हरिद्वार, बिजनौर , सहारनपुर इतिहास संदर्भ में कुलिंद जनपद के गाँव , घर. घरेलू उपकरण आदि
Ancient History of Haridwar, Ancient History Bijnor, Ancient History Saharanpur Part --90
हरिद्वार, बिजनौर , सहारनपुर इतिहास -आदिकाल से सन 1947 तक-भाग - 90
इतिहास विद्यार्थी ::: भीष्म कुकरेती
गाँव
भरत सिंह उपाध्याय अनुसार भाभर प्रदेश विशेषकर गंगाद्वार (बिजनौर सहित ) में कई वस्तियाँ थीं। बुद्ध कोलिय जनपद के सापुंग निगम से हरिद्वार के समीप उशीरध्वज पर्वत (आज का चण्डीघाट पर्वत ) पंहुचे थे।
उशीरध्वज से ऋषिकेश तक कई वस्तियां थीं। पाणिनि के समय नामों का बाहुल्य था जीने बसे स्थानों के नामन्त 'अर्म' लगा होता था। पत्पश्चात साहित्य में उजड़े स्थानो के नामन्त 'अर्म' लगने लगा। ऋषिकेश में एक स्थान का नाम अब भी 'कुब्जामर्क' है।
पाणिनि साहित्य में भारद्वाज क्षेत्र के दो गाओं का नाम मिलता है -कृकर्ण व पर्ण। पंतजलि ने इसी जनपद के दो नाम उल्लेख किया हैं - ऐणिक व सौँसुक। ईशा के पांचवीं -चौथी सदी पूर्व ये गाँव अवश्य ही महत्वपूर्ण रहे होंगे।
गाँवों से बाहर भिक्षुओं , विद्यार्थियों , ऋषियों, संघकारियों आदि की कुटियाएं होती थीं।
व्यक्तिगत खेतों के अतिरिक्त गाँव की सार्वजनिक (सँजैति ) जमीन भी होती थी।
घर
गाँव में परिवारों के मकान पास पास होते थे। घर मिटटी -पत्थर -लकड़ी से बनाये जाते थे। मकान बनाने हेतु शायद दालों के आटे को मिट्टी के साथ मिलाने की विधि भी परिस्कृत हो चुकी होगी। धरातल लाल मिट्टी से पोती जाती थी व ऊपरी भाग सफेद रंग से रंगा जाता था।
घरेलू उपकरण
निम्न उपकरणों का उल्लेख अष्टाध्यायी में है -
घास या पुआल का आसान या गद्दा
मांदरे - बांस , पुआल आदि से बना आसान गद्दा आदि
मूँज की चारपाई
पीढ़ा /चौकी
जानवरों के चरम पट्टियां
बांस /लकड़ी से अन्न रखने के पात्र
मिट्टी , लकड़ी व पत्थर के पात्र
थैले - खालों से बनते थे या पौधों की खालों से।
पानी पीने के लिए तुमड़ी का बहुप्रयोग होता था
श्रृंगार आदि
लंगोटी , कच्चा के ऊपर चादर लपेटी जाती थी
अनेक प्रकार के रंगों, चूर्णों से मुखाकृति सजाई जाती थी।
दर्पण का उपयोग भी होता था।
अंजन का प्रयोग आम बात थी यमुना घाटी अंजन उत्पादन के लिए प्रसिद्ध थी।
आभूषण पहनने का रिवाज था। भिक्षु , भिक्षुणियाएं भी आभूषण पहनते थे।
भोजन
दूध, दही , घी , मांश अवहसीक अंग थे।
तीखा , काली मिर्च , अदरक पीपल , नमक , गुड से स्वादिष्ट भोजन बनाया जाता था।
कंद मूल को ताजा या सुखाकर प्रयोग होता था।
पतली खिचड़ी , सत्तू आदि का प्रयोग रोज होता था।
मांडी , प्लेउ आदि द्रव रूपी भोजन भी आम भोजन था।
रसों में फलों का रस प्रयोग होता था।
जड़ी बूटियों से बना धूम्र पान (धुंवां ) का प्रचलन बहुत था।
