Author Topic: Uttarakhand Nestled in the lap of the Himalayas-हिमालय की गोद में उत्तराखंड  (Read 20642 times)

Devbhoomi,Uttarakhand

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दोस्तों जैसा की हम सभी जानते हिमालय की वादियों में उत्तराखंड एक सुन्दर राज्य है जिसके लिए उत्तराखंड को देवभूमि के नाम से जाना जाताहै !इस टोपिक के जरिये  हम उत्तराखंड का हिमालय से जुड़े हुए भागों और रहस्यों तथा तथ्यों  की जानकारी देंगे !

 देव भूमि के नाम से जानी जाने वाली उत्तराखंड की भूमि पर किसी समय देवताओ का वास था , जहाँ की वादियों में महात्माओ, साधुओ का वास होता था जिसका जिक्र पुरानो में भी मिलता है| परन्तु वर्त्तमान में यहाँ के जंगलो में रहने वाले वन्य जीवो के शिकार के चलते इनके विलुप्त होने का खतरा मडरा रहा है| उत्तराखंड के जंगलो और माफियो का चोली दामन का साथ रहा है, इसका कारन यहाँ पर पाई जाने वाली दुर्लभ वन सम्पदा रही है जिसको सोने की कोलार की खान कह सकते है|

 यहाँ पर कई दुर्लभ ओसधियो की अधिकता पाई जाती है जिस कारन यहाँ पर तस्करों के बड़े बड़े गिरोह यहाँ पर हमेशा सक्रिय रहते है| वन सम्पदा की इस लूट के खिलाफ यहाँ पर समय समय पर आवाजे उटती रही है लेकिन इसके सकारात्मक परिणाम सामने नही आए है|दुर्लभ वन ओसधियो की तस्करी के बाद अब इन तस्करों के निशाने पर हिमालय के मासूम वन्य जीव लगे हुए है|

माफियाओ के इस गिरोह पर लगाम लगाने में उत्तराखंड की खंडूरी सरकार अभी तक विफल साबित हुई है| कोई कारगर नीति और कानून न हो पाने के कारन उत्तराखंड की वादियों में इन दिनों तस्करों की पौ बारह हो रही है | सरकार इस पूरे वाकये से बेखबर है |

उत्तराखंड का राज्य पक्षी मोनाल तस्करों के निशाने पर है| मोनाल उत्तरखंड का राज्य पक्षी है जो बहुत ही मनभावन है | ५००० मीटर तक की ऊँचाई पर पाया जाने वाला यह पक्षी नीले और भूरे रंग में पाया जाता है जो कीडे और मकोडों , फल फूल को अपना आहार बनाता है | निर्जन वनों में एकान्तप्रिय इस पक्षी की जान के पीछे तस्कर हाथ धोकर पड़े हुए है | इसके पंखो की सुन्दरता भी तस्करों का मन मोह लेती है| राज्य पशु कस्तूरी मृग भी सिकरियो के तांडव से अछुता नही है| अब यह केदारनाथ और फूलो की घाटी तक सीमित रह गया है| इसकी नाभि में पाई जाने वाली कस्तूरी की अंतरास्ट्रीय बाज़ार में बड़ी डिमांड है| इसका बहुत से कार्यो और दवाई बनने में उपयोग होता है| कस्तूरी के साथ हिमालय के अन्य वन्य जीव जैसे बटेर , काकड़, भालू , दाफिया, भी संकटग्रस्त जीवो की सूची में शामिल हो गए है|

 सूत्र बताते है इनपर तस्करों का साया हर समय मडराता रहता है लेकिन शासन और प्रशासन इन सब से बेखबर बना बैठा है | कस्तूरी मृग, मोनाल के अलावा हिम बाघ , जंगली बिल्ली, लाल लोमडी, काकड़, फकता लुप्त होने के कगार पर है| इस पर रोक लगाने के लिए कोई पहल न होने से इन वन्य जीवो के भविष्य पर संकट मडराने लगा है

|इनका शिकार कर तस्कर इनकी खाल को ऊँचे दामो में विश्व बाज़ार में बेचते है जो उनकी कमाई का इक बड़ा जरिया बनती है | चीन और तिब्बत की सीमा नजदीक होने के कारण तस्करों के लिए उत्तराखंड की वाडिया सबसे जयादा मुफीद नज़र आती है |
उत्तरखंड से लगे उत्तर प्रदेश के इलाको से भी बड़े पैमाने पर वन्य जीवो की संख्या दिनों दिन घटती जा रही है|यहाँ पर भी चीतल, घुरड़, जैसे मासूम जीव बेरहमी से मार डाले जाते है|

