छतरी ओढ़, छोड़ डोली, मैं तो पिया की हो ली
चंबा [टिहरी]। कहते हैं आवश्यकता आविष्कार की जननी होती है और इस कहावत को चरितार्थ कर दिखाया टिहरी जिले के एक गाव के बाशिदों ने। विवाह में दुल्हन की डोली उठाने को कहार नहीं मिले तो झट विकल्प तलाश लिया और वह भी इतना आसान कि आप जानकर मुस्कराए बिना नहीं रह सकते। ग्रामीणों ने डोली का विकल्प बनाया छतरी, यानी छाते को और अब यह परंपरा इस गाव की अनूठी पहचान सी बन गई है।
पहाड़ में वर-वधु को डोला व पालकी में बिठाकर ले जाने की सदियों पुरानी परंपरा रही है। प्राचीन समय में दूल्हा पालकी में बैठकर दुल्हन के घर जाता था और वहा से दुल्हन को डोली में बिठाकर घर लेकर आता था। आज भी दूरस्थ अंचलों में यह परंपरा कायम है, लेकिन एक गाव ने समय की आवश्यकता के अनुरूप इसका स्वरूप बदल दिया।
यह गाव है टिहरी जिले का धारकोट गाव, जहा दुल्हन डोली में नहीं, बल्कि छतरी ओढ़कर विदा होती है। दरअसल, गावों में पलायन की समस्या बढ़ने व इसके चलते डोली-पालकी उठाने वालों की कमी के कारण गाववालों को यह कदम उठाना पड़ा। हालाकि, पिछले तीन दशक से क्षेत्र की शादियों में सभी दूल्हा-दुल्हन छतरी लेकर विदा होते हैं, लिहाजा अब यही यहा की अनूठी परंपरा बन चुका है।
हालाकि, गाव के लोगों ने जब इसकी शुरुआत की, उस समय सबकी अलग-अलग राय थी। खासकर जिन लड़कियों ने डोली में बैठकर ससुराल जाने के सपने संजोए थे, उनको यह स्वीकार्य नहीं था। यहा यह जानना जरूरी है कि इस परंपरा की शुरुआत कैसे हुई। गाव के पूर्व प्रधान कमल सिंह पवार ने बताया कि 1965 में जब उनकी शादी हुई थी, तब यातायात की सुविधा नहीं थी। एक गाव से दूसरे गाव बारात मीलों पैदल जाती थी। डोला और पालकी का रिवाज था, जिसको ढोने वाले लोगों की संख्या काफी कम थी। ऐसे में बारातें अधिक होतीं, जबकि डोली ले जाने वाले कहार कम। फिर डोली ले जाने के बदले उन्हें अनाज के सिवा मिलता भी कुछ नहीं था, इसलिए उन्होंने यह काम छोड़ दिया। इसके अलावा गाव से पलायन बढ़ने से भी दिक्कतें आने लगीं।
ग्राम प्रधान पुष्पा चौहान का कहना है कि, वह अपनी शादी में छतरी ओढ़कर आई, हालाकि उस समय दु:ख हुआ था, लेकिन अब तो यह परंपरा बन गई है और इस लिहाज से खुशी भी होती है कि इसकी वजह से गाव को खास पहचान भी मिल रही है।
Source : Dainik Jagran (18/12/09)