Author Topic: जौनसार बावर उत्तराखंड -JAUNSAR BAWAR UTTARAKHAND  (Read 82225 times)

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जौनपुर की संस्कृति पर मंडराने लगा खतरा

    



देवभूमि में जौनपुर, रवांई, जौनसार की लोक संस्कृति व रीति-रिवाज की अपनी अलग पहचान हे, लेकिन बदलते दौर में लोग पाश्चात्य संस्कृति के पीछे भाग रहे हैं, इससे जौनपुर की लोक संस्कृति पर खतरा मंडराने लगा है। 
जौनपुर, जौनसार, रंवाई का यह क्षेत्र अपनी संस्कृति के लिए प्रसिद्ध है। आज भी यहां के बुजुर्ग अपनी पारंपरिक वेशभूषा और लोकगीतों को संजोए हुए हैं। लेकिन क्षेत्र की युवा पीढ़ी पाश्चात्य संस्कृति के पीछे भाग रही है। युवा पीढ़ी ढोल दमाऊ से विमुख होने लगी है और इसकी जगह शादी-ब्याह में डीजे का प्रयोग होने लगा है। इससे क्षेत्र की लोक संस्कृति पर खतरे के बादल मंडराने लगे हैं। स्थानीय बुजुर्ग कुंवर सिंह भंडारी, पारेश्वर प्रसाद पैन्यूली, अतर सिंह हनुमंती, जयवीर पंवार आदि का कहना है कि पौराणिक समय से ही क्षेत्र की लोक संस्कृति की अपनी अलग पहचान रही है। लेकिन आधुनिक संस्कृति की धमक ने गांव की लोक संस्कृति को फीका कर दिया गया है। इससे हम अपनी पहचान खोते जा रहे हैं। अपनी पौराणिक संस्कृति को जीवंत रखने के लिए हमें पहल करनी होगी। युवा पीढ़ी को पाश्चात्य संस्कृति के पीछे भागने से बचाना होगा।



jagaran news

   

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उत्सव में साकार हुआ जौनसारी लोक जीवन
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जौनसार बावर सांस्कृतिक महोत्सव का राजधानी में रंगारंग शुभारंभ हो गया। कलाकारों ने लोकरंग की ऐसी मनमोहक छटा बिखेरी कि पूरा जौनसार ओएनजीसी के अंबेडकर स्टेडियम में साकार हो उठा। उत्सव का ऐसा उल्लास था कि कलाकार और दर्शकों के बीच कोई भेद मालूम नहीं पड़ रहा था।

जौनसार बावर सेवावृत कर्मचारी मंडल की पहल पर आयोजित सांस्कृतिक महोत्सव का श्रीगणेश ईष्टदेव महासू देवता की वंदना 'हाथ जोड़ो देवों त्वै हमेशा ये' से हुआ। इसके बाद जौनसार बावर सांस्कृतिक हारुल मंच, बिरसू मंच समेत दूर-दराज से आए सांस्कृतिक दलों ने मीनार, दीपक, हारुल, तांदी, रंवाई, जौनपुरी आदि पारंपरिक नृत्यों की सतरंगी छटा बिखेरी।

जौनसार के मरोज मेले की प्रस्तुति ने तो दर्शकों को भावविभोर कर दिया। कलाकारों में जगतराम वर्मा, राहुल वर्मा, गंभीर भारती, विरेंद्र बिष्ट, कुसुम नेगी आदि शामिल रहे। इसके अलावा गढ़वाली-कुमाऊंनी लोकनृत्यों ने भी दर्शकों के अंतर्मन को छुआ। संचालन बारु चौहान ने किया। उत्सव का सबसे खूबसूरत पक्ष था, दर्शकों का पारंपरिक वेशभूषा में सज-धजकर उसमें भाग लेना।

समारोह में खटीमा के विधायक गोपाल सिंह राणा, चमन सिंह नेगी, बरफ सिंह, केएस कुंवर, डॉ.मानसिंह राणा, मायाराम जोशी, गोपाल सिंह राणा, रणवीर सिंह तोमर, बीएस चौहान, सुरेंद्र सिंह तोमर आदि ने शिरकत की।