 यहाँ पर पाए जाने वाले जीव यहाँ के वनों की शोभा बढाते रहे है जिस प्रकार से इनको बेरहमी से मारा जा रहा है और प्रशासन तस्करों के सामने नतमस्तक बना है उसको देखते हुए यह कहा जा सकता है आने वाले समय में अगर यही स्थिति रही तो पारियावरण के लिए यह खतरे की घंटी है|

 अभी भी जरूरत हैं सरकार चेत जाए अन्यथा वह दिन दूर नही जब इनकी दशा भी " गिद्धों" जैसे हो जायेगी| वन्य जीवो के विषय में बात करने पर उत्तराखंड के चीफ फॉरेस्ट ऑफिसर बी एस बरफाल कहते है" सरकार इस विषय पर गंभीरता से विचार कर रही है| वन विभाग के सभी लोगो को इस बाबत निर्देशित किया गया है |

 विभिन्न स्थानों में लगी टीम अपने कामो को बखूबी अंजाम दे रही है"| अब सरकार के आला अधिकारी चाहे जो भी सफाई दे यह हकीकत है कि हिमालय के वन्य जीवो पर तस्करों की "गिद्ध दृष्टी" लगी है जिससे पार पाने में वन विभाग अब तक निकम्मा साबित हुआ है

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अनुपम मनोहारी प्रकृति ,उसी का एक भाग हिमालय गर्वोन्नत शिखरों, श्वेत धवल हिमनदों ,कल-कल बहती धाराओं और प्रकृति की बहुत से उपहारों से समृद्ध । हम भी कुछ दिन पहले इन्ही वादियों में थे। उद्देश्य तो था पर्वत चोटियों पर विजय पाना, जो कि स्वयं पर विजय पाने का ही दूसरा नाम है,परन्तु इसके साथ हमने धार्मिक यात्रा भी की ।

 पर्वतारोहन के अनुभव ,धार्मिक यात्रा , पर्वतीय समाज और बहुत सारीबातें है बटने को ,पर वो सब बातें बाद में, फुर्सत के क्षणों में । आज तो सिर्फ़ कुछ तस्वीरें प्रेषित कर रहा हूँ क्योकि कहते हैं एक तस्वीर हजार शब्दों के बराबर होती हैं। ....अरे ,यह तो बताना भूल ही गया कि कहां की तस्वीरें हैं ?ये उत्तराखंड में गढ़वाल-कुमाऊँ हिमालय क्षेत्र की भारत-चीन सीमा क्षेत्र कीं तस्वीरें हैं .तो देखिये!







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मिलम ग्लेशियर

मिलम कुमाऊं क्षेत्र में 28 किलोमीटर यानी सबसे लंबा ग्लेशियर है। ट्रेकिंग के शौकीनों के लिए मिलम किसी जन्नत से कम नहीं। ग्लेशियर से 13 किलोमीटर पहले मिलम नाम का एक गांव है, जहां ठहरना रोचक अनुभव है। यह बर्फ की सफेद चादर से ढका रहने वाला मुख्य हिमालय श्रृंखला का लगभग सबसे ऊंचा गांव है।

यहां पहुंचने के लिए दिल्ली से कोई सीधी उड़ान न होने की वजह से सड़क मार्ग ही सबसे उपयुक्त होगा। इसके लिए पहले उत्तराखंड के सीमांत जिले पिथौरागढ़ जाना होगा। पिथौरागढ़ पहुंचने के लिए टनकपुर या फिर काठगोदाम तक ट्रेन और उससे आगे बस या टैक्सी से जाया जा सकता है।

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धुंध में लिपटे बादल,  जहां नजर दौडाइए, वहां बर्फ की प्राकृतिक फिसलपट्टी... ये सपनीला संसार है औली में। एक ऎसा चरागाह जहां स्कीइंग
के लिए ना सिर्फ बेहतरीन ढलानें हैं, बल्कि दिलकश नजारे भी हैं जो रूमानी एहसास देते हैं।

