उत्तराखंड राज्य प्राप्ति हेतु शहीदों और आंदोलनकर्ताओं के सपनों का उत्तराखंड बनने के लिए क्या उपाय सुझायेँगे आप?
उत्तराखण्ड के नव-निर्माण के लिए एक अत्यन्त मौलिक दृष्टिकोण की जरूरत है। भारत सरकार की, स्वयं नये प्रान्त की तथा आज की विश्व व्यवस्था की नीतियाँ पहाड़ों के प्रतिपक्ष में हैं क्योंकि ये हमारे प्रमुख संसाधनों -जमीन, जंगल, पानी, वन्यता और आम जन को लीलना चाहते हैं। आज हिमाचल को आदर्श बनाकर नया राज्य विकसित नहीं किया जा सकता है। पहले यह समझना जरूरी है कि क्यों उत्तरप्रदेश, उत्तराखण्ड को ठीक से खड़ा करने में योगदान नहीं दे सका। इस क्षेत्र द्वारा प्रदेश को चार मुख्यमंत्रियों को देने के वाबजूद ; इनमें से एक हमारे वर्तमान मुख्यमंत्री तो चार बार उत्तर-प्रदेश मुख्यमंत्री के रूप में सत्तासीन रहे और वे देश के सर्वाधिक पढ़े-लिखे नेताओं में भी हैं । ऐसा क्यों हुआ ? शिक्षा, स्वरोजगार, संसाधनों का जनमुखी इस्तेमाल और निरन्तर हिफाजत, स्त्रियों, दलितों तथा नौजवानों को जिम्मेदारी देना आदि कितने ही पक्ष हैं जिन्हें समझा जाना है। क्योंकि सौभाग्य से हम जनतंत्र में हैं अत: राजनैतिक दलों, सामाजिक संगठनों और पंचायतों से लेकर विधान सभा तक में निरन्तर बात-बहस होनी चाहिए और सहमति के बिन्दु पर आकर नीति-नियम बनाने की जरूरत है। जमीन, जंगल और पानी ही नहीं, खनिज तथा वन्यता के बाबत भी सरकार कोई गहरी नीति विकसित नहीं कर सकी है। नेता और नौकरशाह किसी से सीखना नहीं चाहते हैं। जो सीखना चाहते हैं वे बहुत कम हैं। जो अपनी जड़ों, जरूरतों, संसाधनों और जनता को नहीं जानता है वह विकास तथा हिफाजत का कोई वाजिब तंत्र खड़ा नहीं कर सकता है।कल के उत्तराखण्ड के नव निर्माण हेतु सबसे ज्यादा आपसी संवाद की जरूरत है। विभिन्न पर्वतीय देशों और हिमालयी प्रान्तों से बहुत सीखा जा सकता है। हम सभी लोग उत्तराखण्ड के बाबत ज्यादा जनतांत्रिक तरीके से सहमति के बिन्दु तय कर सकते हैं। हमारे दोनों राजनैतिक दलों को यह गलतफहमी है कि जैसे उन्हें उत्तराखण्ड का बारी बारी से स्थायी शासक बना दिया गया हो। वे स्विट्जरलैंड की दुहाई देंगे पर यदि उन्हें बताया जाय कि वहाँ ‘राइट टु रिकाल’ है तो शायद फिर वे स्विट्जरलैंड का नाम न लें। हिमाचल की चर्चा होती है पर कोई यशवन्त सिंह परमार द्वारा बनाये गये भूमि कानून को बनाने और लागू करने की दम नहीं रखता। एक सकारात्मक भू-अधिनियम, जो आश्चर्य की तरह प्रकट हुआ, को उत्तराखण्ड के विधायक और नेता न तो समझ पाये और न उसे समर्थन दे पाये।
युवा पीढ़ी रोज़गार की तलाश में पलायन करने पर बाध्य है इस समस्या का कैसा निदान चाहते हैं ग्रामवासी?
