Author Topic: Old History of Uttarakhand - उत्तराखण्ड का प्राचीन इतिहास  (Read 160259 times)

नवीन जोशी

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कुमाऊं की ऐतिहासिक, सामाजिक एवं आर्थिक पृष्ठभूमि

[justify]भारत के नव निर्मित राज्य उत्तराखण्ड का उत्तरी क्षेत्र मध्य हिमालय या उत्तराखण्ड के नाम से जाना जाता है। यह उत्तराखण्ड या मध्य हिमालयी क्षेत्र कुमाऊं एवं गढ़वाल दो मण्डलों में विभक्त है। कुमाऊं मण्डल के अन्तर्गत छ: जिले आते हैं - अल्मोड़ा, बागेश्वर, चम्पावत, पिथौरागढ़, नैनीताल और ऊधमसिंह नगर। सन् 1991 की जनगणना के अनुसार कुमाऊं की कुल जनसंख्या 29,43,199 है जिसमें से ग्रामीण क्षेत्र में 23,44,615 और शहरी क्षेत्र में 5,98,584 निवास करते हैं। इस दृष्टि से अभी भी कुमाऊं की 80 प्रतिशत जनसंख्या गांवों में निवास करती है जबकि केवल 20 प्रतिशत जनसंख्या शहरों में निवास करती है। इसमें भी 13,77,030 साक्षर हैं, जबकि 15,66,169 लोग निरक्षर हैं। कुमाऊं में अनुसूचित जाति की संख्या 5,43,383 तथा अनुसूचित जनजाति की संख्या 1,11,072 है। व्यवसाय की दृष्टि से देखें तो कुमाऊं में कुल श्रमजीवी 10,67,200 नाममात्र के श्रमजीवी 1,95,697 तथा अश्रमजीवी 16,80,302 हैं। इनमें किसान 6,33,174 तथा खेतिहर मजदूर 10,07,016 हैं।

कुमाऊं मण्डल के छहों जनपदों में रहने वाला समाज कुमाऊंनी समाज के नाम से जाना जा सकता है, जिसके अन्तर्गत सवर्ण-असवर्ण
जनजातीय-गैरजनजातीय, साक्षर-निरक्षर, ग्रामीण-शहरी, किसान-मजदूर, नौकरीपेशा-गैर नौकरीपेशा तथा अमीर-गरीब सभी तरह के लोग आते हैं। विभिन्न जातियों एवं धमो± के लोग यहां निवास करते हैं। ऐतिहासिक दृष्टि से कुमाऊं का विशेष महत्व है पुराणों में इस वर्णन `मानसखण्ड´ के रूप में हुआ है। गढ़वाल को `केदारखण्ड´ कहा गया है। महाभारत में पूरे उत्तराखण्ड का वर्णन `उत्तर कुरु´ के रूप में हुआ है।

इतिहासकारों का कहना है कि प्रारंभ में यहां - यक्ष, गंधर्व, किन्नर, नाग, हूण, कोल, किरात, कुणिन्द, तंगण, खश, शक, वैदिक आर्य, कत्यूरी तथा चन्द आदि समय-समय पर विभिन्न रास्तों से आए। खशों को आयो± की ही एक शाखा माना गया है। इन खश आयो± के आगमन से पूर्व यहां - यक्षों, गंधवो±, किन्नरों व नागों का शासन था। वे लोग शान्तििप्रय, कलाप्रेमी और सौन्दर्य पिपासु थे तथा कामदेव और कुबेर की पूजा करते थे। अतीत में जो शक्तिशाली जातियां यहां आयीं, उन्होंने अपने पूर्ववर्ती जाति के लोगों को परास्त कर, यहां पर शासन किया। कहा जाता है कि कोलों को किरातों ने हराया, किरातों को खशों ने और खशों को वैदिक आयो± ने। वर्तमान में कुमाऊंनी समाज के निम्नतम वर्ग का प्रतिनिधित्व करने वाले शिल्पकार समुदाय को उन्हीं कोलों का वंशज बताया जाता है। किरातों को वैदिक साहित्य में अनार्य कहा गया है। कुमाऊं की वर्तमान `राजी´ जनजाति को उन्हीं किरातों का वंशज माना गया है। खश समुदाय, जो पूर्व में आर्य थे, वैदिक आयो± से भिन्न थे तथा ये उत्तर-पश्चिम से 5000 से 1000 वर्ष ई.पू. यहां आए। राहुल सांकृत्यांयन `शख´ को `शक´ का रूपान्तर मानते हैं। उनकी दृष्टि में यहां शकों का राज्य था। `शक´ की बाद में ध्वनि-परिवर्तन के आधार पर `खश´ हो गया। लगभग सभी पूर्ववर्ती इतिहासकारों का मानना है कि कुमाऊं के शिल्पकारों को छोड़कर शेष सभी जातियां बाहर से आकर यहां बसीं। खशों के बाद यहां पर वैदिक आयो± का आगमन हुआ और उन्होंने खशों को परास्त कर, यहां पर अपना शासन कायम किया।

भारत में मौर्य शासन (345 ई.पू. से 184 ई.पू. तक) से उत्तराखण्ड के इतिहास के दस्तावेज मिलते हैं। ऐतिहासिक प्रमाणों के आधार पर उत्तराखण्ड में मौयो± का शासन था। मौयो± के बाद कुणिन्दों का यहां शासन रहा। कुछ इतिहासकारों की दृष्टि में वर्तमान जौनसारी (जौनसार भावर में रहने वाले) उन्हीं के वंशज प्रतीत होते हैं। कई जगहों पर कुणिन्दों के सिक्के भी यहां मिले हैं। कुणिन्दों का मिस्र के यूनानियों के साथ एक विशेष प्रकार का व्यापारिक एवं अन्त:संचार सम्बंध भी था। मौयो± के बाद गुप्त साम्राज्य का भी उत्तराखण्ड से सम्बंध रहा। `प्रयाग प्रशस्ति´ में `कर्तपुर´ का उल्लेख मिलता है, जिसमें उसे सीमान्त राजधानी बताया गया है जो समुद्रगुप्त (335 ई. से 375 ई) के अधिराजत्व में स्वीकार किया गया है।

पावेल प्राइस (च्वूमसस च्तपबमद्ध ने कुणिन्दों व कत्यूरियों के बीच वंशानुगत सम्बंध स्थापित किया है। उनके अनुसार कत्यूरी या तो
कुणिन्दों के वंशज थे या उनके राजनीतिक उत्तराधिकारी। हो सकता है कि कुणिन्दों ने गुप्तों को परास्त किया हो और उनकी एक शाखा
कत्यूर घाटी में स्थापित हो गई हो और यही शाखा बाद में `कत्यूरी´ के नाम से जानी गई हो। इनका राज्य सर्वप्रथम बद्रीनाथ के उत्तर में `जोशीमठ´ में स्थापित हुआ, बाद में अल्मोड़ा के `कत्यूरी घाटी´ (बैजनाथ) में स्थानान्तरित हो गया। कत्यूरियों ने न केवल कुमाऊं एवं गढ़वाल में सातवीं शती के उत्तरार्द्ध से ग्यारहवीं शती तक शासन किया, वरन कत्यूरी शासन के पतन के बाद भी, कुछ खास-खास स्थानों पर कत्यूरियों का शासन रहा। 12वीं शती में नेपाल के मल्ल शासकों ने आक्रमण कर कत्यूरी शासन को समाप्त कर दिया। 13वीं शती में कुमाऊं में कई छोटे-छोटे धड़े (महर-फत्र्याल) व अन्य दल राजनीतिक अस्तित्व में आए, जिनमें सीरा-डोटी के रैका व चम्पावत के चन्द प्रमुख थे। इस तरह कत्यूरियों के पतन के साथ ही कुछ संक्रमण काल के बाद कुमाऊं में चन्दों का तथा गढ़वाल में परमारों (पंवारों) का शासन रहा। कत्यूरी एवं चन्द शासकों के बारे में यह भी किंवदन्ती प्रचलित है कि सूर्यवंशी कत्यूरी राजा अयोध्या से तथा चन्द्रवंशी चन्द शासक कन्नौज अथवा इलाहाबाद के निकटवर्ती स्थान झूंसी से कुमाऊं में आए। कुछ विद्वानों का यह भी मानना है कि कत्यूरी राजा बाहर से नहीं आए थे वरन् यहां निवास करने वाले खशों के ही वंशज थे।

कुमाऊं में चन्दशासन का जन्मदाता सोमचन्द माना जाता है। परंपरागत जनश्रृतियों के अनुसार चन्द्रवंश का संस्थापन सोमचन्द कुमाऊं में 685 ई. या 700 ई. अथवा 1178 ई. में आया तथा उसने वृद्ध कत्यूरी शासक की कन्या से विवाह कर राज्य प्राप्त किया। अल्मोड़ा से प्राप्त वंशावलियों में उपयुZक्त तिथियों को ही सोमचन्द के राज्यारोहण की बात कही गई है। सोमचन्द के कुमाऊं में आने के बारे में कई तरह की किवदन्तियां प्रचलित हैं। कहा जाता है कि सोमचन्द गंगोली के मणकोटी राजा के भान्जे लगते थे और अपने मामा से मिलने यहां आए थे। दूसरी जनश्रुति के अनुसार कत्यूरी राजाओं द्वारा यहां के पुराने निवासी बोरा जाति के लोगों के अधिकार छीन लिए जाने के कारण, उनकी जाति के कुछ लोग प्रयाग के पास झूंसी से सोमचन्द नामक राजकुमार को यहां लिवा लाए थे। एक अन्य जनश्रुति के अनुसार कत्यूरी शासन के पतन के बाद कुमाऊं की राजनीतिक व्यवस्था छिन्न-भिन्न हो जाने के कारण कुछ लोग कन्नौज के राजा के पास गए तथा यहां का राजकाज चलाने के लिए किसी को भेजने का अनुरोध किया। उसने अपने छोटे भाई सोमचन्द को यहां भेज दिया। यह भी कहानी प्रचलित है कि कुमाऊं में चन्दशासन की नींव रखने वाला राजा सोमचन्द चन्द्रवंशी चन्देल राजपूत था जो इलाहाबाद के पास झूंसी या प्रतिष्ठानपुर में रहता था। एटकिंसन के अनुसार चन्द्रवंश का संस्थापक थोहरचन्द था, जिसने मल्लों के बाद चंपावत में स्वतन्त्र राज्य स्थापित कर 1261 ई. से 1281 ई. तक शासन किया। थोहरचन्द के प्रपौत्र के बाद उसका सीधा वंशज नहीं हुआ, तब थोहरचन्द के चाचा के वंशज ज्ञानचन्द को चम्पावत बुलाकर सिंहासन पर आरूढ़ किया गया। अल्मोड़ा एवं सीरा से प्राप्त वंशावलियों में थोहरचन्द का उत्तराधिकारी कल्याण चन्द बताया गया है। डॉ. एम. पी. जोशी के अनुसार ßज्ञानचन्द ही चंपावत-अल्मोड़ा के चन्द्रवंश का संस्थापक था। उसने 1379 ई. से 1420 ई. तक शासन किया। ज्ञानचन्द्र के बाद उसका पुत्र विक्रमचन्द्र तथा विक्रमचन्द के बाद भारतीचन्द्र गद्दी पर बैठा।Þ1 डॉ. जोशी का मानना है कि ßकुमाऊं के स्थानीय ब्राह्मणों ने नि:सन्देह चन्द्रवंश की वंशावली का सृजन कर चन्द्रों के काल्पनिक पूर्वजों का अपने स्वयं के पूर्वजों के साथ सम्बंध दर्शाकर अपने प्रभाव को बढ़ाया।Þ2 लेकिन चन्दों का उत्कर्ष 13 ई. से पूर्व नहीं ठहराया जा सकता।

जो भी हो, इतना निर्विवाद है कि चम्पावत से चन्द शासन पूरे कुमाऊं में फैला और 16वीं सदी तक लगभग पूरा कुमाऊं चन्दों के
अधीन हो गया। सन् 1560 ई. में राजा बालो कल्याणचन्द ने अपनी राजधानी चंपावत से अल्मोड़ा (खगमरा) स्थानान्तरित की। कहा जाता है कि एक खरगोश के शिकार का पीछा करते हुए वे अल्मोड़ा के निकट के जंगल में आए तो खरगोश एकाएक शेर में बदल गया। इसे इस भूमि का एक शुभ शकुन माना गया तथा लोगों की सलाह पर इस स्थान पर राजधानी बनायी गई। सन् 1563 ई. में अल्मोड़ा नगर बसाया गया। राजा बालो कल्याणचन्द की रानी डोटी के रैका राजा हरिमल की बहिन थी। कल्याणचन्द ने सीरा को दहेज में मांगना चाहा, परन्तु उसने सीरा के बदले अपने बहनोई राजा कल्याणचन्द को सोर (पिथौरागढ़) दहेज में दे दिया। बाद में बालो कल्याणचन्द के पुत्र रुद्रचन्द ने अपने मामा सीरा के राजा हरिमल्ल (रैका) पर चढ़ाई कर सीरा को भी जीत लिया। 1790 ई. में गोरखा आक्रमण ने चन्दशासन का अन्त कर दिया तथा 1790 ई. से 1815 ई. तक कुमाऊं में गोरखा शासन करते रहे। 1804 में गोरखों ने गढ़वाल को भी अपने कब्जे में लेकर, वहां परमार शासन का अन्त कर दिया। सन् 1815 ई. में अंग्रेजों ने गोरखाओं को परास्त कर, सिगौली की संधि के फलस्वरूप कुमाऊं को अपने अधीन कर लिया। इस तरह 1815 ई. से लेकर 1947 ई. तक कुमाऊं में अंग्रेजों का शासन रहा।

