनाये जाते हैं। यह सामंती युगीन मान्यता की अभिव्यक्ति है कि अमुक परिवार में भोजन कक्ष में ब्राह्मण, क्षत्रिय व वैश्य ३ सवर्ण जातियों के लोग ही भोजन खाने के अधिकारी हैं। दाईं ओर लक्ष्मी व नारायण का नाता रेखांकित किया जाता है जो पवित्रता व धन धान्य दाता व पालककर्त्ता समझे जाते हैं। मध्य में धान की बालियों के प्रतीक चिन्हों के अंकन द्वारा परिवार के सदस्यों तथा निकट सम्बन्धियों की संख्या दर्शाई जाती है। यह एक प्रकार से सम्मिलित परिवार की सदस्य संख्या का लेखा जोखा अंकित करता है। यह दो प्रकार से बनाये जाते हैं (अ) अल्मोड़ा शैली (ब) बागेश्वर शैली।

धुँया - इसका आलेखन दीपावली के दिन अमावस्या के बाद बड़ी एकादशी (१२ दिन के बाद) को किया जाता है। इसे बूढ़ी दीपावली कहते हैं। इसका आलेखन सूप में किया जाता है। इसकी कल्पना सूप से समान पंख युक्त पक्षी की होती है। कुछ लोग गरुढ़ आरुढ़ नारायण की बात इसके लिए कहते हैं। मान्यता है कि पारिवारिक क्लेश, दरिद्रता को दूर करने की कल्पना से इनका निर्माण होता है।

धूलि अध्र्य की चौकी - यह कमल के आकार की अल्पना है। इसका कलेवर गड़ु़वा (टोंटीदार कलश) की तरह अंकित किया जाता है। केन्द्र स्थल यज्ञ वेदी के समतुल्य अंकित किया जाता है। आड़ी तिरछी चार रेखाऐं बनाई जाती हैं, जो अरणी-भरणी यज्ञ काष्ठ की द्योतक होती है। इसका फैलाव केन्द्र स्थल से बाहर की ओर बढ़ता जाता है। अंकन के लिए कमल दल के प्रधानता दी जाती है। इसका स्वरुप गोलाई लिये हुए कलश की तरह बनाया जाता है। दोनों ओर २-२ हाथ की तरह फांगे अलंकृत हाथी की सूँड की तरह बनाये जाते हैं। इनके अन्तिम सिरे पर गगरी बनाई जाती है। यह विष्णु स्वरुप पवित्र समझा जाता है। शीर्ष के मुकुट व नीचे पाँवों की ओर पाठ निर्मित की जाती है। इसमें विष्णु प्रतीक शंख, चक्र, गदा, पद्म अंकित किये जाते हैं। विवाह की र सर्वप्रथम इसी से प्रारम्भ होती है। कन्या का पिता वर का स्वागत, चरण प्रक्षालन व अध्र्य दान संकल्प सहित, वर को इसी चौकी पर खड़ा करके कन्या का दान करता है तथा भेंट देता है।

अब उन चित्रांकनों का विवरण दिया जा रहा है जिनमें चावल पिष्ठिका घोल व गेरु का प्रयोग नहीं किया जाता वरन् विभिन्न रंगों - लाल, चटख लाल, हरा, पीला, नीला, बौजनी, काला व सफेद - को प्रयोग में लाया जाता है।

मुहाली, द्वार मातृ, माई तथा विजन - इनका निर्माण विवाहोत्सव में मुख्य द्वार के सौन्दर्यीकरण के लिये किया जाता है। माई, विजन व द्वार मातृ बुरी दृष्टि व अशुभ को दूर करने की कामना से चित्रित किये जाते हैं।

