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Various Dynasities In Uttarakhand - उत्तराखंड के विभिन्न भागो मे राजाओ का शासन

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एम.एस. मेहता /M S Mehta 9910532720:

HISTORY OF ALMORA DISTRICT.

आज के इतिहासकारों की मान्यता है कि सन् १५६३ ई. में चंदवंश के राजा बालो कल्याणचंद ने आलमनगर के नाम से इस नगर को बसाया था। चंदवंश की पहले राजधानी चम्पावत थी। कल्याणचंद ने इस स्थान के महत्व को भली-भाँति समझा। तभी उन्होंने चम्पावत से बदलकर इस आलमनगर (अल्मोड़ा) को अपनी राजधानी बनाया।

सन् १५६३ से लेकर १७९० ई. तक अल्मोड़ा का धार्मिक भौगोलिक और ऐतिहासिक महत्व कई दिशाओं में अग्रणीय रहा। इसी बीच कई महत्वपूर्ण ऐतिहासिक एवं राजनैतिक घटनाएँ भी घटीं। साहित्यिक एवं सांस्कृतिक दृष्टियों से भी अल्मोड़ा सम्स्त कुमाऊँ अंचल का प्रतिनिधित्व करता रहा।

सन् १७९० ई. से गोरखाओं का आक्रमण कुमाऊँ अंचल में होने लगा था। गोरखाओं ने कुमाऊँ तथा गढ़वाल पर आक्रमण ही नहीं किया बल्कि अपना राज्य भी स्थापित किया। सन् १८१६ ई. में अंग्रेजो की मदद से गोरखा पराजित हुए और इस क्षेत्र में अंग्रेजों का राज्य स्थापित हो गया।

स्वतंत्रता की लड़ाई में भी अल्मोड़ा के विशेष योगदान रहा है। शिक्षा, कला एवं संस्कृति के उत्थान में अल्मोड़ा का विशेष हाथ रहा है।

कुमाऊँनी संस्कृति की असली छाप अल्मोड़ा में ही मिलती है - अत: कुमाऊँ के सभी नगरों में अल्मोड़ा ही सभी दृष्टियों से बड़ा है।

एम.एस. मेहता /M S Mehta 9910532720:
इतिहास
गढ़वाल राजाओं के शासन काल में डोईवाला एक गांव था। लेकिन रेल लाइन के आगमान के बाद डोईवाला एक बाजार के रूप में रूपांतरित हो गया। गोरखा और गढ़वाल राजाओं के समय डोईवाला देहरादून क्षेत्र में स्थित एक छोटा सा गांव था। जब डोईवाला पर अंग्रजों का अधिकार हुआ, तब इस क्षेत्र के आसपास की भूमि पर कृषि कार्य प्रारंभ हुआ और इनका विकास ग्रांट के रूप हुआ। यही कारण है कि डोईवाला क्षेत्र में स्थित लच्छीवाला, रानीपोखरी, भोगपुर और घमंडपुर गांवों के आसपास कई ग्रांट हैं। इनमें मार्खम ग्रांट, माजरी ग्रांट और जॉली ग्रांट प्रमुख हैं। 1 मार्च 1900 को हरिद्वार- देहरादून रेल मार्ग पर रेल गाड़ियां चलनी प्रारंभ हुईं। इसी दिन डोईवाला स्टेशन अस्तित्व में आया। धीरे-धीरे ग्रांट के आसपास के क्षेत्र विकसित होने लगे और डोईवाला एक छोटा सा बाजार बन गया। 1901 में डोईवाला में पहला विद्यालय खुला। इसी साल यहां के पहले अस्पताल की भी स्थापना हुई। 1933 में यहां जानकी चीनी मिल ( रेलवे स्टेशन के नजदीक ) स्थापित हुआ। इसकी स्थापना जब्बाल इस्टेट के शासकों और स्थानीय हवेलिया परिवार ने मिलकर किया था। स्व. दुर्गा मल और कर्नल प्रीतम सिंह संधू जैसे वीर स्वतंत्रता सेनानियों की जन्म भूमि भी डोईवाला ही है। गौरतलब है कि ये दोनों नेताजी सुभाष चन्द्र बोस द्वारा गठित आजाद हिंद फौज की ओर से देश के उत्तर-पूर्वी सीमा पर अंग्रेजों के खिलाफ लड़े थे। बीते दशक में डोईवाला की बड़ी उपलब्धि रही है- जॉली ग्रांट हवाई अड्डे के पास “हिमालयन इंस्टीट्यूट अस्पताल” की स्थापना। इसकी स्थापना 1994 में स्वामीराम ने करवाया था। 750 बिस्तरों वाले इस अस्पताल में प्राथमिक उपचार से लेकर गंभीर बीमारियों तक की आधुनिक चिकित्सा सुविधाएं मौजूद हैं। इस अस्पताल से गढ़वाल क्षेत्र के लोग तो लाभान्वित हुए ही है, साथ ही यह उत्तर प्रदेश और हिमाचल प्रदेश के सीमावर्ती भागों के लोगों की स्वास्थ्य समस्याओं के निदान में भी काफी सहायक सिद्ध हुआ है।

