Author Topic: It Happens Only In Uttarakhand - यह केवल उत्तराखंड में होता है ?  (Read 43330 times)

Devbhoomi,Uttarakhand

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कई क्षेत्रों में एक माह बाद मनती है दीपावली
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जहां शुक्रवार को पूरे देश में दीपावली की जगमगाहट होगी। वहीं टिहरी जिले के कई इलाकों में इस मौके पर खास उत्साह नहीं होगा। इसका कारण जिले के कुछ क्षेत्रों में दीपावली का त्योहर ग्यारह दिन बाद और कुछ इलाकों में एक माह बाद मनाने की परंपरा है। किवदंती के अनुसार पंवार वंशीय राजाओं के लिए शासनकाल के समय गोरखों ने गढ़वाल पर आक्रमण किया। तिब्बत से भी इस बीच आक्रमण होते रहे।

 किंवदंती है कि महाराजा के सेनापति माधो सिंह भंडारी एक बार तिब्बत के युद्ध में तिब्वतियों को खदेड़ते हुए दूर निकल गए। वह दीपावली के समय अपने घर नहीं लौट पाए थे। तब अनहोनी की आशंका में पूरी रियासत में दीपावली नहीं मनाई गई थी। बाद में रियासत का यह सेनापति युद्ध में विजेता बनकर लौटा। यह खबर रियासत में दीवाली के ग्यारह दिन बाद पहुंची। जिसके बाद टिहरी के समीपवर्ती इलाकों में इगास का त्योहार मनाया गया।
 जबकि दूरस्थ इलाकों में सेनापति के विजयी होकर लौटने की खबर करीब एक माह बाद पहुंची, जिसके कारण वहां दीवाली एक महीने बाद मनाते हैं। समाजसेवी महीपाल नेगी बताते हैं महज दो सौ सालों से ऐसा हो रहा है। कई इलाकों में उसी परंपरा का निर्वहन करते हुए लोग एक माह बाद दिवाली मनाते हैं।

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                देवता को लगाया  हलुवे का भोग   
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 उत्तरकाशी, : सौड़ गांव में पारंपरिक एवं लोक संस्कृति का प्रतीक पांच  दिवसीय चौरंगी एवं हलुवा देवता का मेला बड़ी धूमधाम से मनाया गया। तीसरे  दिन जिलाधिकारी डॉ.हेमलता ढौंडियाल ने बतौर मुख्य अतिथि मेले में शिरकत कर  स्थानीय परंपराओं की सराहना की।

प्रखंड डुण्डा के पट्टी गाजणा क्षेत्र में आयोजित चौरंगी व हलवा देवता  के मेले में क्षेत्र के ग्रामीणों बढ़चढ़ कर भाग लिया। मेले में  परंपरानुसार देवी देवताओं की पूजा अर्चना के बाद हलुवा देवता को हलुवे का  भोग लगाया गया। स्थानीय व्यक्ति पर ही अवतरित होने वाले हलुवा देवता ने इस  भोग को ग्रहण किया।

यह इस मेले का प्रमुख आकर्षण भी है। इससे पूर्व मेले  में मुख्य अतिथि जिलाधिकारी डॉ.हेमलता ढौंडियाल ने कहा कि धार्मिक मेले  हमारे देवी-देवताओं के प्रति श्रद्धा एवं विश्वास का प्रतीक हैं। उन्होंने  मेले में क्षेत्र की समस्याओं से मुखातिब होते हुये कहा कि एक जगह चौक  चौपालों पर बैठ कुछ न कुछ समस्या का समाधान निकलता है।

 ग्रामीणों ने जो  प्रस्ताव जिला प्रशासन के समक्ष रखे हैं, उनका निस्तारण शीघ्र किया  जायेगा। इस अवसर पर सीडीओ एमएस कुटियाल, सौड़ के प्रधान चंदन सिंह, लीला  सिंह, राजूदास, सबल सिंह, जिला पंचायत सदस्य दिनेश नौटियाल, सुमनी राणा,  बचन सिंह, नैन सिंह, तहसीलदार ब्रजेश तिवारी, बीडीओ मान सिंह राणा,  प्रशासनिक अधिकारी एमपी नौटियाल, सुरेंद्र प्रसाद व्यास सहित अनेक लोग  मौजूद

http://in.jagran.yahoo.com/news/local/uttranchal/4_5_6903144.html
       

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रांसी गांव में बग्डवाल नृत्य देखने उमड़ी भीड़
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गुप्तकाशी (रुद्रप्रयाग), निज प्रतिनिधि : मदद्महेश्वर घाटी के सुदूरवर्ती गांव रांसी में विगत सात नंवबर से बग्ड़वाल नृत्य का आयोजन किया जा रहा है, जिसे देखने के लिए भारी संख्या में क्षेत्रीय लोगों की भीड़ उमड़ रही है।