विवाह का ज्यूति पट्टा - इसमें महाकाली, महालक्ष्मी व महासरस्वती केन्द्र में बनाई जाती है। इनके साथ गणेश, सूर्य, चन्द्र व १६ मातृकाएं अंकित की जाती है। इन्हें चौकोर रेखिकीय चौखट में अंकित कर बाहर की ओर मछिया सिंगालिया अथवा खोडस वरों से अलंकृत किया जाता है। शीर्ष पर बड़े हिमालय व छोटे हिमालय का अंकन किया जाता है। इन सबके शीर्ष पर 'हलयाली बोट' - हरा पेड़ जो कल्पतरु माना जाता है, कमल (८ पंखुडियों वाला), शुक - सारिका (लक्ष्मी-नारायण) व दो हरे तोतों का निर्माण किया जाता है। राधा कृष्ण का चित्रांकन मनुष्याकृति में किया जाता है। शुकसारिका, शेष नाग की शय्या में लेटे हुए विष्णु व चरणों के पास लक्ष्मी तथा नाभि से उत्पन्न कमल पर ब्रह्मा की कल्पना को विशिष्ट रेखाओं द्वारा निर्मित किया जाता है।

यज्ञोपवीत का ज्यूति पट्टा - इसका निर्माण विवाह ज्यूति की ही तरह होता है। मुख्य अन्तर यह है कि शीर्ष पर विष्णु-लक्ष्मी या कृष्ण-राधा की मानवीय प्रतिमा का रेखांकन नहीं होता। दूसरा अन्तर है शीर्ष पर बाईं ओर सप्त ॠषि मण्डल का जनेऊ पीरु की तरह बनाया जाता है तथा दाहिनी ओर छापरी (भिक्षा पक्ष का निर्माण) किया जाता है। मान्यता है कि 'गिरह जाग' पर बालक चुन्डित मुन्डित हो एक कौपीन मात्र पहनकर ब्रह्मचर्याश्रम में प्रविष्ट करता है तथा विद्या अध्ययन के लिए काशी में अपने गुरु के पास जाता है। ब्रह्मचर्याश्रम में भिक्षा द्वारा ही अपना व गुरु पोषण का दायित्व वहन करता है। अध्ययन के उपरान्त उसका उपनयन व यज्ञोपवीत संस्कार किया जाता है। अत: इस अवसर पर ज्यूति पट्टे की पूजा अर्चना की जाती है।

छट्टी की ज्यूति व सामान्य ज्यूति - यह ज्यूति पट्टा भी विवाह ज्यूति पट्टे की तरह ही होता है। परन्तु इसमें शीर्ष पर लक्ष्मी नारायण या राधकृष्ण की मानवीय अवयवों से युक्त प्रतिमा का आलेखन नहीं किया जाता है। बाकी अलंकरण व स्वरुप का विन्यास अन्य ज्यूतियों की तरह ही किया जाता है।

ज्यूति मातृका चौकी - इसका निर्माण काष्ठ चौकी को हल्दी से रंग दिया जाता है। इसमें समस्त अलंकरण लाल रंग की रेखाओं द्वारा निर्मित किये जाते हैं। इसमें न तो किसी प्रकार के 'वर' बनाये जाते हैं और न 'छज्जा' बेल को बनाया जाता है। अन्य सभी प्रतीक व अलंकरण विवाह ज्यूति की तरह ही होते हैं। इसमें भी लक्ष्मी नारायण या राधा कृष्ण की युगल मानवीय आकृति नहीं बनाई जाती।

जन्माष्टमी का पट्टा या थापा - सर्वप्रथम शिव पार्वती बनाये जाते हैं। उसके उपरान्त दशावतार निर्मित किये जाते है। शिव की जटाओं से गंगा व यमुना का उद्गम निर्मित किया जाता है। इसके उपरान्त कृष्ण की विस्तृत लीलाएं दर्शायी जाती हैं। इनकी अभिव्यक्ति पूर्णत: सुखसागर, भागवत के अतिरिक्त ब्रह्मपुराण व विष्णुपुराण के अनुसार होती है। इसमें गोवर्धन धारण इत्यादि को अंकित किया जाता है। चारों ओर सुन्दर गौ पुच्छ लता निर्मित की जाती है।

हरशयनी पट्टा - इस थापे में विष्णु को शेषनाग की शैय्या पर लेटा हुआ तथा चरणों को दबाते हुए लक्ष्मी दर्शाई जाती है। क्षीरसागर का निर्माण किया जाता है। प्रतीक रुप से नीले गहन जल में मछली तथा कछुवा और नाभि से उत्पन्न कमल व उस पर चार मुख वाले ब्रह्म रेखांकित किये जाते है। चारों ओर घंटी या लगुली बेल बनाई जाती है।

