Author Topic: Askot-Aarakot Movement - अस्कोट-आराकोट अभियान  (Read 4795 times)

एम.एस. मेहता /M S Mehta 9910532720

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Dosto,

We are posting here a interview of Askot and Aarakot movement which is conducted after every 10 years to study the various changes in Himalayan areas..

We are posting Interview of Padam Shree Dr Shekhar Pathak's in this forum through which you will come to know the objective askot* Arakot movement.

शेखर पाठक को जानने वाले उन्हें इन्साइक्लोपीडिया ऑफ हिमालया भी कहते हैं. क़रीब चालीस सालों से उत्तराखंड के जनआंदोलनों का हिस्सा रहे शेखर पाठक एक बड़े घुमक्कड भी हैं. उन्होंने हिमालयी इलाक़ों की लंबी-लंबी और कठिन यात्राएं की हैं. ऐसी ही एक यात्रा का नाम है अस्कोट-आराकोट अभियान. दस साल के अंतराल के बाद होने वाली इस यात्रा में एक हज़ार किलोमीटर से भी ज़्यादा लंबे पहाड़ी इलाक़े को पैरों से नापा जाता  है. साल दो हज़ार चार में इस अभियान के दौरान कुछ दिन मुझे भी उनके साथ उत्तराखंड के दुर्गम इलाक़ों को देखने-समझने का मौक़ा मिला. प्रस्तुत बातचीत में शेखर पाठक उसी यात्रा के बारे में बता रहे है.


अस्कोट-आराकोट अभियान का मूल उद्देश्य क्या है ?

अस्कोट-आराकोट अभियान का मूल उद्देश्य अपने गांवों को तुम जानो, अपने लोगों को पहचानो है। इसका उद्देश्य उस विचार को फैलाना भी है जो हम अपने क्षेत्र, इस देश और दुनियां के लिए सबसे उपयुक्त समझते हैं। यह हमारे 1984 में रचित गीत से भी प्रकट होता है। यह है जनता, जन संसाधनों और जनसंस्कृति की हिफाजत। इस हेतु समझ बढ़ाना और संघर्ष करना।

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M S Mehta

एम.एस. मेहता /M S Mehta 9910532720

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अभियान के बाबत आपने सबसे पहले कब जाना या सोचा ?

1971 से 1974 तक हम लोग अल्मोड़ा कॉलेज के छात्र थे। इसी तरह हमारे हमउम्र युवा नैनीताल, पिथौरागढ़, पौड़ी, श्रीनगर, टिहरी आदि में पढ़ रहे थे। हम अनेक लोग विश्वविद्यालय स्थापना के आन्दोलन के साथ थे। 1972 में पिथौरागढ़ में गोली चली थी और दो नौजवान गोली से मारे गये थे। अल्मोड़ा के छात्रों ने पिथौरागड़ से अल्मोड़ा जेल में लाये गये छात्रों को बिना शर्त छुड़ाया था। हम स्थानीय मामलों में भी दिलचस्पी लेते थे। जैसे पानी की दिक्कत, मूर्तियों की चोरी और फिर जंगल का प्रश्न। 1973 में अल्मोड़ा कॉलेज के 5 छात्र पिण्डारी ग्लेशियर होकर आये थे और पहली बार दानपुर इलाके में जाकर हमें पता चला कि जिन गांवों से हम आये हैं, उनसे बहुत पिछड़े और वंचित गांव हमारे यहां मौजूद हैं। इस यात्रा से लौटकर मैंने एक लेखमाला स्थानीय ‘शक्ति’ साप्ताहिक में लिखी। इसी समय सुन्दरलाल बहुगुणा अपनी 120 दिन की यात्रा में उत्तराखण्ड में घूम रहे थे। कहीं उन्हें ‘शक्ति’ का वह अंक मिला, जिसमें मैंने अमेरिकी चिन्तक हर्बर्ट मारकूज की प्रसिद्व किताब ‘वन डाईमैन्शनल मैन’ को उद्घृत करते हुए लिखा था कि “मनुष्य एक दिन तकनीक का इतना गुलाम हो जायेगा कि उसके पास शुद्व प्राकृतिक क्षेत्र बहुत कम रह जायेंगे”। यह बात बहुगुणा जी को हमारी ओर खींच लाई। वे हमारी खोज हमारे गांव गंगोलीहाट और पिथौरागढ़ में भी करते रहे। उन्हें बताया गया कि मैं जाड़ों की छुट्टियों में भी अल्मोड़ा में हूँ तो वे जनवरी 1974 में अल्मोड़ा आये। उन्होंने श्रीनगर और टिहरी से कुँवर प्रसून तथा प्रताप शिखर को भी बुला लिया। इस तरह शमशेर और मेरी बहुगुणा जी, प्रसून तथा शिखर से मुलाकात हुई और गर्मियों की छुट्टियों में अस्कोट-आराकोट यात्रा करने का निर्णय हुआ। इस यात्रा में बहुगुणा जी, कुँवर प्रसून, प्रताप शिखर, विजय जड़धारी, शमशेर बिष्ट, हरीश जोशी, राकेश मोहन, भुवनेश भट्ट, भुवन मानसून, राजीव नयन बहुगुणा सहित कुछ और छात्र / युवक शामिल हुए। फिर चिपको आन्दोलन के साथ यह क्रम 1975 के बाद निरन्तर चलता रहा, जिसमें दर्जनों छात्रों / युवाओं ने विभिन्न क्षेत्रों की यात्राएं कीं। हाँ, 10 साल बाद जब अस्कोट-आराकोट अभियान 1984 का आयोजन हुआ तो यह ‘पहाड़’ का आयोजन था और तमाम संस्थाएं तथा व्यक्ति इसमें हिस्सेदार थे। हम इसे और गहरी, और अधिक हिस्सेदारी वाली यात्रा बनाना चाहते थे। अत: हमने एक तो अस्कोट से पांगू तक का हिस्सा इसमें जोड़ा, दूसरा अस्कोट से आराकोट तक के मार्ग में भी कुछ अन्तरवर्ती क्षेत्र जोड़े। जैसे बदियाकोट से हिमनी, घेस, बलाण , बलाण से बेदिनी बुग्याल, वहां से वान, कनौल, सुतौल आदि होकर रामणी, रामणी से ढाक तपोवन या घुत्तु से कमद आदि। सर्वेक्षण हेतु फार्म तैयार किये गये और उस मार्ग, क्षेत्र या गांवों की उपलब्ध जानकारी यत्र-तत्र से जमा की ताकि उन्हें समझने का कोई संदर्भ बिन्दु हमारे पास हो। यह क्रम 1994 में भी बना रहा। हाँ, हिस्सेदारी बढ़ती गयी। इसके साथ ही मित्र संस्थाओं ने 1984 तथा 1994 में अनेक मार्गों में छोटी-छोटी यात्राएं कीं। जिससे अन्य अनेक क्षेत्रों की वास्तविकता भी सामने आयी। 2004 में यह क्रम और आगे बढ़ रहा है। जनवरी 2005 तक उत्तराखण्ड के विभिन्न क्षेत्रों में अनेक यात्राएं हो चुकी होंगी और इस क्रम की अन्तिम यात्रा जनवरी 2005 में कालसी ;डाकपत्थर से बरमदेव ;टनकपुर तक होगी।

