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Maiti Movement, 1994 - मैती आन्दोलन, १९९४

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पंकज सिंह महर:
साथियो,
      आप लोग मैती आन्दोलन से परिचित होंगे ही, आइये आज इसी सामाजिक आन्दोलन पर चर्चा करते हैं।

पंकज सिंह महर:
उत्तराखण्ड में मैत का अर्थ होता है मायका, और मैती का अर्थ होता है, मायके वाले। इस आन्दोलन में पहाड़ की नारी का उसके जल, जंगल और जमीन से जुड़ाव को दर्शाया गया। क्योंकि एक अविवाहित लड़की के लिये उसके गांव के पेड़ भी मैती ही होते हैं, इसलिये जिस भी लड़की की शादी हो रही हो, वह फेरे लेने के बाद वैदिक मंत्रोच्चार के बीच एक पेड़ लगाकर उसे भी अपना मैती बनाती है।
       इस भावनात्मक पर्यावरणीय आन्दोलन की शुरुआत 1994  में राजकीय इण्टर कालेज, ग्वालदम, जिला-चमोली के जीव विग्यान के प्रवक्ता श्री कल्याण सिंह रावत जी द्वारा की गई। जो अभी भी निरन्तर चल रहा है, आज इस कार्यक्रम ने अपना फैलाव पूरे उत्तराखण्ड सहित देश के कई अन्य राज्यों तक कर लिया है।

अगली पोस्टों में कुछ समाचार दिये जा रहे हैं, जिससे आप मैती की व्यापकता को और करीब से जान पायेंगे।

पंकज सिंह महर:
मैती : रस्म नहीं, आंदोलन भी

आज के दौर में 'ग्लोबल वार्मिंग' एक बड़ी समस्या बनकर उभरा है और इस गंभीर समस्या के भावी खतरों से पूरा विश्व खौफजदा हो चला है। ऐसे में उत्ताराखण्ड के चमोली जनपद में चल रहा आंदोलन एक बड़ी मिसाल कायम करता है। मैती जैसे पर्यावरणीय आंदोलन कुछ लोगों के लिए सिर्फ रस्मभर हैं जबकि इस आंदोलन की पृष्ठभूमि में जाएं तो पता चलता है कि यह एक ऐसा भावनात्मक पर्यावरणीय आंदोलन है जिसे व्यापक प्रचार मिले तो पर्यावरण प्रदूषित ही ना हो। मैती यानि शादी के अवसर पर वैदिक मंत्रेच्चार के बीच दूल्हा-दुल्हन द्वारा फलदार पौधों का रोपण। पर्यावरण के रक्षार्थ इस तरह के भावनात्मक आंदोलन की शुरुआत हुई आज से करीब एक दशक पूर्व। चमोली जनपद के राजकीय इंटर कालेज ग्वालदम के जीव विज्ञान के प्राधयापक कल्याण सिंह रावत द्वारा मैती आंदोलन की शुरुआत हुई जो धीरे-धीरे परम्परा का रूप धारण करती जा रही है। यह आंदोलन आज गढ़वाल में जन-जन तक पहुंच चुका है। मैती का अर्थ होता है 'मायका' यानि जहां लड़की जन्म से लेकर शादी होने तक अपने माता-पिता के साथ रहती है। और जब उसकी शादी होती है तो वह ससुराल जाती है लेकिन अपनी यादों के पीछे वह गांव में बिताए गए पलों के साथ ही शादी के मौके पर रोपित वृक्ष से जुड़ी यादों को भी साथ लेकर जाती है। इसी भावनात्मक आंदोलन के साथ शुरू हुआ पर्यावरण संरक्षण का यह अभियान दिनों-दिन आगे बढ़ता जा रहा है। मैती आंदोलन के साथ लोगों को जोड़ने का जो काम कल्याण सिंह रावत ने किया अब वह परम्परा का रूप ले चुका है। अब जब भी गढ़वाल के किसी गांव में किसी लड़की की शादी होती है कम से कम चमोली जनपद में तो विदाई के समय मैती बहनों द्वारा दूल्हा-दुल्हन को गांव के एक निश्चित स्थान पर ले जाकर फलदार पौधा दिया जाता है। वैदिक मंत्रें द्वारा दूल्हा इस पौधो को रोपित करता है तथा दुल्हन इसे पानी से सींचती है, फिर ब्राह्मण द्वारा इस नव दम्पत्ति को आशीर्वाद दिया जाता है। दूल्हा अपनी इच्छा अनुसार मैती बहनों को पैसे भी देता है। आज जनपद के कई गांवों में मैती संगठन मौजूद हैं। यह गांव की बहनों का संगठन है। गांव की सबसे मुखर व जागरूक लड़की मैती संगठन की अधयक्ष बनती है। जिसे 'दीदी' के नाम से जाना जाता है। मैती संगठन के बाकी सदस्यों को मैती बहन के नाम से फकारा जाता है। शादी की रस्म के बाद दूल्हा-दुल्हन द्वारा रोपे गए पौधों की रक्षा यही मैती बहनें करती हैं। इस पौधों  को वह खाद, पानी देती हैं, जानवरों से बचाती हैं। मैती बहनों को जो पैसा दूल्हों के द्वारा इच्छानुसार मिलता है, उसे रखने के लिए मैती बहनों द्वारा संयुक्त रूप से खाता खुलवाया जाता है। उसमें यह राशि जमा होती है। खाते में अधिाक धानराशि जमा होने पर इसे गरीब बच्चों की पढ़ाई पर भी खर्च किया जाता है। मैती के पीछे श्री रावत जी की यह सोच थी कि सालभर में कई शादियां गांवों में होती हैं। प्रत्येक शादी में अगर एक पेड़ लगे तो एक बड़ा जंगल बन जाएगा, जंगल से फल व ईंधान प्राप्त होगा, घास पैदा होगी, जो गांव के लोगों के बीच नि:शुल्क बांटी जाएगी। साथ ही शुध्द वायु भी लोगों को मिलेगी। पर्यावरण सुंदर होगा। अगर यहां के संदर्भ में देखें तो यहां की अर्थव्यवस्था जल, जंगल, जमीन से जुड़ी हुई है। लेकिन आज प्राकृतिक संपदा खतरे में है। ऐसे में मैती आन्दोलन वैश्विक होते हुए पर्यावरणीय समस्या का एक कारगर उपाय हो सकता है। बशर्ते इसके लाभों को व्यापक रूप से देखा जाए। आज सरकार पर्यावरण संरक्षण के नाम पर करोड़ों रुपया खर्च कर रही है, लेकिन समस्या दूर होने के बजाए बढ़ती जा रही है। ऐसे में पर्यावरण को बचाने के लिए मैती को एक सफल कोशिश कहा जा सकता है।

