Uttarakhand > Uttarakhand History & Movements - उत्तराखण्ड का इतिहास एवं जन आन्दोलन
Askot-Aarakot Movement - अस्कोट-आराकोट अभियान
एम.एस. मेहता /M S Mehta 9910532720:
Dosto,
We are posting here a interview of Askot and Aarakot movement which is conducted after every 10 years to study the various changes in Himalayan areas..
We are posting Interview of Padam Shree Dr Shekhar Pathak's in this forum through which you will come to know the objective askot* Arakot movement.
शेखर पाठक को जानने वाले उन्हें इन्साइक्लोपीडिया ऑफ हिमालया भी कहते हैं. क़रीब चालीस सालों से उत्तराखंड के जनआंदोलनों का हिस्सा रहे शेखर पाठक एक बड़े घुमक्कड भी हैं. उन्होंने हिमालयी इलाक़ों की लंबी-लंबी और कठिन यात्राएं की हैं. ऐसी ही एक यात्रा का नाम है अस्कोट-आराकोट अभियान. दस साल के अंतराल के बाद होने वाली इस यात्रा में एक हज़ार किलोमीटर से भी ज़्यादा लंबे पहाड़ी इलाक़े को पैरों से नापा जाता है. साल दो हज़ार चार में इस अभियान के दौरान कुछ दिन मुझे भी उनके साथ उत्तराखंड के दुर्गम इलाक़ों को देखने-समझने का मौक़ा मिला. प्रस्तुत बातचीत में शेखर पाठक उसी यात्रा के बारे में बता रहे है.
अस्कोट-आराकोट अभियान का मूल उद्देश्य क्या है ?
अस्कोट-आराकोट अभियान का मूल उद्देश्य अपने गांवों को तुम जानो, अपने लोगों को पहचानो है। इसका उद्देश्य उस विचार को फैलाना भी है जो हम अपने क्षेत्र, इस देश और दुनियां के लिए सबसे उपयुक्त समझते हैं। यह हमारे 1984 में रचित गीत से भी प्रकट होता है। यह है जनता, जन संसाधनों और जनसंस्कृति की हिफाजत। इस हेतु समझ बढ़ाना और संघर्ष करना।
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M S Mehta
एम.एस. मेहता /M S Mehta 9910532720:
अभियान के बाबत आपने सबसे पहले कब जाना या सोचा ?
1971 से 1974 तक हम लोग अल्मोड़ा कॉलेज के छात्र थे। इसी तरह हमारे हमउम्र युवा नैनीताल, पिथौरागढ़, पौड़ी, श्रीनगर, टिहरी आदि में पढ़ रहे थे। हम अनेक लोग विश्वविद्यालय स्थापना के आन्दोलन के साथ थे। 1972 में पिथौरागढ़ में गोली चली थी और दो नौजवान गोली से मारे गये थे। अल्मोड़ा के छात्रों ने पिथौरागड़ से अल्मोड़ा जेल में लाये गये छात्रों को बिना शर्त छुड़ाया था। हम स्थानीय मामलों में भी दिलचस्पी लेते थे। जैसे पानी की दिक्कत, मूर्तियों की चोरी और फिर जंगल का प्रश्न। 1973 में अल्मोड़ा कॉलेज के 5 छात्र पिण्डारी ग्लेशियर होकर आये थे और पहली बार दानपुर इलाके में जाकर हमें पता चला कि जिन गांवों से हम आये हैं, उनसे बहुत पिछड़े और वंचित गांव हमारे यहां मौजूद हैं। इस यात्रा से लौटकर मैंने एक लेखमाला स्थानीय ‘शक्ति’ साप्ताहिक में लिखी। इसी समय सुन्दरलाल बहुगुणा अपनी 120 दिन की यात्रा में उत्तराखण्ड में घूम रहे थे। कहीं उन्हें ‘शक्ति’ का वह अंक मिला, जिसमें मैंने अमेरिकी चिन्तक हर्बर्ट मारकूज की प्रसिद्व किताब ‘वन डाईमैन्शनल मैन’ को उद्घृत करते हुए लिखा था कि “मनुष्य एक दिन तकनीक का इतना गुलाम हो जायेगा कि उसके पास शुद्व प्राकृतिक क्षेत्र बहुत कम रह जायेंगे”। यह बात बहुगुणा जी को हमारी ओर खींच लाई। वे हमारी खोज हमारे गांव गंगोलीहाट और पिथौरागढ़ में भी करते रहे। उन्हें बताया गया कि मैं जाड़ों की छुट्टियों में भी अल्मोड़ा में हूँ तो वे जनवरी 1974 में अल्मोड़ा आये। उन्होंने श्रीनगर और टिहरी