प्राचीन भारतीय ग्रंथ महाभारत के ओग पर्व में पक्षीराज गरुण, गाल्व ऋषि से गंगोत्री केबारे में बताते हैं -
‘अत्र गंगा महादेवा पतंती गगनाच्युताम्
प्रति गृह्य ददौ लोके मानुषे बृह्म वित्तमः’
अर्थात् आकाश से गिरती हुई वेगवान गंगा को भगवान शिव ने इसी स्थान पर धारण किया था और यहीं से वे मनुष्य लोक में प्रवेश करती हैं।
लेकिन आज गंगोत्री से भी 18-19 किलोमीटर ऊपर स्थित गोमुख ग्लेशियर से निकलती भागीरथी की धारा भ्रम की स्थिति उत्पन्न करती है कि गंगा गंगोत्री से निकली या गोमुख से?
पुराने लोग बताते हैं कि वे जब पट खुलने के बाद गंगोत्री जाते थे, तो वहां कई जगह बर्फ के ढेर मिलते थे, लेकिन आज तो गोमुख से पहले कहीं बर्फ नहीं मिलती। पुराने यात्रा वृत्तांतों एवं अनेक इतिहासकारों, पर्यटकों एवं खोजी दलों ने भी इस तथ्य की पुष्टि की है। 1808 में कैप्टन रीपर तो गंगोत्री तक भी नहीं जा पाए थे। उनके द्वारा भेजा गया एक ब्राह्मण आठ दिन की कठिन जानलेवा यात्रा के बाद उत्तरकाशी से गंगोत्री पहुंच पाया था और उसने देखा था कि गंगोत्री के ऊपर तो कहीं कोई मार्ग ही नहीं है। बर्फीले ग्लेशियर ही ग्लेशियर थे। पर आज यात्री गंगोत्री से चीड़वासा, भोजवासा होते हुए गोमुख और उससे भी ऊपर तपोवन, नंदन वन तक जा सकते हैं।
गोमुख, हिमशिखरोंं से घिरा ग्लेशियर है, जहां अर्द्धचंद्राकार गुफा से भागीरथी का निर्मल जल हिमखंडों के साथ बड़े वेग से निकलता है। जल के वेग को देखकर प्रतीत होता है कि गंगा का उद्गम इससे भी कहीं ऊपर से है। 4000 मीटर की ऊंचाई पर ठंडी हवाओं के साथ आती गंगा की कलकल ध्वनि के अलावा शांति का सर्वत्र साम्राज्य। नीले आकाश में अठखेलियां करते बादलों के सफेद गोले। कहीं दूर टूटते ग्लेशियर से आती गड़गड़ाहट जैसे शिव का डमरू बज रहा हो। चारों ओर प्रकृति अपने विराट, मनोरम और श्रद्धा से परिपूर्ण करने वाले रूप में। नारायण उदयगिरि, कांठा और स्वर्गरोहिणी पर्वतों की धवल चोटियों के बीच में केवल भक्ति और वैराग्य की अनुभूति देने वाली शांति। तभी तो यहां से चार किलोमीटर नीचे भोजवासा में बने लाल बाबा के आश्रम में कोलकाता के राजू महाराज शीतकाल में भी यहां रहकर सत्य की खोज में लगे हुए हैं। उनके अनुसार स्वर्ग और पृथ्वी का संधि स्थल है यह स्थान, जहां सदैव विचित्र अनुभूतियां होती रहती हैं। जब चारों ओर बर्फ ही बर्फ होती है तब कभी घंटे-घडि़याल और आरती के स्वर गूंजते हैं-कभी ओम का ब्रह्मनाद सुनाई पड़ता है। बर्फ में रहने वाले भालू और तेंदुए तो अकसर आश्रम की छत पर आकर बैठ जाते हैं।