पौराणिक रीति-रिवाजों को सहेजे हुए रांसी गांव वर्षो से समय-समय पर धार्मिक, सांस्कृतिक एवं पौराणिक कार्यक्रमों का आयोजन करता आ रहा है। क्षेत्र के सभी पंच एवं क्षेत्रीय जनता सुख, समृद्धि, शांति एवं विश्व कल्याण के लिए पौराणिक संस्कृति से जुड़े बग्डवाल नृत्य का आयोजन करते हैं। बग्डवाल के पश्वा गबर सिंह खोयाल, सोबनू के पश्वा मंगल सिंह व नन्हा बग्डवाल के पश्वा गुलाब सिंह खोयाल सहित 21 लोग मुख्य रूप से नृत्य में भाग ले रहे हैं। पारंपरिक वाद्य यंत्रों की थाप पर बग्डवाल नृत्य होता है, जिसमें बग्डवाल के पश्वा के शरीर में देवता अवतरित होते हैं और नृत्य करते हैं। इसे देखने के लिए रोजना सैकड़ों की संख्या में क्षेत्रीय लोगों का तांता लग रहा है। रांसी की प्रधान संग्रामी देवी ने बताया कि बग्डवाल नृत्य का आयोजन 23 नवंबर तक किया जाएगा। आयोजन में भादू लाल, विजय सिंह रावत, देवेन्द्र पंवार, जानकी प्रसाद, इश्वरी प्रसाद, मानेंद्र भट्ट, राजेन्द्र भट्ट, महिला मंगल अध्यक्ष कुंती देवी, अशोक भट्ट, धीरु भट्ट, वीरेन्द्र व उम्मेद सिंह आदि सहयोग कर रहे हैं।

 source dainikjagran news

एम.एस. मेहता /M S Mehta 9910532720

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निशानों के स्नान से पांडव नृत्य शुरू   
              रुद्रप्रयाग, जागरण कार्यालय : एक ओर जहां पूरी केदारघाटी पांडव नृत्यों के आयोजन में डूबी रहती है, वहीं जिला मुख्यालय से सटी ग्राम पंचायत दरमोला में प्रतिवर्ष देवोत्थान एकादशी को देव निशनों के गंगा स्नान का दिन निश्चित है। बुधवार को संगम स्थल पर पांडवों के अस्त्र-शस्त्र व देव निशानों की पूजा-अर्चना की गई। इस अवसर पर देवताओं से आशीर्वाद लेने के लिए भारी संख्या में श्रद्धालु उपस्थित थे।
इस वर्ष भी ग्राम पंचायत दरमोला के ग्रामीणों ने एकादशी की पूर्व संध्या पर ढोल-दमाऊ के साथ देवताओं के निशान व पांडवों के अस्त्र-शस्त्रों को रात्रि विश्राम के लिए अलकनंदा-मंदाकिनी के तट पर ले गए। सुबह पांच बजे देव निशानों के साथ आए ग्रामीणों ने गंगा स्नान किया। इसके बाद देव निशानों को सजाकर उनकी पूजा-अर्चना व हवन किया गया। इसी दौरान शंकरनाथ, हीत, बद्रीनाथ, देवी, नागराजा के पश्व ढोल-दमाऊ की थाप पर अवतरित भी हुए। फिर देव-निशान अपने गंतव्य की ओर प्रस्थान कर गए। इसके साथ ही बुधवार से ही पांडव नृत्य का आयोजन शुरू हो गया है। यहां बदरीनाथ की पूजा नरसिंह अवतार के रूप में की जाती है।
सदियों से चली आ रही परम्परा के अनुसार छह गांवों स्वीली, सेम, डुंग्री, दरमोला, तरवाड़ी व कोटली में पांडव नृत्य का आयोजन किया जाता है। मुख्य रूप से प्रतिवर्ष दरमोला व तरवाड़ी गांव में ही इस नृत्य का आगाज होता है, क्योंकि इन दो गांवों को देव निशानों का मायका माना जाता है। इस बार तरवाड़ी गांव में इसका आयोजन किया जा रहा है।
मान्यता है कि यदि ग्रामीण देव निशानों को एकादशी के दिन गंगा स्नान के लिए नहीं लाते है, तो गांव में कुछ भी अनहोनी घटित हो सकती है। इसलिए प्रतिवर्ष देवताओं को गंगा स्नान के लिए लाया जाता है।
 