हर बोधिनी पट्टा - इसे तुलसी विवाह के अवसर पर मात्र लाल रंग से निर्मित किया जाता है। यह एक प्रकार की चौकी होती है। इसे १२ (बारह) बिन्दुओं से निर्मित किया जाता है। उसमें ४ भद व एक कँवल बनता है। इसे भी चारों ओर से सुन्दर लता व पुष्पों के निर्माण से भव्य रुप दिया जाता है। इसे 'बाल भद्र' के नाम से जाना जाता है।

दूर्वाष्टमी और डोर दुवज्योड़ा पट्टा - इसमें सात रानिया, एक नौला (जल भरने का कूप), नौले में बच्चा बनाया जाता है। बच्चे के एक हाथ में माँ के गले में पड़े तागे को पकड़ रखा है। यह तागा डोर कहलाता है तथा हाथ में भुज दण्ड की तरह ३ पल्ले का धागा औरतें धारण करती हैं। इन्हें दुबज्योड़ा कहते हैं। यह एक प्रकार से स्रियों द्वारा जनेऊ की तरह पवित्र समझकर धारण किया जाता है। इन पर २-२ चिड़ियाँ बैठाई जाती है। इसका निर्माण लोक कथा पर आधारित है।

ॠषिपंचमी व नागपंचमी पट्टा - इसमें वामनावतार (विष्णु) तथआ सप्त ॠषि बनाये जाते हैं। विशेष आकृति युक्त नाग जोड़े में होते हैं।

महालक्ष्मी का पट्टा - इसमें ३ छत्र बनाये जाते हैं। ८ पंखुड़ियों वाले कमल में चार भुजाओं वाली महालक्ष्मी को बनाया जाता है। बाईं तरफ के हाथों में चक्र व पद्म बनाया जाता है तथा दाईं तरफ के हाथों में त्रिशूल। नीचे ९ बिन्दु वाली सरस्वती चौकी या 'घृत कंवल' बनाया जाता है। लक्ष्मी के दोनों ओर दो-दो हाथी सूंड उठाकर जल कलश से लक्ष्मी का प्रक्षालन करते हैं। उसके नीचे दोनों ओर अठजल (जल कुण्ड आठ भुजाओं वाले) बनाये जाते हैं।

नवदुर्गा पट्टा - यह पट्टा साह वंश में ही प्रचलित है और कुमाऊँ की मान्यताओं, धार्मिक विश्वासों व अंकन शैली का प्रतीक है। इसमें मुख्यत: पीला, लाल, नीला, काला तथा हरा रंग प्रयोग में लाया जाता है। इसका धरातल पीला बनाया जाता है। उसके उपरान्त ही अन्य प्रतीक, आकृतियाँ तथा मंत्रों का आलेखन होता है। चौकोर या आयताकार पट्टे के चारों ओर सुन्दर किनारे का निर्माण किया जाता है। उसके उपरान्त ही मुख्य पट्टे का आलेखन प्रारम्भ होता है। इसका प्रयोग विशेषरुप से आश्विन मास की नवरात्रियों में भगवती पूजन व व्रत के लिए होता है।

कुमाऊँ में भिप्ति - चित्रण व अलंकरण की कोटि के अन्तर्गत वर-बूंद आते हैं, जो निम्न प्रकार के हैं - सूरजी वर, गुलाब चमेली वर, मुष्टि वर, अलमोड़िया खोडस, गलीची वर, विशिष्ट गलीचीवर, कटारी वर, २० बिन्दु का संगलिया वर, २२ बिन्दु का संगलिया वर, १६ बिन्दु का भद्र वर, १९ बिन्दु का भद्र, स्वास्तिक फूल या ६ फूल वर, २४ बिन्दु का, ६ फूल वर, २२ बिन्दु का, घौर तिलक ३७ बिन्दु का वर, हर हर मण्डल वर, ३७ बिन्दु का नींबू वर, ९ (नौ) बिन्दु का मछिया वर, खोड्स वर या खोड्स वर, २२ बिन्दु का, खोड्स वर २४ बिन्दु का, खोड्स वर ६ बिन्दु का, खोड्स वर १२ बिन्दु का।