कुमाऊं में कत्यूरी शासनकाल से लेकर अंग्रेजी शासनकाल तक के प्रशासनिक ढांचे एवं सामाजिक संगठन पर दृष्टिपात करें तो
उसमें कई तरह के परिवर्तन देखने को मिलते हैं। कत्यूरी शासन प्रबंध बंगाल के पाल शासकों से अधिक प्रभावित माना गया है।
पौरव-वर्मन व कत्यूरी शासनकाल में ब्राह्मणों को विशेष संरक्षण प्राप्त था। विभिन्न वगो± के लोग पनी जाति व व्यवसाय के अनुसार अपने गांव व मोहल्ले बसाते थे। राजनैतिक दृष्टि से समाज कई स्तरों पर बंटा हुआ था, जिसका केन्द्र बिन्दु राजा था। राजा `कर´ के रूप में प्राप्त अपनी अतिरिक्त आमदनी को शासनतन्त्र चलाने, धार्मिक कृत्यों, विशेषकर मन्दिरों के निर्माण व नौलों (जलाशयों) आदि को बनाने में व्यय करता था। चन्दों के शासन काल में, जिनका उत्कर्ष विशेष रूप से 13वीं सदी के बाद हुआ, कमोवेश यही स्थिति बनी रही, परन्तु इसमें उन्होंने कुछ और बातें भी जोड़ीं जहां कत्यूरी शासनकाल में राजभाषा संस्कृत थी, वहीं चन्दों ने आम जनता से संपर्क बनाए रखने के लिए `कुमाऊंनी´ भाषा को `राजभाषा´ का दर्जा दिया, जिसका प्रमाण चन्द शासनकालीन दान-पत्रों एवं अभिलेखों में देखने को मिलता है। इस काल में शिल्प के क्षेत्र में विशेष प्रगति हुई । चन्दों ने मन्दिर आदि बनाने तथा धार्मिक कायो± के लिए अपनी बहुत-सी जमीन गूंठ (दान) में चढ़ाई।

चन्दों के समय में जमीन का मालिक `थातवान´ (जमीन्दार) कहलाता था। जमीन कमाकर पैदावार करने वाला तथा अनाज व नकदी
के रूप में मालगुजारी (रकम) देने वाला व्यक्ति ßखायकरÞ (खैकर) कहलाता था। नकदी के रूप में `कर´ (टैक्स) देकर जमीन कमाने वाला असामी `सिरतान´ के नाम से जाना जाता था। खेतों में काम करने वाला गुलाम `कैनी´ तथा खरीदे गए घरेलू नौकर `छ्योड़ा´ कहलाते थे। ये सभी नाम चन्दों के दिए हुए हैं। चन्द शासकों ने 36 प्रकार के `राजकर´ लगाए थे, जिन्हें थातवान राजकोष में जमा करते थे। थातवान अपनी जमीन दूसरों को कमाने को दे सकता था वे थातवान के `खायकर´ कहलाते थे। थातवान ज्यादातर राजपूत ही थे। जिनके पास `रौत´ या जागीर होती थी, वे अपने को रौत या जागीरदार कहते थे। थातवान अपने `कैंनी´ व `छ्योड़ा´ को जब चाहे बेच सकता था। कैंनी को थातवान की चाकरी भी करनी पड़ती थी तथा थातवान व राजा के मरने पर मुण्डन भी करना पड़ता था। अपनी जागीर ब्राह्मण को संकल्प कर दान में दे देने या किसी और के नाम कर देने पर थातवान जागीर पाने वाले का `कैंनी´ भी हो जाता था। कैंनी होना स्वीकार कर लेने पर वह `गखाZ´ के पद से गिर जाता था तथा अपनी जाति-बिरादरी से भी जाति-च्युत या बहिष्कृत कर दिया जाता था।

राजा और जमीन कमाने वालों के बीच संपर्क बनाए रखने के लिए कहीं-कहीं कर्मचारी भी नियुक्त होते थे, जो स्वयं जमीन के
मालिक भी होते थे। इन्हें सयाना, बूढ़ा या थोकदार के नाम से जाना जाता था। पाली पछाऊं में - मनराल, बिष्ट व बंगारी सयाने माने
जाते थे। काली कुमाऊं, जोहार तथा दारमा में वे `बूढ़ा´ कहलाते थे । काली कुमाऊं में - तड़ागी, काकीZ, बोरा और चौधरी चार बूढ़े थे। लेकिन महर ओर पत्र्याल के दो धड़े होने से ये चार के बदले आठ बनाए गए तथा उनकी `आलें´ मुकर्रर की गई। पट्टी की चारों आलें इन चार धड़ों के नाम से जानी जाती थीं, जैसे - तड़ागी आल, काकीZ आल आदि। अन्यत्र सयानों व बूढ़ों का पर `थोकदार´ के नाम से प्रचलित था। थोकदार को सयानों व बूढ़ों से कुछ कम गिना जाता था। राज्य-प्रबंध में उसकी सम्मति भी नहीं ली जाती थी। वह ढोल, नक्कारे व निशान भी नहीं रख सकता था, जबकि सयानों व बूढ़ों की राजकाज चलाने में राय ली जाती थी। काली कुमाऊं के बूढ़ों की स्थिति और भी मजबूत थी। मनराल कौम के सयाने नक्कारे व निशान के अधिकारी थी। सयाने को गांव की थात में भोजन पाने, हर दूसरे साल प्रत्येक घर से एक रुपया व अनाज पाने का हक था। राजा के `मांगा´ कर की तरह, उसका भी एक कर मुकर्रर था जिसे `डाला´ कहते थे, जिसकी संख्या राजा द्वारा निर्धारित की जाती थी। उसके इलाके के लोगों को उसकी सेवा करने को भी बाध्य होना पड़ता था। सयानों को कर वसूल कर राजकोष में जमा करना पड़ता था। उन्हें और भी कई अधिकार प्राप्त थे। इस तरह इनके कुछ अधिकार और कर्तव्य दोनों निर्धारित थे। इनके अतिरिक्त एक पद `कमीन´ का भी था, पर इसे केवल राजा को भेंट, बंगार व वर्दायश देनी पड़ती थी। उसको वेतन मिलता था, पर गांव में उसका हक नहीं होता था।

सयाना, बूढ़ा व थोकदार के नीचे प्रत्येक गांव में एक पधान (मालगुजार) था, जो आज भी है। उसका काम मालगुजारी (भूमि कर)
वसूल करना होता था। यह पद मौरूसी (वंश परंपरागत) था। अपने गांव में पुलिस का कार्य भी वही करता था। पधान को पधानचारी
के रूप में कुछ अतिरिक्त जमीन राजा की तरफ से मिली रहती थी जिसे `खान्की जमीन´ कहा जाता था। पधान के नीचे `कोटाल´ होता था, जिसे रखने व निकालने का अधिकार पधान को था। यह पधान का सहायक होता था तथा लिखने वगैरह का काम करता था। इनके अलावा प्रत्येक गांव में एक पहरी (चौकीदार) होता था, जिसका काम चिट्ठी-पत्री ले जाना, कर का अनाज इकट्ठा करना, गांव की पहरेदारी करना तथा अन्य तरह के छोटे-मोटे काम करना होता था, जो प्राय: शूद्र वर्ण का होता था। मजदूरी के रूप में उसे प्रत्येक परिवार से फसल के समय अनाज तथा त्यौहारों में कुछ दस्तूर मिलता था।

गोरखा व ब्रिटिश शासन की तरह ही चन्दों के समय में भी जमीन का मालिक राजा ही था, परन्तु राजा की आमदनी का स्रोत केवल
मालगुजारी ही नहीं था। मालगुजारी (भूमिकर) तो कम थी। उपराऊं जमीन में एक तिहाई तथा तलाऊं (सिंचित) भूमि में से पैदावार का आधा अनाज `राजकर´ के रूप में लिया जाता था वसूली दो प्रकार की होती थी। एक साल जमीन से कर वसूल किया जाता था तथा दूसरे साल मनुष्यों से धन लिया जाता था। तिजारत, खान, न्याय-व्यवस्था, जंगल की संमत्ति तथा कानून व्यवस्था के लिए भी `राजकर´ लिए जाते थे। घी-कर के नाम से प्रत्येक भैंस पर सालाना चार आना कर लिया जाता था। खानों में राजा का आधा हिस्सा होता था। तराई-भावर में `गाय-चराई´ के नाम से भी कर था। राजय शासन का खर्चा चलाने के लिए `गृह-कर´/मौ-कर (भ्वनेम ज्ंगद्ध भी था। इन सब करों का नाम `छत्तीस रकम´ व `बत्तीस कलम´ था यद्यपि कहने को तो 68 कर थे, पर व्यवहार में ये सब नहीं लिए जाते थे। कुल पैदावार का कहीं एक तिहाई और कहीं उससे थोड़ा अधिक अनाज (विशेषकर चावल-गेहूं) `कूत´ के रूप में लिया जाता था। यद्यपि चन्दों ने कुमाऊं का 1/5 हिस्सा (पैदावार व उपजाऊ भूमि का) गूंठ में चढ़ा दिया था, फिर भी उनकी आमदनी अच्छी खासी थी और वे धनी थे।

काली कुमाऊं में जब राजा सोमचन्द ने सत्ता संभाली तो वहां महर और फरत्याल दो शक्तिशाली दल (धड़े) थे। विसुंग में उस समय
पांच थोक (जातियां) - महर, फरत्याल, देव, ढेक और करायत रहते थे। ये पांचों थोक दोनों दलों में लगभग आधे-आधे बंटे हुए थे।
इनमें परस्पर बदलाव भी होता रहता था। राजा सोमचन्द ने इन दोनों दलों को राज्य शासन में बराबरी की भागीदारी देकर, दोनों में सन्तुलन एवं सामंजस्य बनाए रखते हुए अपना शासन तन्त्र चलाया। उन्होंने अपने शासन का श्रीगणेश चार बूढ़ों से प्रारंभ किया। ये चार बूढ़े आलों के थे - (1) काकीZ (2) बोरा (3) चौधरी (4) तड़ागी। इनके ऊपर दो मण्डल थे - मल्ला मण्डल और तल्ला मण्डल। उपयुZक्त पांच थोकों और चार बूढ़ों के अलावा काली कुमाऊं की प्रजा निम्नांकित नामों से पुकारी जाती थी -

चार चौथानी - 1. देवलिया 2. सिमिल्टया पाण्डे 3. विण्डा के तेवारी और 4. डड्या के बिष्ट। कोई मण्डलिया के पाण्डे तथा सैंज्याल बिष्ट को भी चौथानियों में मानते हैं और कोई नहीं।

छ: घरिया (गौरिया) - जिनमें षट्कुली ब्राह्मणों के अलावा पन्त, पाण्डे, झा, जोशी, तेवाड़ी, भट्ट, पाठक आदि सम्भवत: शामिल थे।

बारह अधिकारी - 1. लडवाल 2. बैडवाल 3. खतेड़ी 4. महता 5. धौनी 6. लाड़ 7. म्वाल इत्यादि।

पचबिड़िया - चार चौथानी और छ: घरिया ब्राह्मणों के अलावा अन्य ब्राह्मण पचबिड़िया कहलाते थे।

खतीमन ब्राह्मण - छोटे ब्राह्मण इस नाम से पुकारे जाते थे। डोटी (नेपाल) में इनको खटक्वाला भी कहते हैं।

पौरी पन्द्रह विश्वा - शूद्र (हरिजन) प्रजा इस नाम से पुकारी जाती थी। उनको भी पंचायत में बुलाया जाता था।

इन सब दलों के नेताओं को राजदरबार में बुलाकर चन्द राजा उनसे राजकाज सम्बंधी राय लेते थे। बाद को सारी प्रजा महर व
फरत्याल धड़ों में बांटी गई। अन्य सब धड़े उन दो बड़े धड़ों में विलीन हो गए। जब जिस दल का जोर या बहुमत होता था, उसी दल
के नेता के हाथ में शासन की बागडोर देकर राज्य-प्रशासन चलाया जाता था। इस तरह चन्दों ने प्रारंभ से ही दलीय अथवा पंचायती
राज्य-प्रणाली की नींव डाली थी, हालांकि उनका शासन एकाधिपत्य का शासन माना जाता है। कुमाऊं में सन् 1790 ई. से 1815 ई तक गोरखों का राज्य रहा जो अनीति एवं अत्याचारों से भरा पड़ा रहा। उन्होंने जनता पर तरह-तरह के जुल्म ढाये। चन्दों की
शासन-व्यवस्था व कर-नीति को बदल दिया। `छत्तीस रकम व बत्तीय कलम´ की प्रथा उठायी गई तथा जनता पर ढेर सारे कर लगाए।

प्रत्येक आबाद बीसी (बीस नाली जमीन) पर एक रुपया `कर´ लगाया तथा प्रत्येक बालिग आदमी से एक रुपया राजकर तथा प्रत्येक
मवासे से दो रुपये `घुरही पिछली´ के नाम से सालाना कर लिए गए। ब्राह्मणों पर नए कर लगाए गए। चन्दों के शासन में ब्राह्मणों पर
मालगुजारी न थी, परन्तु गोरखों ने प्रत्येक ब्राह्मण काश्तकार की एक-ज्यूला´ (छ` से 13 एकड़ तक की जमीन) पर पांच रुपया मालगुजारी लगायी। गोरखों द्वारा प्रतिवर्ष हजारों दास-दासियां लाकर हरिद्वार की गोरखा-चौकी में बेचने को रखी जाती थीं, जिसमें 30 वर्ष तक के स्त्री व पुरुष बेचे जाते थे, जिनकी कीमत 10 से 30 रुपया तक होती थी। गोरखा अफसरों द्वारा धन मांगने पर न देने वाले के सारे कुटुम्ब को गिरफ्तार कर बेचा जाता था। न्याय-व्यवस्था, अंध-विश्वासों पर आधारित थी, जैसे -कढ़ाई के जलते तेल में आरोपी का हाथ डाला जाता था, हाथ जलने पर दोषी तथा न जलने पर निर्दोष समझा जाता था। यह कढ़ाई-दीप (दिव्य) न्याय कहा जाता था।
छोटी-छोटी गलतियों पर प्राण-दण्ड व अंग-भंग कर निर्दयतापूर्वक मारा जाता था, जबकि चन्दों के समय में फांसियां बहुत कम होती थीं। इस तरह कुमाऊं में गोरखा शासन अपने अत्याचारों के कारण `गोरख्योल´ के नाम से अलोकिप्रय रहा।