भोजवासा से भोजवृक्षों के जंगलों के बीच से मार्ग बनाती सुरसरि की तीव्र हिमधारा चीड़ और देवदार से घिरे एक छोटे से यात्री पड़ाव के पास से गुजरती है, जिसका नाम है चीड़वासा। यहां छोटे-छोटे ढाबे हैं, जहां भोजन मिल जाता है और रात्रि विश्राम की सुविधा भी। यूं तो बारह महीने ही यात्री यहां आते रहते हैं, लेकिन मई से अक्तूबर तक यात्रियों का आना-जाना अधिक होता है। पहले तो अधिकतर श्रद्धालु गंगोत्री से ही लौट जाते थे, लेकिन अब साहसी पदयात्री गोमुख तपोवन और नंदन वन तक भी आते हैं।
चीड़वासा से दुर्गम घाटियों से गुजरती, उछलती-कूदती भागीरथी पहुंचती है सुप्रसिद्ध तीर्थ स्थली गंगोत्री।
एतते सर्वमाख्यात् गंगा त्रिपथगा यथा।
पूर्णार्थ समुद्रस्य पृथ्वी भवतरिता॥
कहते हैं यहां गंगा के दाहिने किनारे स्थित भगीरथ शिला पर ही राजा भागीरथ ने कभी कठोर तप कर गंगा का आवाहन किया फिर शिव को प्रसन्न कर धरती पर गंगावतरण करवाया था। इसी भागीरथ शिला पर स्थित है मां भगवती गंगा का प्राचीन मंदिर। 1816 में जब बेहद कठिनाइयां सहकर जेम्स वेली फ्रेजर का दल यहां पहुंचा था, तब वह यहां की प्राकृतिक सुषमा को देखकर ठगा-सा रह गया था। चारों ओर बर्फ से घिरी चोटियां, उनके नीचे भोज, देवदार, चीड़ और न जाने कौन-कौन से वृक्षों के घने जंगल और उनके बीच से निकलते और गंगा में विलीन होते अनेक बर्फीले झरने। घाटियों के बीच से बड़े-बड़े हिमखंडों और शिलाखंडों को अपने साथ लेकर चलती गंगा की तीव्र धारा। सब कुछ अकल्पनीय, अद्भुत, वर्णनातीत, सुंदर, मनोहर।
ऐसी मान्यता थी कि पहले यहां गुफा मंदिर ही थे। कालांतर में भागीरथ शिला पर ही छोटा गंगा मंदिर बनवाया गया, जो भागीरथी की तीव्र धार में लुप्त हो गया। गंगोत्री का वर्तमान मंदिर भागीरथ शिला से थोड़ा ऊपर लगभग 100 वर्ष पूर्व जयपुर नरेश सवाई माधोसिंह द्वारा बनवाया गया था, जिसमें गंगा, यमुना, लक्ष्मी, सरस्वती और भागीरथ की मूर्तियां स्थापित हैं। गंगोत्री मंदिर के कपाट अप्रैल के अंतिम सप्ताह से नवंबर के प्रथम सप्ताह तक खुले रहते हैं। इसके पूर्व यहीं एक छोटा-सा मंदिर था, जिसे नेपाली सेनापति अमर सिंह थापा ने बनवाया था। सदियों से गंगोत्री का जल मुहरबंद होकर विभिन्न मैदानी मंदिरों, राजा-महाराजाओं, मुगल सम्राटों एवं धार्मिक स्थलों को भेजा जाता था। इसके औषधीय तत्व जब चमत्कारी परिणाम देने वाले एवं कभी खराब न होने वाले होते थे। लेकिन आज बढ़ती जनसंख्या से गंगोत्री से ही गंगा का जल प्रदूषित होने लग जाता है। 1948 से यहां निरंतर प्रवास करने वाले संत और हिमालय केअद्भुत चितेरे छाया चित्रकार स्वामी सुंदरानंद जी इससे बहुत व्यथित हैं। उनके अनुसार पर्यटन के नाम पर इन पवित्र स्थलों का दोहन उचित नहीं है। लोग धार्मिकता के स्थान पर हनीमून मनाने आने लगे हैं। नए-नए होटल खुल रहे हैं। उनमें भीड़ बढ़ती जा रही है, जिसके कारण गंदगी बढ़ रही है और ग्लेशियर पिघल कर पीछे खिसकते जा रहे हैं। जंगल कट रहे हैं। कभी यहां कस्तूरी मृग, भालू और तेंदुए घूमा करते थे, अब सब लुप्त हो गए हैं।
