Author Topic: Kuli Begar Movement 1921 - कुली बेगार आन्दोलन १९२१  (Read 35507 times)

पंकज सिंह महर

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सुप्रसिद्ध कवि गौरी दत्त पाण्डे "गौर्दा" उत्तराखण्ड के उन जनकवियों में हैं, जिन्होंने अपनी कविताओं के माध्यम से आजादी की लड़ाई को स्वर दिये। 1921 में कुली बेगार आन्दोलन के दौरान उन्होंने अपनी सशक्त लेखनी से उकेरा, कुछ बानगियां-

प्रस्तुत कविता में कुली बेगार आन्दोलन के बाद उल्लास के साथ होली मनाने का वर्णन है।



कुल्ली भूत जलाय होली

आई आज बहार, होली खेलत हैं, कुल्ली भूत जलाय होली खेलत हैं।
सरयू तट संक्रान्ति के दिन बागेश्वर में आय, होरी खेलत हैं।
भीष्म प्रतिग्या करी बदरी ने, हर चिरंजी संग लाय होरी।
नेताऊ संग लागी परजा, दीनी कलंक मिटाय होरी।
इस बंधन काटन के हित ही, भई जनता इक राय होरी।
कियो कठिन प्रण गंगाजल ले, सहसों हाथ उठाय होरी।
नौकरशाही को मन दहलो, नेता लिये बुलाय होरी।
शांति भंग मिस हट जाने को, आग्या दी धमकाय होरी।
नहिं परवा नेता जन कीनी, जै गांधी कहलाय, होरी।
संभव अब नहिं कुली बनेंगे, चाहे सरबस जाय, होरी।
अबके होरी खेलेंगे हम, शंख स्वराज बजाय, होरी।
मगन मन गावै नाचै पांडे, हो गये कृष्ण सहाय, होरी॥

हेम पन्त

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कुली बेगार उन्मूलन आन्दोलन के अग्रणी नेता बद्री दत्त पाण्डे जी को समर्पित है पिथौरागढ का जिला अस्पताल


पंकज सिंह महर

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प्रस्तुत कविता में भी कुली बेगार आन्दोलन के बाद बागनाथ भवान की स्तुति सहित धन्यवाद देने का वर्णन है।

जै जै बागनाथ

जै जै बागनाथ, तेरी जै जै गंग माई,
तेरा दरबार, गयो खोरा भार,
कुली को उतार, दियो कलंक बगाई,
नेता तीन आया, संग में रिआया।
देस गीत गाया, फिरी गांधी दुहाई,
सभा एक करी, सांकि गंगा धरी,
चाहे जुला मरी, कयो कुल्लि नि द्यूं भाई,
ढंग देखी न्यार, सैप भया खार,
नसि जावौ भ्यार, कयो नेतान बुलाई,
सभा में यो ठानी, जाण में छ हानी,
हुकुम नी मानी, सैप अमला खिस्याई,
एक मत धरी, लियो काम करी,
लागि नै के कारी, नि मिली कुली बारी,
बैठी रैला मारी, सैप अमला खिस्याई,
एक मत्त धरी, लियो काम करी,
दुःख होला बरी, तुम स्वराज्य कैं पाईं,
गांधी छ औतार, बोलो जै जैकार,
करी यो बिचार, बण गांधी को सिपाई,
उतरैणी फाम शेर बद्री नाम,
भूलूंगा क्या काम, सन एकैसकी भाई॥

पंकज सिंह महर

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वो अंग्रेजों की दासता का वक्त था। पूरे देश पर अंग्रेजों का राज था। देश के उत्तर में जहां हिमालय दूर-दूर तक फैला है, अंग्रेज अपनी मनमानी कर रहे थे। तत्कालीन यूनाइटेड प्रोविंस का सबसे उत्तरी छोर, जो अब उत्तराखंड कहलाता है, कुली बेगार से तड़फ रहा था।   अंग्रेज अधिकारी अपने निजी काम कराने के लिए स्थानीय लोगों का उपयोग करते थे। माल को इधर-उधर पहुंचाने के लिए जानवरों की जगह इंसानों का प्रयोग। कुली की तरह इंसानों का उपयोग। अंग्रेज अधिकारी जिस किसी से चाहे कुली बेगार करवा सकता था। और जो मना करता, उसे भारी जुर्माने के साथ-साथ जेल की सजा हो जाती।

