Author Topic: Historical & Geographical Introduction - उत्तराखंड का इतिहास एव भौगोलिक परिचय  (Read 32489 times)

Bhishma Kukreti

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                                 उत्तराखंड में कृषि व भोजन का इतिहास

                                    आलेख :  भीष्म कुकरेती


                                      प्रस्तर  युग में   उत्तराखंड में कृषि व भोजन (Food and Agriculture in Stone Age)


                                                      आदि प्रस्तर युग में भोज्य पदार्थ भोजन विधि

                        प्रस्तर युग के उपकरणों से पता चलता है कि हिम युग अंत के पश्चात उत्तराखंड में मानव विचरण शुरू हो गया था । गंगाद्वार (हरिद्वार ) के समीप आदि प्रस्तर युग के फ्लेक , स्क्रैपर्स , चौप्र्स आदि के निसान मिले हैं । यह सिद्ध होता है कि सोन -मानव टोली हिमालय की कम ऊँची पहाड़ियों (जम्मू से नेपाल तक ) विचरण करती थीं ।
              इस युग में मांस , कंद -मूल -फल भोज्य पदार्थ थे
   अनुमान है कि सोन मानव युग में मनुष्य ने शिला -चौपर्स या गंडासा जैसा उपकरण बनाना सीख लिया था  । वर्तमान गंडासे जैसा शिला उपकरण से मांस , कंद -मूल -फल काटा जा सकता था । मांस या कंद-मूल की  छोटी छोटी बोटियाँ काटने के लिए शिला गंडासे पर दांत नुमा शिला दराती भी थीं ।
  आखेट हेतु इस युग का मानव एक जगह नही रुकता था । उत्तराखंड में सोन मानव कौन से पशुओं और वनस्पतियाँ को खाता था  यह पूर्णत: नही पता है ।
डा के . पी . नौटियाल , सकलानी व विनोद नौटियाल का लेख

                                                   मध्य प्रस्तर  युग में भोज्य पदार्थ भोजन विधि
१५००० साल पहले के इस युग में कास्ट , अस्थि व पत्थर उपकरण प्रयोग में थे और इन उपकरणों में निखार आ गया था । अब ये उपकरण अधिक हल्के, कलापूर्ण  व सुडौल बनने लगे थे जो कि उस समय के भोजन खाने की विधि पर प्रकाश डालते हैं ।
  चकमक पत्थर की समझ से मानव को आग के लाभ मिलने लगे थे । यही समय था जब मांस को भुनकर खाने की शुरुवात हुयी ।

                                              उत्तराखंड में प्रस्तर छुरिका -संस्कृति और मानव भोजन
      इतिहास कार डा शिव प्रसाद डबराल लिखते हैं कि हरिद्वार के पास डा यज्ञ दत्त शर्मा को प्रस्तर उपकरनो के साथ ऐसी शिलाएं भी मिली   जो  उत्तराखंड में प्रस्तर छुरिका -संस्कृति होने के संकेत देते हैं ।  इस संस्कृति युग में भी आखेट व पशु भक्षण आदि मानव भोजन था   । गुफाओं व पर्ण कुटीरों में रहने का अर्थ है कि मनुष्य भोजन भंडारीकरण भी करता होगा । 
          इस समय का मानव आखेट संस्कृति से आगे नही बढ़ पाया  था   ।
                    प्रस्तर छुरिका -संस्कृति में यहाँ के मनुष्य का भोजन वनैले गाय , बैल , भैस , घोड़े , भेद -बकरियां , हिरन चूहे , मछली व घड़ियाल का मांस था ।
  कंद मूल फल जो पाच जाता हो  होगा ।

                                                  उत्तराखंड में उत्तर प्रस्तर संस्कृति और मानव भोजन


                     उत्तर प्रस्तर संस्कृति याने १५०००-से ५५०० वर्ष पूर्व के संस्कृति में मानव सभ्यता में कई परिवर्तन आये ।