उत्तराखंड के चमौली जिले में हिमालय की पहाडियों में बसा है औली। औली से हिमालय की वादियों को निहारना वाकई में एक सुखद अनुभव है। पूर्वी गढवाल में स्थित ये चरागाह करीब 10 हजार फुट की ऊंचाई पर है। यहां से आस-पास की 20 हजार फुट की ऊंचाई वाली पर्वत चोटियों को निहारना बडा खुशनुमा एहसास देता है। कोलाहल और शोरगुल से दूर औली सुकून देगा, तो रोमांचित भी करेगा।

ढलानें लेती हैं इम्तिहान
स्कीइंग के शौकीन और पेशेवर तथा गैर पेशेवर खिलाडियों के लिए तो औली जन्नत जैसा है क्योंकि यहां की घुमावदार नरम बर्फ और चमकीली ढलानें उन्हें जादुई एहसास देती हैं।

इन ढलानों का आकर्षण ऎसा है कि नौसिखिए भी यहां स्कीइंग का मजा लेते हैं। नौसिखियों के लिए औली स्कीइंग क ी पाठशाला की तरह है जहां वे स्कीइंग का सबक भी सीखते हैं तो यहां की ढलानें उनका इम्तिहान भी लेती हैं। औली बहुत बडी जगह नहीं है। स्कीइंग का पूरा क्षेत्र 5-7 किलोमीटर में फैला हुआ है।

पहले यह चरागाह हुआ करता था, जहां जाडों में बर्फ की ढलाने देखकर लोगों ने यहां स्कीइंग शुरू  कर दी और अब तो औली विंटर स्कीइंग रिसोर्ट के रू प में देश-विदेश में मशहूर हो चुका है। यहां हर साल जनवरी में स्कीइंग के कोर्स आयोजित किए जाते हैं।

यहां से सीखे हुए लोग विश्व स्कीइंग प्रतियोगिता के लिए क्वालीफाई करते हैं। गौरतलब है कि औली में स्कीइंग के लिए मुफीद एशिया की सबसे बडी ढलान है।

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हिमालय की ऊंची-ऊंची और लंबी चोटियों से घिरे उत्तराखंड की खूबसूरत वादियों में आज भी पशुओं को चारे के लिए घास काटते समय प्रति वर्ष करीब 200 महिलाएं पहाड़ों से गिरकर अपनी जान गंवा बैठती हैं लेकिन अनेक मामलों में इनकी न तो रिपोर्ट दर्ज होती है और न ही इन्हें कोई मुआवजा दिया जाता है। प्रशासन में ज्यादातर मामलों में ये सामान्य मौत के तौर पर ही दर्ज होती हैं।

राज्य में अधिकांश गांव सुदूर पहाड़ों की चोटियों पर बसे हुए हैं और इन गांवों में रहने वाले लोग काफी संख्या में भेड़ों, बकरियों गायों, बैलों और भैंसों को पालते हैं। पशुओं के चारे के लिए घास काटने का काम पहाड़ी क्षेत्रों में महिलाएं ही करती हैं। उत्तराखंड के कुछ जिलों के गांवों का दौरा करने के बाद यह रोचक तथ्य सामने आया कि अभी भी गांवों में घास काटने का काम या तो लड़कियां करती हैं या घर में ब्याह कर आने वाली बहुएं।

 घर की बुर्जुग महिलाओं द्वारा इन बालिकाओं और युवतियों को घास काटने का काम दिया जाता है। बालिकाओं को जहां यह काम स्कूल से आने के बाद सौंपा जाता है वहीं बहुएं इस काम को सूर्यास्त के पहले ही निपटाना पसंद करती हैं लेकिन अक्सर सूर्य की रोशनी कम होने के चलते और कभी-कभी अति विश्वास के चलते इनके पैर ऊंची चोटियों से लड़खड़ा जाते हैं जिससे ये गिर जाती हैं और इनकी मौत हो जाती है।

पहाड़ों के गांवों में महिलाओं को शाम के समय पीठ पर लाद कर घास को लाते हुए देखा जा सकता है। राज्य में दूध के लिए जहां बकरियों गायों और भैंसों को पाला जाता है वहीं अभी भी पारंपरिक खेती के लिए बैलों की जरुरत होती है क्योंकि खेत सीढ़ीनुमा होने के चलते वहां ट्रैक्टर सफल नहीं हो पाते।