Parashar Gaur:
गडवाल के राजबंसावाली 

१   कनाक्पाल  { गुजरात से आए थे }
२   श्यामपाल
३   पादुपाल
४   अभीभगत पाल 
५   सिगात्पाल
६   रतनपाल
७   सालपाल
८   बिधीपाल्ल
९   मदनपाल
१०  भगतिपाल
११  जैचंदर पाल
१२  केर्तीपाल
१३  मदनसिंह
१४  अभिबग्ती पाल /अजजीत पाल
१५  सुरतीपाल
१६  जीतपाल
१७  अनन्तपाल { मालवा कोट से आए )
१८  अनाद्पाल
१९  बिभोग पाल
२०  सुभियातु पाल
२१  बित्रम पाल ( अम्बुवा कोट से आए )
२२  बिचित्र पाल
२३  हंसपाल
२४  सोनपाल { भिलंग}
२५  कान्दिपाल { चांदपुर}
२६  कामदेब पाल
२७  सुतकन देब
२८  लखनपाल
२९  अनन्तपाल
३०  पूरणदेब
३१  अभयदेब
३२  जयराम देब
३३  असलदेब
३४  जगतपाल
३५  जीतपाल
३६  अन्मंत्र पाल
३७  अजयपाल
३८  अजयपाल
३९  कल्याणसाही
४० हंसदेब
४१  विजयपाल
४२  बादरसहा /बलभद्रसाह 
४३  मानसही
४४  महिपतसाही 
४५  पर्थेवीसही 
४६  उपेंदर सही
४७  फते शाही
४८  ललित कुवर सही
४९  जैक्रत सही
५०  प्रधुमन सही
५१  सुदर्शन सही
५२  भवानी सही
५३  प्रताप सही
५४  कीर्ती सही
५५  नरेंदर सही 
56   Manvender shahee  { last king  राज )

एम.एस. मेहता /M S Mehta 9910532720:
कर्णप्रयाग का इतिहास
विकिपीडिया, एक मुक्त ज्ञानकोष से
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अलकनंदा एवं पिंडर नदी के संगम पर बसा कर्णप्रयाग धार्मिक पंच प्रयागों में तीसरा है जो मूलरूप से एक महत्त्वपूर्ण तार्थ हुआ करता था। बद्रीनाथ मंदिर जाते हुए साधुओं, मुनियों, ऋषियों एवं पैदल तीर्थयात्रियों को इस शहर से गुजरना पड़ता था। यह एक उन्नतिशील बाजार भी था और देश के अन्य भागों से आकर लोग यहां बस गये क्योंकि यहां व्यापार के अवसर उपलब्ध थे। इन गतिविधियों पर वर्ष 1803 की बिरेही बाढ़ के कारण रोक लग गयी क्योंकि शहर प्रवाह में बह गया। उस समय प्राचीन उमा देवी मंदिर का भी नुकसान हुआ। फिर सामान्यता बहाल हुई, शहर का पुनर्निर्माण हुआ तथा यात्रा एवं व्यापारिक गतिविधियां पुन: आरंभ हो गयी।