सबसे पहली यात्रा के दौरान, आप 24 वर्षीय एक विद्यार्थी थे, तो आपके कैसा अनुभव प्राप्त हुआ था? आपने यात्रा से लौटने के बाद, अपने कैरियर तथा उत्तराखंड के भविष्य के बारे मैं क्या सोचा?

1974, 1984, 1994 या कि 2004 की यात्रा हर हिस्सेदार की तरह मुझे भी उत्तराखण्ड की ज्यादा गहरी समझ देती रही। इन यात्राओं ने हमें पहले पहाड़ों में रोका और फिर निरन्तर सक्रिय रहने का दबाब दिया। ये यात्राएं व्यक्तिगत यश हेतु न थीं पर इन्होंने हम सबको निश्चय ही योग्य और समझदार ही नहीं बनाया बल्कि संवेदनशीलता और रचनात्मकता भी हममें विकसित की। उत्तराखण्ड के बारे में हम सिर्फ किताबी बातें नहीं करते हैं।

एम.एस. मेहता /M S Mehta 9910532720

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आज आप एक विश्वविद्यालय के प्राध्यापक के रूप मैं अभियान का नेतृत्व कर रहे थे. आपको कैसी अनुभूति होती है

2004 के अभियान का दरअसल मैं नेतृत्व नहीं कर रहा था। यह तो पहाड़ की टीम कर रही थी और तमाम सहयोगी कर रहे थे। इतना जरूर था कि मैं चारों यात्राओं में हिस्सेदार था और 84, 94 तथा 2004 में तो प्रारम्भ से अन्त तक रहा था। अत: यह तथ्य जरा सा अतिरिक्त संतोष देता था। लेकिन इस ‘मैं’ में ‘हम’ सभी मौजूद थे। 1974 में बहुगुणा जी साथ थे तो 1994 में चण्डीप्रसाद भट्ट जी और 2004 में 1974 के यात्री प्रसून तथा शमशेर का आना भी एक सुखद अनुभव था।

आप लगभग 50 दिन अपने विश्वविद्यालय से दूर रहे तो आपने अपनी कितनी छुट्टियां इस अभियान को समर्पित की? मेरा मतलब कि क्या विश्वविद्यालय ने इसे अध्ययन के उद्देश्य से ओफिसियल घोषित किया या फिर आपकी छुट्टियां लेनी पड़ी?

1984, 1994 तथा 2004 की यात्राएं मैंने पी.एल. (विशेषाधिकार अवकाश) लेकर की। सौभाग्य से इस अवधि में गर्मियों का अवकाश भी पड़ता है तो ज्यादा दिक्कत नहीं होती है। विश्वविद्यालय से कोई अध्ययन अवकाश इस हेतु नहीं लिया गया। सामान्यतया विश्वविद्यालय के डीन आदि ऐसी यात्राओं का महत्व नहीं समझ पाते हैं और अनेक तो अच्छी धनराशि वाले प्रोजेक्ट से आगे का सपना भी नहीं देखते हैं। इसीलिए हमारे विश्वविद्यालय उतने जीवित नहीं लगते जितना कि इनको सामान्यतया होना चाहिए था।

एम.एस. मेहता /M S Mehta 9910532720

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30 वर्ष बाद, आपने बिना यात्रा-मार्ग बदले, निर्धारित समय-सीमा में 1,000 किलोमीटर से अधिक की यात्रा तय की, क्या यह थकाने वाली ना लगी ?

