Author Topic: It Happens Only In Uttarakhand - यह केवल उत्तराखंड में होता है ?  (Read 43322 times)

Devbhoomi,Uttarakhand

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नौबत एक प्राचीन ताल जो केवल उत्तराखंड में बजाते है

यह एक अत्यंत प्राचीन ताल है,इसका उल्लेख इंद्र के दरबार में मिलता है ,यह ताल रात्री के द्वितीय अतवा अंतिम प्रहर में किसी मंगल उत्सव पर तथा बसंतऋतू में नित्य प्रति प्रस्तुत की जाती है !इसका मूल भाव श्रृंगार से अभिभूत शांत रस है ! गढ़वाल तथा कुमाऊं के राजाओं के दरबार में यह नौबत बजाई जाती थी!

कुमाऊनि की लोकगाथा (मालुसाही ) में इस ताल का उल्लेख मिलता है ! और इस ताल के बारे में मैंने अपने बुजर्गों से सुना है कि नौबत बजाने के बाद गांवों में कोई भी आवाज नहीं करता है और न ही घर से बाहर निकलता है ! नौबत के बाद ये अशुभ माना जाता है !

Devbhoomi,Uttarakhand

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Logon ko kandhon par bithakar le jaya jaat hai devbhoomi ke darshan karne ke liye


एम.एस. मेहता /M S Mehta 9910532720

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यहाँ वर्तन नहीं, पत्थर पर होता है भोजन

गोपेश्वर (चमोली )  - उत्तराखंड

नौटी मैठाणा के लोगो के सहित, मौडावी गाव के लोग देवी उफराई की डोली में भाग लेने वाले श्रद्धालु प्रसाद के रूप में पका भोजन वर्तनों या पत्तलों में नहीं, बल्कि पत्थर में खाते है !

This is a part of ritual.

 

पंकज सिंह महर

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जांती मेले में उमड़ पड़े श्रद्धालु

गोपेश्वर, मकर संक्रांति से शुरू हुआ पांडुकेश्वर का प्रसिद्ध जांती मेला संपन्न हो गया। तपती आग में जांती (लोहे का गोल चक्र, जिस पर तीन पाये लगे रहते हैं), को हाथों से पकड़कर शरीर के नीचे उतारने का कौतूहल और श्रद्धा से भरे उत्सव को देखने के लिए भारी संख्या में श्रद्धालु उमड़ पड़े।

कुंभ के छह वर्षो के अंतराल में परंपरानुसार आयोजित होने वाला पांडुकेश्वर का जांती मेला श्रद्धा और विश्वास का वह उत्सव है, जिसे देखकर आंखें ठगी-सी रह जाती हैं। इस उत्सव के केंद्र में चार पश्वा होते हैं, जिन्हें अवतारी पुरुष माना जाता है। इनमें कुबेर, घंटाकर्ण, कैलाश और नंदा माता शामिल हैं।

पांडुकेश्वर के जगजीत मेहता बताते हैं कि लोहे से बनी गोल चक्र की जांती को अग्नि कुण्ड में रख गांव के लोग जागर गाते हैं। इस दौरान अग्निकुण्ड में जांती तपती रहती है। रविवार को प्रात: चार बजे कैलाश देवता के पश्वा ने आग में तपती और लाल हो चुकी जांती को हाथ से उठा लिया। बाद में भक्तों के जयकारे के बीच घंटाकर्ण के पश्वे ने अग्निकुण्ड में प्रवेश कर भक्तों को आशीर्वाद दिया।

समाज विज्ञानी प्रकाश कपरवाण के मुताबिक कुंभ के छह वर्षो के अंतराल में गांव के जिस परिवार में बड़े लड़के का जन्म होता है, वह अपने घर में देवी देवताओं का आवाहन करता है। इस उत्सव में गांव के सभी नाते रिश्तेदार शामिल होते हैं।

पंकज सिंह महर

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उत्तराखण्ड में भी होता है भैंसा युद्ध

देवप्रयाग तहसील की खासपट्टी में आज भी मनोरंजन के लिए भैंसे लड़ाए जाते हैं। भैंसा युद्धों को हिंसक बनाने में कोई कसर नहीं रखी जाती। भैंसों के मुकाबले से पहले उनके सींगों को आरी व रेगमार्ग से पैना बनाया जाता है। रविवार को खोनबागी गांव में भैंसा युद्ध के दौरान निदरेष व्यक्ति की मौत से क्षेत्रवासी स्तब्ध हैं। अधिकांश लोग ऐसे बर्बर खेलों पर पाबंदी लगाने के पक्ष में है। भैंसा युद्धों के दौरान पहले भी कई दुर्घटनाएं घट चुकी हैं।

