Author Topic: Historical information of Uttarakhand,उत्तराखंड की ऐतिहासिक जानकारी  (Read 90022 times)

Devbhoomi,Uttarakhand

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पौराणिक महत्व की गुफा देखने वालों का तांता
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बागेश्वर: कांडा के पंगचौड़ा गांव में ग्रामीणों द्वारा खोजी गयी पौराणिक महत्व की गुफा को देखने वालों का तांता लगा हुआ है। इधर पुरातत्व विभाग की एक टीम शीघ्र ही गांव का दौरा गुफा का सर्वे करेगी।

गौरतलब है कि कांडा के पंगचौड़ा गांव में ग्रामीणों ने पौराणिक महत्व की गुफा खोजी है। गुफा के भीतर झरना, सरोवर व अन्य आकृतियां हैं। जिससे प्रतीत होता है कि गुफा पौराणिक काल की है। कांडा के कालिका मंदिर के पुजारी अर्जुन सिंह माजिला ने बताया कि गुफा को देखने के लिए आस पास के गांवों सहित दूर दराज के लोग भी पहुंच रहे हैं। ग्रामीणों ने पंगचौड़ा गांव में मिली गुफा को पाताल भुवनेश्वर की तर्ज पर धार्मिक पर्यटन के रूप में विकसित करने की मांग प्रदेश सरकार से की है। इधर पुरातत्व विभाग की टीम ने भी शीघ्र ही पंगचौड़ा गांव का भ्रमण कर गुफा का जायजा लेने की बात कही है।

http://in.jagran.yahoo.com/news/local/uttranchal/4_5_7592732.html

Devbhoomi,Uttarakhand

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अस्कोट पाल राजाओं की ऐतिहासिक राजधानी ही नहीं यहां सोना, चांदी समेत तमाम धातुओं का भंडार भी है। जी हां, कनाडा की कंपनी पेबल क्रीक माइनिंग लिमिटेड ने अस्कोट में सोने, चांदी, तांबा आदि धातुओं की संभावनाओं का पता लगाया है। यहां करीब 19 लाख टन खनिज का भंडार बताया जा रहा है। अनुमान है इसमें से 9120 किलो सोना निकलेगा। खनन के लिए कंपनी को केंद्रीय वन एवं पर्यावरण मंत्रालय से हरी झंडी भी मिल चुकी है।अब नेशनल वाइल्ड लाइफ कमेटी की अनुमति का इंतजार है।
1965 से 1988 तक संयुक्त राष्ट्र विकास कार्यक्रम (यूएनडीपी), जियोलाजिकल सर्वे आफ इंडिया, उत्तर प्रदेश भू विज्ञान एवं खनन निदेशालय आदि तमाम एजेंसियों ने अस्कोट में मौजूद खनिज भंडार का अध्ययन किया था। इसके बाद पेबल क्रीक माइनिंग लिमिटेड ने 2002 से सर्वे शुरू किया। वर्ष 2006 में पहली बार अस्कोट में खनिज भंडार होने की पुष्टि हुई। कंपनी ने 2007 में इस इलाके में दुबारा ड्रिलिंग की, जिसमें खनिज धातुओं के भारी भंडार की मौजूदगी का पता चला। इसके अलावा एसआरके कंसलटिंग कोलकाता के विशेषज्ञ डा. जेएफ कॉटूर और सौविक बनर्जी ने भी 2008 में अस्कोट में मौजूद खनिज भंडार का आकलन किया था।

Devbhoomi,Uttarakhand

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घल्लुघारे में देश की आजादी के समय शहीद हुए करीब दस लाख पंजाबियों की अंतिम अरदास के लिए रथयात्रा शनिवार को रुड़की पहुंची। यहां पर बड़ी संख्या में लोगों ने श्रद्धासुमन अर्पित कर अज्ञात शहीदों को नमन किया। इसके बाद रथयात्रा हरिद्वार के लिए रवाना हो गई।



आजादी के दौरान हुए बंटवारे के समय घल्लुघारे में दस लाख से अधिक पंजाबी शहीद हो गए थे। इन अज्ञात शहीदों की न तो रस्म क्रिया हुई और न ही अंतिम अरदास। अब पंजाबी समाज की ओर से इन शहीदों की अंतिम अरदास के लिए एक रथ यात्रा निकाली गई है। यह यात्रा दिव्य जोत व सतलुज, रावी, व्यास, झेलम व चिनाब के जल कलश को लेकर हरियाणा, पंजाब व यूपी के रास्ते से लक्सर होते हुए शनिवार को रुड़की पहुंची। दोपहर बाद यात्रा गुरुद्वारा श्रीकलगीधर रामनगर में पहुंची।