                                     उत्तर प्रस्तर संस्कृति में पशु पालन का श्रीगणेश


                   उत्तर प्रस्तर संस्कृति में पशु पक्षियों का पालन शुरू हुआ । कुत्ते को पालतू बनाने का कार्य इसी युग में हुआ इसी युग में पशु पालन विकास उत्तराखंड में हुआ । डा मजूमदार व पुसलकर का मानना है कि उत्तराखंड  भूभाग उन थोड़े से भूभागों में से एक है जन्होने जंगली जानवरों को पालतू बनाया ।
  शिवालिक की पहाड़ियों व मैदानी हिस्सों में तोते , चकोर आदि पक्षियों को पालने के प्रक्रिया भी शुरू हुयी ।
           
                                                             कृषि प्राम्भ
                                     उत्तराखंड में इसी युग में कृषि शुरू हुई ।
गेंहू , जाऊ, चना, फाफड़ , ओगल , कोदू , उड़द व मूंग की जंगली जाती पाए जाने से इतिहास कार सिद्ध करते हैं कि यहाँ इस युग में कृषि करते थे और आग में भूनते थे । जंगली प्याज , बथुआ, हल्दी , कचालू , चंचीडा, नाशपाती , अंजीर , अंगूर , केला, दाडिम , चोलू,आडू  आदि के जंगली प्रजातियाँ भी संकेत देती है की यहाँ इन वनस्पतियों का प्रयोग भली भांति भोज्य पदार्थ क एरुप में होता था (मजूमदार ) ।
  उस समय में भी औरतें कृषि कार्य में लिप होती थीं । औरतें बाढ़ की गीली मिटटी में बीज बिखेरकर  कृषि करती थीं । औरतें गुफा में आग बचाने का भी कम संभालतीं थीं । औरतें पत्तों व मिटटी के पात्र बनाती थीं . नारी ही हड्डी , पत्थर या लकड़ी की कुदाल से कंद मूल खोद कर लती थी । पुरुषों का कम उस समय आखेट,  अन्य वस्तियों से अपनी वस्ती के रक्षा करना व अन्य वस्तियों पर आक्रमण में संलग्न रहता था ।
 
शेष  -- उत्तराखंड में कृषि व भोजन का इतिहास भाग … २ में
                   
 Copyright @ Bhishma  Kukreti  22/8 /2013

 ( उत्तराखंड में कृषि व भोजन का इतिहास ; पिथोरागढ़ , कुमाऊं  उत्तराखंड में कृषि व भोजन का इतिहास ; कुमाऊं  उत्तराखंड में कृषि व भोजन का इतिहास ;चम्पावत कुमाऊं  उत्तराखंड में कृषि व भोजन का इतिहास ; बागेश्वर कुमाऊं  उत्तराखंड में कृषि व भोजन का इतिहास ; नैनीताल कुमाऊं  उत्तराखंड में कृषि व भोजन का इतिहास ;उधम सिंह नगर कुमाऊं  उत्तराखंड में कृषि व भोजन का इतिहास ;अल्मोड़ा कुमाऊं  उत्तराखंड में कृषि व भोजन का इतिहास ; हरिद्वार , उत्तराखंड में कृषि व भोजन का इतिहास ;पौड़ी गढ़वाल   उत्तराखंड में कृषि व भोजन का इतिहास ;चमोली गढ़वाल   उत्तराखंड में कृषि व भोजन का इतिहास ; रुद्रप्रयाग गढ़वाल   उत्तराखंड में कृषि व भोजन का इतिहास ; देहरादून गढ़वाल   उत्तराखंड में कृषि व भोजन का इतिहास ; टिहरी गढ़वाल   उत्तराखंड में कृषि व भोजन का इतिहास ; उत्तरकाशी गढ़वाल   उत्तराखंड में कृषि व भोजन का इतिहास ; हिमालय  में कृषि व भोजन का इतिहास ;     उत्तर भारत में कृषि व भोजन का इतिहास ; उत्तराखंड , दक्षिण एसिया में कृषि व भोजन का इतिहास लेखमाला श्रृंखला )                                   
 


Bhishma Kukreti

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उत्तराखंड में कृषि व भोजन का इतिहास ---2
                         उत्तर प्रस्तर संस्कृति में मानव जीवन में क्रान्ति
                       