साभार- http://www.bhartiyapaksha.com/mag-issues/2008/January08/Maite%20Rasm%20nahi.html

पंकज सिंह महर:
मैती आन्दोलन की धूम कनाडा तक भी
“पैसे दे दो, जूते ले लो ” लोक में इस गीत के बोल चाहे जिस तरह के भी हों, विवाह के अवसर पर जूते चुराकर नेग लेने की परंपरा बहुत पुरानी है. लेकिन उत्तराखंड की लड़कियों ने शादी के लिए आए दूल्हों के जूते चुरा कर उनसे नेग लेने के रिवाज को तिलांजलि दे दी है. वे अब दूल्हों के जूते नहीं चुराती बल्कि उनसे अपने मैत यानी मायके में पौधे लगवाती हैं. इस नई रस्म ने वन संरक्षण के साथ साथ सामाजिक समरसता और एकता की एक ऐसी परंपरा को गति दे दी है, जिसकी चर्चा देश भर में हो रही है.
       अब यह आंदोलन उत्तराखंड सहित देश के आठ राज्यों में भी अपने जड़ें जमा चुका है. चार राज्यों में तो वहां की पाठ्य पुस्तकों में भी इस आंदोलन की गाथा को स्थान दिया गया है. कनाडा में मैती आंदोलन की खबर पढ़ कर वहां की पूर्व प्रधानमंत्री फ्लोरा डोनाल्ड आंदोलन के प्रवर्तक कल्याण सिंह रावत से मिलने गोचर आ गईं.
 
       वे मैती परंपरा से इतना प्रभावित हुई कि उन्होंने इसका कनाडा में प्रचार-प्रसार शुरु कर दिया. अब वहां भी विवाह के मौके पर पेड़ लगाए जाने लगे हैं. मैती परंपरा से प्रभावित होकर कनाडा सहित अमेरिका, ऑस्ट्रिया, नार्वे, चीन, थाईलैंड और नेपाल में भी विवाह के मौके पर पेड़ लगाए जाने लगे हैं.