 यहां पर उत्तरांचल पंजाबी महासभा के प्रदेश उपाध्यक्ष प्रमोद जौहर, जिलाध्यक्ष राजीव ग्रोवर, इंद्रर वधान, नगर पालिका अध्यक्ष प्रदीप बत्रा, हरमीत सिंह दुआ, डॉ. जेके आहुजा, प्रदीप कपूरिया, रमेश भटेजा, मीडिया प्रभारी अनिल अरोड़ा, अवतार सिंह, विनोद मलिक, अमरिन्दर सिंह, रमनजीत सिंह, जसपाल सिंह, श्री गुरु सिंह सभा गुरुद्वारा के अध्यक्ष सुरजीत सिंह चंधोक, जुगुल ग्रोवर, पंकज शर्मा, रोहित चावला, रंजन ग्रोवर आदि ने श्रद्धासुमन अर्पित किए।


 इसके पश्चात यात्रा मकतूलपुरी, डीएवी कॉलेज रोड, गौशाला मार्ग, नेहरू स्टेडियम से होती हुई नगर पालिका सिविल लाइंस पहुंची। यहां से यात्रा हरिद्वार के लिए रवाना हो गई।


http://in.jagran.yahoo.com/news/local/uttranchal/4_5_6248350.html

D.S.Mehta

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पृथक राज्य का गठन
« Reply #73 on: August 09, 2011, 02:37:30 PM »
                                                         पृथक राज्य का गठन


पृथ उत्तरांचल राज्य के  गठन को शुरूआत आन्दोलन के रूप में हुई थी।उत्तररखण्ड आन्दोलन सिर्फ एक राज्य की अभिव्यक्ति नहीं था बल्कि इसके साथ एक बेहतर समाज और जुझारू मनुष्य बनाने का सै भी अनिवार्य रूप से जुडा था । यह एक विश्वसन और टिकाउ साताजिक आर्थिक व्सवस्थ के निर्माण की कठिन लड़ाई थी । उत्तराखण्ड राज्य के लिए आन्दोलन क्षेत्रीय आन्दोलन था नेकिन इस आनदोलन ने राष्ट्रीय स्तर पर अपनी पहचान बना ली थी।

1.   सन्1816 ई0 में सिंगौल सन्धि के पश्चात् कुमाऊॅ पर अगं्रेजों का कब्जा हो जाने के कारण इस क्षेत्र ने अपनी पहचान बना ली थी ।

2.   उत्तराखण्ड आन्दोलन की शुरूआत छोटी में सन 1897 ई0 में अल्मोडा के पण्डित हरिराम पाण्डे ज्वाला दत्त जोशी रायबहादुर बद्रीदत्त जोशी ने कुमाऊॅ वासियों की ओर से इंग्लैण्ड की महारानी विक्टोरिया को प्रस्तुत बधाई पत्र में में याद दिलाया कि अंग्रेजों ने कुमाऊॅ के लोगों को जीता नही बल्कि उन्होंने अपनी इच्छा से  अपने आपको ब्रिटिश संरक्षण में रखा था।

3.   उत्तराखण्ड में सामजिक राजनीतिक आर्थिक और शैक्षिक समस्याओं को लेकर सन् 1916 ई0 में कुमाऊॅ परिषद् का गठन किया गया था।

4.   कुमाऊॅ परिषद् के प्रमुख सदस्यों में गोबिन्द बल्लभ पन्त बद्रीदत्त पाण्डे हरगोविन्द पन्त थे।

5.   सन् 1926 ई0 में कुमाऊॅ परिषद की विलय कांग्रेस में हो गया ।

6.   15 अगस्त 1996 को लाल किले की प्राचीर से तत्कालीन प्रधानमन्त्री एच0 डी0 देवीगौड़ा ने उत्तराखण्ड़ राज्य का निर्माण करने कि घोषणा की।

7.   सन् 1998 में राष्ट्रपति के माध्यम से उत्तराखण्ड़ राज्य सम्बन्धी विधेयक उत्तरप्रदेश विधानसभा को भेजा।
 