                                    आलेख :  भीष्म कुकरेती


  ऊत्तर प्रस्तर युग में कृषि विकास के साथ मैदानों में स्थायी व्स्तियाँ बसने लगे  का विकास ने खेती को बढ़ावा दिया । नदी घाटियों में गाँव और नगर बसने लगे । किन्तु पहाड़ों में जहां पशु चारण  और कृषि का अन्वेषण हुआ वहां पहाड़ी निवासी चरागाहों , पशु पालन और ढलानों में कटील खेतों से चिपके रहे (डबराल , उ, का -इतिहास २ ) ।
नदी-घाटियों  के निवासियों ने लकड़ी , घास, आखेट हेतु पहाड़  निवासियों पर हमला करना शुरू किया और  प्रस्तर उपकरण युग से कलहों और युद्ध का जन्म हुआ ।
जहां वनों के कटान से मैदानी हिस्सों में खेती अधिक विकसित हुयी वहीं पहाड़ों में चिरकाल तक वनों पर   रहा और आज भी बगैर वनों के पहाड़ी जीवन की कल्पना नही की जा सकती है ।
मांस , मच्छली , और कंद मूल के साथ दूध मक्का , जौ धान की खेती भी इसी युग की देन  है
 इतिहास कार डा डबराल व डा नौटियाल का कथन है कि अभीष्ट  अवशेषों के न मिलने से उत्तराखंड में कृषि इतिहास खोजने में दिक्कत आती हैं ।
ऐसा मना जाता है कि झेलम से यमुना हिमालय घाटी तक कोल मुंड की मूल जाती आ बसी थी और कोल मुंड मूल समाज ने हिमालय में उत्तर पत्थर  उपकरणों का विकास भी किया और प्रसार भी किया ।

   
                                उत्तराखंड में ताम्र उपकरण संस्कृति व कृषि -भोजन (3500-2500BC)

                 उपकरण स्वमेव ही कृषि विकास का इतिहास भी बताते हैं ।  बहादराबाद हरिद्वार में ताम्र उपकरण स्स्न्कृति के औजार मिले हैं जैसे फरुशा , भाले , बरछे , छल्ले आदि और गढ़वाल में हरिद्वार से 70 मील दूर धनपुर, डोबरी , पोखरी और कुमाऊं में गंगोली , सीरा  अदि जगहों में ताम्बे की खाने होने से सिद्ध होता है कि पहाड़ों में ताम्बा बनाने व औजार /हथियार बने होंगे ।
औजार याने कृषि में विकास या युद्ध विकास और फिर अंदाजा लगा जाता है कि किस तरह कृषि में विकास हुआ होगा ।
डा नौटियाल गढ़वाल -कुमाऊं में Pale -red -grey ware संस्कृति पाए जाने और जंगली बैलों , पालतू सुअर और पालतू घोड़ों के अवशेष मिलने से यह पता लगता है कि कई जानवरों का पालतू करण हो चुका होगा। इस युग में उत्तराखंड में भी अन्न भंडारीकरण , कृषि उपकरण में सुधार से कृषि को नई शक्ति मिली होगी ।
शायद इस युग या इससे पहले के युग में पत्थर का पयाळु (पथर की गहरी थाली )  व लकड़ी के वर्तन अधिक बने होंगे ।
 मौर्य और गुप्त काल में उत्तराखंड से घोड़े निर्यात होते थे जिससे पता चलता है कि घोड़ो की नस्ल के बारे में मनुष्य समझने लगा होगा ।
पेड़ों से औषधि का ज्ञान भी इसी युग में अधिक हुआ होगा
मोहनजो दाडो सभ्यता हरियाणा -सहारनपुर में विकसित हो चुकी तो इस सभ्यता के कई उपकरण व कृषि विज्ञानं ज्ञान हिमालय में भी पंहुचा ही होगा ।

 
शेष  -- उत्तराखंड में कृषि व भोजन का इतिहास भाग … 3  में
Copyright @ Bhishma  Kukreti  23/8 /2013

Reference-

Dr. Shiv Prasad Dabral, Uttarakhand ka Itihas 1- 9 Parts
Dr K.K Nautiyal et all , Agriculture in Garhwal Himalayas in History of Agriculture in India page-159-170