सन् 1815 ई. से 1947 ई. तक कुमाऊं ब्रिटिश शासन के अधीन रहा। अंग्रेजों ने जहां तक सम्भव हुआ, यहां के लोगों की
रीति-रिवाजों व परम्पराओं पर कोई दखल नहीं दिया, अपितु एक ओर तो उन्होंने यहां पर अपने लिए सौहाद्रZपूर्ण वातावरण बनाने का प्रयास किया और दूसरी ओर अप्रत्यक्ष रूप से `फूट डालो और शासन करो´ की नीति अपनाते रहे। इसका ज्वलन्त उदाहरण लगान वसूली प्रथा में देखने को मिलता है। इसके लिए अंग्रेजों ने - पेशकार, पटवारी, थोकदार और पधान नियुक्त किए। थोकदार और पधान के पद स्थायी और वंशानुगत बनाए गए। इस तरह उन्होंने प्रत्येक गांव में लोगों का एक स्वामिभक्त वर्ग तैयार किया, जिसे सामान्य जनता से अलग कर दिया गया। पधान या मालगुजार गांव का मुखिया होता था। गांव से मालगुजारी (रकम) वसूल कर पटवारी को देने की जिम्मेदारी उसकी होती थी। मालगुजार को पांच रुपया प्रति सैकड़ा भी मिलता था। पधान के गांव के प्रति कुछ निश्चित कत्तZव्य भी होते थे। इस कार्य के बदले में पधान को कुछ अतिरिक्त जमीन भी दी जाती थी, जिसे `हक पधानी´ (पधानचारी) कहा जाता था। पधान और राज्य के बीच मध्यस्थता कायम करने वाला अधिकारी `थोकदार´ कहलाता था। थोकदारों को तीन रुपया प्रति सैकड़ा, उन गांवों की मालगुजारी से दिया जाता था, जिनके वे `थोकदार´ होते थे। कुमाऊं के तत्कालीन शासक हेनरी रामजे ने नैनीताल के महरा गांव में थोकदारी का दस्तूर दस रुपया प्रति सैकड़ा कर दिया था। जिन्होंने ठीक काम नहीं किया, उनकी थोकदारियां भी जब्त कर दी गई। पेशकार (कानूनगो) राजस्व या मालगुजारी विभाग का छोटा कर्मचारी होता था, जो राजस्व वसूली की व्यवस्था देखता था। थोकदार और पधान गांव की शासन-व्यवस्था में पटवारी की सहायता करते थे। ये सभी कर्मचारी नीचे से ऊपर तक क्रमश: अपने ऊपर के अधिकारियों के प्रति अपने कामों के लिए जिम्मेदार रहते थे।

अंग्रेजों ने कुमाऊं की शासन-व्यवस्था में आमूल परिवर्तन किया। जहां कत्यूरी शासन में पुलिस बल की आवश्यकता न थी, वहीं
चन्दों के समय पहाड़ में पुलिस का प्रबन्ध थोकदार व पधानों के हाथ में था तथा तराई-भावर में मेवाती व हैड़ी कौम के मुसलमान ही
पुलिस का कार्य करते थे। गोरखों के समय फौजी शासन था, जो सूना और पुलिस दोनों का काम करते थे। अंग्रेजों ने शान्ति-व्यवस्था
कायम करने के लिए पुलिस विभाग नियुक्त किए। पहाड़ में अल्मोड़ा का थाना सबसे पुराना है जो 1837 ई. में बना। उसके बाद नैनीताल का 1843 ई. में तथा रानीखेत का 1869-70 ई. में बना। कुमाऊं का प्रशासन इस प्रकार विभाजित था - कमिश्नर, कलेक्टर या डिप्टी कमिश्नर, डिप्टी कलेक्टर, तहसीलदार, नायब तहसीलदार, कानूनगो, पटवारी, थोकदार तथा पधान। प्रान्तीय प्रशासन भी अनेक विभागों में विभाजित था, जिनमें - साधारण प्रशासन, जेल, अस्पताल, पुलिस, मालगुजारी, खेती, शिक्षा, न्याय, जंगलात, उद्योग-धंधे आदि प्रमुख थे। अंग्रेजों ने समय-समय पर भूमि का बन्दोबस्त (पैमाइश) किया तथा अलग-अलग किस्म की भूमि पर मालगुजारी की दरें निर्धारित कीं और जंगलात की नीति बनाई। हथियार रखने के लिए लाइसेंस-नीति, शिक्षण-नीति आदि निर्धारित की। अंग्रेजों ने यहां चाय बागान लगाए तथा आलू की खेती शुरू की। पहाड़ी लोगों को फौज में भर्ती कर अंग्रेजों ने उनके वीरोचित गुणों का लाभ उठाया और उन्हें अनुशासनिप्रय एवं स्वामिभक्त घोषित करते हुए अलग से `कुमाऊं रेजीमेंट´ की स्थापना कर डाली। फौज में भर्ती होने पर यहां के लोगों की आर्थिक दशा में यित्कंचित सुधार हुआ।

आजादी के बाद भी कुमाऊं की प्रशासनिक व्यवस्था कमोवेश ब्रिटिश शासन-पद्धति के अनुरूप ही रही, परन्तु भूमि की सीलिंग
तथा जमीन्दारी प्रथा उन्मूलन एवं पंचायती राज्य-व्यवस्था का प्रभाव यहां भी पड़ा। थोकदार एवं पधान प्रभावहीन हो गए। उनको प्रदान किए गए विशेष अधिकार व सुविधाएं छीन ली गइ±। उनका स्थान ग्राम-सभापति एवं पंचायत के सरपंच, वन-पंचायत के सरपंच आदि ने ले लिया, परन्तु उनमें से अधिकांश का अपने क्षेत्रों में प्रभाव बना रहा।

अंग्रेजी शासन काल तक, जहां कुमाऊं की अर्थव्यवस्था पूर्णत: कृषि एवं पशुपालन पर निर्भर थी, अब उसमें `धनादेश अर्थ-व्यवस्था´
(पोस्टल या मनीआर्डर इकॉनमी) भी जुड़ गई है। कुमाऊंनी समाज पहले अपने जीवनयापन के लिए पूर्णतया कृषि पर निर्भर था। साल भर के खाने के लिए खेतों से पर्याप्त मात्रा में अनाज का उत्पादन हो जाता था, यहां तक कि अनाज बेचकर भी लोग अपनी रकम-कलम चला लेते थे। आवश्यकताएं कम थीं। लोग दैनिक उपयोग की वस्तुओं को घरों में ही बना लेते थे। रिंगालों की चटाइयां, मोथे के फीणे (चटाई), कुथले, टोकरी, रिस्सयां, कण्डी, मुरेठे, सींका (छींका), म्वाल, खाने-पीने के बर्तन एवं खेती के सभी उपकरण यहीं तैयार होते थे। यहां कई जगहों में लोहे, तांबे व शीशे की खानें थीं। चूने का पत्थर पर्याप्त मात्रा में पाए जाने के कारण गौलापार (हल्द्वानी) में चूने की भटि्टयां थीं। केवल नमक के लिए लोग हल्द्वानी की मण्डी जाया करते थे( परन्तु वर्तमान में न केवल सामाजिक संरचना में बदलाव आया है अपितु आर्थिक जीवन भी पूर्णतया बदल चुका है। कुमाऊं में सरकारी अस्पतालों के खुलने से पूर्व वैद्यक व्यवसाय पूर्णत: विकसित अवस्था में था। हजारों प्रकार की जड़ी-बूटियों से वैद्य लोग घरों में ही आयुर्वेदिक दवाएं बनाते थे। `ढ्यर लग´ एक ऐसी लता थी, जिसके लेप से पशुओं एवं मनुष्यों की टूटी हडि्डयां भी जुड़ जाती थीं। वैज्ञानिक प्रगति, शिक्षा के प्रसार एवं औद्योगीकरण के प्रभाव के फलस्वरूप कुमाऊं में भी परिवर्तन की लहर तेजी से फैल रही है।

सन्दर्भ :-
1. उत्तरांचल हिमालय (ऋषि-1), डॉ. एम. पी. जोशी, संस्करण 1993, पृ. 184.
2. कुमाऊं का इतिहास - पं. बदरी दत्त पाण्डे, पृ. 369-380.

Source: प्रोफेसर शेर सिंह बिष्ट, डी. लिट्, कुमाऊं विश्वविद्यालय, एस.एस.जे. परिसर, अल्मोड़ा (श्री नन्दा स्मारिका 2010)

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[justify]कुमाऊं-तराई में बौद्ध धर्म की ऐतिहासिकता का मूक साक्ष्य-ßगोविषाणÞ

तराई क्षेत्र प्राचीन काल से ही ऋृषि मुनियों की तपस्या स्थली रहा है तथा कई धमो± का केन्द्र भी। धर्म विविधता के कारण इसे आज भी मिनी हिन्दुस्तान के नाम से संबोधित किया जाता है। यह क्षेत्र प्राचीन काल में बौद्ध धर्म का संरक्षक स्थल भी था, साथ ही बौद्ध क्षेत्रों के समान ही यहां भी महात्मा बुद्ध ने निवास किया था। बौद्ध धर्म व महात्मा बुद्ध से इस क्षेत्र के जुड़ाव का सबसे महत्वपूर्ण पुराताित्वक साक्ष्य है-गोविषाण नामक स्थान व वहां पड़े अवशेष तथा इस पुराताित्वक साक्ष्य भी प्रमाणिकता को पुष्ट करता है - चीनी यात्री ºवेनसांग का यात्रा विवरण। ºवेनसांग मूलत: चीन के तांग राजवंश का बौद्ध धर्म गुरू था। चीन में तब हीनयान व महायान दो प्रमुख बौद्ध धाराएं थी। जीवन शाश्वत है या नहीं इस विषय पर इन दोनों सम्प्रदायों में मतभेदों को स्पष्ट करने के उद्देश्य से ºवेनसांग महात्मा बुद्ध की मतभेदों की जन्मस्थली भारत की यात्रा पर निकला। उसने 629 से 645 के बीच भारत के विशेष रूप से हिमालय के विभिन्न क्षेत्रों की व्यापक यात्राएं की। उसने नंगा पर्वत की कोख में बसे चित्रालउदयन से लेकर बिल्तस्तान, तक्षशिला (तचासिलो) पुंछ, राजौरी, जम्मू, कूल्लू (क्युलुतो) तक और वर्तमान उत्तराखण्ड के बाद प्रदेश (तराई) से लेकर उत्तर पूर्वी हिमालय में बसे कामरूप शासक भाष्करवर्मन के दरबार तक पहुंचा था। उत्तर भारत में तब सम्राट हर्षवर्द्धन का साम्राज्य था और उसने ºवेनसांग को भारत आगमन पर पूर्ण राजकीय सम्मान व सत्कार प्रदान किया। जिसके परिणामस्वरूप ºवेनसांग ने भारत में रहकर बौद्ध धर्म पर गहन अध्ययन किया तथा अध्ययन का एक विशाल संग्रह अपने साथ चीन भी ले गया। उसने अपनी इस यात्रा को लिखित रूप भी प्रदान किया। गोविषाण भी इस यात्रा वृतान्त का एक भाग हैं। जो कुमाऊं मण्डल के तराई क्षेत्र के काशीपुर में स्थित हैं।

ºवेनसांग ने अपने यात्रा वृतान्त में मो-वी-पुलो (मतिपुर या मण्डावर या मन्दौर) से पूर्व की ओर 400 ली (ली को दूरी के मापक
के रूप में प्रयोग किया गया है। 30 ली 5 मील के बराबर होता है) या 104 किमी. की दूरी पर उ-पि-ष्वंग-न अथवा गोविषाण का उल्लेख किया है। 634 ई. में ºवेनसांग शानेश्वर से स्त्रुघ्न (सहारनपुर) होता हुआ बिजनौर के पास भण्डावर या मन्दौर आया। वहां से मयूर (वर्तमान हरिद्वार) होता हुआ ब्रह्मपुर :- (ब्रह्मपुर को कनिंधम ने बिट्रिश गढ़वाल तथा कुमाऊं में स्थित माना है पर सही स्थिति का अनुमान नहीं हैं।) तथा वहां से गोविषाण आया, जो कुमाऊं मण्डल के तराई क्षेत्र में वर्तमान काशीपुर के पास उझियानी या उज्जैन गांव है। ºवेनसांग के अनुसार सम्पूर्ण तराई व पीलीभीत जिला इस राज्य के अन्तर्गत थे तथा इसकी राजधानी वर्तमान काशीपुर लगभग 3 मील के घेरे में फैली थी। जलवायु मन्दौर के समान शीतल व स्वच्छ थी तथा जनसंख्या अधिक थी। निवासी शुद्ध विचारों वाले, शान्त, मेहनती व अध्ययनशील थे। गोविषाण नगर के पास दो बौद्ध मठ थे। जिसमें 100 भिक्षु हीनयान का अध्ययन करते थे। एक देव मन्दिर भी था। नगर के पास बड़े मठ में अशोक का बनवाया स्तूप भी था। यह स्तूप अशोक ने इसलिए बनवाया था क्योंकि यहां गौतम बुद्ध ने एक माह तक रहकर साइगाZर्भत प्रवचन दिया था इसी स्तूप के पास बुद्ध अपने पांच पूर्वजन्मों में भी आकर रूके थे। अन्त: पंच बुद्धों के बैठने की जगह भी बनी है। इसी स्थान पर दो स्तूप और हैं जिनमें बुद्ध के नाखून व केश रखे हैं। उझियानी के पास ही द्रोण सागर है जो सम्भवत: कौरव व पाण्डवों के गुरू द्रोणाचार्य का आश्रम था या सागर आज दूषित हो चुका है तथा इसमें जल भी नाममात्र को ही बचा है। प्राचीन गोविषाण दुर्ग व द्रोणसागर का निर्माण पाण्डवों ने अपने गुरू द्रोणाचार्य के लिए किया था। अवशेषों के अनुसार दुर्ग की लम्बाई लगभग 3000 फीट (900 मी.) तथा चौड़ाई 1500 फीट (450 मी.) है। ईटों की माप 15´´ ग 10´´ ग 2.5´´ है। दुर्ग की दिवारे 20 से 25 फीट ऊंची है। खण्डहरों में उत्तर पश्चिम और दक्षिण पश्चिम की ओर दो स्थानों पर पुराने द्वारों के अवशेष दिखायी देते हैं। जिससे दुर्ग में प्रवेश किया जा सकता था। दुर्ग के दिवारों के भीतर कई टीले हैं। प्राचीन मन्दिरों ने टीलों का रूप धारण कर लिया है। इनमें सबसे उल्लेखनीय टीला किले के उत्तरी दिवार के अन्दर की तरफ परकोट के ऊपर है। इस टीले को भीमगदा कहते हैं।
द्रोणसागर के पश्चिमी किनारे पर भी कुछ मन्दिर है जिसमें सबसे ज्यादा मान्यता ज्वालादेवी मन्दिर की है जो सबसे नया है। यह किले से 600 फीट पूर्व की ओर है। इसे उज्जैनी देवी भी कहते हैं। इनके सम्मान में प्रतिवर्ष चैत माह की अष्टमी को यहां एक बहुत बड़ा मेला लगता है। अन्य छोटे मन्दिरों में महादेव के अनेक रूप भूतेश्वर, मुक्तेश्वर, नागनाथ व जागेश्वर हैं।
गोविषाण राज्य के उत्तर में ब्रह्मपुर पश्चिम में भण्डावर (मन्दौर) और दक्षिण में अहिच्छत्र था। अत: इस राज्य का विस्तार पश्चिम
में रामगंगा से लेकर पूर्व में शारदा तक तथा दक्षिण में बरेली तक रहा होगा। 1901 में गोविषाण के प्राचीन दुर्ग से उत्खनन में अवशेष रूप में कुछ ईटें प्राप्त हुई। इन पर दो लेखों ßराश्रोभातुमित्तसÞ और ßतस्य राक्रे श्री पृथिवीमित्तसÞ उत्कीर्ण हैं। दोनों लेख अपूर्ण हैं, पर इनसे पता चलता है कि गोविषाण मित्र वंश के अधीन था। यह पांचाल जनपद का उत्तरी क्षेत्र है। इस राज्य का गोविषाण नाम इस स्थान पर स्थित किसी स्तंभनुमा आकृति के कारण पड़ा होगा जिसे लोक में गाय के सींग के रूप में कल्पित किया जाता होगा।
गोविषाण ºवेनसांग के यात्रा के समय एक बड़ा राज्य था। जिसके अवशेष आज भी काशीपुर में विद्यमान है। यह राज्य पाण्डवों
से भी सम्बंधित रहा हैं और महात्मा बुद्ध व अशोक से भी उपलब्ध साक्ष्यों की पूर्ण प्रमाणिकता व शोध के अभाव में आज भी यह क्षेत्र उपेक्षा का शिकार हैं।


