गोरखा,गोरखयानी
गोरखयानी गोरखा के गढ़वाल पर बर्बर शासन (1803-1815) के लिए गढ़वाली शब्द है। इस शासन काल में अत्यधिक बर्बरता और नरसंहार का बोलबाला था जिसने पंवार वंश की शासन प्रणाली, समृद्धि, अर्थव्यवस्था, मानव संसाधन तथा गढ़वाल की शांति को छिन्न-भिन्न कर दिया।
गोरखा आक्रमण के बाद, राजा प्रधुम्न शाह अपने परिवार के साथ श्रीनगर छोड़कर बाराहर के रास्ते देहरादून भाग गए तथा गोरखाओं ने वहां तक उनका पीछा किया। आखिरी लड़ाई देहरादून में हुई।
श्री फेजर का कहना है कि इस अवसर पर लगभग 12,000 योद्धाओं वाली गढ़वाली सेना कुछ समय तक संघर्ष करने के बाद बिखर गई। राजा प्रद्युम्न शाह युद्द में वीरगति को प्राप्त हुए तथा गोरखाओं ने भारी संख्या में लोगों का कत्लेआम किया। राजा के सबसे छोटे भाई प्रीतम शाह को बंदी बनाकर वे नेपाल ले गए जबकि दूसरा भाई पारकाराम शाह बचकर इंदौर भाग गया।
जनवरी 1804 में लंबे समय से चले आ रहे पंवार वंश के गढ़वाली राज को गोरखाओं ने एकाएक उखाड़ फेंका और तभी से श्रीनगर भी गोरखाओं की राजधानी नहीं रही। कहा जाता है कि गढ़वाली राजाओं के पारिवारिक इतिहास से संबंधित सभी बहुमूल्य दस्तावेजों और अन्य रिकार्डों, जो बीमार राजा द्वारा श्रीनगर में छोड़ दिए गए थे, को गोरखाओं ने नष्ट कर दिया गया तथा बहुमूल्य सामानों को नेपाल ले गए।