थकान तो होती ही थी। रोज 25-30 किमी. चलना। मंखदुवा (मांग कर खाने वाले) होने से भोजन व्यवस्था किंचित अव्यवस्थित होती थी। लेकिन जिस तरह आम लोगों तथा मित्रों ने अभियान में हिस्सेदारी की, उसमें हम थकान भूल गये। कुंवारी-पास पार करने के दिन हम पाणा से ढाक-तपोवन तक 38-39 किमी. चले। बीच में कोई बसासत नहीं है। अनेक दिन हमें 30-35 किमी. भी चलना पड़ा। डैन जैन्सन, नीरज पन्त तथा मैं आदि से अन्त तक अभियान में रहे। रूप सिंह धामी छोरी बगड़ ;जिला पिथौरागड़ की गोरी घाटी में स्थित गांव से अन्त तक रहे। रघुबीर चन्द तथा गिरिजा पाण्डे गोपेश्वर से नौगांव ;उत्तरकाशी तक छोड़ पूरी यात्रा में रहे। 15-20 साथी 20-25 दिन तक साथ रहे। बांकी 150 से ज्यादा साथियों पर ज्यादा दबाव नहीं था क्योंकि वे कुछ दिन या हफ्तों तक साथ रहे। इस यात्रा की थकान साथियों की मुस्कान नहीं घटाती थी, क्योंकि हरेक कुछ न कुछ सीख और जान रहा था। 30 से 45 दिन तक अभियान में रहने वालों का भार 5 से 10 किलो तक अवश्य घटा था पर गंभीर बीमार कोई नहीं पड़ा।

यात्रा के दौरान किन किन मुश्किलों का सामना करना पड़ा ? यह यात्रा नंदादेवी राजजात यात्रा से कैसे भिन्न है ?
मुश्किलें तो हमने ही अपने लिये खड़ी की थी कि भोजन, आवास तथा किसी भी अपरिहार्य आवश्यकता हेतु जनता पर निर्भर रहना होगा। यात्रा की गहराई इसी सूत्र से जुड़ी थी वर्ना हम भी सामान्य ट्रेकर (पथारोही) हो जाते। हमारे लोग क्या खा-पी रहे हैं, क्या उगा-बेच रहे हैं, क्या बना-पहन रहे हैं, क्या पढ़-लिख रहे हैं, क्या सोच रहे हैं, इस सब के लिए यह जरूरी था।नन्दा देवी राजजात तो एक दूसरी ही तरह की यात्रा थी। सांस्कृतिक उल्लास से भरी हुई। रूपकुण्ड से आगे उसका मार्ग भी कुछ कठिन कहा जा सकता है पर उसमें कम से कम वाण ;बेदिनी बुग्याल तक और उस तरफ सुतौल से नीचे यात्री गाँवों से होकर जा रहे हैं। आप टैंट, कुली, भोजन-सामग्री तथा गैस साथ लेकर भी जा सकते हैं। दुकानें भी साथ में हैं। आप पैसे का इस्तेमाल भी कर सकते हैं। यह सब अस्कोट-आराकोट अभियान में वर्जित था।

आजकल इस तरह के आयोजन, बिना सरकारी सहायता अथवा प्रायोजक/ स्पोंसरशिप के बिना संभव नही, फिर आपने बिना आर्थिक सहायता के ये काम कैसे किया? 1974 से 2004 तक की यात्राऑं का ख़र्च किसने वहन किया? क्या 2014 मैं आप किसी एम एन सी या उद्योग जगत से पैसा लेंगे? आपकी संस्था “पहाड़” अनुदान क्यों नहीं लेती.

प्रायोजित कार्यक्रमों का तो जमाना है। हम भी कह सकते हैं कि यह अभियान उत्तराखण्ड की जनता और हमारे सहयोगियों द्वारा प्रायोजित था। अभियान हेतु प्रश्नावली, पुस्तिकाएं, पोस्टर आदि अनेक संस्थाओं तथा मित्रों ने मिलकर तैयार किये थे। युगवाणी, सहारा समय सहित अनेक प्रतिष्ठित पत्रों ने यात्रा पर अग्रिम ही विशेषांक निकाल दिये थे या विशेष लेख दिये थे। बी.बी.सी. आदि ने भी अभियान की चर्चा फैलाने में योगदान दिया। नैनीताल से पांगू तथा आराकोट से देहरादून या गन्तव्य स्थलों तक भी हमें लोगों के सहयोग ने ही पहुँचाया। हाँ, कैमरे की रील या कैसेट हमें कुछ मित्रों ने दी। कैमरे व्यक्तिगत रूप से लाये गये थे। पहाड़ ने बैनर, पोस्टर, पुस्तिका प्रकाशन, पत्राचार आदि का काम सदा की तरह किया। दिल्ली में श्री चंदन डांगी ने और नैनीताल में श्री पूरन बिष्ट आदि ने एक प्रकार से प्रैस प्रचार का कार्य किया। हाँ, सरकार और उद्योग जगत की स्पॉनसरशिप में हमारी रुचि नहीं थी। ऐसा काम तो सभी कर ही रहे हैं। और इस तरह के अनुदानों के लिए लाईन लगी ही है। हम पेप्सी की शर्ट पहन कर यात्रा नहीं कर सकते थे। अनुदान के दम पर कोई अपने लोगों तक जाय तो यह शर्मनाक है। हमारी आशा है कि 2014 की यात्रा भी जनाधारित होगी तब निश्चय ही दुर्गमता कुछ घट जायेगी और हो सकता है कि और भी ज्यादा हिस्सेदारी इसमें होगी। भविष्य के अभियानकर्ता हमसे ज्यादा व्यवस्थित होंगे।पहाड़ अनुदान इसलिए नहीं लेता क्योंकि अनुदान आपको किसी न किसी तरह और कभी न कभी झुकाता है। कमजोर करता है। हमारे मित्रगण और पहाड़ के सदस्य हमें मदद देते हैं। पहाड़ अपने अनेक काम सदस्यता और प्रकाशनों की बिक्री से करता है। इस अभियान हेतु भी ऐसा ही किया।