वर्ष 1803 में गोरखों ने गढ़वाल पर आक्रमण किया। कर्णप्रयाग भी सामान्यत: शेष गढ़वाल की तरह ही कत्यूरी वंश द्वारा शासित रहा जिसकी राजधानी जोशीमठ के पास थी। बाद में कत्यूरी वंश के लोग स्वयं कुमाऊं चले गये जहां वे चंद वंश द्वारा पराजित हो गये।

कत्यूरियों के हटने से कई शक्तियों का उदय हुआ जिनमें सर्वाधिक शक्तिशाली पंवार हुए। इस वंश की नींव कनक पाल ने चांदपुर गढ़ी, कर्णप्रयाग से 14 किलोमीटर दूर, में डाली जिसके 37वें वंशज अजय पाल ने अपनी राजधानी श्रीनगर में बसायी। कनक पाल द्वारा स्थापित वंश पाल वंश कहलाया जो नाम 16वीं सदी के दौरान शाह में परिवर्तित हो गया तथा वर्ष 1803 तक गढ़वाल पर शासन करता रहा।

गोरखों का संपर्क वर्ष 1814 में अंग्रेजों के साथ हुआ क्योंकि उनकी सीमाएं एक-दूसरे से मिलती थी। सीमा की कठिनाईयों के कारण अंग्रेजों ने अप्रैल 1815 में गढ़वाल पर आक्रमण किया तथा गोरखों को गढ़वाल से खदेड़कर इसे ब्रिटिश जिले की तरह मिला लिया तथा इसे दो भागों– पूर्वी गढ़वाल एवं पश्चिमी गढ़वाल– में बांट दिया। पूर्वी गढ़वाल को अंग्रेजों ने अपने ही पास रखकर इसे ब्रिटिश गढ़वाल नामित किया। वर्ष 1947 में भारत की आजादी तक कर्णप्रयाग भी ब्रिटिश गढ़वाल का ही एक भाग था।

ब्रिटिश काल में कर्णप्रयाग को रेल स्टेशन बनाने का एक प्रस्ताव था, पर शीघ्र ही भारत को आजादी मिल गयी और प्रस्ताव भुला दिया गया। वर्ष 1960 के दशक के बाद ही कर्णप्रयाग विकसित होने लगा जब उत्तराखंड के इस भाग में पक्की सड़कें बनी। यद्यपि उस समय भी यह एक तहसील था। उसके पहले गुड़ एवं नमक जैसी आवश्यक वस्तुओं के लिये भी कर्णप्राग के लोगों को कोट्द्वार तक पैदल जाना होता था।

वर्ष 1960 में जब चमोली जिला बना तब कर्णप्रयाग उत्तरप्रदेश में इसका एक भाग रहा और बाद में उत्तराखंड का यह भाग बना जब वर्ष 2000 में इसकी स्थापना हुई।


http://hi.wikipedia.org/wiki

एम.एस. मेहता /M S Mehta 9910532720:
पंवारवंश
गढ़वाल का प्रारंभिक इतिहास कत्यूरी राजाओं का है, जिन्होंने जोशीमठ से शासन किया और वहां से 11वीं सदी में अल्मोड़ा चले गये। गढ़वाल से उनके हटने से कई छोटे राजाओं का उदय हुआ, जिनमें पंवार वंश सबसे अधिक शक्तिशाली था जिसने चांदपुर गढ़ी (किला) से शासन किया। कनकपाल को इस वंश का संस्थापक माना जाता है। इस विषय पर इतिहासकारों के बीच विवाद है कि वह कब और कहां से गढ़वाल आया।

कुछ लोगों के अनुसार वह वर्ष 688 में मालवा के धारा नगरी से यहां आये। कुछ अन्य मतानुसार वह गुज्जर देश से वर्ष 888 में आया जबकि कुछ अन्य बताते है कि उसने वर्ष 1159 में चांदपुर गढ़ी की स्थापना की। उनके 37वें वंशज अजयपाल के शासन के बीच के समय का कोई अधिकृत रिकार्ड नहीं है जो चांदपुर गढ़ी से राजधानी हटाकर 14वीं सदी में देवलगढ़ ले गया।

अजय पाल ने गढ़वाल के गढ़पतियों को परास्त कर, गढ़वाल के अधिकांश भाग पर पंवार वंश का शासन जमाया।

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