से कुँवर प्रसून तथा प्रताप शिखर को भी बुला लिया। इस तरह शमशेर और मेरी बहुगुणा जी, प्रसून तथा शिखर से मुलाकात हुई और गर्मियों की छुट्टियों में अस्कोट-आराकोट यात्रा करने का निर्णय हुआ। इस यात्रा में बहुगुणा जी, कुँवर प्रसून, प्रताप शिखर, विजय जड़धारी, शमशेर बिष्ट, हरीश जोशी, राकेश मोहन, भुवनेश भट्ट, भुवन मानसून, राजीव नयन बहुगुणा सहित कुछ और छात्र / युवक शामिल हुए। फिर चिपको आन्दोलन के साथ यह क्रम 1975 के बाद निरन्तर चलता रहा, जिसमें दर्जनों छात्रों / युवाओं ने विभिन्न क्षेत्रों की यात्राएं कीं। हाँ, 10 साल बाद जब अस्कोट-आराकोट अभियान 1984 का आयोजन हुआ तो यह ‘पहाड़’ का आयोजन था और तमाम संस्थाएं तथा व्यक्ति इसमें हिस्सेदार थे। हम इसे और गहरी, और अधिक हिस्सेदारी वाली यात्रा बनाना चाहते थे। अत: हमने एक तो अस्कोट से पांगू तक का हिस्सा इसमें जोड़ा, दूसरा अस्कोट से आराकोट तक के मार्ग में भी कुछ अन्तरवर्ती क्षेत्र जोड़े। जैसे बदियाकोट से हिमनी, घेस, बलाण , बलाण से बेदिनी बुग्याल, वहां से वान, कनौल, सुतौल आदि होकर रामणी, रामणी से ढाक तपोवन या घुत्तु से कमद आदि। सर्वेक्षण हेतु फार्म तैयार किये गये और उस मार्ग, क्षेत्र या गांवों की उपलब्ध जानकारी यत्र-तत्र से जमा की ताकि उन्हें समझने का कोई संदर्भ बिन्दु हमारे पास हो। यह क्रम 1994 में भी बना रहा। हाँ, हिस्सेदारी बढ़ती गयी। इसके साथ ही मित्र संस्थाओं ने 1984 तथा 1994 में अनेक मार्गों में छोटी-छोटी यात्राएं कीं। जिससे अन्य अनेक क्षेत्रों की वास्तविकता भी सामने आयी। 2004 में यह क्रम और आगे बढ़ रहा है। जनवरी 2005 तक उत्तराखण्ड के विभिन्न क्षेत्रों में अनेक यात्राएं हो चुकी होंगी और इस क्रम की अन्तिम यात्रा जनवरी 2005 में कालसी ;डाकपत्थर से बरमदेव ;टनकपुर तक होगी।
सबसे पहली यात्रा के दौरान, आप 24 वर्षीय एक विद्यार्थी थे, तो आपके कैसा अनुभव प्राप्त हुआ था? आपने यात्रा से लौटने के बाद, अपने कैरियर तथा उत्तराखंड के भविष्य के बारे मैं क्या सोचा?
1974, 1984, 1994 या कि 2004 की यात्रा हर हिस्सेदार की तरह मुझे भी उत्तराखण्ड की ज्यादा गहरी समझ देती रही। इन यात्राओं ने हमें पहले पहाड़ों में रोका और फिर निरन्तर सक्रिय रहने का दबाब दिया। ये यात्राएं व्यक्तिगत यश हेतु न थीं पर इन्होंने हम सबको निश्चय ही योग्य और समझदार ही नहीं बनाया बल्कि संवेदनशीलता और रचनात्मकता भी हममें विकसित की। उत्तराखण्ड के बारे में हम सिर्फ किताबी बातें नहीं करते हैं।
एम.एस. मेहता /M S Mehta 9910532720:
आज आप एक विश्वविद्यालय के प्राध्यापक के रूप मैं अभियान का नेतृत्व कर रहे थे. आपको कैसी अनुभूति होती है
2004 के अभियान का दरअसल मैं नेतृत्व नहीं कर रहा था। यह तो पहाड़ की टीम कर रही थी और तमाम सहयोगी कर रहे थे। इतना जरूर था कि मैं चारों यात्राओं में हिस्सेदार था और 84, 94 तथा 2004 में तो प्रारम्भ से अन्त तक रहा था। अत: यह तथ्य जरा सा अतिरिक्त संतोष देता था। लेकिन इस ‘मैं’ में ‘हम’ सभी मौजूद थे। 1974 में बहुगुणा जी साथ थे तो 1994 में चण्डीप्रसाद भट्ट जी और 2004 में 1974 के यात्री प्रसून तथा शमशेर का आना भी एक सुखद अनुभव था।
आप लगभग 50 दिन अपने विश्वविद्यालय से दूर रहे तो आपने अपनी कितनी छुट्टियां इस अभियान को समर्पित की? मेरा मतलब कि क्या विश्वविद्यालय ने इसे अध्ययन के उद्देश्य से ओफिसियल घोषित किया या फिर आपकी छुट्टियां लेनी पड़ी?