राजशाही के जमाने में जब मनोरंजन के साधन नहीं थे तब गांवों में भैसों का मुकाबला कर ग्रामीण मनोरंजन करते थे। मगर धीरे-धीरे सभ्य समाज में ऐसे खेलों को तरजीह नहीं दी गई पर आज भी टिहरी के कुछ इलाकों में भैंसा युद्ध जारी है जिनमें से खासपट्टी भी प्रमुख है। 70 के दशक में केरल के प्रसिद्ध स्वामी मनमथन द्वारा चंद्रबदनी सिद्धपीठ में बर्बर पशुबलि के खिलाफ जनआंदोलन शुरू किया गया था।

बाद में कई गांवों में भैंसा युद्धों के दौरान शराबियों का हुड़दंग व महिलाओं से छेड़छाड़ बढ़ने पर इन्हें प्रतिबंधित कर दिया गया मगर कई क्षेत्रों में गाहे बगाहे इनका आयोजन होता रहा। कुछ वर्ष पूर्व जगधार गांव में पंचायती भूमि पर ऐसा भैंसा युद्ध कराने पर पूरी तरह जब पाबंदी लगायी गई तो कई लोगों ने पौड़ीखाल क्षेत्र के खाली मैदानों में इनका आयोजन शुरू कर दिया। एडवोकेट मुरलीधर उनियाल कहते हैं कि भैंसायुद्ध ऐसी खेल विरासत नहीं है जिसे आगे बढ़ाया जाये। बिलेश्वर झल्डियाल पशुओं को उत्पीड़ित करने वाले इस खेल को पहाड़ की संस्कृति के खिलाफ बताते हैं।

पौड़ीखाल विकास संघर्ष समिति अध्यक्ष प्रताप सिंह रावत कहते हैं कि सभ्य समाज में ऐसे खेलों के लिए कोई स्थान नहीं है। ग्राम प्रधान दसोली गुलाब सिंह नेगी ने बताया कि पौड़ीखाल क्षेत्र वर्षो से पेयजल समस्या से जूझ रहा है मगर जब गत 3 जनवरी को डीएम टिहरी सचिन कुर्वे यहां पहुंचे तो लोगों ने उनसे समस्या बताने के बजाय पास के गांव डांगी में आयोजित भैंसा युद्ध में जाना ज्यादा बेहतर समझा।

पूर्व सैनिक संगठन के जिला उपाध्यक्ष कुंदन सिंह बिष्ट ऐसे हिंसक खेल पर पूरी तरह प्रतिबंध लगाने के पक्ष में हैं। कुछ साल पहले ललुड़ीखाल क्षेत्र में पराजित भैंसे के समर्थको को अपने भैंसे का हारना नागवार गुजरा और उन्होंने विजयी भैंसे के मालिक का सिर फोड़ डाला जो लंबे उपचार के बाद स्वस्थ हो पाया।

एम.एस. मेहता /M S Mehta 9910532720

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प्रेरणादायी परंपरा है पानी पंचायत

चम्बा (टिहरी)। विकास योजनाओं के अलावा सामूहिक भागीदारी के कामों को संपन्न कराने में अकसर ग्रामीण आपस में भिड़ जाते हैं। खासकर सिंचाई के पानी का सार्वजनिक बंटवारा ऐसा काम है, जिसका विवादों से चोली-दामन का साथ रहता है, लेकिन जड़धार गांव की सदियों पुरानी परंपरा 'पानी पंचायत' दूसरे गांवों के लिए मिसाल बनकर उभरी है। दरअसल, सिंचाई के लिए पानी का बंटवारा इसी पंचायत की देखरेख में किया जाता है। किसी विवाद की स्थिति में ग्रामीण आपस में लड़ने की बजाय पंचायत का निर्णय ही मानते हैं।