एम.एस. मेहता /M S Mehta 9910532720

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गाँव-गाँव पहुँच अभियान दल ने किस प्रकार की जन-जाग्रति प्रस्तुत की और कैसे परिणाम पाए?

पहाड़ के अभियान शेष पहाड़ के हाल दूरस्थ गाँवों में बताते हैं और वहां के शेष उत्तराखण्ड या देश में। अभियान दल के सदस्य कभी शिक्षक और कभी विद्यार्थी होते हैं। जितना सिखाते हैं उससे ज्यादा सीखते हैं। गाँव चेतना शून्य नहीं होते हैं। हम सिर्फ चेतना के द्वीपों को जोड़ने का जतन करते हैं। हमारे पास तुलना के भी संदर्भ बिन्दु थे कि 10, 20 या 30 साल में जब दुनिया, दिल्ली या देहरादून इतना बदल गया है, ये गाँव क्यों अत्यन्त जरूरी चीजों से भी वंचित हैं। सब बातों के बाद सर्वेक्षण के बाद भी हम गांवों में यही कहते थे कि हमारी यात्रा से आप के गाँव नहीं बदलेंगे। वे बदलेंगे आप के संगठन, साहस और सामुहिकता के समझदारी भरे प्रयोगों से।

यात्रा के दौरान, आपको प्रशासन की क्या मदद प्राप्त हुई?

प्रशासन से मदद की अपेक्षा नहीं की गयी थी। अभियान को उत्तरांचल के मुख्य सचिव द्वारा महत्व का माना जाने और जिलाधिकारियों तथा वनाधिकारियों को पत्र डालने के कारण कुछ स्थानों पर उनके माध्यम से सरकारी कार्यक्रमों को जानने/ देखने का मौका मिला। वन विभाग के दूरस्थ इलाकों में कार्यरत् कर्मचारियों से भी सम्पर्क हुआ। लेकिन सबसे ज्यादा आश्चर्य टिहरी के जिलाधिकारी पुनीत कंसल का घुत्तू जैसे दूरस्थ स्थान में पहुँच कर अपने जिले के बाबत हमारे अनुभव जानने हेतु पहुँचना था। ऐसे ही चार घण्टे के लिए ही सही यमुनोत्री के विधायक प्रीतम सिंह पंवार का हमारे साथ चलना था। वे वरूणावत भूस्खलन की बैठक के कारण जाने को मजबूर थे। आराकोट में श्री आर. एस. टोलिया द्वारा अभियान के अनुभवों को अनेक लोगों के माध्यम से सुनना भी अनेकों को सुखद आश्चर्य की तरह लगा।
क्या कोई सरकारी सहायता मिली ?
सरकारी सहायता का कोई प्रश्न न था। और तो और, अपने स्थानों से पांगू तक और आराकोट से हमारे घरों तक हमें मित्रों ने ही भेजने की व्यवस्था की।
गाँव वालों का कैसा बर्ताव रहा ?
गाँव वालों ने सिद्व किया कि वे गरीबी-गर्दिश में चाहे हों, विकास के स्पर्शों से वंचित हों और पिछड़े ही क्यों न कहे जाते हों पर मनुष्यता, सामुहिकता और संवदेना उनमें आज भी भरपूर है। उनकी स्मृति भी हम बुद्विजीवियों, नेता-नौकरशाहों के मुकाबले ज्यादा थी। उन माताओं, बहनों और भाइयों-बच्चों को हम क्या कभी भूल सकेंगे जिन्होंने हमें अपने परिवार में शामिल ही कर लिया। शिक्षकों और ग्रामीण कर्मचारियों द्वारा जो सहयोग मिला, वह भी सदा याद रहेगा।

गाँवों की ख़स्ता हालत के बारे मैं कुछ पत्र पत्रिकाओं से ज्ञात हुआ की विकास के नाम पर नव-गठित राज्य में कुछ भी नयापन नही आया. आपने क्या पाया?