Source: अनुजा शुक्ला, इतिहास विभाग, डी. एस. बी. परिसर, नैनीताल। ()


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[justify]चित्रित शैलाश्रय लखुडियार, अल्मोड़ा

मानव ने अपने जीवन के क्रिया-कलापों को जोड़-तोड़कर हमेशा नया अमली जामा पहनाये जाने की कोशिश
निरन्तर बड़ती गई। जिसमें से कुछ साक्ष्य बचे और कुछ काल कवलित समय के साथ-साथ होते गये। इन्हीं में से
कुमाऊं क्षेत्र में विद्यमान कुछ उडियार, गुफाऐं सम्मिलित है। गुफाऐं/उडियार दो प्रकार की होती है। 1. प्राकृतिक
2. प्राकृतिक मानव द्वारा निर्मित।

प्राकृतिक वह गुफाऐं होती है जो प्रकृति प्रदत्त तो होती है। इन गुफाओं में मानव का किसी प्रकार की संरचना नहीं छोड़ी होती
है। विशेषकर वह पहाड़ जहां बड़े-बड़े चट्टान अथवा क्षेत्र की भौगोलिक संरचना पर निर्भर है। हमारे पर्वतीय क्षेत्र में इतने पहाड़ है कि
जिसमें चूने की मात्रा अधिक होने से पृथ्वी की आन्तरिक हलचल बराबर होती रहती है। जिसके तापमान से चूना पिघलते रहता है। यह चूना वषो± से पिघल रहा होता है। यह गुफा बनाकर अथवा नये-नये आकार देकर मानव मन मस्तिष्क को छू लेता है। इसमें विभिन्न देवी-देवताओं अथवा पशु पक्षियों के आकार बनते रहते है। मानवीय चिन्तन बराबर रहता है। उसकी सोच से यह आकृतियां अपना एक नाम पुकारने में सक्षम हो जाती है। जिससे मानव उसी नाम से पुकारते रहता है। कुमाऊं क्षेत्र में विशेषकर जनपद पिथौरागढ़, बागेश्वर, चम्पावत व नैनीताल क्षेत्र के कुछ हिस्से तो चूने के पत्थर युक्त ही है। जिसमें आये दिन नई आकृतियों व गुफाओं के बारे में जानकारी मिलती रहती है। जिसमें शिव लिंग, कई देवी-देवताओं के नमूनों की जानकारी आज आम बात है। क्षेत्रीय जनता का इन गुफाओं में पौ-पवो± में कभी कभार अथवा बराबर आना-जाना यथावत बना रहता है। यह गुफा और वहां के समाज पर निर्भर करता है कि इन्हें किस प्रकार प्रचारित और प्रसारित करें।

उदाहरणत: प्राकृतिक गुफाओं में पाताल भुवनेश्वर की गुफा इसका प्रथम उदाहरण है। यद्यपि पाताल भुवनेश्वर की गुफा का उल्लेख
मानसखण्ड में राजा ऋतुपर्ण के उल्लेख के साथ मिलता है। आज यह गुफा अन्तर्राष्ट्रीय मानचित्र में अपना नाम दर्ज कर चुकी है। अन्य गुफाऐं अभी मीडिया और पर्यटक आगन्तुकों का इन्तजार कर रही है जैसे पिथौरागढ़ के अन्तर्गत राईआगर की कोटेश्वर महादेव गुफा, चमडुंगरा की गुफा, दन्तोली की कोली उडियार, दमुवा उडियार, कोटेश्वर महादेव की गुफा, मोड़ी की गोरख्या उडियार की गुफा, रामेश्वर की गुफा चम्पावत में रीठासाहिब की गुफा, नैनीताल में केव गार्डन आदि।

प्राकृतिक अपितु मानव द्वारा निर्मित गुफाओं में वे गुफाऐं भी है जिन्हें आम समाज गुफा नाम से प्रचारित करता है। असल में वे
शैलाश्रय व कहीं सुरंग होती है। इन गुफाओं की तरह निर्मित सुरंगों का भी कोई ध्यान समाज को नहीं है। तत्कालीन समय में राजा-
महाराजाओं ने अपनी तथा जनता की सुरक्षा के लिए तथा शत्रुओं पर निगरानी रखने तथा प्रहार करने के लिए बनाये गये हैं। इनकी भी जानकारी आम समाज तक लाना आवश्यक है उदाहरणत: अल्मोड़ा में स्यूनरा कोट, हरकोट, गुजड़ू गढ़ी, डुंगरा कोट की सुरंग, चम्पावत में चण्डाल कोट, चिन्तकोट, पिथौरागढ़ में सीराकोट, उदयपुर, रानी कोट की सुरंग, नैनीताल में पल्याल कोट की सुरंग, बागेश्वर में गोपाल कोट, वदिया कोट आदि। यही नहीं इन सुरंगों के अन्दर किसी में कुऐं भी निर्मित है।
इन प्राकृतिक अपितु मानव द्वारा क्रिया कलापित इन गुफाओं में समाज ने अपनी दैनिक व सामाजिक संरचनाओं की भावुकता
को संजोकर रखना और प्राकृतिक पूजा का सम्मान देकर जो ऐपण आदि पूर्वजों ने रचकर रखा है उनमें विशेषकर अल्मोड़ा जनपद के
अन्तर्गत इन शैलाश्रयों में मुख्यत: लखुडियार, फलसीमा, कसार देवी, हत्वालघोड़ा, कफ्फर कोट, फड़का नौली आदि की।

जनपद अल्मोड़ा तहसील बारामण्डल मुख्यालय से लगभग 17 किमी. अल्मोड़ा पिथौरागढ़ मुख्य सड़क मार्ग दलबैण्ड अथवा
हनुमान मिन्दर जो कि ग्राम दिगोली की सीमा में विद्यमान है। हिमालय की गोद बिनसर से निकलती दो सरितायें जहां से एक ओर सपाZकार वतुZल में उत्तर की ओर सुयाल बन जाती है और जिनके तटों के दोनों ओर चीड़ वुक्षों के झुरमुट के आमने-सामने निहारते कई शिलाश्रय दृष्टिगत होते हैं। वही है लखुडियार जो प्रागैतिहासिक कला का आकर्षण केन्द्र है। यह चित्रित शैलाश्रय सुयाल नदी के दाये किनारे एक ऊंची ढ़लवी चट्टान पर स्थित है। यह शैलाश्रय दलबैण्ड में निर्मित पुलिया एवं हनुमान मिन्दर से स्पष्ट दिखाई देता है। नदी के पुल का नाम भी लखुडियार पुल के नाम से नामित है। शैलाश्रय मुख्य बैण्ड से लगभग 35 मीटर आगे है। लखुउडियार का शब्दार्थ है-लखु + लाख, उडियार + गुफाऐं ¾ एक लाख गुफाऐं। यह संख्या की अनगिनत गुफाओं की साक्षी है। लखुडियार के सम्बन्ध में स्थानीय लोगों  की आम धारणा है कि प्राचीन काल में यहां पर दो बारातों का आपस में भैंट होने से खूनी संघर्ष हो गया। यह संघर्ष इतना विकराल हुआ था कि जिनके खून से इस प्रकार के चित्र बना दिये गये, और लाख उडियार भी बनाये गये। यह धारणा सत्य है परन्तु खून से निर्मित चित्र नहीं है। यदि लोक में देखा जाय तो अवश्य ही आज भी पिछड़े एंव ग्रामीण क्षेत्रों में (दो दुल्हों) दो बारातों की भैंट नहीं करवाते है। उनमें से एक को छुपा देते हैं। इसका तात्पर्य यह हुआ कि दो राजा एक साथ- ßएक म्यान में दो तलवारेंÞ नहीं रह रख सकते है। चूंकि यह धारणा यहां पर भी रही होगी। क्षेत्रीय पुरातत्व इकाई, अल्मोड़ा द्वारा इस स्थल में शैलाश्रय से सम्बन्धित सांस्कृतिक पट्ट जिसमें इसके सम्बन्ध में संक्षिप्त इतिहास लिखा गया है।

वर्तमान समय में यह शैलाश्रय लगभग 15 ग 2.5 से 4 ग 6 मीटर (ल. ग चौ. ग ऊं.) इसकी छत वाली चट्टान फर्श से बहुत
आगे निकली हुई है। स्थल को देखकर ऐसा प्रतीत होता है कि फर्श का अग्रभाग मूलत: लगभग चार-पांच मीटर टूट चुका है जो पूर्व
में समय पहुंच से बाहर था। आज क्षेत्रीय पुरातत्व इकाई, अल्मोड़ा द्वारा स्थल में प्रतिधारक दीवार और रेलिंग का निर्माण किये जाने से बने चित्रों को देखा जाना सम्भव हुआ है। इस शैल में बने चित्र अधिकतम् गहरे गेरूवे रंग के में बने है किन्तु कहीं-कहीं पर काले तथा सफेद रंग के चित्र भी दृष्टिगोचर होते है। चित्रों की विषय वस्तु में मुख्यत: पक्तिबद्ध मानव, पशु, वृक्ष, तरंगित रेखायें, ज्यामितीय नमूने युक्त अन पहचानी आकृतियां सम्मिलित हैं। इसके अतिरिक्त अधिकतर आकृतियां भरी हुई है जबकि कुछ रेखीय भी है। मुख्यत: मानवाकृतियां पंक्तिबद्ध में एक दूसरे का हाथ पकड़े हुऐ चित्रित किये गये है। एक पंक्ति में दस-दस मानवाकृतियां बनायी
गई है। इनकी विशेषता यह है कि प्रथम मानव से अन्तिम मानव एक दूसरे को हाथ पकड़े हुए छोटे होते जा रहे हैं। अर्थात मानो कि
चलती रेल गाड़ी के डिब्बे सदृश्य प्रतीत होते हैं। एक दृश्य में आठ मानव आकृतियां चित्रित है जिसमें प्रथम 20 सेमी. तथा अन्तिम 10 सेमी. का है। कई मानवाकृतियों के सिर पर पीछे की ओर बालों का ऊंचा जूड़ा भी बनाया हुआ प्रतीत होता है। इन सभी मानवाकृतियों में शरीर के मुख्य अंग सिर, गर्दन, हाथ, धड़, तथा पैर दृष्टिगोचर होते है। जिससे यह प्रतीत होता है कि ये सभी सक्रिय है, जैसे एक दृश्य में मानव को दौड़ता हुआ चित्रित किया गया है जबकि दूसरे दृश्य में कई लोग अपने हाथों में धनुष की तरह कोई वस्तु पकड़े एक ओर भाग रहे है। दौड़ते समय मानव के हाथ व पैरों की जो स्थिति होती है इसी प्रकार की क्रियात्मक भाव इनमें देखने को मिलती है। लबादे की तरह गले से पांव तक ढीले वस्त्र पहने भी इन मानवाकृतियों में बनी है। यह लबादाधारी दृश्य अपने एक हाथ को ऊपर उठाये है जिससे उनके नीचे के हाथ में लटकता वस्त्र स्वाभाविक प्रतीत होता है।
किसी प्राचीन चितेरे जैसी पशुओं की आकृति बिल्कुल स्वभावगत बनायी गई है। यद्यपि पशुओं के चित्रों की संख्या बहुत
कम है। एक दृश्य में पशु आकृतियां चित्रित है, जिसमें दोनों पशुओं को साथ-साथ चलते दिखाया गया है। इस चित्र से पशु समूह का
दृश्य स्वाभाविक अनुभव होता है। बकरी की तरह की एक पशु आकृति बनी है जिसका पेट सामान्यतया कुछ अलग है। जिसे
पुरातत्वविदों ने गर्भवती पहाड़ी बकरी के रूप में पहचान की गई है। इस पशु का गर्भायुक्त उदर इस बात का प्रतीक है कि
प्रागैतिहासिक कलाकार ने उस समय शरीर रचना का सूक्ष्म निरीक्षण कर अपने चित्रों में उतारना प्रारम्भ कर दिया था। इस शैलाश्रय में पंक्तिबद्ध तथा एकांकी वृक्षाकृतियां भी बनायी गई है।
एक दृश्य में पांच पेड़ तथा लहरदार युगल रेखाओं द्वारा सम्भवत: वन का दृश्य चित्रित करने का प्रयास किया गया है। वृक्ष की आकृति में ऊपर उठी तीन शाखाओं तना तथा जड़ का ऊपरी भाग बनाया गया है। ये वृक्ष पत्ते विहीन प्रतीत होते हैं। दूसरी आकृतियों में पेड़ का शीर्ष भाग त्रिकोणाकृति का बना है, जिसके नीचे तना तथा अधोभाग मूल सहित चित्रित है। इन वृक्षों की आकृतियां दूरवर्ती देवदार के पेड़ के समान दृष्टिगोचर होती है।

शैलाश्रय के एक अन्य दृश्य में मानव, वृक्ष तथा पशु की आकृतियां पास-पास बनायी गई है। देवार सदृश्य पेड़ के एक पाश्र्व
में दौड़ता हुआ मानव तथा दूसरे पाश्र्व में बकरी के आकार की पशु आकृतियां चित्रित हैं। एक दृश्य में अनेक मानवाकृतियां क्रियाशील
दृष्टिगोचर जो एक ओर दौड़ते हुए से प्रतीत होती है। इन सब के आगे मानव की एक बड़ी सी आकृति विद्यमान है। इस दृश्य से ऐसी
अनुभूति होती है जैसे ये लोग कोई हथियार लिए सम्भवत: किसी शिकार के पीछे दौड़ रहे हों।

