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History of Haridwar , Uttrakhnad ; हरिद्वार उत्तराखंड का इतिहास

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Bhishma Kukreti:

मोरध्वज किला व तब बिजनौर , हरिद्वार व सहारनपुर में आजीविका साधन

हर्षवर्धन पश्चात बिजनौर , हरिद्वार , सहारनपुर का 'अंध युग' अर्थात तिमर युग  इतिहास २१

Dark  Age of History after Harsha Vardhan death - 21

Ancient  History of Haridwar, History Bijnor,   Saharanpur History  Part  -   298                 
                           
  हरिद्वार इतिहास ,  बिजनौर  इतिहास , सहारनपुर   इतिहास  -आदिकाल से सन 1947 तक-भाग -२९८                 


                  इतिहास विद्यार्थी ::: आचार्य भीष्म कुकरेती
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 मोरध्वज  किला वा आस पास के उत्खलन से उस समय क्र भाभर (बिजनौर  , हरिद्वार व सहरानपुर ) के इतिहास पर कई तरह का प्रकाश पड़ता है।   बिजनौर , हरिद्वार व सहारनपुर में   उस समय विशेषतः हर्ष व पर्वताकार समय आजीविका का मुख्य साधन कृषि  व वन उत्पाद संबंधी कार्य था।  कृषि तब भी वर्षा पर निर्भर थी।  भाभर , नजीबाबाद , मोरध्वज व आसपास के उखलन में तालबों के मिले अवशेषों से अनुमान लगता है कि  तब वर्षा कम होती थी और वर्षा जल संग्रहण (पीने , घरलू उपयोग , पशुओं के पीने व सिंचाई हेतु ) हेतु तालाब खोदे जाते थे।  तलबाब तट पर यक्ष मूर्तियों से पता चलता है कि  वर्षा हेतु मनौती मानी जाती थी व बलि चढ़ाई जाती थी (१ ) । 
एशिया लगता है व्यापर भी आजीविका माध्यम था।  सोने की मुद्रा प्रचलित थीं।  लोगों  की आवश्यकताएं कम थीं। 
संदर्भ
१- शिव प्रसाद  डबराल  ‘चारण’ , १९६९ , उत्तराखंड का इतहास भाग -४ पृष्ठ ४२२ , वीर गाथा पर्सेस दुगड्डा , उत्तराखंड , भारत
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मोरध्वज किला व तब बिजनौर , हरिद्वार व सहारनपुर में आजीविका साधन , हरिद्वार, बिजनौर , सहारनपुर का प्राचीन इतिहास  आगे खंडों में   .. ,

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पर्वताकार पौरव काल में बिजनौर, हरिद्वार , सहरानपुर में वेशभूषा

Dressings  in Bijnour, Haridwar , Sahranpur in   Paurava/Parvatkar Ruling period
हर्षवर्धन पश्चात बिजनौर , हरिद्वार , सहारनपुर का 'अंध युग' अर्थात तिमर युग  इतिहास -२२

Dark  Age of History after Harsha Vardhan death -22

Ancient  History of Haridwar, History Bijnor,   Saharanpur History  Part  -    299                 
                           
    हरिद्वार इतिहास ,  बिजनौर  इतिहास , सहारनपुर   इतिहास  -आदिकाल से सन 1947 तक-भाग -  २९९               


                  इतिहास विद्यार्थी ::: आचार्य भीष्म कुकरेती
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मोरध्वज  किला स्थल के उत्खलन से प्राप्त मृणमूर्तियों से ज्ञात होता है कि  उस समय नर नारी छोटी धोती पहना करते थे।  धोती कमर पर कास कर बंधी होती थी (२ )  I उसके ऊपर नर नारी  पटुका बांधते थे।   नारियों के पटुके से  कोई आभूषण लटका रहता था धोती ऊपर शरीर नग्न होता था।  )१ )
तब बिजनौर , हरिद्वार , सहारनपुर के नर  नारी बालों में  जूड़ा  बनाते।  नारियों गले में हर होते थे।  योगी व भद्र पुरुष आसन बांधकर बैठते थे व शिष्य या सेवक चंवर डोलते थे।  अंजन का बड़ा प्रचलन था।  मोरध्वज की खुदाई में अंजन की सलाईयां मिलीं है।
   मोरध्वज यद्यपि बिजनौर में आज है किंतु  यह स्थल हरिद्वार व सहारनपुर से कोई दूर नहीं है कि  संस्कृति में भारी बदलाव आये।   
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 संदर्भ -
शिव प्रसाद डबराल 'चारण ' ,  उत्तराखंड का इतिहास भाग ३ वीरगाथा प्रेस दुगड्डा , उत्तराखंड , पृष्ठ ४२२ ४२३
मखराम - जॉर्नल , एसियाटिक सोसाइटी ऑफ बंगाल vol  ६० , पृष्ठ २ व ४
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हरिद्वार, बिजनौर , सहारनपुर का प्राचीन इतिहास  आगे खंडों में   ..