      मैती आंदोलन की भावनाओं से अभिभूत होकर अब लोग जहां पेड़ लगा रहे हैं वहीं उनके व्यवहार भी बदल रहे हैं. पर्यावरण के प्रति उनके सोच में भी परिवर्तन आ रहा है. यही वजह है कि अब लोग अपने आसपास के जंगलों को बचाने और इनके संवर्धन में भी सहयोग करने लगे हैं. इस आंदोलन के चलते पहाड़ों पर काफी हरियाली दिखने लगी है और सरकारी स्तर पर होने वाले वृक्षारोपण की भी असलियत उजागर हुई है. गांव-गांव में मीत जंगलों की श्रृंखलाएं सजने लगी हैं.

      पर्यावरण संरक्षण के लगातार बढ़ते इस अभियान को अपनी परिकल्पना और संकल्प से जन्म देने वाले कल्याण सिंह रावत ने कभी सोचा भी नहीं था कि उनके प्रेरणा से उत्तराखंड के एक गांव से शुरु हुआ यह अभियान एक विराट और स्वयं स्फूर्त आंदोलन में बदल जाएगा.

मैती की धुन

       अब तो इसकी व्यापकता इतनी बढ़ गई है कि इसके लिए किसी पर्चे-पोस्टर और बैठक-सभा करने की जरूरत नहीं होती है. मायके में रहने वाली मैती बहनें शादियों के दौरान दूल्हों से पौधे लगवाने की रस्म को खुद-ब-खुद अंजाम देती हैं.
 
विवाह के समय ही पेड़ लगाने की इस रस्म के स्वयं स्फूर्त तरीके से फैलने की एक बारात में आए लोग भी होते हैं जो अपने गांव लौटकर इस आंदोलन की चर्चा करने और अपने यहां इसे लागू करने से नहीं चूकते. शादी कराने वाले पंडित भी इस आंदोलन का मुफ्त में प्रचार करते रहते हैं. अब तो शादी के समय छपने वाले निमंत्रण पत्रों में भी मैती कार्यक्रम का जिक्र किया जाता है. आज की तारीख में आठ हजार गावों में यह आंदोलन फैल गया है और इसके तहत लगाए गए पेड़ों की संख्या करोड़ से भी उपर पहुँच गई है. करीब डेढ़ दशक पहले चामोली के ग्वालदम से फैला यह आंदोलन कुमाऊं में घर-घर होते हुए अब गढ़वाल के हर घर में भी दस्तक देने लगा है. शुरुआती दौर में पर्यावरण संरक्षण के वास्ते चलाए गए इस अभियान में महिलाओं और बेटियों ने इसमें सर्वाधिक भागीदारी निभाई.

मैती का अर्थ होता है लड़की का मायका. गांव की हर अविवाहित लड़की इस संगठन से जुड़ती हैं. इसमें स्कूल जाने वाली लड़कियों के साथ, घर में रहने वाली लड़कियां भी शामिल होती हैं. इस संगठन को लड़कियों के घर परिवार के साथ गांव की महिला मंगल दल का भी समर्थन-सहयोग प्राप्त होती है. बड़ी-बूढ़ी महिलाएं भी मैती की गतिविधियों में शामिल होने से नहीं चूकती.

मैती वाली दीदी

मैती संगठन की कार्यविधि बिल्कुल साफ औऱ कदम सरल है. संगठन को मजबूत और रचनात्मक बनाने के लिए सभी लड़कियां अपने बीच की सबसे बड़ी और योग्य लड़की को अपना अध्यक्ष चुनती है, अध्यक्ष पद को बड़ी दीदी का नाम दिया गया है. बड़ी दीदी का सम्मान उनके गांव में उतना ही होता है जितना एक बड़े परिवार में सबसे बड़ी बेटी का होता है.

गांव के मैती संगठन की देखरेख और इसको आगे बढ़ाने का नेतृत्व चुनी गई बड़ी दीदी ही करती है. बाकी सभी लड़कियां इस संगठन की सदस्य होती है. जब बड़ी दीदी की शादी हो जाती है तो किसी दूसरी योग्य लड़की को बहुत सहजता के साथ संगठन की जिम्मेदारी सौंप दी जाती है और यह क्रम लगातार चलता रहता है.