8.   29 जुलाई 2000 को जार्ज कमेटी ने पन्तनगर का दैरा किया व ऊधमसिंह नगर को प्रस्तावित उत्तराखण्ड़ राज्य में शामिल करने का निर्णय लिया।


9.   1 अगस्त 2000 का उत्तरॉचल विधेयक लोकसभा में व 10 अगस्त को राष्ट्रपति के0 आर0 नारायणन ने उत्तर प्रदेश पुर्नगठन विधेयक को मंजूरी दी । इससे सरकारी गजट के कानून संख्या 28 के रूप् में इंगित किया गया।

10.   सन् 1998 में राष्ट्रपति के माध्यम से उत्तराखण्ड़ राज्य सम्बन्धी विधेयक उत्तर प्रदेश विधानयभा कोे भेजा गया।

                                    उत्तरॉचल से उत्तराखण्ड़

1 जनवरी 2007 से उत्तरॉचल का नाम उत्तराखण्ड़ हो गया है। नाम परिवर्तन हेतु आधिकाारित अधिसूचना केन्द्र सरकार ने 29 दिसम्बर 2006 को जारी की थी। राज्य के इस नाम में परिवर्तन हेतु उत्तरॉचल ;नाम परीवर्तनद्ध विधेयक 2006 को लोकसभा ने 5 दिसम्बर 2006 को तथा राज्यसभा ने  7 दिसम्बर 2006 को पारित किया था।उत्तरॉचल भारतवर्ष का सत्ताइसवॉ राज्य है। हिमालय क्षेत्र में विभूषित इस राज्य को भारतीय पुराणों में कूर्माचल तथा उत्तराखण्ड़ की संबा दी गई है। यह राज्य अपनी भौतिक सांस्कृतिक दृश्य प्रस्तुत करता है। प्राचीन काल से ही इस क्षेत्र में अनेक ऋषि मुनियों ने अपने आध्यात्मिक केन्द्र स्थापित किए। इसलिए इसे श्देवभूमिश् भी काता जता है।







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इतिहास के आधार पर श्रीनगर हमेशा ही महत्वपूर्ण रहा है क्योंकि यह बद्रीनाथ एवं केदारनाथ के धार्मिक स्थलों के मार्ग में आता है। बहुसंख्यक तीर्थयात्री इस शहर से गुजरते हुए यहां अल्पकालीन विश्राम के लिये रूकते रहे हैं।

फिर भी नैथानी बताते हैं कि श्रीनगर के राजा ने हमेशा यह सुनिश्चित किया कि साधु-संतों तथा आमंत्रित आगंतुकों को छोड़कर अन्य तीर्थयात्री शहर के बाहर से ही जयें क्योंकि उस समय हैजा का वास्तविक खतरा था। गढ़वाल में एक पुरानी कहावत थी कि अगर हरिद्वार में हैजा है तो वह 6 दिनों में बद्रीनाथ में फैलने का समय होता था (अंग्रेज भी हैजा को नियंत्रित करने में असमर्थ रहे तथा कई लोगों द्वारा इस रोग के विस्तार को रोकने के लिये घरों को जला दिया जाता था तथा लोगों को घरों को छोड़कर जंगल भागना पड़ता था)।

वर्ष 1803 से नेपाल के गोरखा शासकों का शासन (1803-1815) यहां शुरू हुआ। समय पाकर गढ़वाल के राजा ने गोरखों को भगाने के लिये अंग्रेजों से संपर्क किया, जिसके बाद वर्ष 1816 के संगौली संधि के अनुसार गढ़वाल को दो भागों में बांटा गया जिसमें श्रीनगर क्षेत्र अंग्रेजों के अधीन हो गया।

 इसके बाद गढ़वाल के राजा ने अलकनंदा पार कर टिहरी में अपनी नयी राजधानी बसायी। श्रीनगर ब्रिटिश गढ़वाल के रूप में वर्ष 1840 तक मुख्यालय बना रहा तत्पश्चात इसे 30 किलोमीटर दूर पौड़ी ले जाया गया। वर्ष 1894 में श्रीनगर को अधिक विभीषिका के सामना करना पड़ा, जब गोहना झील में उफान के कारण भयंकर बाढ़ आई। श्रीनगर में कुछ भी नहीं बचा। वर्ष 1895 में ए के पो द्वारा निर्मित मास्टर प्लान के अनुसार वर्तमान स्थल पर श्रीनगर का पुनर्स्थापन हुआ।