1984, 1994 तथा 2004 की यात्राएं मैंने पी.एल. (विशेषाधिकार अवकाश) लेकर की। सौभाग्य से इस अवधि में गर्मियों का अवकाश भी पड़ता है तो ज्यादा दिक्कत नहीं होती है। विश्वविद्यालय से कोई अध्ययन अवकाश इस हेतु नहीं लिया गया। सामान्यतया विश्वविद्यालय के डीन आदि ऐसी यात्राओं का महत्व नहीं समझ पाते हैं और अनेक तो अच्छी धनराशि वाले प्रोजेक्ट से आगे का सपना भी नहीं देखते हैं। इसीलिए हमारे विश्वविद्यालय उतने जीवित नहीं लगते जितना कि इनको सामान्यतया होना चाहिए था।
एम.एस. मेहता /M S Mehta 9910532720:
30 वर्ष बाद, आपने बिना यात्रा-मार्ग बदले, निर्धारित समय-सीमा में 1,000 किलोमीटर से अधिक की यात्रा तय की, क्या यह थकाने वाली ना लगी ?
थकान तो होती ही थी। रोज 25-30 किमी. चलना। मंखदुवा (मांग कर खाने वाले) होने से भोजन व्यवस्था किंचित अव्यवस्थित होती थी। लेकिन जिस तरह आम लोगों तथा मित्रों ने अभियान में हिस्सेदारी की, उसमें हम थकान भूल गये। कुंवारी-पास पार करने के दिन हम पाणा से ढाक-तपोवन तक 38-39 किमी. चले। बीच में कोई बसासत नहीं है। अनेक दिन हमें 30-35 किमी. भी चलना पड़ा। डैन जैन्सन, नीरज पन्त तथा मैं आदि से अन्त तक अभियान में रहे। रूप सिंह धामी छोरी बगड़ ;जिला पिथौरागड़ की गोरी घाटी में स्थित गांव से अन्त तक रहे। रघुबीर चन्द तथा गिरिजा पाण्डे गोपेश्वर से नौगांव ;उत्तरकाशी तक छोड़ पूरी यात्रा में रहे। 15-20 साथी 20-25 दिन तक साथ रहे। बांकी 150 से ज्यादा साथियों पर ज्यादा दबाव नहीं था क्योंकि वे कुछ दिन या हफ्तों तक साथ रहे। इस यात्रा की थकान साथियों की मुस्कान नहीं घटाती थी, क्योंकि हरेक कुछ न कुछ सीख और जान रहा था। 30 से 45 दिन तक अभियान में रहने वालों का भार 5 से 10 किलो तक अवश्य घटा था पर गंभीर बीमार कोई नहीं पड़ा।
यात्रा के दौरान किन किन मुश्किलों का सामना करना पड़ा ? यह यात्रा नंदादेवी राजजात यात्रा से कैसे भिन्न है ?