इसी शैलाश्रय से जुड़े हुए दूसरे शैलाश्रय के ऊपरी शिखा भाग में ग्यारह मानवों का एक दूसरे के पीछे पंक्तिबद्व आगे बढ़ते कदम
की ओर प्रतीत होने के साथ बड़े मनोयोग से चल रहे है। इस शैलाश्रय का अग्र भाग भी पूर्व में ही टूट चुका है। अन्यथा इसमें भी हमारी विरासत के कई और साक्ष्य प्राप्त होते।

उपरोक्त मानवाकृतियां व अन्य बने मानव समूहों से पूर्णतया भिन्न है। इनमें से लोग एक दूसरे का हाथ नहीं पकड़े हुए है। जबकि
अन्य समूहों में पंक्तिबद्ध मानव एक दूसरे का हाथ पकड़े चित्रित किये गये है। प्रश्नगत दृश्य में ये मानवाकृतियां अपने हाथों में कोई वस्तु धारण किये हुए है। इस कारण इस दृश्य की आखेट दृश्य से समानता की जा सकती है।

लखुडियार के चित्रों में मानव तथा वृक्षों के चित्र समान आकृति के प्रतीत होते हैं, किन्तु मानवाकृतियों में स्पष्ट रूप से गरदन सहित
शीर्ष बनाया गया है। जबकि वृक्षों का शीर्ष भाग त्रिकोण अथवा ऊपर उठी हुई ठूठ सी त्रिशाखाओं से युक्त है। किसी मानवाकृतियों
में सिर पर पीछे की ओर बालों के लम्बे जुड़े अथवा चोटी बनायी गई है। केशों के जुड़ों सहित सम्भवत: नारी आकृतियां प्रतीत होती
है। पुरूषाकृतियों का घुमावदार शीर्षभाग उत्तम प्रतीत होता है।

इस तरह अल्मोड़ा नगर के लगभग 50 किमी. की परिधि में लगभग कई ऐसे प्रागैतिहासिक काल के अवशेष आज भी विद्यमान
है, प्रतीत होते है। प्राप्त इन चित्रों का तुलनात्मक दृष्टि से कुछ दृश्य सम्भवत: आज से लगभग 4000 वर्ष से भी पूर्व के हो सकते है।
जिसमें मुख्यत: फड़का नौली, कफ्फर कोट, फलसीमा, कसार देवी, ल्वैथाप, हथवालघोड़ा आदि। इसके अतिरिक्त और भी इस 50 किमीके परिधि में अन्वेषण करने पर पूरी संभावना है और भी पुराताित्वक स्थल प्राप्त हो सकते हैं।
लखुडियार पुरास्थल के बारे में सर्वप्रथम पहाड़ पत्रिका के अनुसार डॉ मदन चन्द्र भट्ट एवं डॉ. तारा चन्द्र त्रिपाठी जी ने लिखा
है। प्रो. महेश्वर प्रसाद जोशी जी ने इस स्थल का सबसे अधिक प्रचार-प्रसार किया था अर्थात यह कहा जा सकता है कि अपने देश
के अतिरिक्त बाहर भी इन्हीं के द्वारा प्रसार हुआ है। कुछ समय पश्चात प्रो. धर्मपाल अग्रवाल, प्रो. दिवा भट्ट, डॉ. यशोधर मठपाल, डॉ जीवन सिह खर्कवाल आदि विद्वानों द्वारा भी इस स्थल के बारे में लिखा गया है। विगत कुछ दिनों पूर्व भिकियासैंण क्षेत्र में पद्मश्री डॉ.
यशोधर मठपाल द्वारा ग्राम नौ गांव तोक ढ़कढ़की की पेिन्टंग्स के बारे में भी लिखा है।

इस क्षेत्र व हमारी विरासत का दुर्भाग्य ही कहें अथवा हमारी अनभिज्ञता के कारण स्थानीय लोगों की ही अनुमति से वर्ष 1962
में अल्मोड़ा पिथौरागढ़ मोटर मार्ग निर्माण कार्य करते समय ठेकेदार जी ने यहां पर सीमेंन्ट की कट्टों (बोरियां) को रखने से शैलाश्रय
की हालात और खराब हो गई। इस स्थल पर जितने भी चित्र अथवा पेिन्टंग की गई थी उसके रासायनिक प्रभाव से सभी चित्र खत्म
हो गये और यह दुष्प्रभाव लगभग 7 मीटर की परिधि में रहा है अर्थात यह कहा जा सकता है कि हमारी विरासत समय से पूर्व ही हमारी एक छोटी सी भूल से काल-कवलित हो गये। यह सत्य है कि आदिम काल में निर्मित यह आड़ी तिरछी रेखायें तात्कालिक मानव समूह की अभिव्यक्ति का माध्यम थी। ऐसा प्रतीत होता है कि यह उनकी भाषा भी थी और कला भी। मानव को जब धीरे-धीरे इस तरह के रंगों का माध्यम मिला तो उसने अपने संवेगात्मक भावों को इनके माध्यम से प्रस्तुत किया। मन के यह भाव जब पूर्ण उन्मुक्ता के साथ अभिव्यक्त हुए तो यह लोक कला के अंग बने और इनमें वैचारिकता का तत्व समा गया या कहें कि इन्हें परिष्कृत कर प्रस्तुत किया गया तो वह शुद्व कला के रूप में उभर कर हम सभी के समक्ष आयी। इसे बचाये और बनाये रखना हम सभी का उत्तरदायित्व है।

Source: डॉ. चन्द्र सिंह चौहान, बाड़ी बगीचा, अल्मोड़ा। (श्री नन्दा स्मारिका 2010)


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[justify]ब्रिटिश शासनकाल में टिहरी रियासत की ग्रीष्मकालीन राजधानी रहा प्रतापनगर क्षेत्र को मसूरी बनाने का सपना राजा प्रताप शाह का पूरा नहीं हो सका। यदि सब कुछ समय के अनुसार होता, तो यह शहर मसूरी से बेहतर होता, लेकिन आज यह अपनी बदहाली पर आंसू बहा रहा है। स्थिति यह है कि राजा प्रतापशाह का बनवाया राजमहल सहित उस समय की बनी कई बेहतरीन इमारतें खंडहर में तब्दील होती जा रही है।

बताया जाता है कि टिहरी नरेश प्रताप शाह ने प्रतापनगर शहर का निर्माण सन् 1877 में किया था। प्रतापशाह ने टिहरी रियासत के राजा के रूप में 1871 से 1886 तक शासन किया। राजशाही के दौर में प्रतापशाह मसूरी दौरे पर गए थे। भ्रमण के दौरान मसूरी स्थित माल रोड पर एक अंग्रेज से उनका झगड़ा हो गया। राजा ने उसे थप्पड़ रसीद कर दिया। इसके बाद अंग्रेजों ने राजा के मसूरी आने पर रोक लगा दी थी। राजा ने उसी समय संकल्प लिया कि वह अपनी रियासत को मसूरी से भी बेहतरीन शहर बनाएंगे। इसके बाद राजा ने अपने रियासत का भ्रमण शुरू किया, जिसमें उन्हें टिहरी के दक्षिण की ढाल की पहाड़ी पसंद आ गई। खोलगढ़ की सीमा पर बसे इस जगह का नाम उस समय विलोली था। उसके बाद राजा प्रतापशाह ने इस स्थान को मसूरी शहर की तर्ज पर विकसित करने का कार्य तेजी से आरंभ कर दिया। बाजार में प्रवेश द्वार, डाक बंगला, महल, चीफ कोर्ट की भव्य इमारत, कोतवाली, कचहरी, टेनिस कोर्ट के अलावा बाजार शानदार बगीचे को सुनियोजित ढंग से निर्माण कराया। इसके बाद प्रतापनगर को टिहरी से अश्वमार्ग से जोड़कर इसे टिहरी रियासत की ग्रीष्मकालीन राजधानी के रूप में विकसित किया। राजा गर्मियों में प्रतापनगर व सर्दियों में टिहरी निवास करते थे। शहर को विकसित करने का कार्य तेजी से आगे चल रहा था, उसी दौरान वर्ष 1886 में राजा की मृत्यु हो गई। राजा की मृत्यु के बाद इस शहर का विकास भी रूक गया।

Devbhoomi,Uttarakhand

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महाभारत के युद्ध के बाद पांडवों ने जीवन मुक्ति के लिए हिमालय की कठिन राह पकड़ी थी। यहीं से वे स्वर्ग सिधार गए थे। द्वापर की इस घटना के बाद इस कलियुग में भी हम एक अंग्रेज की कथा सुनते हैं जो युद्ध की त्रासदी से विमुख होकर हिमालय की शरण में आया था। इस फिरंगी का नाम विलसन था। पहले अफगान युद्ध (सन् 1842) में अमीर शेर अली (दोस्त मोहम्मद के बेटे) के हाथों से अंग्रेजों की करारी हार हुई थी।

 उस अपमानजनक हार के बाद विलसन उत्तराखंड में शरण लेने चला गया था। गंगोत्री से 13 किलोमीटर पहले मुखवा नाम के गांव में उसे शरण मिली थी। भागीरथी घाटी में आखिरी गांव मुखवा है। इसमें गंगा के पुजारी रहते हैं। इन्हें गंगोत्री के पंडे कहते हैं। सर्दियां शुरू होने पर गंगोत्री मंदिर के कपाट बंद हो जाते हैं। तब अधिष्ठातृ देवी की प्रतिमा को मुखवा में लाकर प्रतिष्ठित कर देते हैं।

विलसन ने अपनी बंदूक सहित मुखवा में जब कदम रखा तो पहले-पहल खेतों में से उसके गुजरने पर बहुएं और माताएं डर कर भाग जाती थीं। उन्होंने ऐसा लंबा तगड़ा लाल चेहरे वाला ‘दैत्य’ पहले कभी नहीं देखा था।

सैकड़ों साल पहले किन्हीं मजबूरियों के कारण मुखवा के पंडे भी इधर चले आए थे। मुखवा में 1983 में सेमवाल पंडों के लगभग 100 तथा दूसरी जातियों के 30 घर थे। कुछ ठाकुर थे और कुछ हरिजन। 134 साल पहले मुखवा की छोटी-सी बस्ती में सेमवालों के कुछ घरों के अलावा 4-5 घर बाजगी के थे। बाजगी जात के इन लोगों को मंदिर में देवोत्थान के समय बाजा बजाने के लिए सेमवालों ने यहां बसाया था।

मुखवा के ब्राह्मण तो विलसन को म्लेच्छ ही समझते थे। गांव के मौतगु दास ने उसे आश्रय दिया। दास अस्पृश्य माने जाते थे। उनका मुख्य काम ढोल, नगाड़ा और तुरही बजाना था। शुभ-अशुभ सभी कार्यों में वे बाजे बजाते। ये सामान्यतया सवर्णों के घरों और मंदिरों के भीतर नहीं जाते थे। मंदिर के आंगन में ही प्रवेश द्वार की सीढ़ियों के पास खड़े होकर ढोल बजाकर देवोत्थान करते।

 शादी जैसे मंगल कार्यों में और शव यात्रा में बाजे बजाते। इनके मुख्य बाजे हैः ढोल, नगाड़ा, रणसिंहा (तुरही), भेरी, क्लरिओनेट और शहनाई। ये बजाने का पेशा करते इसलिए गढ़वाल में इन्हें बाजगी कहते हैं।

बाजगियों से मिलता-जुलता पेशा करने वाली एक जाति है- बेड़ा या बादी। गांवों और गलियों में ये ढोलक पर नाचते, बदलते मौसम के गीत गाते, दर्शकों और श्रोताओं का मनोरंजन करते।
वसंत ऋतु में जब पहाड़ और घाटियां सजी-संवरी होतीं तब बादी नर्तक और गायक समा बांध देते। मैदानों में जब किसी के लिए हरिजन शब्द का प्रयोग करते हुए सुनते हैं तो झट ख्याल आता है कि वह भंगी का काम करता होगा। गढ़वाल में हरिजन शब्द इस भाव को प्रकट नहीं करता। वहां घरों से मैला उठाने का काम कोई नहीं करता। गढ़वाल में बाजगियों, बादियों, लोहारों, बढ़इयों, नाइयों और दर्जियों की गणना हरिजनों में की जाती रही है।

मुखवा के सवर्णों और दासों में अंतर यह था कि दास अनपढ़, गरीब, भूमिहीन और हर तरह से पंडों पर आश्रित थे। पंडों से उन्हें जो अनाज तथा दान मिल जाता था, उस पर गुजर कर संतुष्ट रहते थे। विलसन के आने से उनके जीवन में परिवर्तन आने लगा। वह उन्हें अपने साथ शिकार पर जंगल ले जाता था और मजदूरी में नकद पैसे देता था। उन दिनों यहां दैनिक मजदूरी की दर एक आना प्रति व्यक्ति होती थी। विलसन उन्हें दो आना देने लगा था।

शिकार में विलसन का मुख्य लक्ष्य तो मुनाल नामक पक्षी और कस्तूरी मृग होते थे, पर भरल, तुतराल आदि जो भी सामने आ जाता, वह उसे मार लेता। उनकी खालें वह खुद सावधानी से उतारता, जिससे वे क्षतिग्रस्त न हों। अपने सहायक शिकारियों, मुखवा के दासों को भी उसने खलियाना सिखा दिया था। खालों का प्रारंभिक उपचार वह यहीं पर करके उन्हें जमा करता था।

 बेहद ठंडी जलवायु में वे खराब नहीं होती थीं। काफी मात्रा में कस्तूरी का नाफा, खालें जमा हो जाने पर वह उन्हें मसूरी-देहरादून में बेच आता। उन दिनों टकनोरी लोग मांस के लिए कस्तूरी मृग का शिकार किया करते थे। कस्तूरी के नाफों को मामूली सी कीमत में बेच देते थे। विलसन से उन्होंने कस्तूरी की कद्र करनी सीखी। सारा गांव हांका करके कस्तूरी मृगों को विलसन की तरफ खदेड़ देता।

शिकार के एक ही दौर में वह ढेर सारे मृग मार लेता। उनके नाफे काट कर खाल और गोश्त हकैयों में बांट देता। निर्यात करने से पहले नाफे धूप में सुखाए जाते। हरसिल वाले बंगले के आंगन में धूप में फैलाए हुए नाफों की तादाद इतनी अधिक हो जाती कि उनकी तुलना सूखे हुए गेहूं के दानों से की जाती थी! कस्तूरी ने उसका भाग्य पलट दिया। उसे बेच कर वह मालामाल हो गया।

 अब विलसन का व्यापारिक मस्तिष्क हिमालय के इन अछूते जंगलों को दोहने की एक बड़ी योजना पर काम कर रहा था। उसे शुरू करने की अनुमति लेने वह टिहरी दरबार पहुंचा। भागीरथी घाटी में खड़े लंबे और मोटे तने वाले देवदार वृक्षों को काटकर वह उनकी कीमती लकड़ी को मैदानों में बेचना चाहता था। महाराजा उसकी योजना को सुनकर हंसे। उन्होंने अचंभे से पूछा कि इस कीमती लकड़ी को भला मैदानों तक ढोकर कैसे ले जाओगे?