इस दमनकारी नीति के खिलाफ १९१९ में पूरे उत्तराखंड क्षेत्र में जन-आंदोलन चला। तत्कालीन ब्रिटिश गढ़वाल (अब पौढ़ी, चमोली, रुद्रप्रयाग) में इस आंदोलन की बागडोर गढ़केसरी अनुसूया प्रसाद बहुगुणा के हाथ में थी। १९१९-२० में जब कुली बेगार प्रथा के खिलाफ पूरे उत्तराखंड में आंदोलन चला तो ब्रिटिश गढ़वाल में इसकी बागडोर अनुसूया प्रसाद ने संभाल ली। गांव-गांव घूमकर लोगों को कुली बेगार के खिलाफ खड़ा किया।

अनुसूया प्रसाद की कोशिशों का नतीजा निकला, १९२१ में। अंग्रेज़ कमिश्नर रैमजे जब चमोली के दशजूला पट्टी पहुंचा, तो उसका खाना बनाने, सामान उठाने और दूसरे कामों के लिए कोई भी बेगार करने को तैयार नहीं हुआ। हार कर रैमजे ने अनुसूया प्रसाद को बातचीत के लिए बुलाया। लेकिन अनुसूया प्रसाद कुली बेगार खत्म किए बगैर बातचीत के लिए तैयार नहीं हुए। अनुसूया प्रसाद के इस साहसिक कदम के बाद जनता ने उन्हें गढकेसरी कहना शुरू कर दिया।

पंकज सिंह महर

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अँग्रेजों ने कुली उतार एवं कुली बेगार जैसी अमानवीय प्रथायें पहड़वासियों पर लादी थी । एक समय था जब पहाड़ में अँग्रेजों को अपना सामान लादने के लिए कुली मिलना कठिन था । इस प्रथा के अन्तर्गत प्रत्येक गाँव में बोझा ढोने के लिए कुलियों के रजिस्टर बनाये गये थे । अँग्रेज साहब के आने पर ग्राम प्रधान या पटवारी 'घात' आवाज लगाता । जिसके नाम की आवाज़ पड़ती उसे अपना सारा काम छोड़कर जाना अनिवार्यता थी । बच्चे, बूढ़े, बीमार होने का भी प्रश्न न था । सन् १८५७ में कमिश्नर हैनरी रैमजे ने ४० कैदियों से क्षमादान की शर्त पर कुलियों का काम लिया था । लेकिन ज्यों-ज्यों अँग्रेज बढ़ते गये समस्या विकट होती गयी । तब ज़ोर ज़बरदस्ती से मैनुअल आॅफ़ गवर्नमेंट आडर्स में कुली प्रथा को निर्धारित किया गया । लेकिन भूमिहीन और कर्मचारियों को कुली नहीं माना गया । कुली का कार्य वह करता था जिसके पास जमीन होती । इस तरह कुमाऊँ का प्रत्येक भूमिपति अँग्रेजों की न में कुली था । यही नहीं कुली का काम करने वाले व्यक्ति को साहब के शिविरों में खाद्य पदार्थ इत्यादि भी ले जाने पड़ते । यह भार 'बर्दायश' कहलाता ।

सन् १९२९ में कुमाऊँ केसरी बद्रीदत्त पाण्डे के नेतृत्व में इसी सरयू बगड़ में कुली बेगार के रजिस्टरों को डुबोया गया । तब से लेकर आज तक राजनैतिक दल इस पर्व का उपयोग अपनी आवाज बुलन्द करने में करते हैं ।


