Uttarakhand > Uttarakhand History & Movements - उत्तराखण्ड का इतिहास एवं जन आन्दोलन
Kuli Begar Movement 1921 - कुली बेगार आन्दोलन १९२१
पंकज सिंह महर:
उत्तराखण्ड आन्दोलनों की धरती रही है, अनेकों समय पर कई आन्दोलन यहां होते रहे हैं। कुली बेगार आन्दोलन संभवतः उत्तराखण्ड का पहला व्यापक जनांदोलन था। यह आन्दोलन बागेश्वर के उत्तरायणी मेले के दौरान 14 जनवरी, 1921 में कुमाऊं केसरी बद्री दत्त पाण्डे की अगुवाई में हुआ था। इसका प्रभाव सम्पूर्ण उत्तराखण्ड में था, कुमाऊं मण्डल में इस कुप्रथा की कमान बद्री दत्त पाण्डे जी के हाथ में थी, वहीं गढ़वाल मण्डल में इसकी कमान अनुसूया प्रसाद बहुगुणा के हाथों में थी। इस आन्दोलन के सफल होने और कुली बेगार कानून को सरकार के वापस लिये जाने के बाद बद्री दत्त पाण्डे जी को कुमाऊं केसरी और अनुसूया प्रसाद बहुगुणा जी को गढ़ केसरी का खिताब जनता द्वारा दिया गया था।
इस टोपिक के अन्तर्गत हम इस आन्दोलन के बारे में जानकारियों का आदान-प्रदान करेंगे।
पंकज सिंह महर:
सबसे पहले जानते हैं कि कुली बेगार प्रथा क्या थी?
आम आदमी से कुली का काम बिना पारिश्रमिक दिये कराने को कुली बेगार कहा जाता था, विभिन्न ग्रामों के पधानों का यह दायित्व होता था कि वह एक निश्चित अवधि के लिये, निश्चित संख्या में कुली शासक वर्ग को उपलब्ध करायेगा। इस कार्य हेतु पधान के पास बाकायदा एक रजिस्टर भी होता था, जिसमें सभी ग्राम वासियों के नाम अंकित होते थे और सभी को बारी-बारी यह काम करने के लिये बाध्य किया जाता था।
यह तो घोषित बेगार था और इसके अतिरिक्त शासक वर्ग के भ्रमण के दौरान उनके खान-पान से लेकर हर ऎशो-आराम की सुविधायें भी आम आदमी को ही जुटानी पड़ती थी।
असल में कुली बेगार जैसी कुप्रथा उत्तराखण्ड में राजवंशों के समय से ही किसी न किसी रुप में थी। इस बात का पहला विवरण एटकिंसन के गजेटियर में मिलता है, जो 1884-86 के बीच लिखा गया था, उसमें बताया गया है कि "यह यातायात के लिये हमेशा ही दुष्कर रहा है" यदि हम इतिहास में देखें तो सबसे पहले चन्द शासकों (1250-1790) ने राज्य में घोड़ो से संबंधित कानून बनाया था, संभवतः कुली बेगार का यह आरंभिक स्वरुप था। आगे चलकर इस प्रथा ने ही कुली बेगार प्रथा का व्यापक रुप ले लिया। अंग्रेजों ने इसे पुनः शुरु किया और इस प्रथा को भारत में अनिवार्य कर दिया था तथा इसे दमन के रुप में भी इस्तेमाल करने लगे।..............जारी
हेम पन्त:
कुली बेगार ब्रिटिश शासन काल की एक ऐसी सरकारी व्यवस्था थी जिसके अन्तर्गत गांवों के लोग सरकार की सेवा में मजदूरी करने को बाध्य थे - बिना मजदूरी के.
किसी अंग्रेज अधिकारी के अपने इलाके में दौरे पर आने के समय गांव के प्रधान और पटवारी की जिम्मेदारी होती थी कि वह उस इलाके के गांवों से अवैतनिक मजदूरों की व्यवस्था करें. इस कार्य में जाति-पाति या धर्म के आधार पर कोई छूट नहीं थी. सम्मानित लोगों को भी अपना नम्बर आने पर अंग्रेजों के लिये बिना पैसे के काम करना पङता था. कभी-कभी तो लोगों को अत्यन्त घृणित काम करने के लिये भी मजबूर किया जाता था. जैसे कि अग्रेज की Toilet Seat (कमोङ) या गन्दे कपङे आदि ढोना.
इस प्रथा के प्रति धीरे-२ जनता के बीच असन्तोष बढता गया क्योंकि गांव के प्रधान व पटवारी अपने व्यक्तिगत हितों को साधने या बैर भाव निकालने के लिये इस कुरीति को बढावा देने लगे. पूरे उत्तराखण्ड (खासकर कुमांऊं क्षेत्र) के लोगों ने इस कुरीति के निवारण के लिये संगठित होना शुरु किया. और 14 जनवरी 1921 को बागेश्वर के सरयू-गोमती के संगम (बगङ) पर कुली बेगार के हजारों रजिस्टर प्रवाहित करके इस कुप्रथा को समूल नष्ट कर दिया. यह तत्कालीन ब्रिटिश सरका के मुंह पर एक करारा तमाचा था. इस आन्दोलन से महात्मा गांधी जी बहुत प्रभावित हुए उन्होंने कुछ साल बाद खुद बागेश्वर भ्रमण किया और इसे एक बहुत महत्वपूर्ण ऐतिहासिक आन्दोलन बताया.