गांव की हरेक लड़की मायके में अपने घर के आसपास किसी सुरक्षित जगह पर अपने प्रयास से किसी वृक्ष की एक पौध तैयार करती है. यह पौध जलवायु के अनुकूल किसी भी प्रजाति की हो सकती है. कुछ लड़कियां जमीन पर पॉलिथीन की थैली पर केवल एक पौधा तैयार करती है. गांव में जितनी लड़कियां होती हैं, उतने ही पौधे तैयार किये जाते हैं.
 
हरेक लड़की अपने पौध को देवता मान कर या अपने जीवन साथी को शादी के समय़ देने वाला एक उपहार मान कर बड़ी सहजता, तत्परता और सुरक्षा से पालती-पोसती रहती है. इस तरह अगर गांव में सौ लड़कियां है तो सौ पौध तैयार हो रहे होते हैं. किसी भी गांव की लड़की की शादी तय हो जाने पर बड़ी दीदी के मां-बाप से बातचीत करके उनके घर के ही आंगन में या खेत आदि में शादी के समय अपने दूल्हे के साथ पौधारोपण कर देती हैं. शादी के दिन अन्य औपचारिकताएं पूरी हो जाने पर बड़ी दीदी के नेतृत्व में गांव की सभी लड़कियां मिल कर दूल्हा-दुल्हन को पौधारोपण वाले स्थान पर ले जाती हैं. दुल्हन द्वारा तैयार पौधे को मैती बहनें दुल्हे को यह कह कर सौंपती हैं कि यह पौधा वह निशानी है या सौगात है जिसे दुल्हन ने बड़े प्रेम से तैयार किया है.

मैती कोष भी

दूल्हा मैती बहनों के नेतृत्व में पौधा रोपता है और दुल्हन उसमें पानी देती है. मंत्रोच्चार के बीच रोपित पौधा दूल्हा दुल्हन के विवाह की मधुर स्मृति के साथ एक धरोहर में तब्दील हो जाता है. पौधा रोपने के बाद बड़ी दीदी दूल्हे से कुछ पुरस्कार मांगती है. दूल्हा अपनी हैसियत के अनुसार कुछ पैसे देता है, जो मैती संगठन के कोष में जाता है. मैती बहनों दूल्हों से प्राप्त पैसों को बैंक य़ा पोस्ट ऑफिस में या गांव की ही किसी बहू के पास जमा करती रहती हैं.

इन पैसों का सदुपयोग गांव की गरीब बहनों की मदद के लिए किया जाता है. गरीब बहनों के विवाह के अलावा इन पैसों से उन बहनों के लिए चप्पल खरीदी जाती है, जो नंगे पांव जंगल में आती-जाती हैं या इन पैसों से गरीब बच्चियों के लिए किताब या बैग आदि खरीदे जाते हैं. हरेक गांव में मैती बहनों को साल भर में होने वाली दस पंद्रह शादियों से करीब तीन चार हजार से अधिक पैसे जमा हो जाते हैं. ये पैसे मैती बहनें अपने गांव में पर्यावरण संवर्धन के कार्यक्रमों पर भी खर्च करती है.

