Author Topic: जौनसार बावर उत्तराखंड -JAUNSAR BAWAR UTTARAKHAND  (Read 83345 times)

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जौनसार रंणंना महासू देवता मंदिर


भैंरव का देवरा वाली पहाड़ी पर दक्षिण पूर्व में एक ऊंचे स्थान पर रंणंना नामक स्थान है, यहां आज भी पावन महासू देवता का मंदिर है। कहा जाता है कि यह स्थान एक समय इस पूरे क्षेत्र में आकर्षण का केंद्र था।

 नहान के राजा की कनिष्ठ रानियों में से एक के पुत्र (जिन्हें कौर कहते थे) को यह क्षेत्र मालगुजारी वसूल करने के लिए दिया गया था। इस पूरे इलाके पर नहान के राजा का राज था। उसके कौर पुत्र की रणंना में चौकी थी, जहां फरमान सुनाने व अन्य मसलों पर मीटिंग या पंचायतें आयोजित की जाती थी।




JAUNSAR KA MAHASU DEVTA KA SONG
Mahasu Deva Song

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मयरावना में सूर्य की पहली किरण व मःरु वृक्ष से सुशुभित भैंरव मंदिर

मयरावना में बसने वाले परिवार का नाम -ठेमाण- पड़ा जो मईपूर से आये ब्राहमण टेमा दत्त के नाम पर पड़ा था। इसी दौरान यह परिवार बढ़ने लगा। क्षेत्र में जनसंख्या बढ़ने के साथ, पशुपालन व खेती के कारोबार में बढोतरी होने लगी।

 -भैरव का देवरा- मंदिर चारों ओर चरगाह बढ़ने लगे जबकि लोगों की रिहाइश दूर उनके गांवों में ही रही। कहा जाता है कि भैंरव देवता को यह बात नापसंद लगी। इस पर भैंरव देवता ने स्वप्नों व अन्य माध्यम से यह जाताया कि ब्राहमण परिवार को या तो -भैरव का देवरा- में वास करना होगा या मंदिर को मयरावना ले जाना होगा।

पंडित ब्राहमण ने भैंरव देवता से आज्ञा लेकर शुभ लगन में मंदिर की स्थापना ऐसे उपयुक्त स्थान पर मयरावना गांव में की जहां भूमि समतल थी और सूर्य की पहली किरण मंदिर पर पड़ सके। बाद में मंदिर के एक कोने पर मःरु नाम वृक्ष उग आया जो इस स्थान के नाम को सुशोभित करता है। यह विशालकाय वृक्ष, इस तरह विकसित हुआ, मानो इस पर दैवी कृपा हो। अपनी तरह का एक मात्र व मनोहारी वृक्ष भैंरव देवता का मुकुट व छत्र का कार्य करता है।

 यह वृक्ष मंदिर के ऊपर अपनी शाखाएं आज भी फैलाए हुए है। इसकी सदाबहार हरी पत्तियां सदैव पूरे गांव में मीठी सी मुस्कान बिखेरती है। आज भी यह माना जाता है कि इस पेड़ पर कोई लोहे का हथियार लगाने की अनुमति देवता नहीं देते, जिसने भी ऐसा प्रयास किया, उसका दैवी सांप पीछा करते हैं।

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शंक बोले तो ऐतिहासिक घटनाएं बड़े-बुजुर्गो द्वारा कही गई यादगार घटनाओं को शंक कहते हैं। एक शंक के मुताबिक ऐमू (नील गाय जैसा जानवर) मारने को लेकर मयरावना व शिर्वा गांव मे लोगों में मतभेद हो गया।

 यहां शिकार को पहले घाव लगाने वाले को अधिक मांस व जानवर की खाल देने की प्रथा होती थी। यह मसला, मयरावना के पक्ष में जाता देख, एक व्यक्ति मीटिंग स्थल से नजरे चुरा कर खाल लेकर भागा।

 करीब पचास मीटर पहा़ड़ पर चढ़ने के बाद वह दिखा, तो भण्डू दत्त ने वहीं से लाठी फेंक कर उसके पैरों में मार कर उसे गिरा दिया और वह पकड़ा गया। इसी दूर तक सटीक व कारगर वार से लोगों की आंखे फटी रह गईं। यह घटना ऐतिहासिक याद व मयरावना के गौरव के रूप में दर्ज हो गई।