रोग
अतिसार , अर्श , बहुमूत्र , प्रमेह , संग्रहणी , कुष्ट , पामन , खांसी , ज्वर , मलेरिया , चर्मरोग , गण्डमाला , हृदय रोग , पक्षाघात , भगंदर रोग मुख्य थे।
जड़ी बबूटियों का प्रयोग रोग निदान हेतु किया जाता था।
मंत्र व तंत्र
रोग निवारण हेतु तंत्र मंत्र का प्रयोग होता था।
वशीकरण वचार प्रचलित था।
कृषि
मंडुवा , कौणी -झंगोरा , मूंग , उड़द , अरहर , धान , तिल , जौ , गेंहू , गन्ना , कपास की खेती होती थी।
जंगली पशुओं को पकड़ने की कई विधियां उपयोग में लायी जाती थीं।
पशुपालन कृषि का मुख्यांग था।
शस्त्रोपजीविका
उन दिनों पर्वतीय प्रदेशो याने बिजनौर , हरिद्वार और सहारनपुर क्षेत्र में भी साहसी युवक शस्त्रों से आजीविका कमाते थे। पाणिनि ने अत्ष्टध्यायी में पश्चिमी व मध्य हिमालय ढालों पर रहने वाले शस्त्रोजीवियों याने आयुधजीवियों का वर्णन किया है। सत्यकेतु विद्यालंकार ने महजनपद युग में योधाय जनपद की पहचान सहारनपुर से की है।
भाभर ही नही अन्यत्र भी उत्सेधजीवियों (चोर डाकू ) से बचने के लिये सभ्रांत व व्यापारी आयुधजीवियों की सहायता लेते थे।
भाभर की मंडियों से व्यापार
भाभर व तराई (गढ़वाल , बिजनौर , हरिद्वार व सहारनपुर का भाग ) में व्यापारिक मंडियां थीं और इन मंडियों में पहाड़ों से पर्वतीय उत्पाद निर्यात हेतु आता था और यहीं से मैदानी वस्तुएं पहाड़ी खरीद कर ले जाते थे।
मार्ग
बुद्ध जीवन काल में भाभर में ही उत्तम मार्ग थे। बुद्धकालीन शाक्य , बुलिय , कालाम , मल्ल , लिच्छवी को जोड़ने हेतु व्यापारिक मार्ग अहिछत्रा , गोविषाण , अहोगंग , कालकूट , स्रुघ्न होकर साकल पंहुचता था। इन मार्गों पर जल , घास ईंधन व पड़ाव योग्य स्थान थे व नदी पार करने की सुविधा भी थी। इन मार्गों पर ढोने के पशु परिहवन हेतु पशु हर ऋतू में चल सकते थे।
भाषा
शिष्ट समाज की भाषा संस्कृत थी। जनता की भाषा स्थानीय भाषा थी जिस पर धीरे धीरे संस्कृत का प्रभाव पड़ने लगा था और साथ ही साथ संस्कृत में स्थानीय शब्द आने लगे थे।
नामकरण
नामकरण में मनुस्मृति या स्मृतियों का पूरा प्रभाव था।
परिवार या कुल वास्तव में गाँव के नाम से जाना जाता था।
शिक्षा
गुरुकुल पद्धति से शिक्षा का प्रबंध होता था। लड़कियों को भी शिक्षा दी जाती थी। विद्या धिकार ब्रह्मणो को था किन्तु हरिजन गुरु की इच्छा से विद्या ग्रहण कर सकते थे। बुद्ध के समय व उपरान्त हरिजनों को शास्त्र शिक्षा के लये रास्ते खुल गए थे।
विवाह
महाभारत कालीन विवाह संस्था में अधिक अंतर नही आया था। बहिन के पुत्र -पुत्रियों से अपने पुत्र -पुत्रिओं की शादी करना शुभ माना जाता था। विवाह के अवसर पर मांश परोशना श्रेयकर माना जाता था।
अंतिम संस्कार