नये राज्य में ज्यादा गहरा और प्रभावशाली काम अभी कुछ हुआ ही नहीं है। दूरस्थ इलाकों में कोई प्रभाव जाने में और भी देर लगती है। देहरादून, नैनीताल या हरद्वार-हल्द्वानी की आपाधापी भी वहां नहीं पहुँची है। ऐसा कुछ हो नहीं सका है जिससे गाँव वाले नये राज्य की नयी हवा अनुभव कर सकें। पर वे कहीं भी नाउम्मीद नहीं हुए हैं। वे हमारे मुकाबले नये राज्य से ज्यादा ही आशावान थे और जरूरत पड़ने पर संघर्ष में शामिल होने को तैयार थे। दूरस्थ इलाकों में महिलाओं, दलितों और युवाओं का ग्रामीण नेतृत्व में उभरकर आना एक सुखद बात है। यद्यपि अभी सबको अपनी भूमिका की अर्थवत्ता पता नहीं है। अनके स्थानों पर महिलाओं और युवाओं ने प्रेरक कार्य किये हैं जो शिक्षा, वृक्षारोपण, सब्जी उत्पादन, कुटीर उद्योग, जड़ी-बूटी उत्पादन आदि से जुडे हैं।

एम.एस. मेहता /M S Mehta 9910532720

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उत्तराखंड राज्य प्राप्ति हेतु शहीदों और आंदोलनकर्ताओं के सपनों का उत्तराखंड बनने के लिए क्या उपाय सुझायेँगे आप?

उत्तराखण्ड के नव-निर्माण के लिए एक अत्यन्त मौलिक दृष्टिकोण की जरूरत है। भारत सरकार की, स्वयं नये प्रान्त की तथा आज की विश्व व्यवस्था की नीतियाँ पहाड़ों के प्रतिपक्ष में हैं क्योंकि ये हमारे प्रमुख संसाधनों -जमीन, जंगल, पानी, वन्यता और आम जन को लीलना चाहते हैं। आज हिमाचल को आदर्श बनाकर नया राज्य विकसित नहीं किया जा सकता है। पहले यह समझना जरूरी है कि क्यों उत्तरप्रदेश, उत्तराखण्ड को ठीक से खड़ा करने में योगदान नहीं दे सका। इस क्षेत्र द्वारा प्रदेश को चार मुख्यमंत्रियों को देने के वाबजूद ; इनमें से एक हमारे वर्तमान मुख्यमंत्री तो चार बार उत्तर-प्रदेश मुख्यमंत्री के रूप में सत्तासीन रहे और वे देश के सर्वाधिक पढ़े-लिखे नेताओं में भी हैं । ऐसा क्यों हुआ ? शिक्षा, स्वरोजगार, संसाधनों का जनमुखी इस्तेमाल और निरन्तर हिफाजत, स्त्रियों, दलितों तथा नौजवानों को जिम्मेदारी देना आदि कितने ही पक्ष हैं जिन्हें समझा जाना है। क्योंकि सौभाग्य से हम जनतंत्र में हैं अत: राजनैतिक दलों, सामाजिक संगठनों और पंचायतों से लेकर विधान सभा तक में निरन्तर बात-बहस होनी चाहिए और सहमति के बिन्दु पर आकर नीति-नियम बनाने की जरूरत है। जमीन, जंगल और पानी ही नहीं, खनिज तथा वन्यता के बाबत भी सरकार कोई गहरी नीति विकसित नहीं कर सकी है। नेता और नौकरशाह किसी से सीखना नहीं चाहते हैं। जो सीखना चाहते हैं वे बहुत कम हैं। जो अपनी जड़ों, जरूरतों, संसाधनों और जनता को नहीं जानता है वह विकास तथा हिफाजत का कोई वाजिब तंत्र खड़ा नहीं कर सकता है।कल के उत्तराखण्ड के नव निर्माण हेतु सबसे ज्यादा आपसी संवाद की जरूरत है। विभिन्न पर्वतीय देशों और हिमालयी प्रान्तों से बहुत सीखा जा सकता है। हम सभी लोग उत्तराखण्ड के बाबत ज्यादा जनतांत्रिक तरीके से सहमति के बिन्दु तय कर सकते हैं। हमारे दोनों राजनैतिक दलों को यह गलतफहमी है कि जैसे उन्हें उत्तराखण्ड का बारी बारी से स्थायी शासक बना दिया गया हो। वे स्विट्जरलैंड की दुहाई देंगे पर यदि उन्हें बताया जाय कि वहाँ ‘राइट टु रिकाल’ है तो शायद फिर वे स्विट्जरलैंड का नाम न लें। हिमाचल की चर्चा होती है पर कोई यशवन्त सिंह परमार द्वारा बनाये गये भूमि कानून को बनाने और लागू करने की दम नहीं रखता। एक सकारात्मक भू-अधिनियम, जो आश्चर्य की तरह प्रकट हुआ, को उत्तराखण्ड के विधायक और नेता न तो समझ पाये और न उसे समर्थन दे पाये।

युवा पीढ़ी रोज़गार की तलाश में पलायन करने पर बाध्य है इस समस्या का कैसा निदान चाहते हैं ग्रामवासी?