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जौनसार बावर में मरोज पर्व की धूम
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जनजातीय जौनसार-बावर क्षेत्र में मरोज पर्व की धूम है। क्षेत्र के प्रसिद्ध महासू मंदिर हनोल स्थित कयलू देवता के मंदिर से पर्व की शुरुआत होगी। इसके बाद समूचे जनजाति क्षेत्र में मरोज त्योहार को धूमधाम के साथ मनाया जाता है। मरोज त्योहार को मनाने की पंरपरा क्षेत्र में सदियों से चली आ रही है।

जनजाति क्षेत्र जौनसार-बावर में वैसे तो कई तीज-मरोज त्योहार मनाए जाते हैं, लेकिन मरोज की बात ही जुदा है। जौनसार-बावर के अलावा जनपद उत्तरकाशी के रंवाई, जनपद टिहरी के जौनपुर और पड़ोसी राज्य हिमाचल प्रदेश के कुछ इलाकों में भी मरोज को मनाने का रिवाज है। मरोज त्योहार पूरे एक माह तक चलेगा। पंरपरानुसार जनजाति क्षेत्र में घर-घर में बकरे काटने का रिवाज है। इसकी शुरुआत हनोल स्थित महासू मंदिर के पास बने कयलू देवता के मंदिर से सोमवार को होगी। प्रतिवर्ष 10 जनवरी को मरोज त्योहार के पहले दिन कयलू मंदिर में बकरा काटा जाता है। इसके दूसरे दिन से समूचे क्षेत्र में घर-घर में बकरे काटने का सिलसिला तीन दिनों तक चलता है। धार्मिक मान्यता

धार्मिक मान्यतानुसार वर्षो पूर्व जौनसार-बावर क्षेत्र में किरमिर नामक राक्षस का आंतक था। राक्षस को हर दिन नरबलि चाहिए होती थी। कर्मनाशा नदी जिसे अब टौंस नदी कहते हैं में इस राक्षस का वास हुआ करता था। मैंद्रथ निवासी हुणाभाट नामक ब्राह्मण महासू देवता को कठिन तप कर हनोल लाया। इसके बाद महासू देवता के सबसे पराक्रमी वीर कयलू देवता ने राक्षस का वध कर लोगों को इसके आंतक से मुक्ति दिलाई। बताया जाता है कि किरमिर राक्षस के मारे जाने की सूचना पर समूचे क्षेत्र के लोगों ने खुशी में बकरे काटकर जश्न मनाया। तब से आजतक इस त्योहार को मरोज के नाम से मनाने की पंरपरा हैं।

राक्षस को भी जाता

है बकरे का हिस्सा

त्यूणी: मरोज के पहले दिन कयलू मंदिर में बकरे को काटने के बाद उसके कुछ मांस को टौंस नदी में फेंका जाता है। मान्यता है कि बकरे के मांस को किरमिर नामक राक्षस के नाम का हिस्सा समझकर नदी में फेंका जाता है। इसके बाद मंदिर में देवता के बाजगी खुशी से नाच गाना करते हैं।

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हर्षोल्लास से मनाया गया मरोज त्यौहार
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नौगांव: रंवाई, जौनपुर व जौनसार में मरोज का त्यौहार बडे़ हर्षोल्लास के साथ मनाया गया। मोरी व नौगांव ब्लॉक के दर्जनों गांवों में त्यौहार के दौरान हजारों बकरों की बलि दी गई।

हालांकि पिछले वर्षो की तुलना की बकरों की बलि में कमी आई है। पूर्व में हर गांव का हर व्यक्ति इस त्यौहार में बकरा मारा करता था। इस समय 15 हजार रुपए तक के बकरे त्यौहार के लिये खरीदे गये। मोरी प्रखंड के जखोल में रातभर खूब नृत्य इस त्यौहार में किया गया। साथ ही विभिन्न क्षेत्रों में विभिन्न प्रकार के पकवानों बनाये जाते है। इस त्यौहार का मूल स्थान पुरोला से खलाड़ी, नौगाव से गातू, गढ़ तथा जौनसार क्षेत्र से रगेऊॅ, बुरासू तथा छोलटाड़ आदि गांव के रावत लोग थे। बाद में अन्य गांवों ने भी सामाजिक परंपंरा के रूप में इस स्वीकार कर लिया। और यह त्यौहार संपूर्ण यमुनाघाटी रंवाई, जौनपूर, जौनसारी तथा फतेह पर्वत तक फैल गया। राजकीय महाविद्यालय के डॉ.एएस असवाल के मुताबिक इस त्यौहार अतिथियों, विरादरीयों, तथा मायके से आई महिलाओं के सम्मान के लिए मनाया जाता रहा है।


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Temple of Dhuroyodhan Osla jaunsar Uttrakhand.