अंतिम संस्कार में मृतक को जलाया भी जाता था व शवों को गाड़ा भी जाता था। दाह संस्कार के बाद मृतक की हड्डियों को किसी स्थान में गाड़कर उस स्थान में स्तूप खड़े करने की परम्परा भी शुरू हो गयी थी।
शासन
गण , एकाधिकारी राज्य या संघ संस्कृति अनुसार शासन व्यवस्था चलती थी।
राजा मंत्रिपरिषद की रचना करता था व उनसे सलाह लेता था।
कर भी लगाये जाते थे।
खेतों को रस्सियों से नापा जाता था।
** संदर्भ - ---
वैदिक इंडेक्स
डा शिव प्रसाद डबराल , उत्तराखंड इतिहास - भाग -२
राहुल -ऋग्वेदिक आर्य
मजूमदार , पुसलकर , वैदिक एज
घोषाल , स्टडीज इन इंडियन हिस्ट्री ऐंड कल्चर
आर के पुर्थि , द एपिक सिवलीजिसन
अग्रवाल , पाणिनि कालीन भारत
अग्निहोत्री , पंतजलि कालीन भारत
अष्टाध्यायी
दत्त व बाजपेइ , उत्तर प्रदेश में बौद्ध धर्म का विकास
महाभारत
विभिन्न बौद्ध साहित्य
जोशी , खस फेमिली लौ
भरत सिंह उपाध्याय , बुद्धकालीन भारतीय भूगोल
रेज डेविड्स , बुद्धिष्ट इंडिया
हरिद्वार, बिजनौर , सहारनपुर इतिहास संदर्भ में कुलिंद जनपद (400 -300 BC )
Ancient History of Haridwar, Bijnor, Saharanpur Part --89
हरिद्वार, बिजनौर , सहारनपुर इतिहास -आदिकाल से सन 1947 तक-भाग -89
इतिहास विद्यार्थी ::: भीष्म कुकरेती
कुलिंद जनपद [४५० -३५० विक्रमी संबत पूर्व ]
जनपद युग
मगध साम्राज्य उदय से पहले भारत छोटे बड़े जनपदों में बनता था। जनपदों की सीमायें निम्न प्राकृतिक तत्व निर्धारित करते थे [अग्रवाल , पाणिनि कालीन भारत ]-
नदियां
पहाड़
जंगल
मरुभूमि या दलदल भूमि
जनपदों में शाशन निम्न भांति होता था
गण या संघ
एकराज
सम्राट या बड़ा राजा गणों या छोटे राज्यों को जीतकर केवल उपायन (वार्षिक या एकमुश्त भेंट या कर ) लेते थे और संघीय प्रशासन को ध्वस्त नही करते थे जिससे किसी हद तक क्षेत्र की सांस्कृतिक /सामाजिक व्यवस्था परिवर्तन कम ही होता था।
विक्रम संबत (ईशा काल के लिए 56 साल घटा दें ) से पांच या चार सदी पूर्व पाणिनि साहित्य से पता चलता है कि उत्तर भारत में निम्न जनपद थे -
मद्र जनपद - तक्षशिला के दक्षिण -पूर्व जिसकी राजधानी साकल [स्यालकोट ] थी।
शिवि -उशीनगर - मद्र से दक्षिण में
त्रिगर्त जनपद - सतलज -व्यास -रावी नदियों का पहाड़ी क्षेत्र याने कांगड़ा से चम्बा का भूभाग।
भरत जनपद - वर्तमान थानेसर , कैथल , करनाल , पानीपत।
कुरु जनपद -दिल्ली -मेरठ का क्षेत्र। शायद सहारनपुर का कुछ भाग कुरुजनपद में होगा।
प्रत्यग्रथ जनपद -गंगा और रामगंगा का मैदानी उपत्यका को प्रत्यग्रथ या पांचाल कहा गया है।
कोसल , काशी व मगध - पांचाल से पूर्व में कौसल , कौसल से पूर्व काशी व उसके पूर्व में मगध जनपद थे।
पाणिनि का कुलिंद जनपद
त्रिगर्ता से पूर्व सतलज , यमुना , गंगा , कालीगंगा के मध्य पहाड़ी भूभाग को कुलिंद जनपद माना गया है। पाणिनि ने इसका नाम कुलुन भी कहा है।