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विलसन उत्तराखंड के कठिन तथा दुर्गम इलाकों में वनों का दोहन करने वाला, प्रदेश में कीमती इमारती लकड़ी को प्राकृतिक जल-धाराओं, नदियों के जरिए बहाकर नीचे मैदान में ले जाने वाला पहला आदमी था। भागीरथी की वेगवती धारा के जरिए वह अपनी लकड़ी को नीचे हरिद्वार तक बहा ले जाता था। वैज्ञानिक बताए गए वन दोहन के इतिहास में यह युगान्तकारी कदम था।

 बहान को व्यवस्थित करने के लिए उसने भागीरथी और उसकी सहायक नदियों के प्रवाह के साथ बार-बार यात्रा करके विभिन्न महीनों में भागीरथी के स्वाभाविक स्वरूप का बारीकी से अध्ययन किया। मार्ग की सभी संभावित बाधाओं तथा कठिनाइयों का जायजा लिया और तब जलावतरण के लिए अनुकूलतम मौसम का सही-सही निर्धारण किया था।

लंबे पेड़ों को काटकर वह बेलनाकार तने की डेढ़ से दो मीटर लंबी गेलियां बनवाता। सूख जाने पर गेलियों को नदी में बहा दिया जाता और फिर हरिद्वार में उन्हें पकड़ लिया जाता। देवदार की एक गेली तीन दिन और तीन रात में हरसिल से हरिद्वार पहुंचती थी। उन दिनों आरे से चिरान करके पहाड़ में शहतीर नहीं बनाए जाते थे।

टकनौर, बाड़ाहाट और भंदर्सू के विस्तृत क्षेत्रों में एक समान मोटाई के तने वाले देवदार के नए वृक्षों की अब जो फसल खड़ी है, उसमें अधिक उम्र वाले वृक्षों का पूर्णतया अभाव एक खास बात है।

पहाड़ों पर आने-जाने के परंपरागत मार्गों में जरूरत के अनुसार फेर-बदल कर विलसन ने अपने काम के लिए नए रास्ते, पगडंडियां बना ली थीं। उन पर पुल बनाए थे।

 हरसिल, कांट बंगाला (उत्तरकाशी), धरासू, धनोल्टी, काणा ताल, झालकी और मसूरी में उसने बंगले बनाए थे। उसके विकसित किए हुए मार्गों को विलसन मार्ग कहा जाने लगा था। मसूरी से मुखवा तक विलसन मार्ग थाः मसूरी-धनोल्टी-काणा ताल-बंदवाल गांव होते हुए भल्दियाणा। वहां से भागीरथी पार करके लंबगांव होते हुए नगुणा। नगुणा से धरासू-डुण्डा-उत्तरकाशी-मनेरी-भटवाड़ी-गंगनानी-सुक्खी-झाला-हरसिल-मुखवा।

विलसन के सभी मार्गों पर उसके गुमाश्ते लगातार तैनात रहते। हरसिल से हरिद्वार तक उसके हजारों लोग पेड़ों की छपान-कटान, चिरान, बहान और ढुलान के कामों में लगे रहे। इस हलचल से सैकड़ों लोगों का आना-जाना बढ़ गया था। विलसन अपने हर काम के लिए पैसा देता था। बाद में तो उसने अपना ही सिक्का चला दिया था।

 अब तो क्षेत्र में लेन-देन में विलसन की हुंडी तथा सिक्का चलने लगा और हरिद्वार पार तक इनका प्रचलन हो गया था। विलसन की मुद्रा प्रणाली, टोकन को लोग पहाड़ों के परिवेश और प्रतिकूल परिस्थितियों में व्यावहारिक और लाभदायक बताते थे। इस प्रणाली में एक, दो, पांच और दस रुपए की मुद्राएं, टोकन जारी किए गए थे।

Source http://hindi.indiawaterportal.org

नवीन जोशी

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बहुत बढ़िया, उपयोगी व संग्रहनीय जानकारी देने के लिए बहुत-बहुत धन्यवाद जखी जी.

