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History of Uttarakhand from the eyes of elders: बुजुर्गों की नजर से उत्तराखंड का इतिहास

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नवीन जोशी:
दोस्तो,

वास्तव में हमारे बुजुर्ग हमारे इतिहास के सबसे बड़े गवाह होते हैं, वास्तव में वही 'इतिहास' को 'वर्तमान' के हाथों सौंपते हैं, ताकि 'इतिहास' से सबक लेकर 'वर्तमान' बेहतर 'भविष्य' का निर्माण करे. वास्तव में हमारे बुजुर्ग ही हमारे असल 'इतिहास' हैं, उनकी कही बातें हमारे देश-प्रदेश का उस दौर का 'आईना' हमारे सामने रख देते हैं. एक बात यह भी माननी पड़ेगी कि हमारे बुजुर्गों की याददास्त भी कमाल की होती है. यहाँ में अपने दादाजी से प्रेरित होकर एक ऐसा टोपिक शुरू करने जा रहा हूँ, जिसमें आप चाहें तो अपने बुजुर्गों से बातें कर 'इतिहास' के और कई बंद कपाटों को खोल सकते हैं.


नवीन जोशी

नवीन जोशी:
वो भी क्या दिन थे.....
[/font][/color]ठीक से तो याद नहीं, मेरी जन्म तिथि शायद सन् 1917 की रही होगी। 1917 इसलिऐ क्योंकि सन् 1946 के आसपास जब मैं अंग्रेजों की फौज (द्वितीय विश्व युद्ध की ब्रिटिश आर्मी) में भर्ती हुआ था, तब मेरी उम्र करीब 29 वर्ष  थी। मेरी शादे हो चुकी थी, और पहली सन्तान होने को थी। बड़े भाई ने मेरे खिलाफ पिता के कान भरे थे, जिस पर पिता ने एक दिन डपट दिया। बस क्या था, मैं घर से निकल भागा। तब गरुड़ तक ही सड़क थी, और हमारा गांव 'तोली' (पोथिंग) पिण्डारी ग्लेशियर के यात्रा मार्ग पर पड़ता था। मैं सुबह तड़के घर से भागकर जगथाना के रास्ते से गरुड़ के लिए निकल पड़ा। शाम तक वज्यूला गांव पहुंच गया, वहां मेरे ममेरे भाई की ससुराल थी। रात्रि में वहीं रुका। सुबह बस पकड़ी और नैनीताल के लिए चल पड़ा। वहां नैनीताल में मेरे जेठू अंबा दत्त, मोटर कंपनी में `मोटर मैन´ थे। चलते ही भाई ने ताकीद कर दी थी, गेठिया में बस से उतर जाना, वहां से नैनीताल पास ही होता है। सीधे नैनीताल जाओगे तो वहां `टैक्स´ देना पड़ेगा। तब अक्सर लोग चार आने के करीब पड़ने वाले टैक्स को बचाने के लिए ऐसे यत्न आम तौर पर करते थे। मैंने भी ऐसा ही किया। गेठिया से नैनीताल के लिए करीब दो किलोमीटर की खड़ी चढ़ाई थी। पर उस जमाने में जब पैदल चलना आम होता था, यह दूरी नगण्य ही मानी जाती थी।[/color]
खैर, मैं नैनीताल पहुंच गया। जेठू जी से मिला, उनके घर रहा। दूसरे दिन मुझे घर पर बैठे रहने को कह कर जेठू काम पर चले गऐ, लेकिन मैं अकेला ही बाहर निकल गया। गांव से पहली बार घर से निकला था, पर किसी तरह की झिझक मुझमें नहीं थी। देखा, तल्लीताल में अंग्रेजों की सेना के लिए भर्ती चल रही थी। मैं भी भर्ती प्रक्रिया में शामिल हो गया। वजन आदि लिया गया। आगे मेडिकल जांच के लिए नऐ रंगरूटों (रिक्रूटों) को पैदल अल्मोड़ा जाने की बात हुई। अंग्रेजी न जानने के बावजूद मुझमें अंग्रेजों से बात करने में कोई झिझक नहीं थी। अंग्रेज भी कोई `हिटलर´ जैसे न थे। मैंने कह दिया, अंग्रेज साहब तुम्हें भी साथ में पैदल चलना पड़ेगा, तभी जाऐंगे। उन्हें भी कोई आपत्ति नहीं हुई। तब अल्मोड़ा के लिए सीधे सड़क नहीं थी। गरमपानी