टिहरी जनपद के चम्बा प्रखंड की ग्राम पंचायत जड़धार गांव में सदियों पुरानी पानी पंचायत आज भी कार्य कर रही है। पंचायत का कार्य है किसानों की जरूरत के अनुसार खेतों तक पानी पहुंचाना और समय-समय फसलों की सिंचाई करना। जड़धार गांव लगभग चार सौ परिवारों वाला हेंवलघाटी का सबसे बड़ा गांव है। यहां के लोगों के नागणी में बड़े भू-भाग पर सिंचित खेत हैं। खेतों की सिंचाई के लिए सदियों पुरानी व्यवस्था है, जो पानी पंचायत या जल समिति द्वारा तय की जाती है। सिंचित खेतों में मुख्य रूप से धान और गेहूं की फसल ली जाती है। गांव के बड़े-बुर्जुगों ने बडी सूझबूझ से ऐसी व्यवस्था बनाई की सभी को पानी मिल सके और किसी तरह का विवाद न हो। हालांकि, पानी पंचायत का गठन कब हुआ, किसी को पता नहीं, लेकिन गांव के बुजुर्ग कहते हैं कि यह सदियों पुरानी परंपरा है। गांव के समाजसेवी विजय जड़धारी का कहना है, कि पानी पंचायत न होती, तो पानी के बंटवारे को लेकर लोग आपस में झगड़ते, सभी को एक साथ पानी चाहिए तो यह संभव न होता। ऐसे में आज भी पंचायत के लोग बारी-बारी से जरूरत के अनुसार गूल के जरिए खेतों तक पानी पहुँचाते हैं। इसमें सभी समुदायों की भागीदारी होती है और किसी के साथ भेदभाव नहीं किया जाता।

सिंचाई के बदले पंचायत के लोगों को धन नहीं, बल्कि अनाज दिया जाता है, वह भी उपज के अनुसार। पंचायत का चुनाव हर वर्ष होता है। खास बात यह है कि जिन नियम- कायदों के आधार पर विवादों के निर्णय लिये जाते है, वे लिखित नहीं बल्कि मुंहजबानी हैं। काम का बंटवारा, कब, कौन, कहां, किसके खेतों में पानी देगा, कब बैठक होगी, काम के बदले लिये अनाज का बंटवारा आदि कार्य भी सिर्फ आपसी विश्वास के आधार पर मुंहजबानी ही किए जाते हैं। खास बात यह है कि पंचायत में लिए निर्णय पर कोई सदस्य मुकर नहीं सकता।

समय के साथ पानी पंचायत की भूमिका में और अधिक व्यापकता आई है और आज इसके सदस्य सिंचाई करने के साथ खेतों की जंगली जानवरों से सुरक्षा भी करते है। इतना ही नहीं, पंचायत की देखरेख में खेतों के निकट सामुदायिक घास भी उगाई गई है। पंचायत को मिलने वाले अनाज को सिंचाई व अन्य कार्य करने वाले करीब एक दर्जन लोगों को बांट दिया जाता है, यानी यह पंचायत इन ग्रामीणों की रोजी का जरिया भी है।

पानी पंचायत के वर्तमान मुखिया मंगल सिंह का कहना है कि यह सामूहिक भागीदारी का कार्य है। खेतों को कब पानी देना है, यह जिम्मेदारी पानी पंचायत की है। खेत स्वामी को महज अनाज बोने व काटने का कार्य करना होता है, शेष चिंता पंचायत करती है। वह बताते हैं कि पंचायत में अच्छा काम करने वाले सदस्य फिर चुन लिए जाते हैं।


Source : http://in.jagran.yahoo.com/news/local/uttranchal/4_5_6178047.html

एम.एस. मेहता /M S Mehta 9910532720

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अग्नि नहीं भगवान बदरीनाथ के फेरों से होता है विवाह
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रुद्रप्रयाग। हिंदू विवाह संस्कार की परंपरा लगभग पूरे देश में एक सी हैं, जिसके तहत वर- वधु के अग्निवेदी के फेरे लेने के बाद विवाह संपन्न माना जाता है, लेकिन रुद्रप्रयाग जिले का एक गांव ऐसा है, जहां वेदी के फेरे नहीं लिए जाते। मान्यता है कि निरवाली नामक इस गांव बदरीनाथ जाते हुए आद्यगुरु शंकराचार्य ने विश्राम किया था। तब से गांव में विवाह के दौरान वर- वधु भगवान बदरीनाथ की मूर्ति के फेरे लेते हैं।