http://in.jagran.yahoo.com/news/local/uttranchal/4_5_6913828.html

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कर्णप्रयाग के आईटीआई वार्ड व बहुगुणा नगर में रह रहे लोग भगवान का नाम लेकर सोते हैं और सुबह जागने के बाद फिर ईश्वर का धन्यवाद करना नहीं भूलते हैं। ऐसा इस लिए नहीं कि वह भक्ति में लीन होने लगे हैं ऐसा इसलिए कि ऊपर से दरकते पहाड़ के नीचे अपने घरों में उन्होंने एक और रात सकुशल बिता ली।

जी हां यह सुनकर कुछ अजीब जरूर लग रहा होगा, लेकिन यह सच है। बरसात के दौरान हुई भारी बारिश व अतिवृष्टि से कर्णप्रयाग के आईटीआई वार्ड व बहुगुणा नगर के ऊपर से द्योड़ी डांडा में भूस्खलन होने लगा।

 पहाड़ी से गिरते एक के बाद एक पत्थर को देख स्थानीय प्रशासन ने तत्काल यहां रह रहे लगभग 285 परिवारों में से कुछ परिवारों को घर छोड़ने की चेतावनी दे दी। कुछ दिन बाद जब बारिश थमी तो तत्कालीन एसडीएम आशीष भटगांई ने भूगर्भ विशेषज्ञों की टीम बुलाकर द्योड़ी डांडा का सर्वेक्षण कराया। जिला टास्कफोर्स के भूगर्भ विशेषज्ञों ने सर्वेक्षण कर भूस्खलित क्षेत्र की गहन जांच शुरु कर दी। समय बीतता गया प्रशासन के साथ ही यहां रह रहे परिवार भी इसे घटना मानते हुए भूलने लगे थे कि छह नवंबर को फिर डांडा से पत्थरों की बरसात शुरू हो गई।

 प्रभावित परिवारों ने पहले भी पहाड़ी व वहा चीड़ के पेड़ों पर रुके पत्थरों का हटानें की मांग की थी लेकिन यह नहीं हो पाया। वार्ड सभासद हरेन्द्र बिष्ट का कहना है कि सर्वे कराने के बाद प्रशासन ने कोई ठोस कार्रवाई नहीं की। सोहन नौटियाल का कहना है कि यदि समय पर इसका उपचार नहीं किया गया तो उत्तरकाशी की तरह द्योड़ी डांडा भी भविष्य में नासूर बन सकता है।

'पहाड़ी पर अटके पत्थरों को हटाने के लिए वन विभाग व ग्रिफ को प्रस्ताव भेजकर उनसे शीघ्र पत्थरों को हटाने का आग्रह किया गया है। '

Devbhoomi,Uttarakhand

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देवों को खुश करती है देवलांग
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बनाल पट्टी के गैर गांव में मुख्यरूप से मनाया जाना वाला देवलांग पर्व इस बार पांच दिसंबर को आ रहा है। स्थानीय लोगों इस पर्व की तैयारियों में जुट गए हैं। वैसे तो देवभूमि सहित पूरे भारत में विविधता और लोक संस्कृति की कई मिसालें हैं लेकिन बनाल पट्टी की देवलांग अपने अपने आप में एक अनोखी दीवाली है।

