श्र(ांजली: बाबा उत्तराखण्डी
बलिदान तो देना ही होगा
श्र(ांजली: बाबा उत्तराखण्डी
‘सूबे के जिन लोगों के दिलों में मां की अस्मिता के प्रति चिनगारी नहीं भड़कती, उफान नहीं
आता व जरा भी शर्म नहीं है, वो नपुंसक हैं, वे मां के दलाल हैं और दलालों को उत्तराखंड की
जनता कभी माफ नहीं करती।’ -बाबा उत्तराखण्डी
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By - बसंत शाह ‘कुसुमाकर’ (Regional Reporter)
जून की एक दोपहरी को जब मैं आदिबदरी पोस्ट ऑफिस के आगे खड़ा था, तो वहां एक गैरिक वस्त्रों वाले सज्जन आ पहुंचे और मेरा नाम ले कर पता पूछने लगे। उन्हें प्रणाम करते हुए जब उनका परिचय पूछा, तो अपना भारी भरकम झोला कन्धे से पीठ की तरफ धकेलते हुए और अपने चेहरे को बिखरी हुई लटों से अनावृत्त करते हुए बोले कि, पत्रकार पुरुषोत्तम असनोड़ा जी ने आपसे मिलने को कहा है। तब तक मुझे मालूम नहीं था कि मैं किसी बड़े आन्दोलनकारी उत्तराखण्ड के हितों के प्रबल हिमायती बाबा ‘मोहन उत्तराखण्डी’ से बातें कर रहा हूं। मैं तुरन्त उन्हें अपने घर में ले आया और उनसे उनका परिचय पाते ही उनकी बातों में डूब गया। उनकी बातों का ऐसा सिलसिला शुरू हुआ कि मुझे लगा कि मेरे और मेरे घर के अन्दर उत्तराखण्ड का सारा दुख-दर्द पसर गया है। कितने सारे दर्द थे बाबा के दिल में? उत्तराखण्ड के बेरोजगार युवाओं का दर्द, दिन-रात खेतों व जंगलों में खटने वाली पहाड़ी नारी का दर्द, सुदूर ग्रामीण क्षेत्रों के पिछड़ेपन का दर्द और न जाने कितनी पीड़ा इस राज्य के प्रति। मुझे लगा बाबा के दुख दर्दों की गठरी इतनी भारी हो चली थी कि वे उसे अब सर से उतार कर खुद को व उत्तराखण्डियों को हल्का करना चाहते थे। इस दर्द को हमेशा गैरसैंण के सन्दर्भ में जोड़ते हुए वे राजधानी के लिए अपने संघर्ष को रेखांकित करते चले जाते। जिस बाबा को मैंने प्रथम दृष्टि में हल्के में लिया था वह जुनूनी बाबा अब मेरे हृदय के अंतस्थल में श्र(ा का विस्तार पाकर रम गए थे और श्री आदिबद्रीनाथ जी के मन्दिर में वरद मुद्रा में विराजमान प्रतिमा की तरह स्थापित हो गए थे। बाबा एक महत्वपूर्ण मुद्दे पर मंत्रणा की दृष्टि से मुलाकात करने आए थे। वह मुद्दा था गैरसैंण राजधानी के लिए एक निर्णायक लड़ाई लड़ना। जिसके बारे में शायद पत्रकार पुरुषोत्तम असनोड़ा जी से उन्होंने पहले ही विचार विमर्श कर लिया था। यद्यपि बाबा कई बार इस लड़ाई को दूधातोली, नन्दा ठोंकी, कौन गढ़ व अन्य स्थानों पर लड़ चुके थे किन्तु इस बार की लड़ाई को वे दृढ़ संकल्प के साथ उसके मुकाम तक पहुंचाना चाहते थे। जैसे कि उनके ज़ज्बातों से साफ जाहिर हो रहा था। बाबा का यह संकल्प मुझे इस बात का भी भान करा गया कि राजधानी की बात करने वाले राजनेता व उनके दलों की वैचारिक दिवालियापन की परिणति ने ही उन्हें इस अन्तिम विकल्प को चुनने के लिए प्रेरित किया था। बाबा ने तय कर लिया था कि वे अब एक ऐतिहासिक लड़ाई लड़ेंगे।
बस उन्हें इस लड़ाई को लड़ने के लिए उपयुक्त स्थान की तलाश थी। इसी सन्दर्भ में बाबा ने मुझ से प्राचीन गढ़
नरेशों की राजधानी चांदपुरगढ़ को देखने की इच्छा प्रकट की थी। मैं उन्हें अपने स्कूटर पर बिठा चांदपुरगढ़ किला ले गया। वहां बारीकी से उन्होंने सब कुछ निहारा, आन्दोलन के पहल से हर चीज को परखा। यह 28 जून 2004 की बात है। फिर मैं उनको साथ ले अपने घर लौट आया। सूक्ष्म जल-पान के बाद वे कुर्सी पर बैठ कर मौन हो उनके चेहरे के भावों से साफ दृष्टिगत हो रहा था कि वे अपने अन्दर उठे हुए विचारों के तूफान से खुद को असहज महसूस कर रहे हैं। वे अचानक उठे और छत की तरफ निहारते हुए बोले भाई मेरे बलिदान तो देना ही होगा, वरना बलिदानियों का त्याग बेकार गया। देखो अपने अगले कदम की मैं तुम्हें शीघ्र सूचना दूंगा यह कहकर उन्होंने अपना झोला-झमटा उठाया और हल्के कदमों से सीढ़ियां उतरते हुए विदा हो गए। विद्यालय का नया सत्र शुरू हो गया