सरकार के पास रोजगार की समस्या का पूरा समाधान नहीं है। उत्तराखण्ड में कम से कम 10-12 लाख शिक्षित बेरोजगार हैं। किसी क्रान्तिकारी / गांधीवादी सरकार के लिए भी यह असंभव है कि सबको रोजगार मिल जाय। हमारी सरकारें तो बेरोजगार भत्तों की कल्पना भी नहीं करती है। हमारे यहां तो अग्निदाह में युवाओं के मरने, भूख-हड़ताल कर प्राण त्यागने, बलात्कार का शिकार होने या दुर्घटना में मारे जाने या कुछ जाल पफरेब करने पर आर्थिक या अन्य मदद आती है। अत: हमारे समाज को रोजगार के वैकल्पिक रास्ते ढूंढने के साथ स्वरोजगार के प्रयोग करने होंगे। उद्यमिता का विकास हमारी अपरिहार्य जरूरत है। पर्यटन, तीर्थाटन, परिवहन, पर्वतारोहण, वृक्षारोपण, पौधशाला-जड़ी-बूटी कार्य आदि ऐसे रास्ते हैं। लकड़ी-पत्थर, ऊन, धातु आदि से जुड़े कुटीर उद्योग भी ऐसे रास्ते खोलते हैं….. सोद्देश्य और उदार शिक्षा कितने ही रास्ते खोल सकती है।

महिलाओं की स्थिति बद से बदतर हो रही है जबकि उत्तराखंड की रीढ़ की हड्डी मानी जाने वाली महिलाऎं राज्य निर्माण से बोझ कम होने की उम्मीद कर रही थी, फिर कैसे होगा हमारी ग्रामीण माता-बहिनों का कष्ट दूर?

महिलाओं की स्थिति अच्छी चाहे न हो सकी हो, पर बद से बदतर नहीं हुई है। वे अभी भी सबसे ज्यादा लड़ रही हैं। उन्हें राजनैतिक दल और शराब लॉबी कभी-कभी इस्तेमाल भी कर रहे हैं पर वे सतत: संघर्षरत हैं। राजधानी, नशाबन्दी, भ्रष्टाचार विरोध, मुजफ्फरनगर काण्ड, हर मामले में वे ही आगे आई हैं। महिलाओं का भार अलग से कम नहीं होगा। एक सुव्यवस्था में ही यह संभव है।

पहाड़ी लोग भगवान का डर होने से, गलत काम नही करते थे, ईमानदारी हमारा एक महान गुण माना जाता है फिर उत्तरांचल सरकार में इतने बड़े स्तर पर घूस-खोरी, भ्रष्टाचार की खबरें आती हैं आपकी टिप्पणी ?

पहाड़ों में भी देश के अन्य हिस्सों की तरह आम लोग ईमानदार होते हैं। पहाड़ी क्षेत्रों में ईमानदारी अनेक कारणों से कुछ ज्यादा अवश्य होती है, पर बेईमानों और दलालों से भी यह क्षेत्र कभी मुक्त नहीं रहा। जब अधिकांश लोग राजनीति तथा प्रशासन में सेवा हेतु नहीं सिर्फ कमाई हेतु जा रहे हों तो भ्रष्टाचार होगा ही। हम आम जनता के रूप मैं इसमें कभी-कभी योगदान देते हैं और हमारा एक हिस्सा प्रतिकार भी करता रहता है। समाज ऐसे ही चलता है। फिलहाल किसी समाज का हर सदस्य ईमानदार नहीं हो सकता है। एक प्रकार से सत्ता की बेईमानी भी समाज की मन:स्थिति का प्रतिबिम्बन है। पर कुछ बेईमानियॉ सरकार की पूरी तरह से अपनी हैं। पिछले 56 साल से शोध तथा प्रयोगों हेतु चल रहे सरकारी बगीचे बेच डालना ऐसा ही उदाहरण है। अत्यधिक सरकारी अपव्यय इसका दूसरा उदाहरण है। अस्थाई राजधानी देहरादून के विकास के नाम पर जो रुपया फूंका जा रहा है, वह तीसरा उदाहरण है। भ्रष्टाचार के अनेकों उदाहरण सरकार के स्तर पर सामने आ चुके हैं। डी.जी. पुलिस का बदलना, जिलाधिकारी का सस्पैण्ड होना या एस.डी.एम. का गिरफ्तार होना जैसे उदाहरण यह बताते हैं कि जो नहीं नजर आ रहा है वह भ्रष्टाचार कितना बड़ा है।

एम.एस. मेहता /M S Mehta 9910532720

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गाँव में आधारभूत सुविधाओं के बाबत आप बताऎं कि यात्रियों ने क्या पाया ?

अधिकांश गांवों में आधारभूत सुविधांए नहीं हैं। प्राइमरी स्कूल अधिकांश गांवों में हैं पर अध्यापक और पढ़ाई अनिवार्य रूप से वहां स्थापित नहीं हो सकी हैं। अस्पताल, एएनम केन्द्र, पशु-अस्पताल, प्रौढ़ शिक्षा केन्द्र, सड़क-पुल जैसे साधन नहीं हैं। अनेक जगह सुविधाएं पहुँची हैं, स्कूलों की हालत बदली है, बिजली पहुँची है या सड़क-पुल भी हैं। मुख्य सवाल यह है कि जहां कुछ नहीं है, वहां कम से कम प्रारम्भिक जरूरतें ले जाने को प्राथमिकता तो देनी होगी। पर औपचारिक नहीं युद्ध स्तर पर।

अभियान के पिछ्ले 30 सालों का तुलनात्मक अध्ययन क्या किसी दस्तावेज़ के रूप में उपलब्ध है ?