से रानीखेत व कोसी होते हुऐ अल्मोड़ा के लिए रास्ता था। हम लोग सुयालबाड़ी के गधेरे से होते हुऐ पैदल रास्ते से अल्मोड़ा पहुंचे। कमोबेश इसी पैदल रास्ते से आज की सड़क बनी है। मेडिकल प्रक्रिया में शामिल हुआ। वहां साथ गऐ सभी रिक्रूटों´ में से केवल मैं भर्ती हुआ। अन्य `टेस्ट´ में कोई आंख न दिखाई देने, तो कोई न सुनाई देने जैसी बातें बताकर बाहर हो गये थे। बाद में पता चला कि यह लोग बहाने करते थे। वह बहुत गरीबी का जमाना था। भर्ती प्रक्रिया के दौरान खाने को पूड़ियां और वापसी पर दो रुपऐ मिलते थे, जिसके लालच में लड़के भर्ती होने आते थे, और बहाने बनाकर दो रुपऐ लेकर वापस लौट आते थे। मुझे यह पता न था। मुझसे अंग्रेज अफसर ने पूछा, तुम्हें कोई परेशानी नहीं है। मैंने दृढ़ता से कहा, `नहीं, मैं लड़ने आया हूं। कुछ परेशानी होती तो क्यों आता ?´ अफसर मुझसे बहुत प्रभावित हुआ। कहा, 'तुम भर्ती हो गऐ हो। सियालकोट (पाकिस्तान) पोस्टिंग हुई है। वहीं ज्वाइनिंग लेनी होगी।' रास्ते के खर्च के लिए चार रुपऐ दिऐ। तब आठ आने यानी 50 पैंसे में अच्छा खाना मिल जाता था। काठगोदाम तक साथ में एक आदमी भेजा, और रास्ते के बारे में बताकर अकेले सियालकोट भेज दिया। मैंने उससे पूर्व ट्रेन क्या बस भी नहीं देखी थी, पर मैं निर्भीक होकर रुपऐ ले खुशी-खुशी चल पड़ा।
ट्रेन से पहले बरेली, वहां से ट्रेन बदलकर मुरादाबाद, और वहां से एक और ट्रेन बदलकर सीधे सियालकोट पहुंच गया। वहां गर्मी के दिन थे, पहुंचते ही पोस्टिंग ले ली। तुरन्त मलेशिया की बनी नई ड्रेस मिल गई। अपने इलाके के और रिक्रूट मिल गऐ। मुझे देखकर खुश हो गऐ। मैं उनसे अधिक उम्र का था, और डील डौल में भी बड़ा, लिहाजा पहुंचते ही उन्होंने मेरी अच्छी सेवा कर दी। वहां हिन्दू और मुस्लिम हर तरह के सिपाही थे, सबमें अच्छा दोस्ताना था. बस दोनों की 'खाने की मेस' अलग-अलग होती थी. छह माह के भीतर गोलियां चलाने की ट्रेनिंग शुरू हो गई, इस हेतु 600 गज में चान्दमारी (गोलियां चलाने की ट्रेनिंग का स्थान) बनाई गई थी। मैंने जिन्दगी में पहला फायर झोंका, बिल्कुल निशाने पर। अंग्रेज अफसर से शाबासी मिली। फिर दूसरा, तीसरा.....कर पूरे दस, सब के सब ठीक निशाने पर। साथियों और अफसरों में मैं हीरो हो गया। सबसे शाबासी मिली। मेरा खयाल रखा जाने लगा। लेकिन फौज में एक वर्ष ही हुआ होगा, कि आजाद हिन्द फौज के सिपाही आ गऐ। अंग्रेजों के उनके सामने पांव उखड़ गऐ। लिहाजा, हमारी `फौज´ टूट गई। हमसे कहा गया कि `सेकेण्ड कुमाऊं रेजीमेंट´ खुल गई है। वहां चले जाओ। सीधे घर जाने पर 120 रुपऐ मिलने थे, और `सेकेण्ड कुमाऊं रेजीमेंट´ में जाने पर यह 120 रुपऐ खोने का खतरा था। तब अक्ल भी नहीं हुई। 120 रुपऐ बहुत होते थे, घर की परिस्थितियां भी याद आईं। लालच में आ गया। सीधे घर चला आया। 120 रुपऐ से गांव में चाचा की जमीन खरीद ली, जबकि शान्तिपुरी भाबर में 210 रुपऐ में 120 नाली जमीन और जंगल काटने के लिए हथियार मिल रहे थे। लेकिन अपनी मिट्टी के प्यार ने वहां भी नहीं जाने दिया। तभी से अपनी मिट्टी को थामे हुऐ पहाड़ में जमा हुआ हूं। (दादाजी श्री देवी दत्त जोशी जी से बातचीत के आधार पर)