जारी...
पंकज सिंह महर:
1873 के एक सरकारी दस्तावेज के अनुसार यह कानून वास्तव में उन मालगुजारों पर आरोपित किया ग्या था, जो भूस्वामी या जमींदार कर उघारते थे। लेकिन प्रथा उन काश्तकारों पर ही प्रत्यक्ष और परोक्ष रुप से प्रभावित करती थी, जो जमीनों पर मालिकाना हक रखते थे, धरातल पर सच यह था कि यह भू स्वामी अपने हिस्से का कुली बेगार, भूमि विहीन कृषकों, मजदूरों और समाज के कमजोर तबकों से ले लेते थे। उन्होंने भी सशर्त पारिश्रमिक के रुप में इसे स्वीकार कर लिया। इस प्रकार से यह प्रथा चलती रही, 1857 के विद्रोह की चिंगरी कुमाऊं (तत्कालीन सम्पूर्ण उत्तराखण्ड, टिहरी रियासत (टिहरी, रुद्रप्रयाग और उत्तरकाशी जनपद) को छोड़कर) में भी फैली। हल्द्वानी में सबसे पहले इस प्रथा के खिलाफ विद्रोह के स्वर उठे, लेकिन अंग्रेजों ने पहले ही दौर में उसको दबा दिया। 1913 में कुली बेगार यहां के निवासियों के लिये अनिवार्य कर दिया गया। इसका हर जगह पर विरोध किया गया, बद्री दत्त पाण्डे जी ने इस आंदोलन की अगुवाई की। अल्मोड़ा अखबार के माध्यम से उन्होंने इस कुरीति के खिलाफ जनजागरण के साथ-साथ विरोध भी प्रारम्भ कर दिया। 1920 में नागपुर में कांग्रेस का वार्षिक अधिवेशन हुआ, जिसमें पं० गोविन्द बल्लभ पंत, बद्रीदत्त पाण्डे, हर गोबिन्द पन्त, विक्टर मोहन जोशी, श्याम लाल शाह आदि लोग सम्मिलित हुये और बद्री दत्त पाण्डे जी ने कुली बेगार आन्दोलन के लिये महात्मा गांधी से आशीर्वाद लिया और वापस आकर इस कुरीति के खिलाफ जनजागरण करने लगे।
पंकज सिंह महर:
14 जनवरी, 1921 को उत्तरायणी पर्व के अवसर पर कुली बेगार आन्दोलन की शुरुआत हुई, इस आन्दोलन में आम आदमी की सहभागिता रही, अलग-अलग गांवों से आये लोगों के हुजूम ने इसे एक विशाल प्रदर्शन में बदल दिया। सरयू और गोमती के संगम के पास के सरयू बगड़ के मैदान से इस आन्दोलन का उदघोष हुआ। जिलाधिकारी ने जन नेताओं पर प्रतिबंध लगा दिया, पं० हरगोबिन्द पंत, लाला चिरंजीलाल और बद्री दत्त पाण्डे को नोटिस थमा दिया लेकिन इसका कोई असर उनपर नहीं हुआ, उपस्थित जनसमूह ने सबसे पहले बागनाथ जी के मंदिर में जाकर पूजा-अर्चना की और फिर 40 हजार लोगों का जुलूस सरयू बगड़ की ओर चल पड़ा, जुलूस में सबसे आगे एक झंडा था, जिसमें लिखा था "कुली बेगार बन्द करो", इसके बाद सरयू मैदान में एक सभा हुई, इस सभा को सम्बोधित करते हुये बद्रीदत्त पाण्डे जी ने कहा "पवित्र सरयू का जल लेकर बागनाथ मंदिर को साक्षी मानकर प्रतिग्या करो कि आज से कुली उतार, कुली बेगार, बरदायिस नहीं देंगे।" सभी लोगों ने यह शपथ ली और गांवों के पधान अपने साथ कुली रजिस्टर लेकर आये थे, शंख ध्वनि और भारत माता की जय के नारों के बीच इन कुली रजिस्टरों को फाड़कर संगम में प्रवाहित कर दिया।
अल्मोडा का तत्कालीन डिप्टी कमिश्नर डायबल भीड़ में मौजूद था, उसने बद्री दत्त पाण्डे जी को बुलाकर कहा कि "तुमने दफा १४४ का उल्लंघन किया है, तुम यहां से तुरंत चले जाओ, नहीं तो तुम्हें हिरासत में ले लूंगा।" लेकिन बद्रीदत्त पाण्डे जी ने दृढ़ता से कहा कि "अब मेरी लाश ही यहां से जायेगी", यह सुनकर वह गुस्से में लाल हो गया, उसने भीड़ पर गोली चलानी चाही, लेकिन पुलिस बल कम होने के कारण वह इसे मूर्त रुप नहीं दे पाया।
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