मुश्किलें तो हमने ही अपने लिये खड़ी की थी कि भोजन, आवास तथा किसी भी अपरिहार्य आवश्यकता हेतु जनता पर निर्भर रहना होगा। यात्रा की गहराई इसी सूत्र से जुड़ी थी वर्ना हम भी सामान्य ट्रेकर (पथारोही) हो जाते। हमारे लोग क्या खा-पी रहे हैं, क्या उगा-बेच रहे हैं, क्या बना-पहन रहे हैं, क्या पढ़-लिख रहे हैं, क्या सोच रहे हैं, इस सब के लिए यह जरूरी था।नन्दा देवी राजजात तो एक दूसरी ही तरह की यात्रा थी। सांस्कृतिक उल्लास से भरी हुई। रूपकुण्ड से आगे उसका मार्ग भी कुछ कठिन कहा जा सकता है पर उसमें कम से कम वाण ;बेदिनी बुग्याल तक और उस तरफ सुतौल से नीचे यात्री गाँवों से होकर जा रहे हैं। आप टैंट, कुली, भोजन-सामग्री तथा गैस साथ लेकर भी जा सकते हैं। दुकानें भी साथ में हैं। आप पैसे का इस्तेमाल भी कर सकते हैं। यह सब अस्कोट-आराकोट अभियान में वर्जित था।
आजकल इस तरह के आयोजन, बिना सरकारी सहायता अथवा प्रायोजक/ स्पोंसरशिप के बिना संभव नही, फिर आपने बिना आर्थिक सहायता के ये काम कैसे किया? 1974 से 2004 तक की यात्राऑं का ख़र्च किसने वहन किया? क्या 2014 मैं आप किसी एम एन सी या उद्योग जगत से पैसा लेंगे? आपकी संस्था “पहाड़” अनुदान क्यों नहीं लेती.
प्रायोजित कार्यक्रमों का तो जमाना है। हम भी कह सकते हैं कि यह अभियान उत्तराखण्ड की जनता और हमारे सहयोगियों द्वारा प्रायोजित था। अभियान हेतु प्रश्नावली, पुस्तिकाएं, पोस्टर आदि अनेक संस्थाओं तथा मित्रों ने मिलकर तैयार किये थे। युगवाणी, सहारा समय सहित अनेक प्रतिष्ठित पत्रों ने यात्रा पर अग्रिम ही विशेषांक निकाल दिये थे या विशेष लेख दिये थे। बी.बी.सी. आदि ने भी अभियान की चर्चा फैलाने में योगदान दिया। नैनीताल से पांगू तथा आराकोट से देहरादून या गन्तव्य स्थलों तक भी हमें लोगों के सहयोग ने ही पहुँचाया। हाँ, कैमरे की रील या कैसेट हमें कुछ मित्रों ने दी। कैमरे व्यक्तिगत रूप से लाये गये थे। पहाड़ ने बैनर, पोस्टर, पुस्तिका प्रकाशन, पत्राचार आदि का काम सदा की तरह किया। दिल्ली में श्री चंदन डांगी ने और नैनीताल में श्री पूरन बिष्ट आदि ने एक प्रकार से प्रैस प्रचार का कार्य किया। हाँ, सरकार और उद्योग जगत की स्पॉनसरशिप में हमारी रुचि नहीं थी। ऐसा काम तो सभी कर ही रहे हैं। और इस तरह के अनुदानों के लिए लाईन लगी ही है। हम पेप्सी की शर्ट पहन कर यात्रा नहीं कर सकते थे। अनुदान के दम पर कोई अपने लोगों तक जाय तो यह शर्मनाक है। हमारी आशा है कि 2014 की यात्रा भी जनाधारित होगी तब निश्चय ही दुर्गमता कुछ घट जायेगी और हो सकता है कि और भी ज्यादा हिस्सेदारी इसमें होगी। भविष्य के अभियानकर्ता हमसे ज्यादा व्यवस्थित होंगे।पहाड़ अनुदान इसलिए नहीं लेता क्योंकि अनुदान आपको किसी न किसी तरह और कभी न कभी झुकाता है। कमजोर करता है। हमारे मित्रगण और पहाड़ के सदस्य हमें मदद देते हैं। पहाड़ अपने अनेक काम सदस्यता और प्रकाशनों की बिक्री से करता है। इस अभियान हेतु भी ऐसा ही किया।
एम.एस. मेहता /M S Mehta 9910532720:
गाँव-गाँव पहुँच अभियान दल ने किस प्रकार की जन-जाग्रति प्रस्तुत की और कैसे परिणाम पाए?