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परिवारों का विस्तार

हालांकि इन घटनाओं की कोइ तिथि नहीं दी जाती सकती, परंतु यह कहा जाता है कि मंदिर स्थापना के बाद इस ब्राह्मण परिवार का विभाजन हुआ। इस दौरान फेचरू दत्त अन्य लोकों के साथ मुख्य परिवार से अलग हुआ। इस प्रकार मयरावना में एक और परिवार फेचरांण शाखा शुरू हुई, जिसके संस्थापक फेचरू दत्त थे। कुछ समय बीतने के बाद जैसे-जैसे दोनों परिवारों के सदस्यों की संख्या में वृद्धि हुई, उनमें तनाव बढ़ता गया।

 फेचराण परिवार में तनाव कुछ ज्यादा बढ़ा। एक समय ऐसा आया, जब इसके सदस्य आपसी तनाव नहीं झेल पाए और रीठू दत्त नामक व्यक्ति फेचरांण परिवार से अलग हुआ। इस प्रकार इस गांव में ब्राह्मणों के तीन परिवार बने।

तीसरे परिवार का नाम रीठू दत्त के नाम पर रीठाण पड़ा। आज इन परिवारों की संख्या अन्य विभाजनों के कारण और अधिक बढ़ी है। परंतु अन्य परिवारों के नाम पर इन तीन मुख्य शाखाओं के नाम पर ही रखे। इनमें ठेमाण शाखा के पांच परिवार,फेरचरांण शाखा के दो और रीठांण शाखा के चार परिवार हैं।

 इस प्रकार मयरावना गांव के तीन ब्राह्मण परिवार शाखाएं ठेमांण, फेचरांण व रीठांण विकसित हुईं, जिन्हें यहां की बोली में आल कहा जाता है। इनके आस-पास अन्य जातियों के परिवार भी मयरावना गांव में समयानुसार बसते गए और पल्लवित-पुष्पित हुए।

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कुछ प्रसिद्ध रीठांण

इस परिवार में ज्यादातर दो भाइयों की एक पीढ़ी रही है। इससे ज्यादा भाई जब भी पैदा हुए, उनमें आपसी मनमुटाव अधिक रहा। इनमें से कई ऊंची कद-काठी के बहादुर व बलशाली भी थे। इनमें छन्दा व भण्डु दो भाइयों के किस्से आज भी सुने जाते हैं।

उनके सटीक निशानेबाजी पूरे क्षेत्र में प्रसिद्ध थी। उन दिनों खेती के अलावा शिकार (आखेट) खेलना महत्वपूर्ण था। एक बार मुन्धान का पूरा गांव गांव सैंकड़ो जवान तलवार व लाठियों के साथ उन पर हमले के लिए ढोआ लेकर आए। ऐसा इस कारण हुआ कि भण्डू से अनचाहे में अपनी पत्नी, जो मुन्धान गांव की थी, के बांह उखड़ गई थी।

 अपनी धियांठुड़ी (मायके में लड़कियों व औरतों को इसी नाम से पुकारा जाता है) पर अत्याचार इस पूरे क्षेत्र में अपमान माना जाता है। इस कारण मन्धान के लोक भण्डू व छन्दा को सबक सीखाना चाहते थे। परंतु इन दोनों की वीरता व धनुर्धरी प्रवीणता के बारे में जानकर सैकड़ो लोगों की लड़ाकू टोली को समझौता करने को मजबूर होना पड़ा।

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इसी प्रकार रीठांण परिवार में यह शंक दी जाती है कि एक मौके पर क्वाया गांव में उनके मितरगण (यहां साले को मितर कहा जाता है) ने छन्दा को यह कहकर चिढ़ाना शुरू कर दिया कि उसके बाण करीब 200 मीटर तक कभी खाली जाते हैं, कि बात पूरी तरह झूठी है।

 उन्होंने छंदा को चुनौती दी कि वह अपनी निशानेबाजी को साबित करके दिखाए। लोगों की बहुत जिद पर छन्दा अपनी निशानेबाजी के जौहर दिखाने को तैयार हुआ। छन्दा ने यह हिदायत दी कि क्यावा गांव का एक व्यक्ति, जो उसके पास खड़ा रहेगा, को छोड़कर सभी अपने घरों में छिप जाएं और पशुओं को भी मकान के अंदर छिपा लें।