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पर्वताकार के पौरव  राजवंश में मोरध्वज क्षेत्र (बिजनौर , हरिद्वार व सहारनपुर ) में धर्मावलम्बी

Religion in Mordhwaj fort Region in Paurava dynasty of Parvatakar
 
हर्षवर्धन पश्चात बिजनौर , हरिद्वार , सहारनपुर का 'अंध युग' अर्थात तिमर युग  इतिहास -२३

Dark  Age of History after Harsha Vardhan death -२३

Ancient  History of Haridwar, History Bijnor,   Saharanpur History  Part  -  300                   
                           
    हरिद्वार इतिहास ,  बिजनौर  इतिहास , सहारनपुर   इतिहास  -आदिकाल से सन 1947 तक-भाग -  ३००               


                  इतिहास विद्यार्थी ::: आचार्य भीष्म कुकरेती
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मोरध्वज क्षेत्र में लोक धर्म हिन्दू (सनातन )  था।  दक्षिण बिजनौर में कुछ क्षत्रों में बौद्ध , अ चैल  योगी उपासक थे।  नाग , सूर्य ,वामन स्वामी , यक्ष , ग्राम देवी देवताओं की पूजा प्रचलित थी एवं इनकी मूर्ति पूजा होती थी।  मंदिरों को भूमिदान देना पुण्य कार्य समझा जाता था।  जनता , भद्र पुरुष व शासक भूमि दान में आगे होते थे इसलिए मंदिर संख्या में वृद्धि हुयी।  (द्युतवर्मन का शाशन २   ) .   
      मोरध्वज  (बिजनौर ) परिपेक्ष में  पौरव में देव मंदिरों की व्यवस्था -
    देव मंदिरों की व्यवस्था हेतु  राज्य में  एक  विभाग था।  जिसके मुख्य अधिकारी को देवद्रोण्यधिकृत कहते थे।  देवद्रोणी शब्द से समझा जा सकता है कि  तब भी देव जात्राएँ निकला करती थीं . इसमें दो राय नहीं कि तब हरिद्वार , बिजनौर व सहारनपुर में क्षेत्रीय या राज्य प्रसिद्ध डिवॉन की यात्रायें निकलतीं थी (2 ) ।  मंदिरों हेतु दी गयी भूमि पर राज्य कर नहीं लगता किन्तु कर बराबर अनाज आधी अधिकृत मंदिरों को मिलता था। 
 कृषि  उपज आय से मंदिरों में यात्रियों को भोजन व वास की सुविधा मिलती थी। किसान उपज का निश्चित भाग मंदिर को देते थे।
  इन धमराधिकारियों की सहायता हेतु परिषद होतो थी जिसमे जनपद के प्रतिष्ठित साधू सन्यासी , ब्रह्मचारी , सदस्य होते थे।  परिषद संभवतया धार्मिक स्थलों व   मंदिर भूमि की व्यवस्था करती रही होगी (१ )। मोरध्वज के पास धार्मिक स्थल तो था ही।  संभवतया एक अधिकारी (स्तर अधिकारी ) मोरध्वज क्षेत्र के लिए रहा हो। 
 मंदिरों में देव मूर्ति सम्मुख बलि चढ़ाकर पूजा होती थी।  बलि में पशु , अनाज भोग आदि होता था।  देव मूर्ति को दही , घी , सुगंधित पदार्थ लेप होता था (द्युतिवर्मन के आदेश )  व पुष्प अर्पित होते थे।  चूँकि पौरव राजध्यक्षों के आदेश में वाद्य यंत्रों का उल्लेख नहीं मिलता डोकर डबराल ने निर्णय दिया कि  देव दासी प्रचलन नहीं रहा होगा। 
मंदिर की सफाई , मरोम्मत आदि का वयवय भी मंदिर को दी गयी भूमि कृषि लगान से होता था।  भूमि किसान कर राज्य को नहीं अपितु मंदिर पुजारी  को देते थे।  इसकी सूचना उपरीक , परमातार , प्रतिहार , कुमारामात्य , विषयपति बलाधीक्ष आदि अधिकारीयों को दे दी जाती थी। 
- संदर्भ
 १-  शिव प्रसाद डबराल 'चारण ' ,  उत्तराखंड का इतिहास भाग ३ वीरगाथा प्रेस दुगड्डा , उत्तराखंड , पृष्ठ   ४२३
२- नचिकेत चंचानी ,२०१९ , माउंटेन टेम्पल्स ऐंड टेम्पल माउंटेन्स : आर्किटेक्चर रिलिजन ऐंड नेचर इन द सेंट्रल हिमालय , यूनिवर्सिटी ऑफ वाशिंगटन प्रेस, पृष्ठ 56
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हरिद्वार, बिजनौर , सहारनपुर का प्राचीन इतिहास  आगे खंडों में   .. पर्वताकार के पूर्व राजवंश में मोरध्वज क्षेत्र (बिजनौर , हरिद्वार व सहारनपुर ) में धर्मावलम्बी , Religion in Mordhwaj fort Region in Paurava dynasty of Parvatakar

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पौरव राजवंश समय हरिद्वार , बिजनौर , सहारनपुर में बौद्ध धर्म