 ( उत्तराखंड में ताम्र युग में कृषि व भोजन का इतिहास ; पिथोरागढ़ , कुमाऊं  उत्तराखंड में ताम्र युग में कृषि व भोजन का इतिहास ; कुमाऊं  उत्तराखंड में ताम्र युग में कृषि व भोजन का इतिहास ;चम्पावत कुमाऊं  उत्तराखंड में ताम्र युग में कृषि व भोजन का इतिहास ; बागेश्वर कुमाऊं  उत्तराखंड में ताम्र युग में ताम्र युग में कृषि व भोजन का इतिहास ; नैनीताल कुमाऊं  उत्तराखंड में ताम्र युग में कृषि व भोजन का इतिहास ;उधम सिंह नगर कुमाऊं  उत्तराखंड में ताम्र युग में कृषि व भोजन का इतिहास ;अल्मोड़ा कुमाऊं  उत्तराखंड में ताम्र युग में कृषि व भोजन का इतिहास ; हरिद्वार , उत्तराखंड में कृषि व भोजन का इतिहास ;पौड़ी गढ़वाल   उत्तराखंड में ताम्र युग में कृषि व भोजन का इतिहास ;चमोली गढ़वाल   उत्तराखंड में ताम्र युग में कृषि व भोजन का इतिहास ; रुद्रप्रयाग गढ़वाल   उत्तराखंड में ताम्र युग में कृषि व भोजन का इतिहास ; देहरादून गढ़वाल   उत्तराखंड में ताम्र युग में कृषि व भोजन का इतिहास ; टिहरी गढ़वाल   उत्तराखंड में ताम्र युग में कृषि व भोजन का इतिहास ; उत्तरकाशी गढ़वाल   उत्तराखंड में ताम्र युग में कृषि व भोजन का इतिहास ; हिमालय  में कृषि व भोजन का इतिहास ;     उत्तर भारत में कृषि व भोजन का इतिहास ; उत्तराखंड , दक्षिण एसिया में ताम्र युग में कृषि व भोजन का इतिहास लेखमाला श्रृंखला )   

Bhishma Kukreti

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 उत्तराखंड में लौह संस्कृति में कृषि , कृषि  भोजन (1700 -300BC )


                                       उत्तराखंड में कृषि व भोजन का इतिहास ---3

                                    आलेख :  भीष्म कुकरेती


             उत्तराखंड के पूर्वी भागों में महा समाधियाँ मिली हैं जो इंगित  कि लौह हथियार का प्रयोग लौह कल में शुरू हो गया याने  कि लौह उपकरण के कई उपयोग व कृषि विकसित ह रही थी ।
 उत्तराखंड महाभारत युग में लौह उपकरणों का मुख्य निर्यातकर्ता था ।  निकलता है कि जंगली जौ , जंगली गहथ आदि की कृषि सुगम होने लगी थी ।
 कोल जाती ने कृषि विकसित की हुई थी और कुदाल फावड़े से कृषि की शुरवात हो चुकी थी । इसके अतिरिक्त हल -लान्गुल जैसे उपकरण बना लिए थे ।
घास , फूस , मिटटी -पत्थर की झोपड़ियां बनने भी शुरू हो चुकी थी । और शायद इसी वक्त उत्तराखंड में छन्न संस्कृति की शुरुवात भी इसी काल में हो चुकी थी ।
भारत में बाण , लकुट , धनुष , बरछे , खुकरी, तलवार, घोड़े की लगाम , छेनी   उपलब्ध थे जो  लिए सुभीते वाले उपकरण थे । इसके अतिरिक्त कुल्हाड़ी , हंसिया (दाथी ), छेनी  भी विकसित हो चुकी थी ।