एम.एस. मेहता /M S Mehta 9910532720

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 आधुनिक  गढ़वाळी कविता का संक्षिप्त इतिहास
                                              भीष्म कुकरेती (मुंबई)
                   गढ़वाली  बाजूबंद काव्य के संग्रह कर्ता  , संकलन कर्ता और विश्लेषक मॉल चाँद रमोला का कहना है कि प्रत्येक गढ़वाली अपने जीवन काल में गढ़वाली में कविता अवश्य रचता है . यह रचना विद्वता पूर्ण नहीं भी हो तो भी उसमे जीवन निहित होता है. जब से गढ़वाली भाषा का उदय हुआ है तब से गढ़वाली लोक गीतों कि रचा करते आये हैं . लिखित रूप में कविता का प्रारंभ कई सदियों पहले हो चूका था . आज उन कविताओं का मूल्याङ्कन समय समय पर होता आया है इस आलेख में लेखक ने आधुनिक कवियों और उनके काव्य , कवित्व का संक्षिप्त  वर्णन पर जोर दिया है .
                       गढवाली भाषा का प्रारम्भिक काल
                   गढवाली भाषाइ इतिहास अन्वेषण हेतु कोई विशेष प्रयत्न नही हुए हैं. , अन्वेषणीय वैज्ञानिक आधारों पर कतिपय प्रयत्न डा गुणा नन्द जुयाल, डा गोविन्द चातक , डा बिहारी लाल जालंधरी , डा जयंती प्रसाद नौटियाल ने अवश्य किया किन्तु तदुपरांत पी एच  ड़ी करने के पश्चात इन सुधिजनो ने अपनी खोजों का विकाश नहीं किया और इनके शोध भी थमे रह गये . डा  नन्द किशोर ढौंडियाल व इनके शिष्यों के कतिपय शोध प्रशंषनीय   हैं पर इनके शोध में भी क्र्मता का नितांत अभाव है. चूँकि भाषा  इतिहास  में क्षेत्रीय इतिहास , सामाजिक विश्लेषण, भाषा विज्ञान आदि का अथक ज्ञान व अन्वेषण आवश्यक है  अतः इस विषय पर वांछनीय अन्वेषण की अभी भी आवश्यकता है . अन्य विद्वानों में श्री बलदेव प्रसाद नौटिया, संस्कृत विद्वान् धश्माना , भजन सिंह सिंह, आबोद बंधु बहुगुणा , मोहन बाबुलकर , रमा प्रसाद  घिल्डियाल 'पहाड़ी ' , भीष्म कुकरेती आदि के गढवाळी भाषा का  इतिहास  खोज कार्य वैज्ञानिक कम भावनात्मक अधिक है इन विद्वानो के कार्य में क्र्मता और वैज्ञनिक सन्दर्भों का अभाव भी मिलता है  . इसके अतिरिक्त सभी विद्वानो के अन्वेषण में समग्रता का अभाव भी है. जैसे डा चातक और गुणा नन्द जुयाल के अन्वेषणों में फोनोलोजी भाषा  विज्ञानं  है, डा जालंधरी ने ध्वनियों की खोज की है पर क्षेत्रीय इतिहास के साथ कोई तालमेल नही है.
        अबोध बन्धु बहुगुणा ने नाथपन्थी भाषा साहित्य को आदि गढ़वाली का नाम दिया है किन्तु यह कथन  भी भ्रामक कथन है. नाथपंथी साहित्य में गढ़वाली है किन्तु नाथपंथी साहित्य संस्कृत के धार्मिक, अध्यात्मिक , कर्मकांडी साहित्य जैसा है जिसे सभी हिन्दू कर्मकांड या अध्यात्मिक अवसरों पर प्रयोग करते हैं. उसी तरह नाथपन्थी साहित्य में गढवाली अवश्य है पर यह नितांत गढवाली भाषा  नही कहलायी जाएगी .
    डा शिव प्रसाद डबराल ने  अपने उत्तराखंड के इतिहास में पुरुषोत्तम सिंह समय वाले शिलालेख,  , अशोक् चल  का गोपेश्वर (ऊत्रखंड का इतिहास भाग -१ पृष्ठ -९७-९८) , मंकोद्य काव्य, दिल्ली सल्तनत , आदि के सन्दर्भ से सिद्ध किया की गढवाली और कुमाउनी भाषाओँ का उद्भव खश भाषा से हुआ यानि की कुमाउनी  और गढवाली भाषाओँ का उद्भव कैंतुरा शाशनकाल ( ६५० इश्वी से पहले ) (पंवार वंश से पहले गढवाल -कुमाओं पर कैंतुरा वंशीय शाशन था , और गढ़वाल में चौहान /पंवार ब्न्शीय शाशन  ६५० इसवी से १९४७ तक रहा है ) में हुआ . डा बिहारी लाल जालंधरी (२००६ इ.)  के गढ़वाली -कुमाउनी भाषाई ध्वनियों के अन्वेषण से भी सिद्ध हुआ है कि कुमाउनी-गढवाली भाषाओं की मा एक ही भाषा थीं . कुमाउनी भाषा लोक साहित्य के संकलन कर्ता भी स्वीकार करते हैं कि गढ़वाली कुमाउनी कि मा एक ही भाषा रही होगी.
    चूँकि गढवाली भाषा के अतिरिक्त अभी तक यह सिद्ध नहीं हुआ/अथवा प्रमाण मिले हैं  कि पंवार बंशीय या चौहान बंशीय शाशन कालों में गढवाळी भाषा के अतिरिक्त कोई अन्य भाषा भी गढ़वाल  की जन भाषा थी तो सिद्ध होता है कि गढ़वाल राष्ट्र में खश भाषा समापन के उपरान्त गढवाली भाषा ही गढ़वाल कि जन भाषा थी . प्रथम इसवी के करीव खश भाषा गढवाल में बोली जाती रही है और धीरे धीरे खाश भाषा की  अव्न्नती या क्षरण  हुआ वह खश अप्ब्रंश में बदली और धीरे इसने गढ़वाली का रूप लिया और छटी सदी आते आते खश अपभ्रंश  गढ़वाली में बदल चुकी थी . छटी सदी से गढवाल में यद्यपि शाशन कल चक्र बदलता गया किन्तु चौहान /पंवार बंशीय शाशन में नवी सदी से अठारवी   सदी तक कोई भारी परिवर्तन गढ़वाल में नही आया हाँ भारत से प्रवाशी गढ़वाल में बसते गये किन्तु उन्होंने गढ़वाली भाषा में कोई आमूल परिवर्तन नही किया बस अपने साथ लाये शब्दों को गढवाली में मिलाते गए होंगे.
    निष्कर्ष में  कह सकते हैं कि गढवाली भाषा से पहले गढ़वाल में खश अपभ्रंश का बोलबाला था जो कि खश भाषा कि उपज थी या यों कह सकते हैं कि गढ़वाली भाषा की मा खश भाषा है  और छटी सदी से लेकर ब्रिटिश काल के प्रारम्भ होने तक गढ़वाल राष्ट्र में एक ही जन भाषा थी  और वह थी  गढवाली भाषा . और यदि खश अपभ्रंश को गढवाली भाषा माने तो गढवाल देश में गढवाली भाषा  प्रथम सदी से विद्यमान रही है .
                            बाजूबंद  काव्य शैली गढ़वाली की आदिकाव्य  शैली
                    गढवाली भाषा का आदिकाव्य (Prilimitive Poetry ) बाजूबंद काव्य है जो की दुनिया की किसी भी भाषा कविता क्षेत्र में लघुतम    रूप की कविताएँ हैं  . ये कविताएँ दो पदों की होती हैं जिसमें प्रथम पद निरर्थक होता है पट मिलाने के निहित प्रयोग होता है द्वितीय चर ण सार्थक व सार्ग्वित होता है. गढवाली काव्य की यह अपनी विशेषता  लिए विशिष्ठ  काव्य शैली है बाजूबंद काव्य   
                   अन्य  लोक गीतों के प्रकार और कवित्व में भी गढ़वाली भाषा किसी  भी बड़ी भाषा के अनुसार वृहद रूप वाली है , सभी प्रकार के छंद, कवित्व शैली गढवाली लोक गीतों में मिलता है   
                           नाथपन्थी साहित्य और गढ़वाली लोकसाहित्य में मनोविज्ञान एवम दर्शन शास्त्र
      नाथपंथी साहित्य आने से गढवाली भाषा में मनोविज्ञान और दर्शन शास्त्र की व्याख्याएं जन जीवन में आया . यह एक विडम्बना ही है की कर्मकांडी ब्राह्मण जिस साहित्य की व्याख्या कर्मकांड के समय  करते हैं  वह विद्वता की दृष्टि से उथला है   और जो जन साहित्य सारगर्भित है , जिसमे मनोविज्ञान की परिभाषाएं छुपी हैं , जिस साहित्य में भारतीय षट  दर्शनशास्त्र का निचोड़ है उसे सदियों से वह सर्वोच स्थान नही मिला जिस यह साहित्य हकदार है. नाथपंथी साहित्य के वाचक डळया  नाथ या गोस्वामी, ओल्या, जागरी, औजी /दास होते हैं किन्तु सामजिक स्तिथि के हिसाब से इन वाचकों को अछूतों की श्रेणी में रखा गया और आश्चर्य  यह भी है की आम जनों को यह साहित्य अधिक भाता था/है और उनके निकट भी रहा है
बगैर नाथपंथी साहित्य सन्दर्भ रहित लेख गढवाली कविता इतिहास नही कहा जायेगा
  डा विष्णु दत्त कुकरेती के अनुसार नाथ साहित्य  में  ढोल सागर , दमौसागर  घटस्थापना , नाद्बुद, चौडियावीर मसाण, समैण  , इंद्रजाल, कामरूप जाप, महाविद्या , नर्सिंग की चौकी, अथ हणमंत, भैर्बावली, नर्सिंग्वाळी , छिद्रवाळी , अन्छरवाळी, सैदवाळी, मोचवाळी, रखवाळी, मैमदा रखवाळी, काली  रखवाळी. कलुवा   रखवाळी, डैण रखवाळी , ज्यूडतोड़ी  रखवाळी,   मन्तरवाळी , फोड़ी बयाळी , कुर्माख़टक , , गणित   प्रकाश, संक्राचारी  विधि, दरीयाऊ , ओल्याचार , भौणा बीर, मन्तर गोरील काई , पंचमुखी हनुमान, भैर्वाष्ट्क,   दरिया मन्तर, सर्व जादू उक्खेल, सब्दियाँ ,   आप रक्षा , चुड़ा मन्तर, चुड़ैल का मन्त्र , दक्खण दिसा , लोचडा की वैढाई , गुरु पादिका, श्रीनाथ का सकुलेश, नाथ निघंटु आदि काव्य शाश्त्र प्रमुख हैं
                        नाथ संप्रदायी साहित्य का मौलिक गढ़वाली भाषा पर प्रभाव
           चूँकि गढवाल में नाथ सम्प्रदाय का प्रादुर्भाव सातवीं सदी से होना शुरू हो गया था और इस साहित्य ने गढ़वाल के जन जीवन में स्थान बनाना शुरू कर दिया था और ग्यारवीं सदी तक यह साहित्य जन जीवन का अभिन्न अंग बn  गया था अथ इस साहित्य के भाषा ने खश जनित गढ़वाली भाषा में परिवर्तन किये . नाथ साहित्य ने खश जनित गढ़वाली भाषा पर  शैलीगत एवम  शब्द सम्पदा  गत  प्रभाव डाला किन्तु उसकी आत्मा एवम व्याकरणीय संरचना पर कोई खास प्रभाव ना डाल सकी . हाँ नाथ सम्र्दायी साहित्य ने गढवाली भाषा को खड़ी बोली, बर्ज और राजस्थानी भाषाओँ के निकट लाने में एक उत्प्रेरणा  काम अवश्य किया. यदि गढ़वाल में दरिया वाणी में मन्तर पढ़े जायेंगे तो राज्शथानी भाषा का प्रभाव गढवाली पर आना ही था जिस तरह कर्मकांड की संस्कृत भाषा ने गढ़वाली भाषा को प्रभावित किया उसी तरह नाथ साहित्य ने गढवाली भाषा को प्रभावित किया किन्तु यह  कहना कि नाथ साहित्य गढवाली कि आदि भाषा है इतिहास व भाषा के दोनों के साथ अन्याय करना होगा यदि ऐसा होता तो अन्य लोक साहित्य में भी हमें इसी तरह क़ी भाषा के दर्शन होते. अबोध बंधु बहुगुणा ने क्योंकर नाथ संप्रदायी काव्य को   आदि-गढवाली काव्य/गद्य नाम दिया होगा ?  . किन्तु यह भी सही है नाथ सम्प्रदायी साहित्य ने मूल गढवाली भाषा को प्रभावित अवश्य किया है. नाथ समप्रदायी साहित्य के प्रभाव ने कुछ बदलाव किये किन्तु गढवाली भाषा में आमूल चूल परिवर्तन नही किया . यदि ऐसा होता तो आज की नेपाली सर्वथा गढवाली से भिन्न होती . हमें किसी भी भाषा के इतिहास लिखते समय निकटस्थ क्षेत्र के कृषिगत या कृषि में होने वाली भाषा /ज्ञान भाषा पर भी पुरा ध्यान देना चाहिए जिस पर अबोध बंधु बहुगुणा ने ध्यान नही दिया कि गढवाली , कुमाउनी और नेपाली भाषाओँ में कृषि गत ज्ञान  या कृषि सम्बन्धी शब्द एक जैसे हैं इस दृष्टि से भी नाथ पंथी साहित्य  गढवाली का  आदि साहित्य नही माना जाना चाहिए
                                      आधुनिक कविता इतिहास
            यद्यपि गढवाली कविता कि समालोचना एवम कवियों कि जीवनवृति लिखने कि शुरुवात पंडित तारादत्त गैरोला ने १९३७ इ. से की किन्तु     अबोध बंधु बहुगुणा को गढवाली कविता और गद्य का क्रमगत  इतिहास लिखने का श्रेय  जाता है अतः कविता काल कि परिसीमन   उन्ही के अनुसार आज भी हो रही है. इस लेख में भी गढवाली कविता काल खंड बहुगुणा के अनुसार ही विभाजित  की जाएगी   डा नन्द किशोर ढौंडियाल ने कालखंड के स्थान पर नामों को महत्व दिया जैसे पांथरी    युग या सिंह युग .
                                         पूर्व - आधुनिक  काल   
       गढवाली साहित्य का अध्निक काल १८५० इ से शुरू होता है किन्तु आधुनिक रूप में कविताएँ पूर्व में भी रची जाती रही हैं  हाँ उनका लेखा जोखा काल ग्रसित हो गया है . किन्तु कुछ काव्य का रिकॉर्ड मिलता है . तेरहवीं सदी में रचित काशिराज जयचंद कि कविता का रिकॉर्ड बताता है कि कविताएँ गढवाल में विद्यमान थीं .   डा हरिदत्त भट्ट शैलेश, भजन सिंह सिंह, बाबुलकर , अबोध बहुगुणा, , चक्रधर बहुगुणा एवं शम्भु प्रसाद बहुगुणा आदि अन्वेषकों ने उन्नीसवीं  सदी  से पहले उपलब्ध (रेकॉर्डेड ) साहित्य के बारे में पूर्ण जानकारी दी है .  अत्थ्र्वीं सदी कि कविता जैसे 'मांगळ''गोबिंद फुलारी '   र्घुब्न्शी घोड़ी' पक्षी संघार (१७५० इ से पहले )  जैसी कविताएँ   अपने कवित्व पक्ष कि उच्चता और गढवाली जन जीव  कि झलक दर्शाती हैं .
       गढवाल के महारजा सुदर्शन शाह कृत    सभासार ( १८२८ )   यद्यपि बर्ज भाषा में है किन्तु प्रतेक कविता का सर गढवाली कविता में है इसी तरह दुनिया में एकमात्र कवि जिसने पांच  भाषाओँ में कविताएँ (संस्कृत, गढवाली, कुमाउनी, नेपाली और  खड़ी बोली ) रचीं और एक अनोखा प्रयोग भी किया कि दो भाषाओँ को एक ही कविता में लाना याने एक पद एक भाषा का और दूसरा पद दूसरी भाषा का . ए कवि थे गुमानी पन्त ( १७८०-१८४० )
                           १८५० ई.  से १९२५ ई. तक
                      गढवाली में आधुनिक कविताएँ लिखने का आरम्भ ब्रिटिश काल में ही शुरू हुआ . हाँ १८७५ ई के बाद प. हरिकृष्ण रुडोला, लील दत्त कोटनाला एवं महंत हर्ष्पुरी कि त्रिमूर्ति ने गढवाली आधुनिक कविताओं का श्रीगणेश  किया यद्यपि इन्होने कविता रचना उन्नेस्विन सदी में कर दिया था इन कविताओं का प्रकाशन ' गढ़वाली ' पत्रिका एवं गढवाली का  प्रथम कविता संग्रह 'गढवाली कविता वली ' में ही हो सका
  बीसवीं सदी के प्रारम्भिक काल गढवाली समाज का एक अति महत्व पूर्ण काल रहा है . ब्रिटिश शाशन कि कृपा से ग्रामीणों को शाशन के तहत पहली बर शिक्षा ग्रहण का वस्र मिला जो कि गढवाली रजा के शाशन में उपलब्ध नही था प्राथमिक स्कूलों के खुलने से ग्रामीण गढवाल में सिक्षा के प्रति रूचि पैदा हुई. पैसा आने से व नौकरी के अवसर प्राप्त होने से गढवाली गढवाल से बहार जाने लगे खाशकर सेना में नौकरी करने लगे. पलायन का यह प्राथमिक दौर था. समाज में प्रवासियों  और शिक्षितों कि पूछ होने लगी थी   एवं समाज में इनकी सुनवाई भी होने लगी थी . समाज एक नये समाज में बदलने को आतुर हो रहा था. धन कि अब्श्य्कता  का महत्व बढने लगा था. ब्यापार में अदला -बदली (बार्टर ) व्यवस्था और सहकारिता के सिद्धांत पर  चोट लगनी शुरू हो गयी थी और कहीं णा कहीं सामजिक सुधार कि आवश्यकता महसूस भी हो रही थी स्वतंत्रता आन्दोलन गढवाल में
जड़ें जुमा चुका ही था .
 इस दौर में    सामजिक बदलाव व समाज कि अपेक्षाएं व आवश्यकताओं का सीधा प्रभाव गढवाली कविताओं पर पड़ा . सामजिक उत्थान, प्रेरणादायक , जागरण , धार्मिक , देशभक्ति जैसी ब्रिटी इस समय कि कविताओं में मिलती है. कवित्व संस्कृत और खड़ी बोली से पूरी तरह प्रभावित है यहाँ तक कि गढ़वाली भाषा के शब्दों को छोड़ हिंदी शब्दों कि भरमार इस  युग की कृतियों में मिलती हैं यह कर्म आज तक चला आ रहा है . चूँकि कर्मकांडी ब्राह्मणों में पढने -पढ़ाने का रिवाज था और आधुनिक शिक्षा ग्रहण में भी ब्राह्मणों ने अगल्यार ल़ी अतः  १९२५ तक आधुनिक कवि ब्राह्मण  ही हुए हैं