वर्तमान एवं नये श्रीनगर का नक्शा जयपुर के अनुसार बना जो चौपड़-बोर्ड के समान दिखता है जहां एक-दूसरे के ऊपर गुजरते हुए दो रास्ते बने हैं। नये श्रीनगर के मुहल्लों एवं मंदिरों के वही नाम हैं जो पहले थे जैसा कि विश्वविद्यालय के एक इतिहासकार डॉ दिनेश प्रसाद सकलानी बताते हैं।

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वर्ष 1882 में ई.टी. एटकिंस के अनुसार कहा जाता है कि कभी शहर की जनसंख्या काफी थी तथा यह वर्तमान से कही अधिक विस्तृत था।

 परंतु अंग्रेजी शासन के आ जाने से कई वर्ष पहले इसका एक-तिहाई भाग अलकनंदा की बाढ़ में बह गया तथा वर्ष 1803 से यह स्थान राजा का आवास नहीं रहा जब प्रद्युम्न शाह को हटा दिया गया जो बाद में गोरखों के साथ देहरा के युद्ध में मारे गये।
इसी वर्ष एक भूकंप ने इसे इतना अधिक तबाह कर दिया कि जब वर्ष 1808 में रैपर यहां आये तो पांच में से एक ही घर में लोग थे। बाकी सब मलवों का ढेर था।

वर्ष 1819 के मूरक्राफ्ट के दौरे तक यहां कुछ मोटे सूती एवं ऊनी छालटियां के घर ही निर्मित थे और वे बताते हैं कि यह तब तक वर्ष 1803 के जलप्लावन तथा बाद के भूकंप से उबर नहीं पाया था, मात्र आधे मील की एक गली बची रही थी। वर्ष 1910 में (ब्रिटिश गढ़वाल, ए गजेटियर वोल्युम !

एच.जी. वाल्टन बताता है, “पुराना शहर जो कभी गढ़वाल की राजधानी तथा राजाओं का निवास हुआ करता था उसका अब अस्तित्व नहीं है। वर्ष 1894 में गोहना की बाढ़ ने इसे बहा दिया और पुराने स्थल के थोड़े अवशेषों के अलावा यहां कुछ भी नहीं है। आज जहां यह है, वहां खेती होती है तथा नया शहर काफी ऊंचा बसा है जो पुराने स्थल से पांच फलांग उत्तर-पूर्व है।”

विनोद सिंह गढ़िया

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अल्मोड़ा के टुकड़े हजार हुए कोई यहां गिरा...

कुमाऊं प्रांत की राजधानी रहा अल्मोड़ा अब है सिर्फ चार तहसीलों का जिला

अल्मोड़ा नगर कभी कुमाऊं प्रांत की राजधानी रहा। फिर कमिश्नरी मुख्यालय बना और अब टुकड़ों में बंटता हुआ छोटी सी चार तहसीलों का जिला रह गया है। चंद शासकों ने इस नगरी को अपनी राजधानी बनाया और करीब 255 साल तक कुमाऊं का शासन यहीं से चलता रहा। फिर अंग्रेजों ने इसे कुमाऊं जिले का मुख्यालय बनाया, जिसमें गढ़वाल भी शामिल था। सबसे पहले 1889 में अल्मोड़ा से कटकर नैनीताल जिला बना और तबसे आज तक अल्मोड़ा विभाजित होता हुआ आठ जिलों में बंट गया है।