Bauddhism in Haridwar, bijnour , Sahranpur  in Paurava Era (mordhwaja Fort )
हर्षवर्धन पश्चात बिजनौर , हरिद्वार , सहारनपुर का 'अंध युग' अर्थात तिमर युग  इतिहास -२४

Dark  Age of History after Harsha Vardhan death -24

Ancient  History of Haridwar, History Bijnor,   Saharanpur History  Part  -     301               
                           
    हरिद्वार इतिहास ,  बिजनौर  इतिहास , सहारनपुर   इतिहास  -आदिकाल से सन 1947 तक-भाग -  ३०१             


                  इतिहास विद्यार्थी ::: आचार्य भीष्म कुकरेती
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 यह सर्विदित था कि  जब  हुयेन  सांग भारत आया तो बिजनौर व गोविषाण (उधम सिंह नगर ) में बौद्ध धर्म जड़ जमा चूका था।  मोरध्वज किला व निकटवर्ती archeological  अवशेषों  से पता चलता है कि  बिजनौर व भाभर (हरिद्वार मिलकर ) में बौद्ध धर्म लोप नहीं हुआ था। 
मखराम के खोजों अनुसार (२ ) चैत्यों में मिली मिटटी की छोटी  बौद्ध मूर्तियों से स्पष्ट है कि  पौरव काल या हर्ष काल के बाद बिजनौर में बौद्ध धर्मावलम्बी थे।  बुद्ध की पकी मिटटी की मूर्तियों  में 'ये धर्मा हेतुप्रभवा ' अंकन हुआ है। 
मोरध्वज की कुछ मूर्तियों में बुद्ध  अति सुंदर चैत्य  के अंदर बैठे हैं।  बुद्ध के सिर में प्रभामंडल है।  बुद्ध को पुष्पहारों से सजाया गया है।  ऊपर गंदर्भ   वाद्य यंत्र  बजा रहे हैं।  चैत्य के दोनों और  एक एक व्यक्ति हैं और शायद एक नारी है ।  व्यक्ति चंवर दोल रहे हैं (१ )
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संदर्भ -
  १- शिव प्रसाद डबराल 'चारण ' ,  उत्तराखंड का इतिहास भाग ३ वीरगाथा प्रेस दुगड्डा , उत्तराखंड , पृष्ठ   -४२४
२- मखराम  १८९१ ,उपरोक्त पृष्ठ ३, ४ , ५

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हरिद्वार, बिजनौर , सहारनपुर का प्राचीन इतिहास  आगे खंडों में   ..



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पौरव राजवंश समय हरिद्वार , बिजनौर , सहारनपुर में  अचैल योगी  (जैन  धर्मी    ) उपासना    (संदर्भ मोरध्वज किला )
Bauddhism in Haridwar, bijnour , Sahranpur  in Paurava Era (mordhwaja Fort )
हर्षवर्धन पश्चात बिजनौर , हरिद्वार , सहारनपुर का 'अंध युग' अर्थात तिमर युग  इतिहास -२५

Dark  Age of History after Harsha Vardhan death -25 

Ancient  History of Haridwar, History Bijnor,   Saharanpur History  Part  -     302                 
                           
    हरिद्वार इतिहास ,  बिजनौर  इतिहास , सहारनपुर   इतिहास  -आदिकाल से सन 1947 तक-भाग -  ३०२               


                  इतिहास विद्यार्थी ::: आचार्य भीष्म कुकरेती
मोरध्वज  किले की खुदाई से मखराम  (  १८९१ ,जॉर्नल ऑफ असोसिएटेड ऑफ़ बंगाल जिल्द ६० , पृष्ठ ३ )  ने स्पष्ट किया कि तब  इस क्षेत्र से अनेक मिटटी की मूर्तियों में ध्यानस्थ अचैल  का अंकन भी है।  योगी के सर पर जता है।  गांठ के ऊपर मोरपंख हैं व सिर  पर प्रभा मंडल भी है।  दोनों ओर छोटे आकर के नग्न व्यक्ति खड़े हैं।  मखराम ने बौद्ध मूर्ति माना है।  किन्तु डा शिव प्रसाद डबराल ने खंडन किया कि बुद्ध की सचैल दिखने की प्रथा थी जबली अचैल मूर्तियों का प्रचलन जैन धर्मियों में था।  इससे लगता है कि   कहीं कहीं जैन धर्म विश्वासी भी थे।
     मोरध्वज   उत्खलन आधारित जब विश्वास
मोरध्वज किले के उत्खलन से लगता है बिजनौर , हरिद्वार व सहारन पुर की जनता श्रद्धालु थी व सनातनी मंदिरों व स्तूपों के निर्माण , वहां अर्चना करना व दर्शन करना पुण्य का काम समझा जाता था।  राजवंशों में देवकुल निर्माण की प्रथा थी।  यद्यपि पूर्व वंशों के देवकुल से कोई मूर्ति नहीं मिलीं। 

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संदर्भ -
  १- शिव प्रसाद डबराल 'चारण ' ,  उत्तराखंड का इतिहास भाग ३ वीरगाथा प्रेस दुगड्डा , उत्तराखंड , पृष्ठ   -४२४


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