 क्यावा के लोगों ने ऐसा ही किया। दरअसल वे सब छन्दा व भण्डू की वीरता व तीर-धनुष में उसकी दक्षता के बारे में जानते थे। परंतु वे अपनी आंखों से उन्हें परखना चाहते थे। छन्दा ने इस प्रकार से अपना तीर छोड़ा कि लोगों व पशुओं का नुकसान न हो, कोई घर निशाना न बन जाए।

 फिर उसने गांव वालों को अपने घरों से बाहर आने को कहा और बताया कि उसके हाथ में आभास हुआ है कि उसका तीर किसी का लहू सेवन कर रहा है। खोजबीन करने पर क्वाया गांव के लोगों ने पाताय कि छन्दा का तीर गांव से दूर एक चूहे के सिर में घंसा हुआ है।

 क्वाया वालों ने इसे मानने से इंकार किया, तो फिर छंदा ने यह प्रक्रिया कई बार दोहराई। दूसरी बार में एक हिरण का शिकार हुआ। तीसरी बार में एक बाघ मारा गया। इस प्रकार प्रत्येक मौके पर उसके तीरों का शिकार कोई जंगली जानवर हुआ। सैकड़ो वर्ष बीत जाने के बाद आज भी रीठांण परिवार में इन किस्सों का जिक्र बड़े ही गर्व से होता है।

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जौनसार और रवांई क्षेत्र में एक महीने बाद अमावस्या को मनायी जाती है

पूरे देश में रोशनी का त्योहार दीपावली जहां कार्तिक मास की अमावस्या को मनायी जाती है वहीं उत्तराखंड में देहरादून जिले के जौनसार बावर और टिहरी.गढवाल एवं उत्तरकाशी जिले के रवांई क्षेत्र में एक महीने बाद मार्गशीष (अगहन) मास की अमावस्या को मनायी जाती है|

भारतभूमि की उत्तर दिशा में बसा उत्तराखंड अपने प्राकृतिक सौंदर्य के लिये दुनियाभर में विख्यात है यहां स्थित देश के सिरमौर पहाड़ों के राजा हिमालय की बर्फ से ढकी चोटियां, ऊंचे पर्वत शिखर तथा उनके बीच मौजूद गहरी घाटियां, कल-कल बहती नदियां सदैव हर किसी को आकर्षित करती हैं साथ ही यहां के रीति-रिवाज, खान-पान, मेले-त्योहार, रहन-सहन एवं बोली-भाषा हमेशा ही संस्कृति प्रेमियों के लिये शोध का विषय रहे हैं|

देश के लोग जब कार्तिक मास की अमावस्या के दिन दीवाली का जश्न मनाने में मशगूल रहते हैं वहीं टिहरी-गढवाल और उत्तरकाशी के रवांई एवं देहरादून जिले के जौनसार बावर क्षेत्र के लोग सामान्य दिनों की भांति अपने काम-धंधों में लगे रहते हैं उस दिन यहां कुछ भी नहीं होता है|

 इसके ठीक एक महीने बाद मार्गशीष, अगहन, अमावस्या को यहां की दीवाली मनायी जाती है और यह चार-पांच दिनों तक मनायी जाती है| इसे यहां पहाड़ी दीवाली देवलांग के नाम से जाना जाता है|

इन क्षेत्रों में दीवाली का त्योहार एक महीने बाद मनाने का कोई ठीक इतिहास तो नहीं मिलता है लेकिन इसके कुछ क ारण भी लोग बताते हैं| कार्तिक महीने में किसानों की फसल खेतों और आंगन में बिखरी पडी रहती है जिस कारण किसान अपने काम में व्यस्त रहते हैं और एक महीने बाद किसान सब कामों से फुर्सत में होकर घर बैठता है, इसी कारण यहां दीवाली मनायी जाती है|

कुछ लोगों का कहना है कि लंका के राजा रावण पर विजय प्राप्त कर रामचन्द्र जी कार्तिक महीने की अमावस्या को अयोध्या लौटे थे और इस खुशी में वहां दीवाली मनायी गयी थी लेकिन यह समाचार इन दूरस्थ क्षेत्रों में देर से पहुंचा इसलिये अमावस्या को ही केंद्र बिंदु मानकर ठीक एक महीने बाद दीपोत्सव मनाया जाता है|