पहाड़ के अभियान शेष पहाड़ के हाल दूरस्थ गाँवों में बताते हैं और वहां के शेष उत्तराखण्ड या देश में। अभियान दल के सदस्य कभी शिक्षक और कभी विद्यार्थी होते हैं। जितना सिखाते हैं उससे ज्यादा सीखते हैं। गाँव चेतना शून्य नहीं होते हैं। हम सिर्फ चेतना के द्वीपों को जोड़ने का जतन करते हैं। हमारे पास तुलना के भी संदर्भ बिन्दु थे कि 10, 20 या 30 साल में जब दुनिया, दिल्ली या देहरादून इतना बदल गया है, ये गाँव क्यों अत्यन्त जरूरी चीजों से भी वंचित हैं। सब बातों के बाद सर्वेक्षण के बाद भी हम गांवों में यही कहते थे कि हमारी यात्रा से आप के गाँव नहीं बदलेंगे। वे बदलेंगे आप के संगठन, साहस और सामुहिकता के समझदारी भरे प्रयोगों से।
यात्रा के दौरान, आपको प्रशासन की क्या मदद प्राप्त हुई?
प्रशासन से मदद की अपेक्षा नहीं की गयी थी। अभियान को उत्तरांचल के मुख्य सचिव द्वारा महत्व का माना जाने और जिलाधिकारियों तथा वनाधिकारियों को पत्र डालने के कारण कुछ स्थानों पर उनके माध्यम से सरकारी कार्यक्रमों को जानने/ देखने का मौका मिला। वन विभाग के दूरस्थ इलाकों में कार्यरत् कर्मचारियों से भी सम्पर्क हुआ। लेकिन सबसे ज्यादा आश्चर्य टिहरी के जिलाधिकारी पुनीत कंसल का घुत्तू जैसे दूरस्थ स्थान में पहुँच कर अपने जिले के बाबत हमारे अनुभव जानने हेतु पहुँचना था। ऐसे ही चार घण्टे के लिए ही सही यमुनोत्री के विधायक प्रीतम सिंह पंवार का हमारे साथ चलना था। वे वरूणावत भूस्खलन की बैठक के कारण जाने को मजबूर थे। आराकोट में श्री आर. एस. टोलिया द्वारा अभियान के अनुभवों को अनेक लोगों के माध्यम से सुनना भी अनेकों को सुखद आश्चर्य की तरह लगा।
क्या कोई सरकारी सहायता मिली ?
सरकारी सहायता का कोई प्रश्न न था। और तो और, अपने स्थानों से पांगू तक और आराकोट से हमारे घरों तक हमें मित्रों ने ही भेजने की व्यवस्था की।
गाँव वालों का कैसा बर्ताव रहा ?
गाँव वालों ने सिद्व किया कि वे गरीबी-गर्दिश में चाहे हों, विकास के स्पर्शों से वंचित हों और पिछड़े ही क्यों न कहे जाते हों पर मनुष्यता, सामुहिकता और संवदेना उनमें आज भी भरपूर है। उनकी स्मृति भी हम बुद्विजीवियों, नेता-नौकरशाहों के मुकाबले ज्यादा थी। उन माताओं, बहनों और भाइयों-बच्चों को हम क्या कभी भूल सकेंगे जिन्होंने हमें अपने परिवार में शामिल ही कर लिया। शिक्षकों और ग्रामीण कर्मचारियों द्वारा जो सहयोग मिला, वह भी सदा याद रहेगा।
गाँवों की ख़स्ता हालत के बारे मैं कुछ पत्र पत्रिकाओं से ज्ञात हुआ की विकास के नाम पर नव-गठित राज्य में कुछ भी नयापन नही आया. आपने क्या पाया?
नये राज्य में ज्यादा गहरा और प्रभावशाली काम अभी कुछ हुआ ही नहीं है। दूरस्थ इलाकों में कोई प्रभाव जाने में और भी देर लगती है। देहरादून, नैनीताल या हरद्वार-हल्द्वानी की आपाधापी भी वहां नहीं पहुँची है। ऐसा कुछ हो नहीं सका है जिससे गाँव वाले नये राज्य की नयी हवा अनुभव कर सकें। पर वे कहीं भी नाउम्मीद नहीं हुए हैं। वे हमारे मुकाबले नये राज्य से ज्यादा ही आशावान थे और जरूरत पड़ने पर संघर्ष में शामिल होने को तैयार थे। दूरस्थ इलाकों में महिलाओं, दलितों और युवाओं का ग्रामीण नेतृत्व में उभरकर आना एक सुखद बात है। यद्यपि अभी सबको अपनी भूमिका की अर्थवत्ता पता नहीं है। अनके स्थानों पर महिलाओं और युवाओं ने प्रेरक कार्य किये हैं जो शिक्षा, वृक्षारोपण, सब्जी उत्पादन, कुटीर उद्योग, जड़ी-बूटी उत्पादन आदि से जुडे हैं।
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