एम.एस. मेहता /M S Mehta 9910532720:

जोशी जी,

मुझे बचपन की याद, हमारी अम्मा और इजा कहती थी हमारे गाव के आगे एक जगह है जिसका नाम करीम पुर है कहाँ जाता था वहां पर मुस्लिम समुदाय के लोगो का निवास था जहाँ पर उन्होंने चाय  के बागन और पानी की बहुत बड़ी टैंक बनाई थी जो आज भी वहां वध्यमान है !

शायद तभी इस जगह का नाम करीम पुर पड़ा होगा !

Anil Arya / अनिल आर्य:
गढ़वाल साम्राज्य में 52 नहीं 55 गढ़?
1823 का ब्रिटिश सर्वे देता है इसकी गवाही, नक्शे में हैं बैराट, बस्तील, दुधली गढ़
जबर सिंह बर्मा
मसूरी। ‘वीरू भड़ु कु देश, बावन गढ़ु कु देश’ विख्यात लोक गायक नरेंद्र सिंह नेगी का गढ़वाल के गढ़ों की जानकारी देने वाला यह मशहूर गीत आपको याद होगा। गढ़वाल के इतिहास के बारे में जो नवीनतम जानकारी मिली है, वह न सिर्फ इस गीत के बोल बदलवा सकती है बल्कि गढ़वाल का 500 वर्ष पुराना इतिहास भी बदल सकती है। अब तक उपलब्ध तथ्यों के आधार पर यही माना जाता रहा है कि गढ़वाल साम्राज्य 52 छोटे-छोटे गढ़ों में विस्तृत था लेकिन अब मिले ब्रिटिशकालीन तथ्य बताते हैं कि यहां 52 नहीं, बल्कि 55 गढ़ हैं। सन् 1823 का यह सर्वे जर्नल अब हासिल हो सका है। तो इतिहासकार तैयार रहें बहस-मुबाहिसा करके इस पर मुहर लगाने के लिए या फिर इसे झुठलाने के लिए।
इतिहास में गहरी रुचि रखने वाले मसूरी के गोपाल भारद्वाज लंबे समय से उत्तराखंड और गढ़वाल के इतिहास पर खोज कर रहे हैं। हाल ही में उन्होंने इंग्लैंड की जर्नल्स ऑफ रॉयल ज्योग्राफिकल सोसाइटी से संपर्क किया, तो गढ़वाल रियासत के बारे में नई जानकारी हासिल हुई। सन् 1817 में भारत के तत्कालीन सर्वेयर जनरल एचएल हर्बर्ट और असिस्टेंट जनरल जेएल होजसंस ने सिरमौर-गढ़वाल की पैदल यात्रा की थी। इसका मकसद गंगा और यमुना के स्रोत ढूंढना था। सन् 1823 में सौंपे गए जर्नल में बताया गया है कि यात्रा के दौरान उन्हें तीन गढ़ भी मिले। जर्नल में हर्बर्ट और होजसंस ने जो लिखा वह कुछ यूं है ‘24 मार्च, 1817 को हम कालसी से चले। 24 हजार पांच सौ ग्यारह कदम चलने के बाद आमला नदी से लगी एक खाई हमें नजर आई। इस खाई से हमने छह हजार कदम की खड़ी चढ़ाई चढ़ी तो सामने दोमंजिला बैराटगढ़ नजर आया। समुद्र तल से 6508 फुट की ऊंचाई पर स्थित यह किला अभेद्य था। गोरखा सेना ने कर्नल करपेंटर की अंग्रेजी सेना के खिलाफ लड़ाई में इसी किले का इस्तेमाल किया था।’ जर्नल में इस किले के चारों ओर की भौगोलिक स्थितियों और मनोहारी नजारों के अलावा यह भी जिक्र है कि यह किला सहारनपुर से भी नजर आता था। दोनों सर्वेक्षकों के हस्ताक्षरयुक्त सर्वे और नक्शे में बैराटगढ़ के अलावा हनोल में स्थित पौराणिक महासू देवता मंदिर के निकट बस्तील गढ़ और मसूरी के निकट दुधली के किले का भी जिक्र है। कालांतर में ये गढ़ जानकारी और जागरूकता के अभाव में प्रकाश में नहीं आ सके। हालांकि, इनमें से बैराटगढ़ को पुरातत्व विभाग भी गढ़ के रूप में लगभग स्वीकार कर चुका है। इतिहास का अध्ययन कर रहे गोपाल भारद्वाज कहते हैं कि इस जर्नल के विवरण के आधार पर कहा जा सकता है कि गढ़वाल में 52 नहीं, बल्कि अब तक ज्ञात कुल 55 गढ़ हैं। माना जाता है कि 15वीं सदी में पाल वंश के 34वें राजा अजयपाल ने सभी गढ़ों को एकजुट कर गढ़वाल साम्राज्य की स्थापना की थी।
http://epaper.amarujala.com//svww_index.php

विनोद सिंह गढ़िया:
जोशी जी आपका लेख 'बुजुर्गों की नजर से उत्तराखंड का इतिहास' के अंतर्गत "वो भी क्या दिन थे" पढ़ा। बहुत अच्छा लगा। बुजुर्ग लोग कहते हैं कि पहले सड़क सिर्फ गरुड़ तक ही थी। बागेश्वर भी तब तक सड़क मार्ग से दूर नहीं  जुडा था।बागेश्वर से कपकोट तक जो सड़क बनी है वो भी श्रमदान से बनी है, इस सड़क निर्माण में सम्पूर्ण दानपुर वासियों का योगदान है। कहते हैं कि जब बागेश्वर में उत्तरायनी का मेला लगता था तब वे दानपुर से पैदल ही बागेश्वर जाते थे।

मेरे पिताजी कहते हैं कि एक बार पहाड़ में भयानक अकाल पड़ा गया था तब वे भी पोथिंग (कपकोट) से पैदल ही गरुड़ तक बीसा (खाद्य-सामग्री) लेने गए थे और उन्हें ५ किलो करीब बाजरा मिला था।  ५ किलो बाजरा के लिए पोथिंग (कपकोट) से गरुड़ तक का सफ़र। कपकोट से गरुड़ की दूरी अभी सड़क मार्ग से लगभग ४५-५० किलोमीटर होगी परन्तु तब तो पैदल मार्ग ही था। न जाने क्या-क्या विपत्ति झेली होंगी हमारे बुजुर्गों ने ।

अन्त में कहूँगा -'धन मेरो पहाड़ s त्यर बलाई ल्युनो'

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