रुद्रप्रयाग जनपद के अगस्त्यमुनि विकासखंड की ग्रामसभा धारकोट के निरवाली गांव में शादी की परंपरा अनोखी है। यहां पर सती ब्राह्मण निवास करते हैं। जहां देशभर में बिना वेदी के विवाह संपन्न होने की कल्पना तक नहीं की जा सकती, वहीं इस गांव में वेदी के स्थान पर भगवान बदरीनाथ की मूर्ति रखी जाती है, जिसे साक्षी मानकर वर- वधु फेरे लेते हैं। सदियों पुरानी यह परंपरा कब शुरू हुई इसका स्पष्ट पता तो नहीं चलता, लेकिन मान्यता है कि बदरीनाथ की ओर जाते हुए आद्यगुरु शंकराचार्य इस गांव में रुके थे। उन्हीं के निर्देशों के मुताबिक यह गांव भगवान बदरीनाथ की परंपराओं से जुड़ा हुआ है।

गांव में आज भी भगवान बदरीनाथ का पौराणिक निशान मौजूद है। ग्रामीण टीकाप्रसाद सती बताते हैं कि विवाह समेत अन्य सभी समारोहों में इस निशान को भगवान बदरीनाथ के प्रतीक रूप में शामिल किया जाता है। उन्होंने बताया कि निशान की यात्रा भी आयोजित की जाती है, लेकिन इसे ले जाने वाले व्यक्ति को निशान के साथ रहने के दौरान ब्रह्मचर्य का पालन करना पड़ता है। इतना ही नहीं, पूजा संपन्न होने तक वह अन्न ग्रहण भी नहीं कर सकता। श्री सती ने बताया कि गांव में स्थित भगवान बदरीनाथ की मूर्ति को कोई नहीं छू सकता। मूर्ति ले जाने वाले व्यक्ति को भी नहीं छुआ जाता। गांव के निवासी विजय प्रसाद सती, बलीराम सती, पारेश्वर दत्त सती बताते हैं कि ऋषिकेश से बदरीनाथ की ओर चले आद्यगुरु शंकराचार्य ने एक ही स्थान पर विश्राम किया था, वह है निरवाली गांव। यही वजह है कि इस गांव के लोग भगवान बदरीनाथ को अपना आदिदेव मानते हैं। वे बताते हैं कि आज भी गांव में शंकराचार्य के आगमन के निशान मौजूद हैं। उनके द्वारा स्थापित किया गया सूरजकुंड मंदिर भी गांव में है।

Source : http://in.jagran.yahoo.com/news/local/uttranchal/4_5_6194349.html

एम.एस. मेहता /M S Mehta 9910532720

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नागों की भूमि यानी नागणी


चम्बा (टिहरी गढ़वाल)। देवभूमि उत्तराखंड में पर्वतों से लेकर घाटियों तक हर जगह की अपनी अलग-अलग विशेषता व ऐतिहासिक महत्व है। अधिकांश जगहों के नाम वहां की परंपराओं, मान्यताओं, कार्यो के कारण पड़े हैं। नागणी भी ऐसी जगह है, जिसे नागों की भूमि कहा जाता है। यहां कृषि कार्य तभी निर्विघ्न संपन्न होते हैं, जब नागदेवता का स्मरण कर रोट भेंट किया जाता है।

जनपद के चम्बा प्रखंड के अंतर्गत नागणी क्षेत्र की एक विशेष पहचान है। इसे वर्तमान में भले ही जनांदोलनों की कर्मभूमि के रूप में जाना जाता हो, लेकिन पौराणिक मान्यताओं व बुजुर्गो के अनुसार नागणी को नागों की भूमि भी कहा जाता है। कहा जाता है कि एक समय था जब इस क्षेत्र में भारी संख्या में नागों का वास था, तभी यहां का नाम नागणी पड़ा। नागणी बड़े भू-भाग में फली समतल जगह है। यहां सिंचित खेती की जाती है। मध्य में हेंवल नदी बहती है। माना जाता है कि कई दशक पूर्व तक यहां भारी संख्या में नाग रहते थे, जिस कारण लोगों को यहां कृषि कार्य करने में दिक्कतें आती थी। हालांकि नागों ने कभी किसी को काटा नहीं, लेकिन लोग डर के मारे अकेले खेतों में नहीं जाते थे। अंत में किसानों ने यहां नाग देवता और भूम्याल देवता की पूजा शुरू की। उसके बाद धान गेंहू, की बुवाई या रोपाई जैसे कृषि कार्य शुरू करने से पूर्व उनका स्मरण कर रोट भेंट चढ़ाना शुरू किया। तब से नाग सिर्फ कभी-कभी दिखाई देते हैं। भूलवश किसी किसान ने स्मरण कर रोट भेंट नहीं चढ़ाया, तो उन्हें खेतों में छोटे-छोटे नाग ही दिखाई देंगे। हालांकि यह किसी को काटते नहीं है फिर भी यह अपशगुन माना जाता है। यदि किसी ने उन्हें मारने का प्रयास किया, तो वे बड़ी संख्या में यह प्रकट हो जाते हैं। नागणी के पास पहाड़ी पर एक गुफा है। कहा जाता है कि काफी पहले नागराजा अर्थात् नागों के राजा इसी गुफा में रहते थे और नीचे स्थित खेतों की निगरानी करते थे। सिंचाई के समय वे खेतों में निगरानी के लिए आते थे। नागणी के शूरवीर सिंह, कुंदन सिंहलाल, बलवंत सिंह आदि का कहना है कि नई पीढ़ी के लाग इसे न माने लेकिन यही हकीकत है।