कुमाऊँनी ऐपणों को अगर सूक्ष्मता से देखा जाए तो बोध होता है कि इन पर बंगाल का स्पष्ट प्रभाव है। भले ही कुछ प्रतीक व नाम शुद्ध कुमाऊँनी भाषा व क्षेत्र के ही हैं परन्तु पूर गठन बंगाल की अल्पना के प्रभाव से पूर्ण दिखाई देता है। १६वीं सदी के तारानाथ, जो तिब्बती इतिहासकार थे, द्वारा लिखित इतिहासकार से ज्ञात होता है कि ७वीं सदी में पश्चिमी भारत में 'भाखड़' से एक चित्र शैली प्रचलित हुई और ९वीं सदी से पूर्वी भारत में भी एक शैली का प्रचलन हो चला था। पहले नेपाल के चित्रकार पश्चिम भारतीय शैली में काम करते थे परन्तु बाद को उन्होंने पूर्वी शैली को अपना लिया। यह पूर्वी शैली ही आगे चलकर 'सेन' और 'पाल' शैली कहलाई। इस शैली में जहाँ चित्रों का निर्माण मात्र लाल, पीला, नीला, काला, सफेज, बैगनी रंगो में होता था, वहीं चित्रांकन उसी प्रकार होता था जिस प्रकार कुमाऊँ में लिख थापों व वर बूंदों में। बंगाल में सेन व पाल शासन में अनेक वज्रयानी (तांत्रिक) स्थविर प्रगट हुए तथा उस समय तांत्रिक बैद्ध (वज्रयानी) केवल नेपाल, बिहार तथा बंगाल में ही शेष रह गए थे और तिब्बत बज्रयानी लामावाद का दुर्ग बन चुका था। इसलिए कुमाऊँ के वर बूंद, जो १२ या १३ प्रकार के हैं, के विषय में कुमाऊँ की वयोवृद्ध जानकारों का कहना है कि यह कला भोट देश अर्थात् तिब्बत से आयी है। मान्यतानुसार शिव का स्थान कैलाश पर्वत तथा विष्णु का मानसरोवर दोनों भोट प्रदेश (तिब्बत) में हैं। इसी प्रकार शिव-पार्वती व विष्णु की पूजा अर्चना के लिए हर हर मण्डल व गौर तिलक का निर्माण किया जाता है।

कुमाऊँनी ऐपणों में चावल पिष्टि के घोल का प्रयोग करते हैं, उसी प्रकार बंगाल के ऐपणों का निर्माण व आलेखन होता है। बंगाल में कृषि विषयक लौकिक आचार तथा अनुष्ठान की अल्पना है। कुमाऊँ में भी इसी प्रयोजन के लिए लोक संस्कृति में हरेला, डिकरा, बिरुड़िया व डोर दुबज्योड़ पूजा का विधान व थापे तथा ऐपण हैं।

कुमाऊँ में लक्ष्मी व्रत व पूजा के लिए अल्पना द्वारा षट् कोणीय श्रीयंत्र का मध्य में निर्माण कर अथवा सरस्वती पीठ का निर्माण कर अष्ट दल कमल से घेर दिया जाता है। तत्पश्चात चारों सम्पूर्ण क्षेत्र को विभिन्न पुष्पों व लताओं के प्रतीकों से भर दिया जाता है।

कुमाऊँ में विवाहोत्सव अवसर पर रंगों द्वारा भी चित्रों का निर्माण किया जाता है जैसे - ज्यूति पट्टा (विवाह का), वर बूंद, मातृका चौकी (काष्ठ पर), पंच पात्रों (पांच प्रकार के बर्तन) व जाल के साथ भेंट की जाने वाली विवाह चौकी। यह वर व कन्या पक्ष दोनों बनाते है।


एम.एस. मेहता /M S Mehta 9910532720

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Meaning of name and history
Uttarakhand is both the new and traditional name of the state that was formed from the hill districts of Uttar Pradesh, India. Literally North Country or Section in Sanskrit, the name of Uttarakhand finds mention in the early Hindu scriptures as the combined region of Kedarkhand and Manaskhand. Uttarakhand was also the ancient Puranic term for the central stretch of the Indian Himalayas. Its peaks and valleys were well known in ancient times as the abode of gods and goddesses and source of the Ganga River. Today, it is often called "the Land of the Gods" (Dev Bhoomi) because of the presence of a multitude of Hindu pilgrimage spots. The Pauravas, Kushanas, Kunindas, Guptas, Katyuris, Palas, the Chands, and Parmars and the British have ruled Uttarakhand in turns.[3]