 जाड़ों के मौसम में ऊन की जरूरत के लिए भेड़ों को पाला जाता है। इन सभी पशुओं के चारे के लिए सितम्बर से लेकर फरवरी महीने तक पहाड़ों की ऊंची-ऊंची चट्टानों से सूखी घास काटी जाती है और यही चार महीने उत्तराखंड की ग्रामीण महिलाओं के चट्टान से गिरकर मौत के महीने होते हैं।



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प्रकृति प्रेमियों का स्वर्ग रानीखेत समुद्र तल से 1824 मीटर की ऊंचाई पर स्थित एक छोटा लेकिन बेहद खूबसूरत हिल स्टेशन है। उत्तराखंड की कुमाऊं की पहाड़ियों के आंचल में बसा रानीखेत फिल्म निर्माताओं को भी बहुत पसन्द आता है। राजा हिन्दुस्तानी समेत अनेक फिल्में यहा बनी हैं।

 रानीखेत में प्रकृति की हसीन वादियों में देवदार और पाइन के घने वन और हिमालय की विस्तृत पर्वतमाला देखने दूर-दूर से सैलानियों का आना जाना लगा रहता है।

लोगों का मानना है कि कुमाऊं के राजा सुखरदेव की पत्नी रानी पद्मावति ने जब रानीखेत की सुंदरता देखी तो उन्होंने यहां रहने को निश्चय कर लिया। तब से इस स्थान का रानीखेत अर्थात् रानी का खेत कहा जाता है। रानीखेत और इसके आसपास के क्षेत्रों में कुमाऊंनी शासकों का शासन था।

 बाद में अग्रेजों का इस पर नियंत्रण हो गया। उन्होंने रानीखेत को हिल रिजॉर्ट के रूप में विकसित किया और 1869 ई. में यहां अपनी छावनी स्थापित की। रानीखेत आज की कुमाऊं रजिमेन्ट का मुख्य केन्द्र है।



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गढ़वाल की बर्फ से ढकी पर्वतमाला उत्साह जागृत करने में बामुश्किल ही विफल होती है भले इसे किसी भी प्वाइंट से देखा जाए। एक अंग्रेजी लेखक ने लिखा है, ‘मैंने ऐल्प्स का बर्नीज स्थलमार्गीय नजारा देखा है, माउंट ब्लांक की गुम्बद से लेकर निर्मल जंगफ्रा के चोटियों तक इसी सभी भव्य चोटियों के साथ, और जापान में फ्यूजीमाकोन के नीचे चिंतन किया है, लेकिन गढ़वाल के शाही हिमालय की इन चोटियों की शाश्वत भव्यता की बराबरी करने के लिए इन सभी के लिए एक साथ इकट्ठा होना जरूरी है।”

“बर्फीली वादियों में छह बार भ्रमण करने के बाद, अभी भी मेरा विश्वास है कि गढ़वाल पूरे एशिया में सबसे सुंदर देश है। ना तो काराकोणम की आदिम अनन्तता, एवरेस्ट पर्वत का एकाकी प्रभुत्व, हिंदू कुश की अपेक्षाकृत मृदु काफ रमणीयता और न ही हिमाचल प्रदेश के अन्य अनेक क्षेत्र गढ़वाल के साथ तुलना नहीं कर सकते हैं, पर्वत और वादियां, वन एवं ऐल्प वृक्ष, चिड़ियां एवं पशु, तितलियां एवं फूल, ये सभी एक साथ मिलकर अद्वितीय आनंद की रचना करते हैं।

विश्व में किसी अन्य पर्वतीय क्षेत्र में किसी अन्य पर्वत की तुलना में यहां मानव की अधिक रुचि रही है, क्योंकि इन प्राचीन नामों वाली चोटियों का भारतीय आर्यन नस्ल के प्राचीनतम इतिहास में भी उल्लेख है। ये देवताओं के निवास हैं। दो सौ मिलियन हिंदुओं के लिए गढ़वाल के धाम अभी तीर्थ यात्रा में सर्वोच्च स्थान रखते हैं।”

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अगर आप प्राकृतिक सुंदरता और रोमांच के साथ आध्यात्म और शांति वाली जगह की तलाश में है तो आप उत्तरांचल के खूबसूरत स्थान देहरादून की ओर अपना रूख कर सकते हैं। शिवालिक रेंज में पड़ने वाला यह इलाका गढ़वाल के हिमालयी क्षेत्र में पर्वतारोहियों को सहज ही आकर्षित करता है।