साभार-http://tdil.mit.gov.in

पंकज सिंह महर

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उत्तर भारत के सुरम्य प्रदेशों में उत्तराखण्ड का अपना विशिष्ट महत्व है। आधुनिक कुमायूं के इतिहास का सबसे पहला ऐतिहासिक विवरण हमें एटकिन्सन के गजेटियर जो १८८४-८६ में लिखा गया में मिलता है। भारत के इस कठिन भौगोलिक भूखण्ड में यातायात सदा से दुष्कर रहा है। यदि हम इतिहास के आइने में झांके कि सबसे पहले चन्द शासकों (१२५०-१७९० ई.) ने राज्य में घोडों से सम्बन्धित एक कर ’घोडालों‘ निरूपति किया था सम्भवतः कुली बेगार प्रथा का यह एक प्रारंभिक रूप था। आगे चल गोरखाओं के शासन में इस प्रथा ने व्यापक रूप ले लिया लेकिन व अंग्रेजों ने अपने प्रारम्भिक काल में ही इसे समाप्त कर दिया। पर धीरे-धीरे अंग्रेजों ने न केवल इस व्यवस्था को पुनः लागू किया परंतु इसे इसके दमकारी रूप तक पहुंचाया। १८७३ ई. के एक सरकारी दस्तावेज से ज्ञात होता है कि वास्तव में यह कर तब आम जनता पर नहीं वरन् उन मालगुजारों पर आरोपित किया गया था जो भू-स्वामियों या जमीदारों से कर वसूला करते थे। अतः देखा जाये तो यह प्रथा उन काश्तकारों को ही प्रत्यक्ष तौर पर प्रभावित करती थी जो जमीन का मालिकाना हक रखते थे। पर वास्तविकता के धरातल पर सच यह था इन सम्पन्न भू-स्वामी व जमीदारों ने अपने हिस्सों का कुली बेगार, भूमि विहीन कृषकों, मजदूरों व समाज के कमजोर तबकों पर लाद दिया जिन्होंने इसे सशर्त पारिश्रमिक के रूप में स्वीकार लिया। इस प्रकार यह प्रथा यदा कदा विरोध के बावजूद चलती रही। १८५७ में विद्रोह की चिंगारी कुमाऊं में भी फैली। हल्द्वानी कुमांऊ क्षेत्र का प्रवेश द्वार था। वहां से उठे विद्रोह के स्वर को उसकी प्रारंभिक अवस्था में ही अंग्रेज कुचलने में समर्थ हुए। लेकिन उस समय के दमन का क्षोभ छिटपुट रूप से समय समय पर विभिन्न प्रतिरोध के रूपों में फूटता रहा। इसमें अंग्रेजों द्वारा कुमांऊ के जंगलों की कटान और उनके दोहन से उपजा हुआ असंतोष भी था। यह असंतोष घनीभूत होते होते एकबारगी फिर बीसवी सदी के पूर्वार्द्व में ’कुली विद्रोह‘ के रूप में फूट पडा। १८५७ के अल्पकालिक विद्रोह के बाद यह कुमांऊ में जनता के प्रतिरोध की पहली विजय थी। १९१३ ई. में जब कुली बेगार अल्मोडे के निवासियों पर लागू किया गया तो उन्होंने इसका प्रचण्ड विरोध किया। ध्यान देने योग्य तथ्य यह है कि कुमांऊ क्षेत्रा विशेषकर अल्मोडा जनपद हमेशा से एक जागरूक जीवंत शहर रहा है व यहां के निवासियों ने सामाजिक सरोकार के प्रश्नों पर सदा से ही एक मत रखा है। इन लोगों का कुमांयू के समाज, साहित्य, लोक कलाओं आदि पर सदैव मजबूत पकड रही अतः यह स्वाभाविक था कि एसे जीवंत शहर के बाशिंदों द्वारा इस व्यवस्था का मजबूत प्रतिरोध होता। बद्रीदत्त पांडे इस आंदोलन के अगुआ नायक के रूप में उभरे। प्रसिद्ध अखबार ’’द लीडर‘‘ में सहायक सम्पादक के रूप में उभरने के बाद से उन्होंने १९१३ ई. में ’’अल्मोडा अखबार‘‘ की बागडोर संभाली। बद्रीदत्त पांडे जो कांग्रेस के सक्रिय सदस्य थे, उन्होंने इसको अंग्रेजों सत्ता के विरूद्ध हथियार बना लिया। ब्रिटिश शासन ने कुली बेगार के माध्यम से स्थानीय समाज के परम्परागत ढांचे को प्रभावित किया था। शासकों के प्रतिनिधियों के रूप में कार्य कर चुके स्थापित भू-स्वामियों को इसने सबसे अधिक प्रभावित किया। इन प्रभावशाली स्थानीय व्यक्तियों को इन नई व्यवस्था में अन्य साधारण स्थानीय व्यक्तियों के समकक्ष समझा गया क्योंकि अंग्रेजों ने मौटे तौर पर समाज को केवल दो वर्गों-शासक व शासित में बांटा। इस नयी व्यवस्था से समाज के संपन्न और प्रभावशाली वर्ग में गहरा असंतोष था। ब्रिटिश सरकार ने इस असंतोष से निपटने का एक विलक्षण उपाय ढूंढा व इसे स्थानीय प्रथा कह स्वयं को इससे अलग करने का प्रयास किया। ऐसी स्थिति में स्थानीय जनता ने बद्रीदत्त पाडे के नेतृत्व में इसे बन्द कराने का संकल्प लिया व मकर संक्रांति के दिन बांगेश्वर में सभी गांवों के प्रतिनिधियों ने अपने-अपने गांवों के रजिस्टर ले जाकर उन्हें सरयू में प्रवाहित कर इस प्रथा के अंत की घोषणा की। ब्रिटिश सत्ता के लाख विरोध के बावजूद यह पूर्णत सफल प्रयास सा जिसमें लगभग ४०,००० गांवों के प्रतिनिधियों ने अपने-अपने रजिस्टर सरयू में प्रभावित किये। जनसंकल्प व दृढ निश्चय के इस अनूठे प्रयास ने महात्मा गांधी तक को रोमान्चित किया। स्वयं गांधी जी के शब्दों में ’’इसका प्रभाव सम्पूर्ण था। एक रक्तहीन क्रांति‘‘। यद्यपि इसे दबाने का प्रयत्न किया गया पर यह सफल रहा। इसी आन्दोलन ने बद्रीदत्त पाण्डे को कुमांयू केसरी की उपाधि दिलायी। गौरीदत्त पाण्डे उर्फ गौर्दा ने भी जो लोकप्रिय कवि थे इसका भरपूर समर्थन किया। लोक गीतों में भी इसका वर्णन मिलता है। बागेश्वर के उत्तरायणी मेले में कुली बेगार प्रथा के अंत की घोषणा का स्थानीय लोक गीत विधा झौडा में कुछ इस प्रकार उल्लेख मिलता है- ’’ओ झकूनी ऊंनी यों हृदय का तारा, याद ऊं छ जब कुल्ली बेगारा।खै गया ख्वै गया बडी बेर सिरा, निमस्यारी डाली गया चौरासी फेराड्ड सुनरे पधाना यो सब पुजी गो, धान ल्या, चौथाई ध्यू को। ह्यून चौमास जेठ असाठा, नाड भुखै बाट लागा अलमोडी हाटाड्ड बोजिया बाटा लगा यो छिल काने धारा, पाछि पडी रै यो कोडों की मारा।यो दीन दशा देखी दया को, कूर्माचल केसरी बदरीदत्त नामा। यो विक्तर मोहना हरगोविन्द नामा, ऐ पूजा तीन वीरा।सन् इक्कीस उतरैणी मेला, यो, ऐ पूजा तीन वीरा गंगा ज्यू का तीरा।सरजू बगडा बजायो लो डकां, अबनी रौली यो कुल्ली बेगारा। क्रुक सन सैप यो चाऐ रैगो, कुमैया वीर को जब विजय है गो।सरयू गोमती जय बागनाया, सांति लै सकीगे कुल्ली प्रथा।यह एक जनांदोलन था। जिसने क्षेत्र को बद्रीदत्त पांडे, मोहन सिंह मेहता, हरि कृष्ण पांडे, केदार दत्त पंत , शिव दत्त जोशी, देवी लाल वर्मा, मोहन जोशी, धर्मानन्द भट्ट जैसे व्यक्तित्व दिये जिन्होंने आगे चल स्वतंत्राता आंदोलन मे महत्वपूर्ण भूमिका निभाई।