चंद शासकों ने 1560 के आसपास कुमाऊं की राजधानी को चंपावत से अल्मोड़ा स्थानांतरित किया। 1560 से लेकर 1815 तक चंदों और गोरखों का शासन रहा और अल्मोड़ा राजधानी बनी रही। 1815 में गोरखों को हराने के बाद अल्मोड़ा में अंग्रेजों का शासन कायम हो गया। अंग्रेजों ने कुमाऊं और गढ़वाल का प्रशासन अल्मोड़ा से ही चलाना शुरू किया। गढ़वाल में टिहरी रियासत को छोड़कर पूरा कुमाऊं और गढ़वाल कुमाऊं (अल्मोड़ा) जिले में शामिल था। अंग्रेजों ने 1839 में गढ़वाल को अलग जिला बनाया और दोनों जगह अलग-अलग अफसर तैनात किए गए। नैनीताल की खोज और वहां अंग्रेज अफसरों की आवाजाही शुरू होने के बाद 1889 में कुमाऊं जिले को दो भागों में बांटकर नैनीताल और अल्मोड़ा दो जिले बना दिए गए। इसके बाद अंग्रेज कमिश्नर नैनीताल में ही अधिक बैठने लगे। एक तरह से कमिश्नरी कार्यालय नैनीताल से चलने लगा। तभी से अल्मोड़ा में कमिश्नर के स्थान पर जिला मजिस्ट्रेट की नियुक्ति होने लगी। 1893 में पहले अंग्रेज आईसीएस अफसर जेवी स्टुअर्ट अल्मोड़ा में बतौर जिला मजिस्ट्रेट तैनात हुए। आजादी के बाद भी 1960 तक कुमाऊं में अल्मोड़ा और नैनीताल दो ही जिले थे। फिर फरवरी 1960 को पिथौरागढ़ जिले का गठन हुआ, तब गढ़वाल में भी चमोली और उत्तरकाशी दो जिले बने, लेकिन गढ़वाल के दोनों जिले भी कुमाऊं कमिश्नरी के अंतर्गत रहे। इसके बाद गढ़वाल के लोगों के लंबे आंदोलन के बाद 1967 में गढ़वाल को अलग कमिश्नरी बनाया गया, फिर देहरादून को गढ़वाल कमिश्नरी में शामिल किया गया। इससे पहले तक देहरादून भी मेरठ कमिश्नरी के अंतर्गत आता था। अक्तूबर 1995 में नैनीताल को विभाजित करके ऊधमसिंह नगर जिला बनाया गया। फिर सितंबर 1997 को अल्मोड़ा से काटकर बागेश्वर और पिथौरागढ़ से चंपावत को विभाजित करके दो नए जिले बना दिए गए।

इस बीच 15 अगस्त को अल्मोड़ा और पिथौरागढ़ को एक बार फिर विभाजित करके क्रमश: रानीखेत और डीडीहाट जिलों का गठन किया गया है। हालांकि रानीखेत जिले की सीमाएं आदि अभी तय नहीं हुई हैं, लेकिन भौगोलिक परिस्थितियों के मुताबिक रानीखेत, द्वाराहाट, चौखुटिया, सल्ट और भिकियासैंण तहसीलें रानीखेत में शामिल हो जाएंगी। इस तरह अल्मोड़ा में सिर्फ अल्मोड़ा जैंती, भनोली और सोमेश्वर तहसीलें ही रहेंगी। यह भी बताते चलें कि कुछ बरस पहले तक जैंती, भनोली, सोमेश्वर अल्मोड़ा तहसील का ही हिस्सा थे।

साभार : अमर उजाला

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                         फूलडोल मेला,चम्पावत

चंद वंशीय राजाओं की राजधानी रही चम्पावत को टेंपल सिटी के नाम से भी जाना जाता है। भाद्र कृष्ण पक्ष की दशमी को होने वाला फूलडोल मेला कई वर्षो से लोगों की आस्था का केंद्र बना हुआ है। इस बार मेला 23 अगस्त को आयोजित होगा।

मेले की शुरुआत वर्ष 1944 में तत्कालीन तहसीलदार बीडी भंडारी के प्रयासों से हुई। मेला समिति का गठन कर इसका आयोजन कराया गया और नागनाथ मंदिर में श्रीकृष्ण जन्माष्टमी से तीन दिवसीय अखंड कीर्तन के बाद दशमी को बालेश्वर मंदिर तक श्रीकृष्ण डोले की भव्य शोभायात्रा निकाली गई।

 तब से यह मेला हर वर्ष आस्था के सैलाब के साथ बढ़ता चला जा रहा है। पूर्व प्रमुख व कमेटी के सदस्य नारायण लाल साह,अमरनाथ वर्मा, भुवन पचौली बताते हैं कि शुरुआती दौर में इस मेले को संचालित करने के लिए जो सामूहिकता की भावना पैदा हुई थी, वह आज भी जिंदा है। मेले का नाम फूलडोल क्यों पड़ा? इस पर पुजारी कैलाश नाथ, सुरेश नाथ बताते हैं कि श्रीकृष्ण डोले को फूलों से आकर्षक रूप से सजाने पर ही इस को फूलडोल नाम दिया गया।