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समय के साथ जौनसारी संस्कृति में आया बदलाव
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जौनसार -बावर की अनूठी परंपराओं में समय के साथ बदलाव आ रहा है। माघ पर्व पर कुछ ही गांवों में महिलाएं व पुरुष पारंपरिक वेशभूषा में त्योहार के रंग में रंगे नजर आए। नौकरीपेशा व व्यवसायी परिवारों की पैतृक गांवों में आमद कम होने से त्योहार कुछ फीका रहा, वहीं ससुराल गई महिलाओं को बांटा भेजने की परंपरा की भी खानापूर्ति भर की गई। बदलते जमाने के साथ ही जनजातीय क्षेत्र की संस्कृति कुछ लचीली हुई है।

माघ त्योहार पर पूरे माह सामूहिक लोकनृत्य व गीतों की धूम तो रही, लेकिन इस बार कई गांवों में पारंपरिक वेशभूषा का ध्यान कम रखा गया। जनजाति क्षेत्र जौनसार-बावर में प्रत्येक वर्ष की 11 जनवरी से माघ पर्व का शुभारम्भ होता है। पौराणिक परंपरा में हर परिवार में एक बकरा काटने का रिवाज है। पर्व पर हर व्यक्ति को शामिल होना पड़ता है। प्रतिदिन पंचायती आंगन में लोक गीत व नृत्य का भी प्रचलन है, लेकिन इस बार इनकी रश्म अदायगी ही की गई। सामूहिक लोक नृत्य व गीतों में भी लोगों ने कम दिलचस्पी दिखाई। क्षेत्र के बाहर के नौकरीपेशा परिवारों ने अपने पैतृक गांव में आने कम रुचि ली। सगे संबधियों के लिए विशेष भोज की मात्र खानापूर्ति की गई। ससुराल गई महिलाओं को मायके बुलाने के लिए बांटा प्रथा की खानापूर्ति की गई।

कुछ गांवों में ही दिखा उत्साह

माघ में पूरे क्षेत्र में लोक संस्कृति की छटाएं देखने को मिलती हैं। इस बार डिमऊ, अतलेऊ, कोटा व लेल्टा गांव में तो पर्व का उत्साह दिखाई दिया, बाकी गांवों में पर्व की औपचारिकताएं निभाई गई।

घट रहा त्योहार का महत्व

डिमऊ के मान सिंह, हंसराम, अतलेऊ, के मातवर राणा, टीकाराम, कोटा के गुमान सिंह, केदार सिंह कहते हैं कि जौनसार में हर त्योहार का महत्व घटता जा रहा है, जो चिंता का विषय है, माघ पर्व पर भी कई परंपराएं समाप्ति की कगार पर दिखाई दी।

कई गीत भी लुप्त

माघ में सुने जाने वाले परंपरागत गीत ठुंडे, बैणी, सुपनी, छौडे, भारत, जोगूं, बाजू, भाभी व हारुले एक दो स्थान पर ही सुनाई दिए।

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बैसाख व ज्येष्ठ माह में महासू दर्शन से मन्नत पूरी
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प्रसिद्ध महासू मंदिर हनोल के पट वैसे तो बारह मास श्रद्धालुओं के लिए खुले रहते हैं, लेकिन बैसाख व ज्येष्ठ माह में महासू देव के दर्शन से मनोवांछित मन्नत पूरी होती है। 13 अप्रैल से शुरू हो रहे यात्रा सीजन में देशभर के विभिन्न क्षेत्रों से हजारों श्रद्धालु 'महासू मंदिर' के दर्शन को आते हैं।