रवांई-जौनपुर क्षेत्र के लोग त्योहारों को अपने अलग अंदाज में मनाते हैं। ऐसा ही है रवांई क्षेत्र 'देवलांग' पर्व। मंगसीर की दीवाली को यहां के ग्रामीण देवलांग के रूप में मनाते हैं। स्थानीय लोगों का मानना है कि यह पर्व देवताओं को खुश करने के लिए मनाया जाता है।

विकासखंड नौगांव के गैर गांव की देवलांग की अपनी अलग ही विशिष्ठता है। गैर गांव के अलावा देवलांग का त्योहार गंगटाड़ी व कुथनौर गांव में भी मनाया जाता है। देवलांग में बनाल पट्टी के साठी और पान्साई थोक इस उत्सव को बड़े उत्साह के साथ मनाने हैं। मंगसीर की अमावस की रात लोग तांदी गीतों पर खूब झूमकर सुबह के चौथे पहर का इंतजार करते हैं। इस बार यह त्योहार पांच दिसंबर को आ रहा है।

चोटीयुक्त पेड़ पर ही बांधते हैं छिलके

बड़कोट: पौराणिक परंपरा के अनुसार देवलांग का आयोजन करने वाले लोग व्रत रखकर ढ़ोल नगाड़ों व पूजा अर्चना के साथ जंगल से देवदार का चोटीयुक्त पेड़ लाकर इस पेड़ पर छिल्के बांधते हैं। पेड़ की पूजा अर्चना के साथ ही सुबह होने से पूर्व मंदिर प्रांगण में बनाल पट्टी के साठी और पान्साई थोक देवलांग को खड़ा किया जाता है। इसके बाद इस पर लगे छिलकों पर आग लगाई जाती है। यह नजारा देखते ही बनता है। पेड़ के चारों तरफ मंदिर प्रांगण में भारी संख्या में लोग हाथ में जलते ओल्ला (छिलके की मशालें) लेकर पारंपरिक नृत्य करते हैं।

मान्यता है कि देवलांग से देवताओं को जलते हुए पेड़, दीप और ओल्लाओं से प्रसन्न किया जाता है। वहीं, इस ज्योति को अज्ञान के अंधेरा दूर करने वाले उजाले के रूप में भी देखा जाता है।

महासू देवता ने जलाई थी अखंड ज्योति

बड़कोट: पुजारी चन्द्र मोहन गैरोला ने बताया कि पौराणिक काल में यहां आये महासू देवता ने मड़केश्वर में एक अखंड ज्योति जलाई थी और तब से इस अंखड ज्योति को अज्ञानता के अंधकार को भगाने के उद्देश्य को लेकर शिव ज्योति के रूप में देवलांग मनाई जाती है।

'बारह महिनों का बारह होंद त्योहार हमारा मुलिक'

बड़कोट: रवांई घाटी पौराणिक परंपराओं के साथ ही यहां बारह महीनों में बारह त्योहार भी बड़ी आस्था और भाईचारे से मनाए जाते हैं। आधुनिकता की दौड़ में समय के साथ-साथ रवांई क्षेत्र की कुछ पुरानी परंपरायें भी परिवर्तित हुई हैं, जिसके चलते वृहद रूप से ख्याति प्राप्त कुछ मेले भी लुप्त हुए हैं। प्रो. आर.एस. असवाल का कहना है कि पौराणिक त्योहारों के चलते रवांई क्षेत्र आज भी अपनी अलग पहचान बनाए हुए है।

Jagran news

एम.एस. मेहता /M S Mehta 9910532720

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कर्णप्रयाग: नंदाधाम नौटी स्थित उफराई देवी मंदिर में मौडवी की मनौती उत्सव को लेकर क्षेत्रवासियों में उत्साह hota है।

दंत कथाओं के अनुसार बैनोली गांव की कन्या उफराई के समीप जंगल में घास के लिए गयी थी कि मौडवी नामक स्थान पर वनदेवियों ने उसे हर लिया। तभी से कन्या को देवी के रूप में पूजा जाने लगा। नौटी व समीपवर्ती गांवों के ग्रामीण देवी के भूमियाल के रूप में पूजते हैं और उफराई देवी को हर वर्ष नये अनाज का भोग लगाया जाता है। सदियों से चली आ रही परंपरा का निर्वहन करते हुए मंदिर के मैठाणी समुदाय के पुजारियों द्वारा पूजा-अर्चना के बाद प्रसाद को पत्थरों में खाने की परंपरा को निभाया जाता है।