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एक अन्य प्रचलित कहानी के अनुसार एक समय टिहरी नरेश से किसी आदमी ने वीर माधो सिंह भंडारी की झूठी शिकायत की थी जिस पर भंडारी को तत्काल दरबार में हाजिर होने का आदेश दिया गया उस दिन कार्तिक मास की दीपावली थी|

 रियासत के लोगों ने अपने प्रिय नेता को त्यौहार के अवसर पर राजदरबार में बुलाये जाने के कारण दीपावली नहीं मनायी और इसके एक महीने बाद भंडारी के वापिस लौटने पर अगहन के महीने में अमावस्या के दिन दीवाली मनायी गयी|

ऐसा भी कहा जाता है किसी समय जौनसार-बावर क्षेत्र में सामूशाह नामक राक्षस का राज था जो बहुत निर्दयी तथा निरंकुश था| उसके अत्याचार से क्षेत्रीय जनता का जीना दूभर हो गया था तब पूरे क्षेत्र की जनता ने अपने ईष्ट महासू देवता से उसके आतंक से मुक्ति दिलाने की प्रार्थना की | महासू देवता ने लोगों की करूण‍-पुकार सुनकर सामूशाह का अन्त किया उसी खुशी में यह त्योहार मनाया जाता है|

शिवपुराण एवं लिंग पुराण की एक कथानुसार एक समय प्रजापति ब्रह्मा और सृष्टि के पालनहार भगवान् विष्णु में श्रेष्ठता को लेकर आपस में द्वंद होने लगा और वे एक दूसरे के वध के लिये तैयार हो गये इससे सभी देवी-देवता व्याकुल हो उठे और उन्होंने देवाधिदेव शिवजी से प्रार्थना की| शिवजी ने उनकी प्रार्थना सुनकर विवाद स्थल पर ज्योतिर्लिंग (महाग्नि स्तंभ)के रूप में दोनों के बीच खडे हो गये|

उस समय आकाशवाणी हुई की तुम दोनों में से जो इस ज्योर्तिलिंग के आदि और अंत का पता लगा लेगा वहीं श्रेष्ठ होगा| ब्रह्माजी ऊपर को उडे और विष्णुजी नीचे की ओर|

 कई सालों तक वे दोनों खोज करते रहे लेकिन अंत में जहां से खोज में निकले थे वहीं पहुंच गये तब दोनों देवताओं ने माना कि कोई हमसे भी श्रेष्ठ/बडा है| जिस कारण दोनों उस ज्योर्तिमय स्तंभ को श्रेष्ठ मानने लगे|

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यहां महाभारत में वर्णित पांडवों का विशेष प्रभाव है | कुछ लोगों का कहना है कि कार्तिक मास की अमावस्या के समय भीम कहीं युद्ध में बाहर गये थे इस कारण वहां दीवाली नहीं मनायी गयी जब वह युद्ध जीतकर आया तो खुशी में ठीक एक महीने के बाद दीवाली मनायी गयी और यही परंपरा बन गयी |

कारण कुछ भी हो लेकिन यह दीवाली जिसे यहां नयी दीवाली भी कहा जाता है जौनसार-बावर के चार-पांच गांवों में मनायी जाती है वह भी महासू देवता के मूल हनोल व अटाल के आसपास| यहां एक परंपरा और है कि महासू देवता जो हमेशा भ्रमण पर रहते हैं तथा अपने निश्चित ग्रामीण ठिकानों में 10-12 सालों के बाद ही पहुंच पाते हैं, जिस गांव में महासू देवता विश्राम करेंगे वहां उस साल नयी दीवाली मनायी जायेगी, बाकी संपूर्ण क्षेत्र में बूढी दीवाली ही मनायी जायेगी|

वैसे तो एक महीने बाद, मार्गशीष, अमावस्या को मनायी जाने वाली दीवाली उत्तराखंड के कई क्षेत्रों, यहां से लगे टिहरी के जौनपुर ब्लॉक, थौलधार, प्रतापनगर, उत्तरकाशी के रवांई, चमियाला, रूद्रप्रयाग तथा कुमाऊं के कई ईलाकों में मनायी जाती है| अन्य जगहों में दीवाली मनाने के जो भी कारण हों यहां बिल्कुल भिन्न हैं|