महाभारत में कुलिंद व कुणिंद नाम दिए हैं। ताल्मी ने इसे कुलिन्द्राइन कहा है। डा डबराल ने टिप्पणी दी है कि विद्वान कुलिंद , कुणिंद , कुलुन एक ही क्षेत्र हैं।
कुलिंद उशीनगर
विक्रम संबत पूर्व पांचवीं -चौथी सदी में इस क्षेत्र का नाम उशीनगर भी था। यहां बुद्ध का प्रभाव नही था और बुद्ध ने विनय धर व अन्य गणों से उपसम्पदा करने की अनुज्ञा दी थी।
कुलिंद जनपद के प्रदेश
डा डबराल ने विश्लेषण है कि यह जनपद छ प्रदेशों में बनता था -
तामस - सतलज टोंस नदी का पर्वतीय भाग था। उशी राजा ने यमुना की सहायक नदी जला व उपजला (रूपी -सुपी ?) नदियों के तट पर तपस्या कर इंद्र से भी बड़ा पद प्राप्त किया था।
कालकूट या कालसी -यमुना के दक्षिण में कालसी , देहरादून , स्रुघ्न प्रदेश प्रदेश की भूभाग थे। स्रुघ्न नगर कहीं न कहीं सहारनपुर से संबंध है।
भारद्वाज - भारद्वाज की पहचान वर्तमान गढ़वाल क्षेत्र जाती है। पाणिनि ने भारद्वाज क्षेत्र का दो बार उल्लेख किया है। गंगाद्वार -हरिद्वार के पास भारद्वाज ऋषि के बसने से इस भूभाग का नाम भारद्वाज पदा. याने बिजनौर, हरिद्वार का कुछ हिस्सा या पूरा व सहारनपुर का कुछ हिस्सा भारद्वाज क्षेत्र में आता था।
तंगण -उत्तरकाशी व रुद्रप्रयाग , चमोली का भोटांतिक प्रदेश
रंकु -पिंडर नदी से पिथौरागढ़ तक का क्षेत्र
गोविषाण - अल्मोड़ा , चम्पावत ,नैनीताल उधमसिंघ नगर से गोविषाण की पहचान की जाती है। अतः बिजनौर का कुछ हिस्सा गोविषाण में होने की संभावना भी हो सकती है।
कुलिंद जनपद के प्रमुख नगर
कत्रि नगर - अष्टाध्यायी में कत्रि व कालकूट नगर का उल्लेख है। डा अग्रवाल ने कत्रि नगर की पहचान कत्यूरी नरेशों की राजधानी कार्तिकेयपुर से की है ।
कालकूट नगर -इस नगर की वर्तमान कालसी से पहचान की जाती है। मौर्यकाल में अशोक सम्राट ने यहां अभिलेख शीला स्थापित की थी।
** संदर्भ - ---
वैदिक इंडेक्स
डा शिव प्रसाद डबराल , उत्तराखंड इतिहास - भाग -२
राहुल -ऋग्वेदिक आर्य
मजूमदार , पुसलकर , वैदिक एज
घोषाल , स्टडीज इन इंडियन हिस्ट्री ऐंड कल्चर
आर के पुर्थि , द एपिक सिवलीजिसन
अग्रवाल , पाणिनि कालीन भारत
अग्निहोत्री , पंतजलि कालीन भारत
अष्टाध्यायी
दत्त व बाजपेइ , उत्तर प्रदेश में बौद्ध धर्म का विकास
महाभारत
विभिन्न बौद्ध साहित्य
जोशी , खस फेमिली लौ
हरिद्वार, बिजनौर , सहारनपुर में अशोक काल से पहले बुद्ध धर्म
History of Haridwar, Bijnor, Saharanpur Part -- 88
हरिद्वार, बिजनौर , सहारनपुर इतिहास -आदिकाल से सन 1947 तक-भाग - 88
इतिहास विद्यार्थी ::: भीष्म कुकरेती
जातक संग्रहों में हरिद्वार, बिजनौर , सहारनपुर वर्णन
जातक कथाएँ बुद्ध अनुशीलन के प्राचीनतम साहित्य हैं।