नागणी में भंडारगांव, नारंगी, बसाल, स्यूंटा, छोटा स्यूटा आदि गांव के लोगें के सिंचित खेत है। बात सिर्फ कृषि कार्य की नहीं है नागणी में खेती के अलावा नहर, मकान आदि भी बनाना होता है, तो नाग देवता का स्मरण जरूरी है तभी वह कार्य निर्विघ्न संपन्न हो सकता है।



http://in.jagran.yahoo.com/news/local/uttranchal/4_5_6222423.html

Devbhoomi,Uttarakhand

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                     पीपल ने सेहरा, तुलसी ने ओढ़ी चुनरी
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दो वृक्षों का विवाह शान-ओ-शौकत और धूमधाम से कराया जाए तो इस बात का चर्चाओं में शुमार होना लाजिमी है। जी हां! उत्तराखंड के चमोली जिले के मठ नामक गांव में वृक्षों के विवाह का अनूठा रिवाज है। यहां एक ऐसा परिवार है, जो पीढ़ी दर पीढ़ी इस परम्परा का निर्वाह करता चला आ रहा है। इस अनोखे विवाह में 'पीपल' को दूल्हा तो 'तुलसी' अथवा 'बड़' के वृक्ष को दुल्हन माना जाता है।

 शादी के दिन पीपल के वृक्ष को सेहरा और शेरवानी पहनाई जाती है तो दुल्हन बने पेड़ का भी सोने-चांदी के जेवरातों से ऋंगार किया जाता है। और तो और, समारोह में सैकड़ों लोग शिरकत करते हैं, जिन्हें बाकायदा शादी का कार्ड देकर आमंत्रित किया जाता है।

अजब है पर सच है। मठ गांव निवासी पीताम्बर दत्त तिवारी का परिवार पिछली कई पीढि़यों से वृक्षों के विवाह की परम्परा का निर्वहन करता चला हा रहा है। इस परिवार का मानना है कि वृक्षों के विवाह का सकारात्मक प्रभाव न सिर्फ बुरे ग्रह-नक्षत्रों पर पड़ता है, बल्कि ऐसा करने से पर्यावरण संरक्षण में सहयोगी बना जा सकता है।

 वृक्षों के विवाह का बाकायदा मुहूर्त निकाला जाता है। उसके बाद तिवारी परिवार अपने नाते-रिश्तेदारों को प्रिंटेड कार्ड भेजकर शादी समारोह के लिए आमंत्रित करता है। फिर, अपने बेटे अथवा बेटी की शादी की तर्ज पर पूरा परिवार इस विवाह की तैयारियों में जुट जाता है। वर और दुल्हन के लिए शादी के कपड़े व जेवरात की खरीद की जाती है।

 दरअसल, तिवारी परिवार की हर पीढ़ी गांव में ही 'पीपल' के वृक्ष का रोपण करती है। करीब पांच-छह वर्ष बाद जब यह व़ृक्ष बड़ा हो जाता है तो उसका विवाह 'तुलसी' अथवा 'बड़' के वृक्ष के साथ किया जाना अनिवार्य माना जाता है। ऐसी परंपरा एक पीढ़ी एक बार निभाती है। विवाह के दिन एक ओर पीपल के पेड़ को सेहरा और शेरवानी पहनाकर दुल्हे तो दूसरी ओर तुलसी अथवा बड़ के वृक्ष को जेवरात व चुनरी से घर में दुल्हन की तरह सजाया जाता है।