देवभूमि उत्तराखंड के जनजाति क्षेत्र जौनसार-बावर के 'हनोल महासू मंदिर' की मान्यता देशभर में है। विश्व प्रसिद्ध धाम बद्रीनाथ, केदारनाथ, गंगोत्री व यमुनोत्री में तो श्रद्धालु बर्फ पड़ने पर दर्शन को नहीं पहुंच पाते, लेकिन महासू मंदिर श्रद्धालुओं के लिए बारह मास खुला रहता है। धार्मिक मान्यतानुसार महासू मंदिर में बैसाख व ज्येष्ठ माह की यात्रा का विशेष महत्व है। कहते हैं कि इन दो महीनों में यात्रा करने पर श्रद्धालुओं को मनवांछित फल मिलता है। यही, वजह है कि शेष दस माह की अपेक्षा इन दो महीनों में महासू मंदिर में चढ़ावा भी कहीं गुना अधिक आता है। देश के कोने-कोने से इन दो माह श्रद्धालु व पर्यटक यहां काफी तादाद में पहुंचते हैं। महासू मंदिर के पुरोहित मोहनलाल सेमवाल व राजगुरु गोरखनाथ का कहना है कि बैसाख व ज्येष्ठ माह महासू मंदिर की यात्रा को सबसे पवित्र व फलदाई हैं।

महासू मंदिर जाने का मार्ग

देहरादून जिले के सीमांत गांव हनोल स्थित 'महासू देवता' का प्राचीन मंदिर पहुंचने के लिए देहरादून-चकराता-त्यूणी, मसूरी-पुरोला-हनोल, जगाद्री-पांवटा-रोहडू हाइवे व शिमला-त्यूणी-हनोल पहुंच मार्ग हैं।

मूलभूत सुविधाओं का टोटा

शासन-प्रशासन की अनदेखी के चलते महासू मंदिर हनोल में मूलभूत सुविधाओं का टोटा है। यहां पर श्रद्धालुओं के ठहरने को धर्मशालाएं, सुलभ शौचालय, समुचित पेयजल व्यवस्था व यातायात सुविधा का अभाव है। मंदिर समिति गठन के दस साल बाद भी यहां पर कोई खास बदलाव देखने को नहीं मिला।


Source Dainik jagran

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यहां खेल है धनुष बाण का युद्ध


  

चैत्र मास की समाप्ति व बैसाख के शुभागमन पर क्षेत्र में एक पर्व जैसा माहौल बन जाता है। इस पर्व को यहां बिसू मेले के रूप में मनाया जाता है। मेले का प्रमुख आकर्षण कौरव-पांडवों का धनुष युद्ध रहता है। युद्ध के प्रतीक के रूप में धनुष बाणों से खेले जाने वाले खेल को भी बैसाखी ठोऊड़ा के नाम से मनाया जाता है।
रवांई क्षेत्र में यह पर्व श्रीगुल देवता मन्दिर ढ़काड़ा व महासु मन्दिर मैजणी, भुटाणु, ठडियार सहित सोमेश्वर महादेव मंदिर जखोल, फिताड़ी आदि दर्जनों गांव में संक्रांति पर्व बिस्सू मेले के रूप में बड़े धूमधाम से मनाया जाता है।

 मेले का मुख्य आकर्षण श्रीगुल देवता की चौकी कथ्यान से एक किमी दूर जाखणी में देवदार के  घने जंगल के  बीच हर वर्ष 13 अपै्रल बैशाखी कोबाबर पट्टी क्षेत्र के  दो खत्तों सिलगांव व बाबर के हटाड़, भटाड़, भूनाड़, ऐठाण, दिनाड़, छजाड़, थत्यूड व डागुंठा क्षेत्र के हजारों महिला, पुरूष, बुढे़, जवान अपने पारंपरिक  परिधानों में लक-दक ढोल नगाड़ों के साथ कथियान पहुंचते हैं। क्षेत्र के  सैकड़ों बुजुर्ग महिला, पुरुष धनुष बाण व फरसे लेकर तांदी गीतों, रासों की कतारों में सबसे आगे दिखाई देते हैं।

 मेले में मुख्य आकर्षण पांडवों व कौरवों के युद्ध के रूप में ठोऊडा खेला जाता है, जिसमें दो खत्तों के लोग धनुष बाणों से एक दूसरे पर वार करते हैं। इसी में हार जीत का फैसला होता है। मेले के सम्बन्ध  में बुजुर्ग महेन्द्र सिंह व नागचन्द बताते हैं कि बैसाख सक्रान्ति के दिन हमारे पूर्वज पांडवों की याद में धनुष बाणों के ठोऊड़ा के खेल को खेलते आये हैं