दस्तावेज तो अब बनना शुरु होगा जब सारी यात्राऎं पूरी होगी। अभी ऐसी रिपोर्ट्स उपलब्ध नहीं हैं पर हम सभी होमवर्क में जुटे हैं।

अभियान से प्राप्त आँकड़ों और सामग्री का उत्तरांचल सरकार कैसे प्रयोग कर सकती है यदि सरकार अभियान द्वारा सुझाए बिन्दुओं पर कुछ ना करे, तो क्या आप किसी जन-आन्दोलन द्वारा सरकार पर दबाव डालेंगे ?

हम अपनी रिपोर्ट सरकार और सभी जन-प्रतिनिधियों को तो भेजेंगे ही। समझदार सरकार, प्रशासन और जन-प्रतिनिधि मीडिया से भी बहुत चीजें जान सकते हैं। अगर उन्होंने चाहा तो दृश्य-श्रव्य माध्यम से उन्हें दूरस्थ उत्तराखण्ड का हाल भी दिखाऐंगे। सरकार यदि कुछ नहीं करती है तो लोग स्वयं आन्दोलन करेंगे। हम उनके संघर्ष का हिस्सा रहेंगे।

आपको नहीं लगता है की ग्रामीण जनता भी किसी हद तक गाँवों की ख़स्ता हाल के लिए और आपसी मनमुटाव ,कुंठा ,जलन आदि के लिए ज़िम्मेदार है ?

गांवों की अपनी दिक्कतें हैं। उनकी सादगी और संघर्षशीलता के बीच अभी भी कुछ सामन्ती मानसिकता बची हुई है। जैसे दलितों के प्रति दृष्टिकोण पिछले तीस सालों में बहुत बदलने के बाद भी पूरी तरह नहीं बदला है। ऐसे ही महिलाओं के प्रति समाज का औसत दृष्टिकोण बहुत पिछड़ा है। लेकिन अपनी दु:खद स्थिति के लिए वे अकेले जिम्मेदार नहीं हैं। अनेक जगह लोगों ने प्रगतिशीलता और प्रयोगधर्मिता के उदाहरण दिये हैं। राजनैतिक झण्डों ने भी लोगों को बाँटने में योगदान दिया है पर उस पर लोगों ने अपनी समझ से नियन्त्रण रखा है। इस बार हमें कुछ स्थानों पर संसदीय चुनाव में कांग्रेस और बी.जे.पी. के पोस्टर एक साथ चिपके दिखे। पूछने पर बताया गया कि इन दोनों दलों में से एक के प्रतिनिधि को जीतना है। यदि दरवाजे पर सोनिया जी और अटल जी चिपके हैं तो क्या फर्क पड़ता है? एक सत्तारूढ़ होगा और दूसरा प्रतिपक्ष में। हमें गांव में क्यों मनमुटाव करना है!

उत्तराखंड की साक्षरता दर देश की तुलना में ऊँची है फिर नेता लोग, चाहे वह एम पी हो अथवा ग्राम-प्रधान, कैसे विकास कार्या का पैसा हड़प कर जाते हैं . क्यों पूरा का पूरा पैसा गाँवों तक नहीं पहुँचता. क्या अभियान के दौरान आप लोगों ने ग्रामीणवासियों, युवाओं को इस गंभीर विषय पर ललकारा?

उत्तराखण्ड की साक्षरता की दर कितनी ही ऊँची हो और देश में साक्षरता में चाहे हम सातवें नम्बर पर हों पर अभी 40 प्रतिशत महिलाएं और 20 प्रतिशत पुरुष निरक्षर हैं। दूरस्थ क्षेत्रों में यह प्रतिशत ज्यादा हो जाता है। हमारे मुख्य अभियान दल के मार्ग के गांवों में महिला साक्षरता 20-40 प्रतिशत तक नीचे भी जा सकती है। ईमानदारी के लिए साक्षरता जरूरी नहीं है। अनपढ़ भी ईमानदार या संघर्षशील होते हैं, यह बार-बार सिद्व हुआ है। लेकिन शिक्षा भी हमारी अपरिहार्य आवश्यकता है। गाँव तक पैसा या विकास नहीं पहुँचाना एक तो हमारी प्रतिबद्वता के झीलेपन का संकेत है और दूसरा हमारे पास प्राथमिकताओं की समझ के न होने के। हमारी हर सभा या बातचीत में यह ललकार मौजूद रहती थी कि आप भी अपनी इस स्थिति के लिए जिम्मेदार हैं। जहां संघर्ष से बदलाव दिखे जैसे धारचुला, मुनस्यारी, कर्मी, रैणी, मण्डल, उखीमठ, उत्तारकाशी या अन्यत्र, उसे हम सर्वत्र उदाहरण के रूप में प्रस्तुत करते थे। जो समाज सकारात्मक परिवर्तन के लिए खुद बैचेन नहीं, उसे क्रान्तिकारी सरकार भी नहीं बदल सकती है। बदलाव के बीज समाज से ही अंकुरित होने चाहिए और फिर वे सरकार / व्यवस्था को ठीक मार्ग में चलने का दबाब देते हैं।

एम.एस. मेहता /M S Mehta 9910532720

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ग्रामीण जनता शराब, वन ,भूमि तथा अन्य माफ़ियाओं से कैसे निबट सकती है?

