समय के साथ जौनसारी संस्कृति में आया बदलाव
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जौनसार -बावर की अनूठी परंपराओं में समय के साथ बदलाव आ रहा है। माघ पर्व पर कुछ ही गांवों में महिलाएं व पुरुष पारंपरिक वेशभूषा में त्योहार के रंग में रंगे नजर आए। नौकरीपेशा व व्यवसायी परिवारों की पैतृक गांवों में आमद कम होने से त्योहार कुछ फीका रहा, वहीं ससुराल गई महिलाओं को बांटा भेजने की परंपरा की भी खानापूर्ति भर की गई। बदलते जमाने के साथ ही जनजातीय क्षेत्र की संस्कृति कुछ लचीली हुई है।
माघ त्योहार पर पूरे माह सामूहिक लोकनृत्य व गीतों की धूम तो रही, लेकिन इस बार कई गांवों में पारंपरिक वेशभूषा का ध्यान कम रखा गया। जनजाति क्षेत्र जौनसार-बावर में प्रत्येक वर्ष की 11 जनवरी से माघ पर्व का शुभारम्भ होता है। पौराणिक परंपरा में हर परिवार में एक बकरा काटने का रिवाज है। पर्व पर हर व्यक्ति को शामिल होना पड़ता है। प्रतिदिन पंचायती आंगन में लोक गीत व नृत्य का भी प्रचलन है, लेकिन इस बार इनकी रश्म अदायगी ही की गई। सामूहिक लोक नृत्य व गीतों में भी लोगों ने कम दिलचस्पी दिखाई। क्षेत्र के बाहर के नौकरीपेशा परिवारों ने अपने पैतृक गांव में आने कम रुचि ली। सगे संबधियों के लिए विशेष भोज की मात्र खानापूर्ति की गई। ससुराल गई महिलाओं को मायके बुलाने के लिए बांटा प्रथा की खानापूर्ति की गई।
कुछ गांवों में ही दिखा उत्साह
माघ में पूरे क्षेत्र में लोक संस्कृति की छटाएं देखने को मिलती हैं। इस बार डिमऊ, अतलेऊ, कोटा व लेल्टा गांव में तो पर्व का उत्साह दिखाई दिया, बाकी गांवों में पर्व की औपचारिकताएं निभाई गई।
घट रहा त्योहार का महत्व
डिमऊ के मान सिंह, हंसराम, अतलेऊ, के मातवर राणा, टीकाराम, कोटा के गुमान सिंह, केदार सिंह कहते हैं कि जौनसार में हर त्योहार का महत्व घटता जा रहा है, जो चिंता का विषय है, माघ पर्व पर भी कई परंपराएं समाप्ति की कगार पर दिखाई दी।
कई गीत भी लुप्त
माघ में सुने जाने वाले परंपरागत गीत ठुंडे, बैणी, सुपनी, छौडे, भारत, जोगूं, बाजू, भाभी व हारुले एक दो स्थान पर ही सुनाई दिए।