मौडवी के दौरान हजारों श्रद्धालु बर्तनों के स्थान पर यहां मौजूद पत्थरों पर ही प्रसाद ग्रहण करते हैं।

(dainik jagran source)

Anil Arya / अनिल आर्य

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जौनपुर और जौनसार में पहाड़ी दीपावली शुरू ढोल, दमाऊं की थाप पर रातभर थिरके लोग  मसूरी। जौनपुर में पहाड़ी दीपावली की शुरुआत शनिवार से हो गई है। टिहरी के जौनपुर, दून के जौनसार और उत्तरकाशी के पुरोला में यह दीपावली देशभर में मनाई जाने वाली दीपावली के एक माह बाद धूमधाम से होती है। क्षेत्र में इसे पहाड़ी या पुरानी दीपावली के नाम से जाना जाता है।  जौनपुर, जौनसार और रंवाई क्षेत्र में अब भले ही देशभर में मनाई जाने वाली दीपावली का प्रचलन आ गया हो। लेकिन, यहां सदियों से पुरानी दिपावली को आज भी पुराने अंदाज में मनाने की परंपरा जीवित है। इस जनजाति और पिछड़े क्षेत्र में देश भर में मनने वाली दीपावली के मुकाबले कई गुना अधिक उत्साह के साथ पहाड़ी दीपावली मनाई जाती है। पहाड़ी दीपावली मनाए जाने की यह अनूठी परंपरा पूरे देश में और कहीं नहीं मिलती।  तीन दिन तक चलने वाले इस दीपावली त्योहार के पहले दिन सतवीं होती है, जिसमें पारंपरिक उत्पाद जैसे झंगौरा, चावल, मंडवा आदि से बने उत्पादों के पकवान अस्के आदि हरेक घर में बनवाए जाते हैं।  दूसरे दिन संक्रांत होती है। संक्रांत पहाड़ी दीपावली का मुख्य त्योहार होता है। इस दिन पापड़ी, समाले, विशिष्ट तरह के पकोड़े आदि बनाए जाते हैं। जमकर मेहमान नवाजी होती है। जबकि, मायके वाले लड़कियों को उनके ससुराल में दीपावली का हिस्सा पहुंचाते हैं। तीसरा दिन बराज होता है। इस दिन हरेक घर में हरियाली काटी जाती है, गौ पूजा भी होती है। हरियाली एक दूसरे के घर में प्रसाद स्वरूप भेंट की जाती है। गाय, बैल आदि की पूजा अर्चना के साथ ही उन्हें नहलाया जाता है और घर में बने हरेक पकवान उन्हें खिलाए जाते हैं।  दीपावली के स्वागत में एक पखवाड़े पहले हरेक गांव में सार्वजनिक रूप से अलाव जलाकर हुलियात खेली जाती है। हुलियात देशी दिपावली में खेली जाने वाली फूलझड़ी का रूप होती है। पूरी रात हरेक गांव में पारंपरिक दीपावली गीतों के अलावा ढोल और दमाऊं की थाप पर तांदी, रासो आदि नृत्य पर महिला, पुरुष झूमते हैं।  ड्ड पहाड़ी या पुरानी दिवाली भी कहते हैं ड्ड अलाव जलाकर सार्वजनिक रूप से हुलियात खेलते हैं   Source - epaper.amarujala

विनोद सिंह गढ़िया

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यज्ञ में नौ देवियों का आह्वान करेंगी ध्याणियां
Story Update : Tuesday, December 07, 2010   
 