प्रसून लतांत
उत्तराखंड के इलाकों से

साभार- http://raviwar.com/news/58_maiti-uttarakhand-prasunlatant.shtml

पंकज सिंह महर:
प्रेम का पेड़
मैती आंदोलन अब केवल विवाह के मौके पर दूल्हा-दुल्हन से वृक्ष लगाने तक सीमित नहीं रह गया है. इस आंदोलन के प्रणेता कल्याण सिंह रावत ने इस भावनात्मक आंदोलन को बहुमुखी बनाने में भी कामयाबी पाई है. अपने अनेक अभिनव प्रयोगों और गरीबों, विकलांगो, महिलाओं और छात्रों के बीच सामाजिक कार्यों के कारण मैती संगठन की पहचान सभी वर्गों के बीच बन गई है. इस संगठन ने वैलेंटाइन डे जैसे आयातित मैके को भी गुलाब फूल लेने-देने के प्रचलन से बाहर निकाल कर `एक युगल एक पेड़’ के कार्यक्रम से जोड़ दिया है. अब उत्तराखंड़ के गांव-गांव में वेलेंटाइन डे पर भी प्रेमी जोड़े अपने प्रेम की याद में पेड़ लगाते हैं. 
      मैती बहनों ने एक और भावनात्मक कार्यक्रम को अंजाम दिया. जब टॉस वन प्रभाग उत्तरकाशी में स्थित एशिया का सबसे बड़ा देवदार वृक्ष गिर गया तो उसकी याद में मैती बहनों ने इस पेड़ के महाप्रयाण पर एक भव्य औऱ शिक्षाप्रद क्रार्यक्रम का आयोजन किया. इस मौके पर जहां हजारों लोगों की मौजूदगी में महाप्रयाण किए देवदार वृक्ष को भावभीनी विदाई दी गई, वहीं उसकी जगह इसी जाति का एक नया पेड़ भी लगाया गया.
मैती बहनों ने पर्यावरण संरक्षण और वन्यप्राणियों की रक्षा के लिए कई नए मेलों का भी शुभारंभ किया जो आज भी हर वर्ष अपने समय पर आयोजित होते आ रहे हैं.

       मैती बहनों ने पूरे उत्तराखंड में पर्यावरण संरक्षण के लिए वृक्षारोपण के अलावा वन्यजीवों की रक्षा के साथ अंधविश्वास के खिलाफ न सिर्फ चेतना जगाई बल्कि लंबा संघर्ष भी किया. चौरींखाल पौड़ी गढ़वाल में बूंखाल मेरे के दौरान पशुवध के खिलाफ संघर्ष किया. संघर्ष का परिणाम यह हुआ है कि जहां हर वर्ष इस मेले में चार सौ भैंसों की बलि दी जाती थी, वहीं उनकी संख्या अब चालीस से भी कम हो गई है. इसी तरह विनसर और सरनौल क्षेत्रों में भी वन्य प्राणियों की रक्षा के अभियान चलाए गए. सरनौल में सौ से अधिक वन्यप्राणियों की रक्षा की गई. मैती संगठन ने पूरे उत्तराखंड में वन्य़प्राणियों के प्रति प्रेम पैदा करने के लिए आठ सौ किलोमीटर की महायात्रा का आयोजन किया और वन्य प्राणियों की रक्षा के लिए लोगों को जागरुक किया.

मैती बहनों ने रूद्रनाथ बुग्याल में जड़ी-बूटी दोहन के खिलाफ भी संघर्ष किया. चामोली गांवल में पाटला गांव को गोद लेकर उसे पूरी साक्षर बनाने में कामयाबी पाई. बांधों के कारण डूब गए टिहरी शहर की स्मृति को सुरक्षित रखने के लिए डूबते समय तैंतीस ऐतिहासिक स्थलों की मिट्टी को लाकर स्वामी रामतीर्थ कॉलेज के हाल में उसे अलग-अलग गढ़ों में स्थापित किया गया और उस पर वृक्ष लगाए गए.

इसी तरह मैती बहनों ने राज्य सरकार की मदद से पंद्रह दिसंबर 2006 में सौ साल पूरा करने वाले एफआरआई देहरादून का शताब्दी समारोह मनाया. इस समारोह में राज्य भर के बारह लाख बच्चों के हस्ताक्षर युक्त दो किलोमीटर लंबे कपड़े से एफआरआई भवन को लपेटा गया. तत्कालीन राज्यपाल सुदर्शन अग्रवाल ने मुख्य अतिथि के रूप में कपड़े की गांठ बांधी और दो ऐतिहासिक वृक्षों का जलाभिषेक किया.

मैती बहनों ने पर्यावरण संरक्षण और वन्यप्राणियों की रक्षा के लिए कई नए मेलों का भी शुभारंभ किया जो आज भी हर वर्ष अपने समय पर आयोजित होते आ रहे हैं. ग्रामीणों के बीच स्वास्थ्य चेतना अभियान युवाओं के लिए खेलकूद और बेसहारों को सहारा देने के लिए भी अनेक कर्यक्रम संचालित होते रहे हैं.

प्रसून लतांत
उत्तराखंड के इलाकों से
साभार- http://www.raviwar.com/news/57_premkaped-maiti-prasunlatant.shtml

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