 शुरुआती दौर में इसे डोल मेला ही कहा जाता था। मेले में रूहेलखंड, बुंदेलखंड व कुमाऊं के साथ ही उत्तरप्रदेश के अन्य कस्बों से आने वाले व्यापारियों के कारण यह व्यावसायिक मेले के रूप में पहचान बनाने लगा है। वहीं डोल यात्रा में हिस्सा लेने के लिए जनपद के ओर छोर से भारी तादाद में श्रद्धालु पहुंचते हैं।

हालांकि बदलते परिवेश के चलते अब तीन दिवसीय होने वाले अखंड कीर्तन के स्वर धीमे पड़े हैं, लेकिन भक्ति संगीत की स्वर लहरियां अब भी गुंजायमान रहती है। कई सालों तक हरे रामा हरे कृष्णा के अखंड कीर्तन की एक टोली होती थी। बकायदा उसे पारिश्रमिक मिलता था।


Source Dainik jagran

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मुनि की रेती टिहरी रियासत का एक हिस्सा था तथा शत्रुघ्न मंदिर की देखभाल टिहरी के राजा करते थे। वास्तव में, वहां जहां आज लोक निर्माण विभाग का आवासीय क्वार्टर है पहले रानी का घाट था यहां पहले टिहरी की रानी तथा उनकी दासिया स्नान करने आती थीं। इससे थोड़ी दूर राजधराने के मृतकों के दाह-संस्कार का स्थान तथा फुलवाडी थे। दुर्भाग्य से उस स्थान पर अब कुछ भी पुराना मौजूद नहीं है।


इस शहर के एक बुजुर्ग निवासी, श्री एच एल बदोला कहते हैं कि “टिहरी के राजा लालची नहीं थे, उन्होंने बहुत सारी जमीन जैसे देहरादून तथा मसुरी अंग्रेजों को दे दी। उन्होंने ऋषिकेश में रेलवे निर्माण के लिए जमीन दी तथा ऋषिकेश के रावत ने ऋषिकेश तक रेल स्टेशन बनाने का खर्च दिया। राजा ने अगर थोड़ा और भी सोचा होता तो आसानी से रेल मार्ग मुनि की रेती तक पहूंच जाता।”


उन दिनों रेलवे स्टेशन से मुनि की रेती तक बैलगाड़ी से पहूंचा जाता था और जब तक कि चन्द्रभाग पुल का निर्माण रियासत सरकार द्वारा न कराया गया तब तक हाथी के पीठ पर बैठकर नदी पार किया जाता था। श्री बदोला कहते हैं कि खास इसी मकसद के लिए राजा मुनि की रेती में एक हाथी रखते थे।

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Near the Bhimeshwar temple is a small hill known as Garg Parvat, which is the source of river Gargi, also known as Gola Nadi in the region.
About 2 km from Bhimtal is Nal Damyanti Tal, a small natural lake. It is believed that the palace of famous king Nala drowned into this lake. It is a very sacred place for the dwellers of the region.
About 5 km from Bhimtal is the famous group of lakes known as Sattal, which is a place of attraction for nature lovers. Clear water of lakes surrounded by thick forest and voice of birds is a wonderful experience. Hill near the lake known as Hidimba Parvat. It gets its name from demon Hidimba of Mahabharata. Vankhandi Maharaj, a monk and environmentalist lives on the hill now, and has created a sanctuary for the wild animals around the hill. The area is known as Vankhandi Ashram.
The hill of Karkotaka is supposed to be named after Karkotaka, a mythical cobra. The hill is famous for its Nag temple in the region and on every Rishi Panchami thousands of people visit the temple and worship the Nag Karkotaka Maharaj. This is one of the famous nag temples situated in Uttarakhand region.


The artist, Marianne North (1830-1890) died over 100 years ago. Oil painting on paper of Bhim Tal at Kumaon in Uttar Pradesh, by Marianne North (1830-1890), dated July 30 1878. "Bheemtal. Kumaon, India. July 30 1878" Oriental and India Office Collection, British Library.Bhimeshwara Mahadev Temple’, at Bhim Tal, built by Baz Bahadur. Oil painting on paper, by Marianne North July 30, 1878.



 

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