सरकार के पास रोजगार की समस्या का पूरा समाधान नहीं है। उत्तराखण्ड में कम से कम 10-12 लाख शिक्षित बेरोजगार हैं। किसी क्रान्तिकारी / गांधीवादी सरकार के लिए भी यह असंभव है कि सबको रोजगार मिल जाय। हमारी सरकारें तो बेरोजगार भत्तों की कल्पना भी नहीं करती है। हमारे यहां तो अग्निदाह में युवाओं के मरने, भूख-हड़ताल कर प्राण त्यागने, बलात्कार का शिकार होने या दुर्घटना में मारे जाने या कुछ जाल पफरेब करने पर आर्थिक या अन्य मदद आती है। अत: हमारे समाज को रोजगार के वैकल्पिक रास्ते ढूंढने के साथ स्वरोजगार के प्रयोग करने होंगे। उद्यमिता का विकास हमारी अपरिहार्य जरूरत है। पर्यटन, तीर्थाटन, परिवहन, पर्वतारोहण, वृक्षारोपण, पौधशाला-जड़ी-बूटी कार्य आदि ऐसे रास्ते हैं। लकड़ी-पत्थर, ऊन, धातु आदि से जुड़े कुटीर उद्योग भी ऐसे रास्ते खोलते हैं….. सोद्देश्य और उदार शिक्षा कितने ही रास्ते खोल सकती है।
महिलाओं की स्थिति बद से बदतर हो रही है जबकि उत्तराखंड की रीढ़ की हड्डी मानी जाने वाली महिलाऎं राज्य निर्माण से बोझ कम होने की उम्मीद कर रही थी, फिर कैसे होगा हमारी ग्रामीण माता-बहिनों का कष्ट दूर?
महिलाओं की स्थिति अच्छी चाहे न हो सकी हो, पर बद से बदतर नहीं हुई है। वे अभी भी सबसे ज्यादा लड़ रही हैं। उन्हें राजनैतिक दल और शराब लॉबी कभी-कभी इस्तेमाल भी कर रहे हैं पर वे सतत: संघर्षरत हैं। राजधानी, नशाबन्दी, भ्रष्टाचार विरोध, मुजफ्फरनगर काण्ड, हर मामले में वे ही आगे आई हैं। महिलाओं का भार अलग से कम नहीं होगा। एक सुव्यवस्था में ही यह संभव है।
पहाड़ी लोग भगवान का डर होने से, गलत काम नही करते थे, ईमानदारी हमारा एक महान गुण माना जाता है फिर उत्तरांचल सरकार में इतने बड़े स्तर पर घूस-खोरी, भ्रष्टाचार की खबरें आती हैं आपकी टिप्पणी ?
पहाड़ों में भी देश के अन्य हिस्सों की तरह आम लोग ईमानदार होते हैं। पहाड़ी क्षेत्रों में ईमानदारी अनेक कारणों से कुछ ज्यादा अवश्य होती है, पर बेईमानों और दलालों से भी यह क्षेत्र कभी मुक्त नहीं रहा। जब अधिकांश लोग राजनीति तथा प्रशासन में सेवा हेतु नहीं सिर्फ कमाई हेतु जा रहे हों तो भ्रष्टाचार होगा ही। हम आम जनता के रूप मैं इसमें कभी-कभी योगदान देते हैं और हमारा एक हिस्सा प्रतिकार भी करता रहता है। समाज ऐसे ही चलता है। फिलहाल किसी समाज का हर सदस्य ईमानदार नहीं हो सकता है। एक प्रकार से सत्ता की बेईमानी भी समाज की मन:स्थिति का प्रतिबिम्बन है। पर कुछ बेईमानियॉ सरकार की पूरी तरह से अपनी हैं। पिछले 56 साल से शोध तथा प्रयोगों हेतु चल रहे सरकारी बगीचे बेच डालना ऐसा ही उदाहरण है। अत्यधिक सरकारी अपव्यय इसका दूसरा उदाहरण है। अस्थाई राजधानी देहरादून के विकास के नाम पर जो रुपया फूंका जा रहा है, वह तीसरा उदाहरण है। भ्रष्टाचार के अनेकों उदाहरण सरकार के स्तर पर सामने आ चुके हैं। डी.जी. पुलिस का बदलना, जिलाधिकारी का सस्पैण्ड होना या एस.डी.एम. का गिरफ्तार होना जैसे उदाहरण यह बताते हैं कि जो नहीं नजर आ रहा है वह भ्रष्टाचार कितना बड़ा है।