माफियाओं से ग्रामीण जनता निपटने का रास्ता उस द्वन्द्व से निकाल लेती है जिसमें वह विकसित हो रही होती है। हमारे जैसे समूह या अभियान उन्हें सही वस्तुस्थिति से अवगत कराकर अपना योग दे सकते हैं।

यदि सरकारी हस्तक्षेप नही हुआ, तो उत्तराखंड के ग्रामवासी कब तक हताश और बेबश बैठे रहेंगे? क्या आपके लगता है कि जागरूक जनता, प्रथक राज्य जैसा कोई बड़ा आंदोलन करे? यदि हाँ तो कब तक?

असंतोष की पराकाष्ठा आन्दोलन को जन्म देती है। सिर्फ भावना से यह संभव नहीं है। विचार, संगठन, समझदारी और जनता के प्रति प्रतिबद्वता इसे आगे ले जाते हैं। संकुचित क्षेत्रीयता कहीं नहीं ले जाती है। जन-आन्दोलन की भविष्यवाणी जरा कठिन होती है। 1974 में हमारी यात्रा में “चिपको” के विचार बह रहे थे। 1984 में अभियान दल "नशा नहीं रोजगार दो" आन्दोलन की ऊर्जा का प्रसार भी कर रहा था। 1994 में नये राज्य की लड़ाई का विचार सर्वत्र था, लेकिन 2004 में इन्तजार है नये राज्य के द्वारा कुछ अच्छा किये जाने का। कोई समाज बहुत दिन तक किसी का इन्तजार भी नहीं करता है। जब हमारे संग्रामी पूर्वज 1917-18 से गांधी जी से कुमाऊँ आने और बेगार की कुप्रथा हटाने की प्रार्थना कर रहे थे तो कोई यह नहीं समझता था कि 1921 में यहाँ की ग्रामीण जनता एक ही झटके में अपने दम पर बेगार का उन्मूलन कर देगी। गांधी अन्तत: 1929 में कुमाऊँ आकर इसे रक्तहीन क्रान्ति कह गये।हमें अपनी जनता की क्षमता और शक्ति पर विश्वास है। हमें एक रचनात्मक और सर्वथा नये नेतृत्व का भी इन्तजार है। वर्तमान उत्तराखण्ड में कोई एक संगठन, दल, व्यक्ति या विचार एक करोड़ लोगों की आकांक्षा समझने में सक्षम नहीं है। जिन लोगों को अभी जनता ने संसद या विधानसभा में भेजा है उनमें से बहुत कम ने यह सिद्व किया है कि वे 45 शहादतों, दर्जनों बलात्कारों, हजारों गिरफ्तारियों और एक शताब्दी लम्बे संघर्ष के बाद मिले राज्य के जन-प्रतिनिधि हैं।
(इस बातचीत को पहाड़ की वेबसाइट से साभार लिया गया है)

एम.एस. मेहता /M S Mehta 9910532720

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Rajiv Lochan Sahअस्कोट-आराकोट अभियान 1974...1984....1994....2004....जिन्होंनेे न सिर्फ बहुत से लोगों का नजरिया बदला, बल्कि कुछ की तो पूरी जिन्दगी ही बदल डाली और पहाड़ में बड़े बदलावों की जमीन तैयार की....के क्रम में मई-जुलाई 2014 में होने वाली यात्रा की पहली तैयारी बैठक चल रही है। शेखर पाठक, कमल जोशी, गिरिजा पांडे, अनूप साह, जीवन सिंह मेहता, गीता गैरोला, माथुर दम्पत्ति (प्रमोद व नीलिमा), उमा भट्ट, शीला रजवार, बसंती पाठक , प्रकाश उपाध्याय, रघुवीर चंद, तरुण जोशी, पूरन बिष्ट, भास्कर उप्रेती, समीर रतूड़ी प्रभृति विद्वान, आन्दोलनकारी और समाजसेवी यात्रा का पथ तय करने, पुस्तिकाओं- पोस्टरों- फिल्मों आदि का सृजन करने तथा संसाधनों की व्यवस्था करने आदि विषयों पर मंथन कर रहे हैं....Like ·  · Share · 15 minutes ago ·

पंकज सिंह महर

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इस अभियान से पहाड़ के लोगों की पीड़ा मोटी-मोटी किताबों में सजी-धजी और देश-विदेश के नास्टेलिजियाई पहाड़ियों तक पहुंची, ऊंचे-ऊंचे दाम पर, फिर वे पहाड़ी शाम को लान में अंगीठी जलाकर व्हिस्की की चुस्कियां लेते-लेते इन्हें पढते हैं। चनुली की व्यथा किताब में छपकर अमेरिका तक पहुंची और वहां के पहाड़ियों के ठेसुवे बहा आई, लेकिन चनुली आज भी रोड़ी ही फोड़ रही हैं, इन किताबों से मिले दाम बड़े-बड़े पुरस्कार खरीदने के काम आये।

 

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