था। इसलिए मेरी व्यस्तता बढ़ गई थी। इसी व्यस्तता के बीच 3 जुलाई 2004 की सुबह बेनीताल के मेरे परिचित सुबेदार पदम सिंह मेरे स्कूल के कार्यालय में आ धमके और मेरे हाथ में एक पत्र थमाकर बोले बाबा राजधानी के मुद्दे को लेकर बेनीताल टोपटी उड्यार में अनशन पर बैठ गए हैं। मुझे बाबा का आदेश हुआ है कि मैं यह पत्र किसी प्रकार आप तक पहुंचा दूं। सुबह ही उठकर चला आया हूं। मुझे और पुरुषोत्तम असनोड़ा को सम्बोधित इस पत्र की अन्तिम पक्तियां थी, ‘‘अनशन की श्रृखंला में मेरा यह तेरहवां अनशन होगा, जो लक्ष्य-प्राप्ति में मील का पत्थर साबित होगा।’’ उस रोज मैं बेनीताल चाह कर भी नहीं जा सका। समाचार प्रेषण भी महत्वपूर्ण था। दूसरे दिन समाचार-पत्र (अमर उजाला) में आमरण अनशन का समाचार खूब मोटी हेड लाइन के साथ छप गया था। इसी रोज मैं बेनीताल अनशन स्थल पर पहुंचा। 2 जुलाई 2004 से बाबा के अनशन पर बैठने का समाचार पूरे क्षेत्र में फैलते ही दोपहर तक बाबा के समर्थन में वहां भारी भीड़ जुटनी शुरू हो गई थी। अनशन के दो सप्ताह गुजरते-गुजरते यह भीड़ कई गुना बढ़ गई। बेनीताल का शान्त वन क्षेत्र अब एक कस्बे की तरह गुलजार हो गया था। लगातार होने वाली वर्षा से बेनीताल की ढलानों पर हरियाली के गलीचे बिछ गए थे। 15 जुलाई 2004 को झील के किनारे ऐसे ही एक गलीचे पर बैठकर राजधानी निर्माण संघर्ष समिति के गठन हेतु ग्रामीणों द्वारा एक बड़ी बैठक आयोजित की गई। जिसमें
बाबा जी भी शामिल हुए बैठक में संघर्ष समिति के अध्यक्ष पद हेतु मेरे नाम का प्रस्ताव आया, जो सर्वसम्मति से दबोचना चाहती थी और अपने साथ ले जाना चाहती थी, किन्तु वे कभी झांसे में नहीं आए। बाबा अपने साथ हमेशा निवान की शीशी व सल्फास की दस गोलियां रखे रहते थे। उनकी चेतावनी थी कि यदि उन्हें जबरन उठाया गया, तो वो सल्फास निगल कर
अपना प्राणान्त कर देंगे। 3 जुलाई को बाबा ने अपनी डायरी में लिखा था- ‘सूबे के जिन लोगों के दिलों में मां की अस्मिता के प्रति चिनगारी नहीं भड़कती, उफान नहीं आता व जरा भी शर्म नहीं है, वो नपुंसक हैं, वे मां के दलाल हैं और दलालों को उत्तराखंड की जनता कभी माफ नहीं करती।’ एक माह बाद 2 अगस्त 2008 को बाबा अपनी डायरी में लिखते हैं- ‘प्रभु की असीम कृपा से मैं अनशन के 32वें दिन में पहुंच गया हूं एवं प्रफुल्लित महसूस कर रहा हूं। इसी रोज मण्डल मुख्यालय पौड़ी से उत्तराखण्ड राज्य निर्माण की आग भड़की थी। आज प्रातः छप्पर के बाहर कौआ शुभ संकेत दे गया, आज जो भी आएगा शुभ आएगा।’ किन्तु बाबा का शुभ सन्देश लेकर उस रोज कोई भी शासन-प्रशासन का नुमाइन्दा नहीं आया। 8 जुलाई 2004 को रात्रि से ही मेघ झमाझम बरस रहा था। रात्रि से ही सारे गाड़ गधेरे उफान पर थे। आदिबद्री से बेनीताल का 03 किमी. खड़ी चढ़ाई वाला रास्ता घास व झाड़ियों से इतना ढका हुआ था कि उस पर चलना मुश्किल हो रहा था। रास्ते भर जौंक लिपलिपा रहे थे। सारा मार्ग कुहरे व धुंध में गुम था। रास्ता दिखाई तक नहीं देता था, पर मैंने आज बाबा जी से एक अन्तरंग लम्बे साक्षात्कार करने का मन बना लिया था। किसी तरह गिरते पड़ते बेनीताल टोपरी उड्यार पहुंच गया। बाबा अपनी पूर्ववत मुद्रा में बैठे मदन व अन्य ग्रामीणों से बतिया रहे थे। मौसम भयावह हो चला था। बाहर वर्षा और तेज हो गई थी, अन्दर धूनी में गीली लकड़ियां सुलग कर धुंआं कर रही थी। आज बेनीताल के अधिकांश लोग गैरसैंण में आयोजित राजधानी निर्माण के सम्बन्ध में होने वाली बैठक में भाग लेने चल गए थे। बाहर-भीतर सूनापन पसरा था। रह-रह कर कभी कभार बगल में बंधे गाय-बैलों की घण्टियांे के धीमे श्वर उभर कर ध्यान खींचते थे। ऐसे में मैं बाबा से प्रश्न करते चला गया और मेरे हर प्रश्न का उत्तर बाबा ने विस्तार से दिया। अपने पास रखे छोटे से वॉक-मैन पर मैंने उसे टेप कर लिया। मुझे क्या पता था कि, बाबा से होने वाली यह मेरी अन्तिम वार्ता है और बाबा का अन्तिम साक्षात्कार।