Source dainik jagran

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रासों, तांदी गीतों पर झूमे रवांई के ग्रामीण
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रवांई घाटी के पुरोला प्रखंड में रामा व कमल सिरांई के 48 गांव में सावन मेले की धूमधाम है तथा गांव-गांव में क्षेत्र के ईष्ट देवताओं ओडारू, जखंड़ी, सिकारनाग, कालियानाग, कपील मुनी महाराज की डोलियों के साथ मेलों का शुभारंभ हुआ।

छाड़ा गांव में आयोजित मेले में आसपास के दर्जनों गांव के सैकड़ों महिला, पुरुष, बच्चे सजधज कर मेले में पंहुचे तथा ईष्ट देवता ओडारू जखंडी की दो डोलियों के साथ परंपरानुसार रासों व तादी गीत गाये गए। वहीं, देवता के झूल रहे पश्वाओं से लोगों ने अपनी परेशानियों व मन्नतों का न्योता भी पूछा। मेले में घर-घर में ग्रामीणों की ओर से स्थानीय पकवान सौलें, पकोडे़ के साथ मेहमानों की खातिरदारी की गई।

 उधर, श्रावण मास में 3 अगस्त से क्षेत्र के 48 गांव में लगने वाले मेलों में 13 अगस्त तक पुजेली कुमोला से ओडारू व जखंडी देवताओं की डोलिया ढोल नगाड़ों के साथ छाड़ा गांव पहुंचती है। वहीं, सिकार नाग पुजेली में कपील मुनी महाराज गुन्दियाट गांव व कालिक नाग सरबडियार के पांच गांव कस्लाओं, पोंटी, किमडार, सर व छानिका गांव में पंहुचते हैं तथा क्षेत्र के गांव-गांव में उक्त देव डोलियों के साथ मेले का शुरू हो जाते हैं।

 डोलियां 12 दिन तक छाडा के बाद पुरोला, पोरा,रामा, कण्डियालगांव, करड़ा, सिंकारू दणमाणा,खलाड़ी,चपटाडी,चन्देली, कुमोला, पुजेली आदि गांव में अलग-अलग दिनों पहुंचती है। 12 अगस्त अन्तिम मेला पुजेली में होता है उसके बाद ओडारू जखडी को पुजेली मन्दिर में स्थापित कर दिया जाता है।

http://in.jagran.yahoo.com/news/local/uttranchal/4_5_8115000.html

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उत्पाल्टा और कुरोली ग्रामीणों के बीच युद्घअपनी अनूठी परंपराओं के लिए विख्यात जौनसार-बावर में पाइंता पर्व पूरे जोश के साथ मनाया गया। यहां कुरोली और उत्पाल्टा के ग्रामीणों के बीच जमकर गागली युद्ध हुआ। इस युद्ध को देखने के लिए दूरदराज से भी लोग जुटे। पूरे देश में दशहरा पर्व धूमधाम से मनाया गया तो जौनसार-बावर में पाइंता पर्व। यहां के दो गांव के लोग एक स्थान पर इकट्ठा होकर गागली युद्ध (अरबी के पत्ते और डंठल से एक दूसरे को मारते हैं) करते है। इस गागली युद्ध में कोई व्यक्ति घायल तो नहीं होता, बल्कि यह लोगों के लिए आकर्षण का केंद्र रहता है।

इसे देखने के लिए क्षेत्रीय लोग ही नहीं, बल्कि दूर-दराज क्षेत्रों के लोग भी एकत्र होते हैं। गुरुवार को उत्पाल्टा व कुरोली के ग्रामीण ढोल नगाड़ों की थाप पर करीब 11 बजे देवधार जंगल में पहुंचे। दोनों गांवों के बीच गागली के डंठलों व पत्तों से जमकर युद्ध हुआ।

एक घंटे चले युद्ध में ग्रामीण पसीने से तर बतर हो गए। गागली युद्ध की समाप्ति के बाद ग्रामीणों ने एक-दूसरे को गले मिलकर पर्व की बधाई दी। लोगों ने देवदर्शन के साथ ही सामूहिक नृत्य भी किया। वहीं, लोगों ने देव दर्शन कर परिवार की खुशहाली की कामना की।


Source dainik jagran

 

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