 यह उत्तरी रेलवे का एक प्रमुख स्टेशन है। देहरादून प्रसिद्घ हिल स्टेशन मसूरी जाने का ‘गेटवे’ भी है। आप अपनी चार धाम यात्रा (गंगोत्री, यमुनोत्री, बद्रीनाथ और केदारनाथ) की शुरुआत भी यहीं से कर सकते हैं। देहरादून फॉरेस्ट रिसर्च इंस्टीट्यूट और इंदिरा गांधी नेशनल फॉरेस्ट एकेडमी के लिए भी दुनियाभर में जाना जाता है।

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नए हिमालयी राज्य उत्तरांचल की राजधानी देहरादून को उसकी कई खूबियों के लिए जाना जाता है। इनमें यहां की आबोहवा, विभिन्न परिषदों से संबद्ध स्कूल तथा केंद्रीय व स्वायत्त प्रशिक्षण संस्थान, महक भरे बासमती चावल व रसीली लीची तथा पर्वतों की रानी मसूरी व धार्मिक नगरी ऋषिकेश प्रमुख हैं।

 इन खूबियों के कारण ही देश के कई दिग्गज राजनेताओं, सैन्याधिकारियों, नौकरशाहों और उद्योगपतियों ने इसे अपना स्थाई ठिकाना बनाया या फिर यहां फार्महाउस बनाए। अंतरिम राजधानी का दरजा मिलने के बाद इस शहर की महत्ता और बढ़ गई है। इंटरनेट उपभोक्ताओं की सुविधा के लिए यहां महत्वपूर्ण व्यक्तियों के नाम तथा टेलीफोन नंबर दिए जा रहे हैं।

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उत्तराखंड हिमालय में ऐसी वनौषधियों की कोई कमी नहीं है, जो बिना किसी साइड इफेक्ट के अनेक रोगों का निदान कर देती हैं। पहाड़ में जहां-तहां पाया जाने वाला और किसी काम का न समझा जाने वाला 'सेहुंड' भी ऐसा ही औषधीष पादप है। आयुर्वेद में इसे अनेक व्याधियों की अचूक औषधि बताया गया है।

'सुरू', 'श्योण', 'सुंडु' आदि नामों से पुकारी जाने वाली वनौषधि आयुर्वेदिक एवं यूनानी चिकित्सा पद्धति में प्रयुक्त होने वाली बहुमूल्य जड़ी-बूटी 'स्नुही' या 'सेहुंड' है। पर्वतीय क्षेत्र में इसे 'स्यूण' भी कहा जाता है। सेहुंड की दो प्रजातिया 'यूफोरबिया रायलियाना' व 'नेरिफोलिया' उत्तराखंड के पर्वतीय क्षेत्रों में बहुतायत में पाई जाती हैं।

सेहुंड का छोटा वृक्ष करीब छह फीट तक ऊंचा होता है, जिसके मांसल एवं कांटेदार तने एवं शाखाएं गोलाकार या पंचकोणीय होती हैं। शीतकाल में इसकी पत्तियां झड़ जाती हैं और वसंत में हरे-पीले फूल एवं तत्पश्चात फल लगते हैं।

राज्य औषधीय पादप बोर्ड के उपाध्यक्ष डा.आदित्य कुमार बताते हैं कि आयुर्वेद में 'वज्रक्षार', 'स्नुहयादि तैल', 'स्नुहयादि वर्ति' सहित सैकड़ों औषधियों के निर्माण में सेहुंड का प्रयोग होता है। यह औषधियां पाचन, रक्तवह व श्वसन संस्थान के रोगों समेत अनेक चर्मरोगों में उपयोगी हैं। वह बताते हैं कि घरेलू चिकित्सा में सूजन एवं दर्दयुक्त स्थानों पर सेहुंड की पत्तियां गर्म करके बांधने पर तुरंत आराम मिलता है।

डा.आदित्य के अनुसार कान दर्द में सेहुंड का दूध लाभकारी माना गया है। दांत दर्द में इसके दूध को रुई के फाहे के साथ रखा जाता है। इसके अलावा अनेक चर्म रोगों की घरेलू चिकित्सा में सेहुंड का दूध प्रयोग किया जाता है। बवासीर के अंकुरों पर दूध का लेप करने से वह नष्ट हो जाते हैं। उन्होंने बताया कि भगंदर की चिकित्सा में क्षार सूत्र के निर्माण में भी सेहुंड के दूध का प्रयोग किया जाता है।

 

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