आन्दोलन के संदर्भ में लोकेश नवानी जी की एक कविता को उदधृत कर रहा हूं।
लड़ाई
जो लोग उस ओर, अपनी बन्दूकें पोंछ रहे हैं,
बूट उतार धूप सेंकने में मस्त,
शांति का लिबास पहने ठिठोली करते हुये,
तुम्हारे जेहन का डर दूर कर रहें हैं,
ताकि तुम सोये रहो, बजाते रहो चैन की बंसी,
असल में तुम्हारे दिमाग,
निहत्थे किये जा रहे हैं लगातार।
इसलिये मत सोने दो दिमागों को,
डटे रहो मोर्चे पर होने वाले हमले के खिलाफ,
वजूद को नेस्तनाबूद हो जाने के बजाय,
चुनौती दो उनकी अस्मिता को भी,
लड़ाई को चुपचाप उनके हाथों में,
सौंप देने से पहले,
खबरदार रहो, निर्णायक लड़ाई लड़ने के लिये,
लड़ाई हो कर रहेगी!