जोशीमठ में राजधानी रखते हुए कत्यूरी राजा शीतकाल में ढिकुली (रामनगर के पास) में अपनी शीतकालीन राजधानी बनाते थे। चीनी यात्री हवेनसांग के वृत्तांतों से मिली जानकारी के अनुसार गोविषाण तथा ब्रह्मपुर (लखनपुर) में बौद्धों की आबादी थी। कहीं-कहीं सनातनी लोग भी रहते थे। इस प्रकार मंदिर व मठ साथ-साथ थे। यह बात 7वीं शताब्दी की है।
लेकिन आठवीं शताब्दी में आदिशंकराचार्य की धार्मिक दिग्विजय से यहां बौद्ध धर्म का ह्रास हो गया। शंकराचार्य का प्रभाव कत्यूरी राजाओं पर भी पड़े बिना नहीं रहा। कदाचित बौद्धधर्म से विरत होने के कारण उन्होंने जोशीमठ छोड़कर कार्तिकेयपुर में राजधानी बनायी। जोशीमठ में वासुदेव का प्राचीन मंदिर है जिसे कत्यूरी राजा वासुदेव का बनाया कहा जाता है इस मंदिर में 'श्री वासुदेव गिरिराज चक्रचूड़ामणि' खुदा है।
कत्यूरी राजाओं ने गढ़वाल से चलकर बैजनाथ (बागेश्वर के निकट) गोमती नदी के किनारे कार्तिकेयपुर बसाया जो पहले करवीरपुर के नाम जाना जाता था। उन्होंने अपने ईष्टदेव कार्तिकेय का मंदिर भी वहां बनवाया। इस घाटी को कत्यूर नाम दिया। कत्यूरी राजाओं के संबंध काश्मीर से आगे काम्बुल तक थे काश्मीर के तुरुख वंश के एक राजा देवपुत्र वासुदेव के पुत्र कनक देव काबुल में अपने मंत्री के हाथों मारे गये। ऐटकिंसन का तो यहां तक मानना है कि काश्मीर के कठूरी वंश के राजाओं ने ही घाटी का नाम कत्यूर रखा। कई पीढ़ियों तक कत्यूरी वंश के राजाओं का शासन रहा।
दूर-दूर के राजाओं के राजदूत कत्यूरी राजाओं के दरबार में आते थे।कत्यूरी राजा कला-संस्कृति के प्रेमी थे और प्रजा-वत्सल भी। उन्होंने जन-कल्याण के लिए नौले (बाबड़ी), नगर, मंदिर बनाये। जहां वे निर्माण का कोई कार्य करते वहां पत्थर का स्तम्भ अवश्य गाड़ते थे। 'बिरखम्म' के रूप ऐसे स्तंभ आज भी उत्तराखंड के विभिन्न स्थानों में दबे पाये जाते हैं। कई जगहों पर शिलालेख भी मिलते हैं जो कत्यूरी राजाओं के प्रभुत्व के साक्षी हैं।
कुछ कत्यूरी राजाओं के स्थापित शिलालेखों से उनके नामों का पता चलता है, यथा: बसन्तनदेव, खरपरदेव, कल्याणराजदेव, त्रिभुवनराजदेव, निम्बर्तदेव, ईशतारण देव, ललितेश्वरदेव, भूदेवदेव जो गिरिराज चक्रचूड़ामणि या चक्रवर्ती सम्राट कहे जाते थे। कई शिलालेख संस्कृत भाषा में भी उत्कीर्ण हैं।बंगाल के शिलालेखों और उत्तराखंड के शिलालेखों की इबारत में साम्य यह दर्शाता है कि कहीं न कहीं दोनों का सम्पर्क था। यह बंगाल के पाल व सेन राजवंशों का उत्तराखंड के कत्यूरी वंश के राजाओं से हो सकता है। यह भी संभव है कि शिलालेखों को लिखने वालों ने एक दूसरे की इबारत की नकल की हो। ऐटकिंसन नकल की संभावना अधिक जताते हैं।
हालांकि अपने को कत्यूरी राजाओं का वंशज बताने वाले अस्कोट के रजबार ऐतिहासिक कसौटी पर बंगाल के पालवंशीय राजाओं के निकट नहीं ठहरते तो भी यह सत्य है कि कत्यूरी राजा प्रतापी थे, बलशाली थे और उनके साम्राज्य का विस्तार बंगाल तक हो और वे पाल राजाओं को परास्त करने में सफल हुए हों। कत्यूरी शासकों के बाद सन् 700 से 1790 तक चन्द राजवंश का उत्तराखंड में आधिपत्य रहा।कुमायूं में गोरखों के राज को अंग्रेजों को सौंपने में अपना योगदान देने वाले चर्चित पं हर्षदेव जोशी के बारे में जो दस्तावेज मिलते हैं उनके अनुसार हर्षदेव जोशी ने अंग्रेज फ्रेजर को बताया 'चन्दों के पहले राजा मोहरचन्द थे जो 16-17 की आयु में यहां आये थे।
उनके बाद तीन पीढ़ी तक कोई उत्तराधिकारी न होने से मोहरचन्द के चाचा की संतानों में से ज्ञानचन्द को राजा बनाया गया।' इसके अनुसार मोहरचन्द कुमायूं में सन् 1261 में आये और ज्ञानचंद सन् 1374 में गद्दी में बैठे।ऐसा उल्लेख भी मिलता है कि राजा मोहरचन्द ने झूंसी से आकर नेपाल के किसी जार (जाट) राजा के यहां नौकरी की किंतु बाद में कुमायूं के कबीरपुर राज्य के राजा को परास्त कर जयदेव तथा अन्य हितैषियों के साथ मिलकर चम्पावती व कूर्मांचल राज्य की स्थापना की।
यही भू-भाग बाद में कुमायूं हो गया। काल गणना के अनुसार यह सन् 1438 पड़ता है। इसको हैमिल्टन ने अपने लिखे इतिहास में स्थान दिया और ऐटकिंसन ने उद्धृत किया। ऐसा भी कहा या सुना जाता है कि सोमचन्द एमणटी राजा के भानजे थे और अपने मामा से मिलने आये थे।