 उसके बाद बारातियों के साथ दुल्हन वृक्ष की डोली पीपल के पेड़ के पास लाई जाती है और फिर विवाह संस्कार शुरू हो जाते हैं। प्रतीकस्वरूप न सिर्फ सात फेरे होते हैं, बल्कि उसके बाद दुल्हन पौध को पीपल के वृक्ष के समीप रोपित कर दिया जाता है। इस तरह मंत्रोच्चारण के साथ विवाह संस्कार पूर्ण हो जाता है और फिर आमंत्रित लोगों को सामूहिक भोज करवाया जाता है।

Devbhoomi,Uttarakhand

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                     उत्तराखंड की गुफाएं संजोए हैं आदिम इतिहास
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उत्तराखंड के बारे में आम धारणा है कि यहां लोग दूसरे प्रदेशों से आकर बसे हैं। बहुत से उत्तराखंडी लोग भी यही मानते हैं कि उनके पूर्वज कहीं और से आकर उत्तराखंड में बस गए, लेकिन पुरातात्विक साक्ष्य इस बात को झुठलाते ही नहींबल्कि सिद्ध करते हैं कि उत्तराखंड में प्रागैतिहासिक मानव का अस्तित्व था। वह यहां बसता ही नहींथा बल्कि उसने यहां की कंदराओं में अपनी गुहाचित्र कला के नमूने भी रख छोड़े हैं।

पुरातत्व विभाग के अभिलेखों के मुताबिक सन 1968 में अल्मोड़ा जिले में सुयाल नदी के दाएं तट पर लखु उड्यार में गुहा चित्रों की खोज मध्य हिमालय में गुहावासी आदि मानव की गतिविधियों की पहली पुख्ता खोज थी। कुमाऊं विवि के प्रोफेसर डॉ. महेश्वर प्रसाद जोशी को यहां काले, कत्थई लाल और सफेद रंगों से बने सामूहिक नृत्यों के चित्रों के साथ ज्यामितीय आकृतियों के चित्र मिले थे।

 इस खोज को प्रकाश में लाने में डॉ. धर्मपाल अग्रवाल और डॉ. यशोधर मठपाल ने भी मदद की थी। डॉ. जोशी की इस महत्वपूर्ण खोज के बाद अल्मोड़ा जिले में ही फड़कानौली, फलसीमा, ल्वेथाप, पेटशाल और कसारदेवी में भी गुहाचित्र मिले हैं। बाद में गढ़वाल मंडल में भी गुहावासी मानवों के दो शैलाश्रयों को खोज हुई।

 अलकनंदा घाटी में स्थित पहले शैलाश्रय को स्थानीय लोग ग्वरख्या उड्यार के नाम से जानते हैं, तो पिंडरघाटी के किमनी गांव के पास भी एक अन्य शैलाश्रय मिला है। इतना ही नहीं1877 में रिवेट कार्नक ने अल्मोड़ा के द्वाराहाट में शैल चित्रांकन का वर्णन किया है। देहरादून के कालसी के पास भी प्राचीन पत्थर के उपकरण मिले हैं जिन्हें आरंभिक पाषाण युग के उपकरण माना जाता है।

कुमाऊं मंडल में अल्मोड़ा जिले की पश्चिमी राम गंगा घाटी और नैनीताल जिले के खुटानी नाले में भी पूर्व पुरापाषाण कालीन पत्थर के औजार मिले हैं। भारतीय पुरातात्विक सर्वेक्षण के देहरादून सर्किल के अधीक्षण पुरातत्वविद डॉ. देवकी नंदन डिमरी का कहना है कि ये पुरातात्विक साक्ष्य उत्तराखंड के प्राचीन ही नहीं प्रागैतिहासिक इतिहास की ओर संकेत करते हैं।

 यह सिद्ध करते हैं कि हिमालय प्रागैतिहासिक मानव का वासस्थल भी रहा है। उनका कहना है कि इन पुख्ता पुरातात्विक साक्ष्यों के जरिए उत्तराखंड का प्रागैतिहासिक काल से अब तक का क्रमिक इतिहास गढ़ा जाना चाहिए।

 

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