सांस्कृतिक जीवन के विविध पक्षों में यह परिपाटी कुमाऊँ में विभिन्न त्येहारों के अवसरों पर आज भी विद्यमान है। यक्ष जाति के अलावा आदि युग में कुमाऊँ में नाग जाति के निवास के संकेत भी मिलते हैं। पिथौरागढ़ जिले के बेरीनाग नामक स्थान में बीनाग/बेनीनाग का प्रसिद्ध मंदिर है। नागों के नाम पर कुमाऊँ में और भी कई मंदिर है।
जैसे धौलनाग, कालीनाग, पिंगलनाग, खरहरीनाग, बासुकि नाग, नागदेव इत्यादि। कुमाऊँ की आदिम जातियों में यक्ष और नाग जाति के अस्तित्व की कल्पना अनुमानों पर आधारित है किन्तु किरात जाति के संबंध में कुछ समाज शास्त्रीय एवं नृवैज्ञानिक प्रमाणों के आधार पर कहा जा सकता है कि प्रागैतिहासिक युग में कुमाऊँ-गढ़वाल के भू-भाग किरात, मंगोल आदि आर्येतर जातियों के निवास क्षेत्र रहे, जिन्हें कालान्तर में उत्तर-पश्चिम की ओर से आने वाले अवैदिक खस आर्यों ने विजित कर लिया।
यह भी सम्भावना है कि इस प्रदेश पर आग्नेय परिवार की मुंडा भाषा-भाषी किरात जाति का प्रभुत्व दीर्घकाल तक रहा, अन्यथा प्राचीन काल में इसे किरातमण्डल की संज्ञा न मिलती। अपने स्वतंत्र भाषाई अस्तित्व के साथ किरातों के वंशज आज भी कुमाऊँ के अस्कोट एवं डीडीहाट नामक स्थानों में मौजूद हैं।
कुमाऊँ की बोलियों में आज भी अनेक ऐसे शब्द प्रचलित हैं, जो प्रागैतिहासिक किरातों की बोली के अवशेष प्रतीत होते हैं, जैसे- ठुड़ (पत्थर), लिडुण (लिंगाकार कुंडलीमुखी जलीय पौधा), जुंग (मूंद्द), झुगर (अनाज का एक प्रकार), फांग (शाखा), ठांगर (बेलयुक्त पौधों को सहारा देने के लिए लगाई जाने वाली वृक्ष की सूखी शाखा), गांग (नदी), ल्यत (बहुत गीली मिट्टी) आदि शब्दावली के अतिरिक्त कतिपय-व्याकरण तत्व भी आग्नेय परिवार की भाषाओं से समानता रखते हैं,
जैसे कुमाऊँनी कर्म कारक सूचक कणि/कन प्रत्यय मुंडा की भोवेसी तथा कोर्क बालियों में के/किन या खे/खिन है। बीस के समूह के आधार पर गिनने की पद्धति राजी और कुमाऊँनी में समान रूप से मिलती है। बीस के समूह के लिए कुमाऊँनी में बिसि शब्द है।