पहाड़ी ढालों  पर दीवाल (पगार ) चिनने के प्रक्रिया शुरू हो चुकी थी और गद -गदन या नदियों के किनारे क्यारी बनाने की संस्कृति भी विकसित हो चुकी थी ।
 जहां तक भारत का प्रश्न है उस समयज जौ , गेंहू , धान , जंगली भिन्डी , बाजरा, ज्वार, सरसों , दालें  मुख्य भोज्य पदार्थ थे अत : उत्तराखंड में गेंहू को छोड़ बाकी सभी खाद्य पदर्थ प्रयोग होते थे ।
इस तरह उत्तराखंड में जौ , जंगली भिन्डी , बाजरा, ज्वार, सरसों , दालें भोजन थे और गेंहू धान मैदानी भाग में रहे होंगे ।
अनाज का उपयोग आग में भूनकर अधिक होता रहा होगा ।
इस युग तक नीम्बू , केला, सेमल, कद्दू के खेती भी सीख चुका था ।
पक्षियों में कुक्कुट , मोर, हाथी , घोड़ों  , बैल , भैंसों को पालतू बनाना सीख चुका था ।
मछली  व शहद भोजन के अंग बन चुके थे ।
मृग , जंगली चकोर , गौरया आदि भी भोज्य पशु -पक्षी  थे ।
जंगल से औषधियों का ज्ञान भी यहाँ हो चुका था और विशेस्य्गाता हासिल कर चुके थे ।
बीसवीं सदी से पहले गढवाल -कुमाऊं में कई वनस्पतियों का उपयोग भोज्य पदार्थ रूप में होता था जो ब्रिटिश काल में समाप्त भी हो गया जैसे सेमल के कच्चे घोघाओं की सब्जी । ऐसी वनस्पतियों का उपयोग आग आने के बाद या धातु युग में शुरू हुआ

Reference-

Dr. Shiv Prasad Dabral, Uttarakhand ka Itihas 1- 9 Parts
Dr K.K Nautiyal et all , Agriculture in Garhwal Himalayas in History of Agriculture in India page-159-170
B.K G Rao, Development of Technologies During the  Iron Age in South India
V.D Mishra , 2006, Prelude Agriculture in North-Central India (Pragdhara ank 18)

Anup Mishra , Agriculture in Chalolithic Age in North-Central India

Bhishma Kukreti

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Lakes and Ponds in Tehri Riyasat (Tehri and Uttarkashi Garhwal) 
History of King Sudarshan Shah Period – 12
History of Tehri Riyasat (Tehri Garhwal and Uttarkashi Garhwal) from 1815-1948   -12
 History of Uttarakhand, (Garhwal, Kumaon and Haridwar) - 1237
                       By: Bhishma Kukreti (History Student)
 Dodital is beautiful and the biggest lake of Tehri Riyasat. The lake is situated on Dodi Hill. Asignga originates from Dodital and later on meets Bhagirathi. The lake is in north of barahat in Kelsu Village region. Minya Prem Singh informed that the area of Dodital was 4 kosh in diameter. The Dodital is auspicious for the people of the area. People believe that deities come from Kailas Mountain and take bath there (Minya) Minya Prem Singh informed that if leave falls in the pond, the birds take out that leave. The lake is beautiful.
    One Mile circled Bantal- Bantal is on Majhidanda  hill I Ador Patti.
Masartal- Masartal Circle  is around 2 miles
Chaurangital- The Chaurangital is in north of Falda village.
Sahastratal – Sahastra tal is in north of Hatkuni hill on the way of Penwali. Balkhilyya River originates from the lake .

References –
Minya prem Singh , Guldast Tabaikh page 18, 19
 Shiv Prasad Dabral, Uttarakhand ka Itihas part 6 page- 38
  Copyright@ Bhishma Kukreti, 2018 bjkukreti@gmail.com
Lakes, Ponds and History of Tehri Garhwal; Lakes, Ponds and History of Uttarkashi Garhwal; Lakes, Ponds and History of Ghansali, Tehri Garhwal; Lakes, Ponds and History of Bhatwari ,  Uttarkashi Garhwal; Lakes, Ponds and History of Tehri, Tehri Garhwal; Lakes, Ponds and History of Rajgarhi Uttarkashi Garhwal;  Lakes, Ponds and History of Narendranagar,  Tehri Garhwal; Lakes, Ponds and History of Dunda ,  Uttarkashi Garhwal; Lakes, Ponds and History of Dhantoli, Tehri Garhwal; Lakes, Ponds and History of Chinyalisaur Uttarkashi Garhwal; Lakes, Ponds and History of Pratapnagar , Tehri Garhwal; Lakes, Ponds and History of  Mori, Uttarkashi Garhwal; Lakes, Ponds and History of Devprayag, Tehri Garhwal; Lakes, Ponds and History of  Puraula, Uttarkashi Garhwal; Lakes, Ponds and History of Jakhanikhal Tehri Garhwal; Lakes, Ponds and History of Gangotri- Jamnotri Uttarkashi Garhwal to be continued

 

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