साभार - अपूर्व जोशी, www.creativeuttarakhand.com

sanjupahari

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Kudos to Hem Ji and Mahar Ji for such a wonderful piece of information, you guys have provided a magnificent abstract in the form of text, pictures and song. “Discovering the Himalaya” a book authored by respected Sharad Singh Negi Ji, also described a little on Kuli Begar.
In fact, recently a comprehensive profound description about the place and on Kuli Begar is well compiled by Shri Charu Tewari in “Hamari Virasat”, that got published under the aegis of Myor Pahar.
A little more to ad on, plz click here to read a brief note on Bageshwer http://www.creativeuttarakhand.com/cu/tourism/bageshwar.html

Jai Uttarakhand

Tumar Dagaru
Sanjupahari

Devbhoomi,Uttarakhand

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grate information meharji

पंकज सिंह महर

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अमानवीय गोरखा शासन से उत्तराखण्ड को मुक्ति मिली ही थी कि अंग्रेजों से हुये समझौते के अनुसार टिहरी रियासत (वर्तमान के टिहरी, उत्तरकाशी और रुद्रप्रयाग जनपद) को छोड़कर शेष उत्तराखण्ड में अंग्रेजों का राज स्थापित हो गया। अंग्रेजों की स्रामाज्य के प्रति लिप्सा और उत्तराखण्ड में सड़कों का अभाव, माल ढोने वाले पशुओं के लिये भी सुगम पथ न होने के कारण अंग्रेजों ने इस क्षेत्र में कुली बेगार को अनिवार्य बना दिया। जब भी अंग्रेज साहब दौरे पर निकलता तो रास्ते में पड़ने वाले गांवों के पधान और मालगुजार निर्धारित संख्या में ग्रामीणों को लेकर कुली बेगार देने के लिये चले आते थे। झौलदारी से लेकर जूतों के बक्से ढोना, क्राकरी से लेकर कमोड तक, मक्खन से लेकर गौ मांस तक, सब कुछ सर पर लाद कर लोगों को ढोना पड़ता था।
    उस पर भी कहीं विश्राम करने का मौका नहीं और थोड़ी सी भी चूक होने पर बेंत से पिटाई की जाती थी, साहब ही नहीं, साहब के दोस्तों, शिकारियों, सैलानियों के आने पर भी यही सब दोहराया जाता था। केवल श्रम की ही बेगार नहीं ली जाती थी, बल्कि लोगों के खेतों और इलाके में होने वाली सभी चीजों- फल-फूल, दूध-दही, घी, अन्न, पशु-पक्षी आदि को भी जबरन बर्दाइश के नाम पर ले लिया जाता था। प्रतिरोश करने पर लाठी-बेंत से पिटाई से लेकर हवालात तक की सजा हो जाया करती थी।
      इस अमानवीय प्रथा के विरोध में जनांलोदन हुआ और उसकी परिणिति यह हुई कि सरकार को सदन में एक प्रस्ताव लाकर इस प्रथा का अंत करने के लिये मजबूर होना पड़ा।

पंकज सिंह महर

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उत्तराखण्ड के सुप्रसिद्ध कवि स्व० श्री गौरी दत्त पाण्डे "गौर्दा" ने कुली बेगार के प्रति लोगों को अपनी कविताओं के माध्यम से जागरुक करने का प्रयास किया और वे इसमें सफल भी हुये। इस गीत में कुली बेगार से होने वाली आम आदमी की समस्या और उससे लड़ने की प्रेरणा के साथ ही अब कुली बेगार न देने की अपील तथा इसी ताकत से आजादी की लड़ाई में जुटने का आह्वान किया गया है।