श्रीनगर। सुमाड़ी गांव में गौरा देवी को प्रसन्न करने के लिए आठ दिसंबर को आयोजित होने वाले यज्ञ की तैयारियां पूरी कर दी गई हैं। देवी के मैती माने जाने वाले सुमाड़ी गांव के काला और क्षेत्र के लोग प्रतिवर्ष गौरा देवी सहित नव दुर्गाओं के आशीर्वाद के लिए यज्ञ की प्रतिक्षा में रहते हैं। यज्ञ में क्षेत्र भर की ध्याणियां अपनी विपत्तियों और कष्टों को दूर करने के लिए देवियों का आह्वान कर सुख-समृद्धि की कामना करते हैं।
बछणस्यू, कटलस्यूं और चरणस्यू पट्टियों के हजारों लोगों की श्रद्धा के केंद्र सुमाड़ी गौरा देवी मंदिर में होने वाले यज्ञ में क्षेत्र की ध्याणियों (विवाहित कन्याओं) की अपार श्रद्धा है। गौरा देवी के पश्वा देवी प्रसाद काला बताते हैं कि प्राचीन समय में नर बलि दी जाने की प्रथा थी। इस प्रथा को सुमाड़ी के पंथ्या दादा ने अपने अथक प्रयासों से समाप्त किया था। उसके बाद देवी की प्रसन्नता के लिए पशु बलि की प्रथा ने जन्म लिया। जिसे अंग्रेजों द्वारा दी गई राय साहब की पदवी से सम्मानित डा. भोलादत्त काला ने समाप्त करवाया। श्रीनगर की काला रोड़ इन्हीं के नाम से जानी जाती है। तब से लेकर आज तक शिरफल, फल और पुष्प से देवी की पूजा की जाती है। सुख-समृद्धि की कामना को लेकर प्रतिवर्ष ध्याणियां यहां आकर यज्ञ में शामिल होती हैं। देवी को प्रसन्न करने के लिए गांव के लोग हर तीसरे वर्ष भागवत का भी आयोजन करवाते हैं। देवी के पश्वा काला ने बताया कि आठ दिसंबर को गौर देवी मंदिर में प्रातः दस बजे से यज्ञ का आयोजन किया जाएगा।
 
http://www.amarujala.com/city/Pauri/Pauri-7712-13.html

एम.एस. मेहता /M S Mehta 9910532720

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कोरुवा: जहां दिन में नचाया जाता है हिरन


जौनसार बावर की संस्कृति सबसे अनूठी है। अधिकांश गांवों में पुरानी दीपावली मनाने की परंपरा है। इस बूढ़ी दीपावली मनाने का कोरुवा गांव का अंदाज बिल्कुल निराला है। पूरे जौनसार में हिरन रात में नचाया जाता है, लेकिन कोरुवा गांव में हिरन दिन में नचाया जाता है। नाचते हिरन का पंचायती आंगन के तीन चक्कर लगाना अनिवार्य होता है। अलग अंदाज के कारण कोरुवा की दीपावली को देखने के लिए दूर-दूर से लोग पहुंचते हैं। कालसी ब्लाक के गांव कोरुवा में महिलाएं, पुरुष व बच्चे सुबह ही पंचायती आंगन पहुंचकर जौनसारी गीतों पर झूमने लगे। तांदी नृत्य, हारुल की धूम के बाद सुबह आठ बजे से हिरन बनाने का काम शुरू हुआ। खत बमटाड़ के स्याणा कोरुवा निवासी बुद्ध सिंह ने बताया कि केवल कोरुवा में ही दिन में हिरन नचाने की परंपरा है, यह प्रथा पुराने समय से बरकरार है। स्याणा बताते हैं कि हिरन और हाथी बनाकर नचाने का महत्व है। इसे देवता का रूप माना जाता है। विशायल खत के उपलगांव, सिलगांव, उत्पाल्टा, समाल्टा, बिरमऊ व खत पशगांव आदि में काठ का हाथी बनाने का रिवाज है। स्याणा बताते हैं कि कोरुवा में हिरन दिन में करीब एक बजे नचाया गया। हिरन को पंचायती आंगन के तीन चक्कर लगाने पड़ते हैं। इस दौरान जंगल का राजा घोपड़ू बना पात्र आंगन में अपना शिकार खेलने आता है। वह लोगों पर राख फेंककर आतंक फैलाता है। जैसे ही हिरन का तीसरा चक्कर पूरा होता है। चौथे चक्कर पर घोपड़ू तीर कमान से निशाना साधकर हिरन को घायल कर देता है। हिरन पर कोरुवा गांव के स्याणा मेघसिंह को बैठाकर नचाया गया। स्याणा पूरे राजशाही वेशभूषा में बाकायदा तलवार लिए थे। हिरन के साथ दो गोपियां भी नाचती हैं।

(Source Dainik Jagran)

 

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