गंगोत्री से अनेक छोटी-बड़ी धाराओं और झरनों को अपने में समेटती जह्न्वु ऋषि के आश्रम से होती जाह्न्वी अर्थात् भागीरथी पहुंचती हैं तीर्थ स्थली उत्तर की काशी अर्थात् उत्तरकाशी। यह नगरी भगवान शंकर की प्रिय है और यहां सदियों पुराना स्वयंभू लिंग वाला विश्वनाथ मंदिर और 18 फीट ऊंचा त्रिशूल भक्तों की श्रद्धा का केंद्र है।
प्राचीन ग्रंथों में इसे बाड़ाहाट का नाम दिया गया है। यहीं से यमुनोत्री के लिए भी मार्ग जाता है। इस क्षेत्र की परिक्रमा पांच कोस की है, जिसे श्रद्धालु बड़ी ही श्रद्धा से पूरी करते हैं।
उत्तरकाशी से गंगा भल्डियाना, टिहरी होती हुई प्रसिद्ध तीर्थ स्थली देवप्रयाग आती है, जहां बद्रीनाथ से भगवान शिव की अलकों से निकली अलकनंदा उनमें समाहित हो जाती है। कहते हैं भगवान राम ने यहीं देवप्रयाग में अपने पितरों का तर्पण भी किया था और ब्रह्महंता के पाप से मुक्ति पाई थी। किवदंती है कि यहां जगद्गुरु शंकराचार्य ने कुंड से भगवान राम की भव्य मूर्ति निकाल कर स्थापित की थी और रघुनाथ मंदिर बनवाया था। देवप्रयाग से शिवपुरी, मुनि की रेती, ऋषिकेश होती हुई गंगा पहुंचती है विश्वप्रसिद्ध तीर्थ नगरी हरिद्वार जहां समुद्र मंथन से निकले अमृत कलश से कुछ बूंदें छलक कर गंगा में गिरी थीं, जिससे बाद में 12 वर्षीय कुंभ स्नान की परंपरा पड़ी। हरिद्वार में हर की पौड़ी पर नहाने का बड़ा महात्म्य है। यहीं हरिद्वार से थोड़ा आगे है प्रसिद्ध तीर्थ कनखल। कहते हैं यहां भगवान शिव ने दक्ष प्रजापति का यज्ञ वीरभद्र के द्वारा विध्वंस कराके सती की मृत्यु का प्रतिशोध लिया था। कनखल दक्ष प्रजापति की राजधानी थी और अभी भी पुरातात्विक महत्व की स्थली है। कनखल से ही गंगा पर्वतों की गोदी से निकल कर मैदान में आ जाती है और अपनी पहाड़ी चंचलता को त्याग कर धीर, गंभीर बन मंथर गति से गंगा सागर की यात्रा पर चल पड़ती है। यहींं से पतित पावनी को प्रदूषित करने का मानव अभियान भी बड़े वेग से प्रारंभ हो जाता है। प्रदूषण मुक्ति की सरकारी योजनाएं इसे कितना बचा पाएंगी, यह भविष्य के गर्भ में है, किंतु जनता में जागरूकता की आवश्यकता तो है ही। क्या कलिमल विनाशिनी गंगा की अविरल धारा जैसी आज है वैसी युगों-युगों तक रह पाएगी? इसमें संदेह है।