उत्तराखंड वर्णन
जातक कथाओं में उत्तराखंड , बिजनौर व सहारनपुर का अधिक नही किन्तु कुछ अंसांस वर्णन मिलता है।
ओहोगंग या अधोगंग , उशीरध्वज , यामुन , गंधमाधन , विपुल पर्वत उत्तराखंड में थे। उशीनगर को सहारनपुर का कुछ भाग माना जाता है। आंजनपर्वत या यामुन पर्वत में अंजन बनाया जाता था जो अशोक कल में भी प्रसिद्ध था शायद कालसी व सहारनपुर के आस पास का क्षेत्र भी हो सकता है।
जातक कथाओं में भाभर का वर्णन
जातक कथाओं में पहड़ी इलाकों से अधिक भाभर क्षेत्र का वर्णन है । भाभर के वनों का वर्णन अलंकृत भाषा में हुआ है।
वृक्षों में - धव , अश्वकर्ण , खदिर , शाल , फंदन मालुव , आम, कुटज , सलल , नीप , कोसंब , आदि का वर्णन मिलता है ।
वन्य पशुओं में -गोधा ,शरभमृग , गीदड़ , वनैल , श्वान ,हाथी , चितकबरे मृग , रोहित तुलिय बंदर , चलनी , भालू , वनवृषभ , गैंडा , सूअर , खरगोश , भेड़िया आदि पशु थे।
पक्षी -मोर , हंस , वकुत्थ , चकोर , कुक्कुट , बगुला , सारस , बाज , नज्जुहा , दिंदिया , बाज , लोहित , प्रिष्टजीव , जीवक , तीतर , कपिंजर , कोयल , उल्लू तोता आदि।
मगरमच्छ , सर्प कछप आदि भी थे।
भाभर में आखेट सुविधा
कोसल , वाराणसी से राजा भाभर (बजनौर, हरिद्वार , सहारनपुर आदि क्षेत्र ) में शिकार खेलने आते थे। इन राजाओं को नरमाँश खाने का शौक था जो भाभर के किन्नरों को मार कर प्राप्त किया जाता था।
दास दासियों की मंडी - भाभर से अन्य क्षेत्र के लोग किन्नर आदियों को खरीद कर ले जाते थे।
व्यापार - बैलोगाड़ी , घोड़ा गाडी , हाथीगाड़ी से सामन को इधर उधर लिया -लाया जाता था।
आश्रम - विद्याध्यन हेतु आश्रम थे।
तपस्वी - तपस्वी भी गैर उत्तराखंडी भाभर , उत्तराखंड में रहते थे।
बुद्धधर्म का प्रसार
परवर्ती बौद्ध साहित्य अनुसार महात्मा बुद्ध हरद्वार में कनखल के पास पंहुचे थे। और वहां उशीरगिरी (सहारनपुर क्षेत्र ?) तक गए थे। बुद्ध उत्तराखंड के श्रुघ्ननगर में पंहुचे थे और वहां एक ब्राह्मण अभिमान को दूर किया था (दत्त व वाजपई , उत्तर प्रदेश में बौद्ध धर्म का विकास ).
बुद्ध निर्वाण के पश्चात गढ़वाल भाभर, हरिद्वार , बिजनौर में बौद्ध धमावलम्बियों का बर्चस्व कई शताब्दियों तक रहा। गंगाद्वार में बुद्ध काल से सनातनी आश्रमों में बौद्ध धर्मी चिंतन शुरू हो गया था। बुध के प्रमुख शिस्य साणवासी गंगाद्वार के कनखल में रहते थे और संघ में दो विभाजन के समय साणवासी ने मगध में द्यितीय संगति का आयोजन किया था।
गंगद्वार और, सहारनपुर बिजनौर में अशोक काल से पहले ही बुद्ध धर्म का प्रचलन हो चुका था। यही कारण है कि कुलिंद नरेशों के सिक्कों में चैत्य व बोधिवृक्ष अंकित हैं। ऋषिकेश से हरिद्वार व बिजनौर आदि क्षेत्र में बौद्ध आश्रम खुल चुके थे।