मुलुक कुमाऊं का सुणी लियो यारो, झन दिया-झन दिया कुली बेगार।
चाहे पड़ी जा डंडे की मार, झेल हुणी लै होवौ तैय्यार।।
तीन दिन ख्वे बेर मिल आना चार, आंखा देखूनी फिरी जमादार।
घर कुड़ी बांजी करी छोडी सब कार, हांकी ली जांछ सबै माल गुजार।।
पाकि रुंछ जब ग्यूं-धाने सार, दौरा करनी जब हुनी त्यार।
म्हैण में तीसूं दिन छ उतार, लगियै रूंछ यो तिन तार॥
हूंछिया कास ऊं अत्याचार, मथि बटि बर्षछ मूसलाधार।
मुनव  लुकोहं नि छ उड़यार, टहलुवा कुंछिया अमलदार॥
बरदैंस लीछिया सब तैय्यार, फिर लै पड़न छी ज्वातनैकि मार।
तबै लुकछियां हम गध्यार, द्वी मुनि को बोझ एका का ख्वार॥
भाजण में होलो चालान त्यार, भूख मरि बेर घर परिवार।
भानि-कुनि जांछि कुथलिदार, ख्वारा में धरंछी ढेरों शिकार॥
टट्टी को पाट ज्वाता अठार, खूंठा मिनूर्छियां रिश्तेदार।
घ्वाड़ा मलौ कूंछ सईस म्यार, पटवारि, चपरासि और पेशकार॥
अरदलि खल्लासि आया सरदार, बाबर्चि खनसाम तहसीलदार।
घुरुवा-चुपुवा नपकनी न्यार, बैकरन की अति भरमार॥
दै-दूध, अंडा-मुर्गि द्वि चार, को पूछो लाकड़ा-घास का भार।
बाड़-बड़ा मालैलै भरनी पिटार, अरु रात-दिना पड़नी गौंसार॥
भदुवा डिप्टी का छन वार-पार, अब कुल्ली नी द्यूं कै करो करार।
कानून न्हांति करि है बिचार, पाप बगै हैछ गंगज्यू की धार॥
अब जन धरो आपणो ख्वार, निकाली घारौ आपणा ख्वार।
निकाली नै निकला दिलदार, बागेश्वर है नी गया भ्यार॥
कौतिक देखि रया कौतिकार, मिनटों में बंद करो छ उतार।
हाकिम रै गया हाथ पसार, चेति गया तब त जिलेदार॥
बद्रीदत्त जसा हुन च्याला चार, तबै हुआ छन मुलुक सुधार।
कारण देशका छोड़ि रुजगार, घर-घर जाइ करो परचार॥
लागिया छन यै कारोबार, ऎसा बहादुर की बलिहार।
दाफा लागी गैछ अमृतधार, बुलाणा है करि हालो लाचार॥
डरिया क्वै जन, खबरदार....! पछिल हटणा में न्हांति बहार।
चाकरशा.....देली धिक्कार, फूंकि दियौ जसि लागिछ खार॥
भूत बणाई कुलि उतार, बणि आली उनरी करला उतार।
कैसूं उठैया जन करिया कोई गंवार, जंगल में तुम खबरदार॥
हूणा लागी रई लुलुक सुधार, मणि-मणि कै मिलला अधिकार।
हमरा दुःख सुणि भयौ औतार, गांधी की बोलो सब जै जैकार॥
जागि गौछ अब सब संसार, भारत माता की होलि सरकार।
ज्यौड़ि बाटी हैछ लु जसो तार, तोडि नि सकनौ भूरिया ल्वार॥
सत्य को कृष्ण छ मददगार, हमरी छ वांसू अन्त पुकार।
चिरंजीव, गोबिन्द, बद्री-केदार, हयात मोहन सिंह की चार॥
बणी गई यों मुल्क का प्यार, प्रयाग-कृष्णा छन हथियार।
ऎसा बहादुर चैंनी हजार, स्वारथ त्यागि लगा उपकार॥
शास्त्री लै छन देश हितकार, इन्न सूं लै लागि छ धार।
देशभक्ति की यो छ पन्यार, कष्टन शनेर होय हजार॥
स्वारथि मैंनू की न्हांति पत्यार, आपुणा देसकि करनी उन्यार।
नौकरशाही छ बणि मुखत्यार, कुली देऊणा में मददगार।।
विनती छू त्येहूं हे करतार, देश का यौं लै हुना फुलार।
आकाशबाणी छ नी हवौ हार, जीत को पांसो छन पौबार॥
देश का गीत गावो गीतार, चाखुलि-माखुली छोड़ौ भनार।
निहोलो जब तक सम व्यवहार, भुगुतुंला तब तक कारागार॥
लागि पड़ि करौ देश उद्धार, नी मिलौ तुमन फिरि फिटकार।
दीछिया गोरख्योल कन फिटकार, वी है कम क्या ग्वारखोल यार॥
पत्तो छु मेरो लाला बजार, गौरी दत्त पाण्डे, दुकानदार।

 

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