यहां की दीवाली में न पटाखों का शोर, न बिजली के बल्बों व लडियों की चकाचौंध, न ही मोमबत्तियों की जगमगाहट बल्कि बिल्कुल सामान्य तरीके से यहां आज भी दीवाली मनायी जाती है|

यह त्यौहार वैसे तो अमावस्या से जुडा है पर इसकी शुरूआत चतुर्दशी की रात से ही हो जाती है| इस रात सारे गांव के लोग एक निश्चित जगह पर इकट्ठे होते हैं वहां पर, ब्याठे भीमल की छाल उतरी डंडिया. जलाकर पारंपरिक गीत गाते हैं जिन्हें 'हुलियत' कहा जाता है| बाजगी, गांव में ढोल बजाने वाला, अपने घर में कई दिन पहले जौ बोकर हरियाली तैयार करता है जिसे स्थानीय लोग " दूब " कहते हैं|

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अमावस्या की रात को जिसे स्थानीय बोली में "औंसा" रात कहा जाता है| इस रात गांव के सभी नर-नारी, बच्चे, बूढ़े "पंचों को आंगन" में इकट्ठा कर अपना पारंपरिक लोक नृत्य करते हैं तथा लोकगीत के माध्यम से अपने ईष्ट महासू देवता की आराधना करते हैं|

चतुर्दशी की भोर से प्रत्येक दिन चार बजे प्रातः जागकर अपने घर से व्याठे जलाकर निश्चित स्थान पर पहुंचते हैं तथा उजाला होने तक नृत्य एवं गीतों का दौर चलता रहता है|

दीवाली के अंतिम दिन हमेशा की भांति सुबह चार बजे सभी एकत्र होते हैं और उजाला होने पर अपने-अपने घरों को जाते हैं|

स्नान आदि से निवृत होकर सभी लोग एक जगह इकट्ठे होकर पूरे गांव में बधाई देने को निकलते हैं| पुरूष, महिला, बालक-बालिका सभी अलग-अलग समूहों में निकलते हैं|

इसी दिन यहां "भिरूडी" भी मनाया जाता है इसमें हर परिवार से 108 दाने अखरोट के मांगे जाते हैं| ये सभी को देने होते हैं|

जिनके घर में उस वर्ष लडके का जन्म हुआ हो वह 200 दाने देगा ऐसा नियम है तथा उसका पालन भी होता है1 यही दिन सर्वाधिक महत्व का होता है| दोपहर तीन बजे से ही लोग पंचो के आंगन में घिरने लगते हैं|

इसमें ब्यवस्थानुसार बच्चे अलग, औरतें अलगबूढी महिलायें अलग तथा मर्द अलग रहते हैं| बूढी महिलाओं को पहले ही उनका हिस्सा दिया जाता है| फिर अखरोटों की बरसात होती है और सभी लूटने के लिये उन पर टूट पड़ते हैं| चारों तरफ उंचे स्थानों से अखरोट फेंके जाते हैं| यह बेहद रोमांचकारी दृश्य होता है|

भिरूडी कार्यक्रम के बाद उसी स्थान पर बाजगी सभी लोगों के सिर में दूब लगाता है| इस क्रिया को हरिपाडी कहा जाता है|

उसके पश्चात् नृत्य किया जाता है| बीच में दो तलवार बाज एक दूसरे पर प्रहार व बचाव करते हैं1 यह इस समाज में युद्धप्रेमी होने की भावना को उजागर करता है| नृत्य में भी संघर्ष और बचाव यह साबित करता है कि यहां के लोग अपनी सुरक्षा के लिये सदैव संवेदनशील रहते हैं|

अंधेरा होने के बाद सभी लोग ढोल के साथ नाचते हुए गांव के भ्रमण पर निकल पडते हैं| गांव के चारों ओर होते हुए फिर उसी जगह पर पहुंचते हैं| इसे यहां 'मौव' कहा जाता है|

 यहां पहुंचते ही सभी परिवारों के बडे भाई एक तरफ और छोटे भाई दूसरी तरफ खडे होते हैं और उनमें रस्साकशी होती है| संघर्षपूर्ण वातावरण रहता है| फिर से नाच और गीतों का दौर चलता है| भोजन आदि के बाद फिर सभी एकत्र होते हैं और अब बारी आती है 20 फीट ऊंचे हाथी के नचाने की|

 

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