The region was originally settled by Kols, an aboriginal people of the Dravidian physical type who were later joined by Indo-Aryan Khas tribes that arrived from the northwest by the Vedic period. At that time, present-day Uttarakhand also served as a haunt for Rishis and Sadhus. It is believed that Sage Vyasa scripted the Mahabharata here as the Pandavas are believed to have traveled and camped in the region. Among the first major dynasties of Garhwal and Kumaon were the Kunindas in the 2nd century B.C. who practiced an early form of Shaivism. They traded salt with Western Tibet. It is evident from the Ashokan edict at Kalsi in Western Garhwal that Buddhism made some inroads in this region. Folk shamanic practices deviating from Hindu orthodoxy also persisted here. However, Garhwal and Kumaon were restored to nominal Brahmanical rule due to the travails of Shankaracharya and the arrival of migrants from the plains. In the fourth century, the Kunindas gave way to the Rawat Dynasty. Between the 7th and 14th centuries, the Katyuri dynasty of Khas origin dominated lands of varying extent from the Katyur (modern day Baijnath) valley in Kumaon. Other peoples of the Tibeto-Burman group known as Kiratas are thought to have settled in the northern highlands as well as in pockets throughout the region, and believed to be the ancestors to the modern day Bhotiya, Raji, Buksha, and Tharu peoples.[4]

By the medieval period, the region was consolidated under the Garhwal Kingdom in the west and the Kumaon Kingdom in the east. From the 13th-14th century, Kumaon prospered under the Chand Rajas who had their origins in the plains of India. During this period, learning and new forms of painting (the Pahari school of art) developed.[5] Modern-day Garhwal was likewise unified under the rule of Parmar Rajas, who along with a mass migration of Brahmins and Rajputs, also arrived from the plains.[6] In 1791, the expanding Gurkha Empire of Nepal, overran Almora, the seat of the Kumaon Kingdom. In 1803, the Garhwal Kingdom also fell to the Gurkhas. With the conclusion of the Anglo-Nepalese War in 1816, a rump portion of the Garhwal Kingdom was reestablished from Tehri, and eastern British Garhwal and Kumaon ceded to the British as part of the Treaty of Sugauli.

In the post-independence period, the Tehri princely state was merged into Uttar Pradesh state, where Uttarakhand composed the Garhwal and Kumaon Divisions.[7] Until 1998, Uttarakhand was the name most commonly used to refer to the region, as various political groups including most significantly the Uttarakhand Kranti Dal (Uttarakhand Revolutionary Party est. 1979), began agitating for separate statehood under its banner. Although the erstwhile hill kingdoms of Garhwal and Kumaon were traditional rivals with diverse lingual and cultural influences due to the proximity of different neighbouring ethnic groups, the inseparable and complementary nature of their geography, economy, culture, language, and traditions created strong bonds between the two regions.[8] These bonds formed the basis of the new political identity of Uttarakhand, which gained significant momentum in 1994, when demand for separate statehood (within the Union of India) achieved almost unanimous acceptance among the local populace as well as political parties at the national level.[9]

 
A Typical Uttarakhandi Village from Pauri Garhwal DistrictHowever, the term Uttaranchal came into use when the BJP-led central and Uttar Pradesh state governments initiated a new round of state reorganization in 1998 and introduced its preferred name. Chosen for its allegedly less separatist connotations, the name change generated enormous controversy among the rank and file of the separate state activists who saw it as a political act [10], however they were not quite as successful as Jharkhand state that successfully thwarted a similar move to impose the name Vananchal. Nevertheless, the name Uttarakhand remained popular in the region, even while Uttaranchal was promulgated through official usage.

In August 2006, India's Union Cabinet assented to the four-year-old demand of the Uttaranchal state assembly and leading members of the Uttarakhand movement to rename Uttaranchal state as Uttarakhand. Legislation to that effect was passed by the State Legislative Assembly in October 2006,[11] and the Union Cabinet brought in the bill in the winter session of Parliament. The bill was passed by Parliament and signed into law by the President in December 2006. Since then, Uttarakhand denotes a state in the Union of India.

 

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