 इस समय के कवियों में रुडोला, कोटनाला पूरी त्रिमूर्ति के अतिरिक्त आत्मा राम गैरोला, सत्य शरण रतूड़ी , भवानी दत्त थपलियाल, , तारादत्त गैरोला, चंद्रमोहन रतूड़ी, शशी शेखारानंद सकलानी, सनातन सकलानी, देवेन्द्र रतूड़ी, गिरिजा दत्त नैथाणी, मथुरादत्त नैथाणी  सुर्द्त्त सकलानी, अम्बिका प्रसाद शर्मा , रत्नाम्बर चंदोला, दयानन्द बहुगुणा , सदा नन्द कुकरेती मुख्य कवि हैं
 काव्य संकलनों में गढ़वाली कवितावली ' (१९३२)  का विशेष स्थान है जो की विभिन्न कवियों की कविताओं का प्रथम संकलन भी है . इसके सम्पादक तारादत्त गैरोला हैं और प्रकाशक विश्वम्बर दत्त चंदोला हैं . इस संग्रह का परिवर्तित रूप में दूसरा संग्रह १९८४ म३ चंडोल की सुपुत्री ललिता वैष्णव ने प्रकाशित किया . गढवाली कवितावली गढवाली भाषा का प्रथम संग्रह  है और ऐतिहशिक है किन्तु इस संग्रह में भूमिका व कवियों के बारे में समालोचना व जीवन वृति  हिंदी भाषा में है. गढ़वाली साहित्य की विडम्बना ही है क़ि आज भी काव्य  संग्रहों में भूमिका अधिकतर हिंदी में होती है .
                            १९२५ से १९५० का काल
    सामजिक स्तिथि तो वही रही किन्तु स्तिथियों में गुण कारक वृद्धि हुई याने की शिक्षा वृद्धि, उच्च शिक्षा के प्रति प्रबल इच्छा , कृषि पैदावार की जगह धन की अत्यंत आवश्यकता , गढ़वाल से पलायन में वृद्धि, कै सामजिक कुरीतियों व सामजिक ढांचों पर कै तरह के सामाजिक आक्रमण में वृद्धि, सैकड़ों साल से चली आ रही जातिगत व्यवस्था पर प्रहार , स्वतंत्र आन्दोलन में तीब्रता और ग्रामीणों का इसमें अभिनव योगदान , शिक्षा में ब्राह्मणों के एकाधिकार पर प्रबल आघात , नए सामाजिक समीकरणों की उत्पत्ति आदि इस काल की मुख्य सामाजिक प्रवृतियां रही हैं . १९४७ में भारत को स्वतंत्रता मिलना भी इसी काल में हुआ और इस घटना का प्रभाव आने वाली कविताओं पर पड़ा . इस काल men  purush vrg का naukari hetu  gdhwaal se bahr rahne se श्रृंगार विरह रस में भी वृद्धि हुई , हिंदी व अंग्रेजी से अति मोह, वाष्तु  शिल्प में बदलाव , धार्मिक अनुष्ठानो में बदलाव के संकेत , कृषि उपकरणों , कपड़ों में परिवर्तन, गढवाली सभ्यता में बाह्य प्रभाव जैसे सामजिक स्तिथि इस काल की देन है
प्रवाश में गढ़वाली सामाजिक संस्थाएं गढ़वाली  सह्त्यिक उत्थान में कार्यरत होने लग गयीं थीं
    जहाँ तक कविताओं का प्रश्न है सभी कुछ  प्रथम काल जैसा ही रहा . हाँ कवियों की भाषा अधिक मुखर दीखती है और गढवाली कविताओं पर हिंदी साहित्य विकाश का सीधा प्रभाव अधिक मुखर हो कर आया है . अंग्रेजी साहित्य का भी प्रभाव कहीं कहीं दिखने लगता है यद्यपि यह मुखर हो कर नही आई  है . गढ़वाली लोक वृति एवं छ्न्द्शैली में कमी दिखने लगी है . विषयों में सामजिक सुधार को प्रधानत मिली है , विषयगत व कविता शैली में नये प्रयोग भी इस काल में मिलने लगे हैं
    इस काल में जन मानस को यदि किसी कवि ने उद्वेलित किया है तो वह है रामी बौराणी के रचयिता बलदेव प्रसद्द शर्मा दीन . रामी बौराणी कविता आज कुमाउनी और गढ़वाली समाज में लोक गीत का स्थान ग्रहण कर चुकी है .इस काल की दूसरी महत्व पूर्ण घटना अथवा उपलब्धि रूप मोहन सकलानी द्वारा रचित गढ़वाली में प्रथम महाकाव्य 'गढ़ बीर महाकाव्य '(१९२७-२८) है महाकवि भजन सिंह सिंह का इस क्षेत्र में आना एक अन्य महत्व पूर्ण उपलब्धि है , कई संस्कृत साहित्य का अनुबाद भी इस युग में हुआ यथा ऋग्वेद का अनुवाद, कालिदास की अनुकृति आदि
इस काल के कवियों में तोताक्रिष्ण गैरोला, योगेन्द्र पुरी , केशवa   नन्द कैंथोला , शिव नारायण सिंह बिष्ट , बलदेव प्रसाद नौटियाल, सदानंद जखमोला, भोला दत्त देवरानी , कमल साहित्यालंकार , भगवती चरण निर्मोही, सत्य प्रसाद रतूड़ी , दयाधर भट्ट आदि प्रमुख कवि हैं
                                   १९५१  से १९७५ तक
    सारे भारत में स्वतंत्र उपरान्त जो बदलाव आये वही परिवर्तन गढ़वाल वा गढ़वाली प्रवाशियों में भी आये , स्वतंत्रता का सुख , स्वतंत्रता से विकाश इच्छा में तीब्र वृद्धि , समाज में समाज से अधिक व्यक्तिवाद में वृद्धि , आर्थिक स्तिथि व शिक्षा में  वृद्धि , राजनेताओं द्वारा प्रपंच वृद्धि आदि इसी समय दिखे हैं
  गढ़वाल के परिपेक्ष में पलायन में कै गुणा वृद्धि , manyauderi arthvyvstha  से कई सामजिक परिवर्तन , aurton का प्रवाश में आना , संयुक्त परिवार से व्यक्तिपुरक परिवार  को महत्व मिलना, गढ़वालियों द्वारा , सेना में उच्च पद पाना, होटलों में नौकरी से लेकर आई ए एस ऑफिसर की पदवी पाना , नौकरी पेशा वलों को अधिक सम्मान , कृषि पर निर्भरता की कमी , कई सामाजिक -धार्मिक  कुरुरीतियों में कमी किन्तु नयी कुरीतियों का जन्म , हेमवती नंदन बहुगुणा का धूमकेतु जैसा पदार्पण या राजनीती में चमकाना , गढ़वाल विश्व विद्यालय आकाशवाणी नजीबाबाद जैसे संस्थानों  का खुलना , देहरादून का गढ़वाल कमिश्नरी में सम्मलित किया जाना , १९६९ में कांग्रेस छोड़ उत्तरप्रदेश में संविद सरकार का बनना फिर संविद सरकार से जनता का मोह भंग होना, गढ़वाल चित्रकला पुस्तक का प्रकाशन , उत्तरप्रदेश सरकार द्वारा गढ़वाली साहित्य को पहचान देने, चीन की लड़ाई , मोटर बस रास्तों में वृद्धि, लड़कियों की शिक्षा को सामाजिक प्रोत्साहन , अंतरजातीय विवाहों की शुरुवात (हेमवती नंदन बहुगुणा व शिवा नन्द नौटियाल उदाहरन हैं ) , जाड़ों में गृहणियों द्वारा परदेश में पति के पास भेजने की प्रथा का आना , पुराने सामाजिक समीकरणों का टूटना व नए समीकरणों का बनना आदि इस युग की विशेषताएं है , चौधरी चरण सिंह द्वारा हिंदी की वकालत हेतु अंग्रेजी विषय को माध्यमिक कक्षाओं से हटाना जैसी  राजनैतिक घटनाओं ने भी गढ़वाली समाज पर प्रभाव डाला जिसका सीधा प्रभाव गढ़वाली कवियों व उंकी कविताओं पर पड़ा
   कविता के परिपेक्ष में सामाजिक संस्थाओं द्वारा साहित्य को अधिक महत्व देना , गढ़वाली साहित्यिक राजधानी दिल्ली  बन जाना , कवि सम्मेलनों का विकास , नाटकों का मंचन वृद्धि, साहित्यिक गोष्ठियों का अनुशीलन, जीत सिंह नेगी की अमर कृति तू ह्वेली बीआर का रचा जाना, मैको पाड़ नि दीण  और घुमणो कु दिल्ली जाण जैसे लोक गीतों का अवतरण , लोक गीतों का संकलन एवं उन पर शोध, चन्द्र सिंह राही का पदार्पण आदि मुख्य घटनाएँ हैं
 कविताओं ने नए कलेवर भी धारण किये , इस युग में कई नए प्रयोग गढ़वाली कविताओं में मिलने लगे , पुराने छंद गितेय शैली से भी मोह , हिंदी भाषा पर कमुनिश्ती प्रभाव भी गढ़वाली कविता में आने लगा , अनुभव गत विषय  , रियलिज्म , व्यंग्य में नई धारा, नये बिम्ब व प्रतीक, प्रेरणा दायक कविताओं  से मुक्ति से छटपटाहट   , पलायन से प्रवाशियों व वाशियों के दुःख, शैल्गत बदलाव , विषयगत बदलाव , कवित्व में बदलाव आदि इस युग की देन है और इस युग की गढ़वाली कविताओं की विशेषता भी है , मानवीय  संवेदनायों को इसी युग में नयी पहचान मिली
अबोध बंधु बहुगुणा , कन्हया लाल डंडरियाल, जीत सिंह नेगी , गिरधारी लाल थपलियाल कंकाल ' , ललित केशवन, जयानंद खुकसाल बौळया , प्रेम लाल भट्ट , सुदामा प्रसाद डबराल 'प्रेमी', जैसे महारथियों के अतिरिक्त पार्थ सारथि डबराल, नित्यानंद मैठाणी, शेर सिंह गढ़ देशी, डा गोविन्द चातक, गुणा नन्द पथिक, भगवन सिंह रावत अकेला, डा शिव नन्द नौटियाल, महेश तिवाड़ी ,शिव नन्द पाण्डेय प्रमेश, राम प्रसाद गैरोला, जगदीश बहुगुणा किरण , महावीर प्रसाद गैरोला, चन्द्र सिंह राही, डा उमाशंकर थपलियाल 'समदर्शी', डा उमा शंकर थपलियाल 'सतीश',  ब्रह्मानंद बिंजोला, भगवन सिंह कठैत , महिमा नन्द सुन्द्रियाल, सचिदा नन्द कांडपाल, रघुवीर सिंह रावत , डा पुरुषोत्तम डोभाल, परुशराम थपलियाल, मित्रानंद डबराल शर्मा , श्रीधर जम्लोकी, जीवा नन्द श्रीयाल, कुला नन्द भारद्वाज 'भारतीय' मुरली मनोहर सती गढ़कवि, वसुंधरा डोभाल, उमा दत्त नैथाणी , सर्वेश्वर जुयाल, अमरनाथ शर्मा, विद्यावती डोभाल, बर्ज मोहन कबटियाल , चंडी प्रसाद भट्ट  व्यथित , गोविन्द राम सेमवाल , जयानंद किशवान, शम्भू प्रसाद धश्माना , जग्गू नौडियाल , घनश्याम रतूड़ी, धर्मा नन्द उनियाल, बद्रीश पोखरियाल, जयंती प्रसाद बुदाकोती , पाराशर गौड़ जैसे कवि मुख्य हैं इनमे से कयिओं ने आगे जा कर कई प्रशिध कवितायेँ गढ़वाली कविता को दीं जैसे पाराशर गौड़ का इन्टरनेट मध्यम में कई तरह का योगदान !
                        कई उपलब्धियों और सामाजिक व काव्य आन्दोलनों का युग १९७६- से २०१०  तक
 सन १९७६ से २०१० तक भारत को कई नए मध्यम मिले और इन माध्यमों ने गढ़वाली कविता को कई तरह से प्रभावित किया . यदि टेलीविजन/ऑडियो विडियो कस्सेट माध्यम  ने राम लीला व नाटको के प्रति जनता में रूचि कम की तो साथ ही आम गढ़वाली  को ऑडियो व विडियो माध्यम भी मिला जिससे गढ़वाली ललित साहित्य को प्रचुर मात्र में प्रमुखता मिली .
माध्यमों की दृष्टि से टेलीविजन , ऑडियो , विडियो, फिल्म , व इन्टरनेट जैसे नये माध्यम गढ़वाली साहित्य को उपलब्ध हुए . और सभी माध्यमों ने कविता साहित्य को ही अधिक गति प्रदान की .
सामाजिक दृष्टि से भारत में इमरजेंसी , जनता सरकार, अमिताभ बच्चन की  व्यक्तिवादी-क्रन्तिकारी  छबि , खंडित समाज में व्यक्ति पूजा वृद्धि, समाज द्वारा अनाचार, भ्रष्टाचार को मौन स्वीकृति; गढ़वालियों द्वारा अंतरजातीय विवाहों को सामाजिक स्वीकृति, प्रवाशियों द्वारा प्रवाश में ही रहने की (लाचारियुक्त ?) वृति और गढ़वाल से युवा प्रवाशियों की अनिच्छा , कई तरह के मोह भंग, संयुक्त परिवारों का सर्वथा टूटना, प्राचीन सहकारिता व्यवस्था का औचित्य समाप्त होना, ग्रामीण व्यवस्था पर शहरीकरण  का छा जाना ; गढ़वालियों द्वारा विदेश गमन ; सामाजिक व धार्मिक अनुष्ठानो में दिखावा प्रवृति, पहाड़ी भू  भाग में कृषि कार्य में भयंकर ह्राश; गों के गों खाली हो जाना , आदि सामाजिक प्र्वर्तानो ने गढ़वाली कविताओं को कई तरह से प्रभावित किया  हेमवती नंदन बहुगुणा द्वारा इंदिरा गाँधी को चल्लेंज  करना जैसी घटनाओं का कविता पर अपरोक्ष असर पडा . व्यवस्था पर भयंकर चोट करना इसी घटना की एक ष उपज है
    जगवाळ फिलम के बाद अन्य फिल्मों का निर्माण ;  उत्तराखंड आन्दोलन, हिलांस पत्रिका आन्दोलन , धाद द्वारा ग्रामीण स्तर पर कवि सम्मलेन आयोजन आन्दोलन, कविता पोस्टर, प्रथम गढ़वाली भाषा दैनिक समाचार  पत्र गढ़ ऐना का प्रकाशन , चिट्ठी पतरी , उत्तराखंड खबर सार , गढ़वाली धाई या रान्त रैबार जैसे पत्रिकाओं या समाचार पत्रों का दस साल से भी अधिक समय तक प्रकाशित होना , उत्तराखंड राज्य बनाना आदि ने भी गढ़वाली कविता को प्रभावित किया .
   गढ़वाली साहित्यिक राजधानी दिल्ली से देहरादून स्थानांतरित होना व पौड़ी, कोटद्वार, गोपेश्वर , स्युन्सी बैज्रों जैसे स्थानों में साहित्यिक उप राजधानी बनने ने भी कविताओं को प्रभावित किया
गढ़वाली कवियों व आलोचकों ने  गढ़वाली को अन्तर्रष्ट्रीय भाषाई स्तर देने की कोशिश भी इसी समय दिखी
कवित्व व कविता की दृष्टि से यह काल सर्वोत्तम काल माना जाएगा और अगास भी देता है आने वाला समय गह्द्वाली कविता का स्वर्ण काल होगा . इस काल में शैल्पिक संरचना , व्याकरणीय संरचना , आतंरिक संरचना- वाक्य, अलंकर, प्रतीक, बिम्ब, मिथ , फैन्तासी, लय, विरोधाभास, व्यंजना, विडम्बना, पारम्परिक लय , शाश्त्रीय लय , मुक्त लय, अरथ लय , में कई नए प्रयोग भी हुए तो परंपरा का भी निर्भाव हुआ .
   सभी अलाकारों का खुल कर प्रयोग हुआ है और सभी रसों के दर्शन इस काल की गढ़वाली कविताओं में मिलेंगी . कलेवर , संरचना  के हिसाब से भी कई नए कलेवर इस वक्त गढ़वाली कविताओं में प्रवेश हुए यथा हाइकु
कवित्व की अन्य दृष्टि में भी संस्कृत के पारंपरिक सिधांत , काव्य सत्य , आदर्शवाद, उद्दात स्वरूप, औचित्य , विभिन्न काव्य प्रयोजन , नव शाश्त्र्वाद, काल्पनिक, यथार्थ्पुरक, जीवन की आलोचना, सम्प्रेष्ण , स्वछ्न्द्वाद, कलावाद, यथार्थवाद, अतियथार्थवाद, अभिव्यंजनावाद , प्रतीकवाद, अस्तित्व्बाद, धर्मपरक , अद्ध्यात्म्पर्क, निर्व्यक्तिता , व्यक्तिता, वस्तुनिष्ठ -समीकरण , विद्वता वाद ; व्क्रोक्तिवाद, आदि सभी इस युग की कविताओं में मिल जाती हैं
   काव्य विषय में भी विभिन्नता है सभी तरह के विषयों की कविता इस काल में मिलती हैं
अबोध बंधु बहुगुणा का भुम्याल, कन्हया लाल दंद्रियल का नागराजा (पाँच भाग ) और प्रेम लाल भट्ट का उत्तरायण जैसे महाकाव्य इस काल की विशेष उपलब्धि है
कविता संग्रहों में अबोध बंधु सम्पादित शैल वाणी (१९८० ) एवं मदन डुकलान सम्पादित व भीष्म कुकरेती द्वारा समन्वय सम्पादित चिठ्ठी पतरी (ओक्टोबर २०१० ) का बृहद कविता विशेषांक  व अंग्वाळ (प्र्कशधिन जिसमे गढ़वाली कविता का इतिहास व तीन सौ से अधिक कवियों की कवता संकलित है ) विशिष्ठ संग्रह हैं . कई खंडकाव्य भी इस काल में छपे हैं
अन्य कविता संग्रहों में जो की विभिन्न कवियों के कवियों की कविता संकलन हैं में  गथूनी  गौ बटे (सं. मदन दुकलान  ) , बीजी गे कविता (सं. मधुसुदन थपलियाल,) एवं ग्वै (सं.तोताराम ढौंडियाल )  विशेष उल्लेखनीय मानी जाएँगी . गढवाली कवितावली का द्वितीय संस्करण भी एक ऐतिहासिक घटना है . kumauni , गढवाली bhasahon के विभिन्न kviyon की कविता संकलन एक saath do sankln prakashit हुए हैं dono sangrhon udi ghindudi aur danda kantha के swar के sampaadk gajendr batohi हैं
 इस काल के कवियों की फेरिहस्त लम्बी है ,पूरण पंथ पथिक ,  मदन दुकलान, लोकेश नवानी , नरेंद्र सिंह negi, heera सिंह rana, नेत्र सिंह असवाल, गिरीश सुंदरियाल, वीरेन्द्र पंवार, जाय पल सिंह रावत 'छपदु डा ', हरीश जुयाल , मधु सुदन थपलियाल, निरंजन सुयाल, धनेश कोठारी ,वीणा पाणी जोशी , बीना बेंजवाल, नीता कुकरेती, शांति प्रसाद जिज्ञासु,  chinmay saayr ,  देवेन्द्र जोशी , बीना पटवाल कंडारी , डा नरेंद्र गौनियल, महेश ध्यानी , दीन दयाल बन्दुनी, महेश धश्माना , सत्यानन्द बडोनी, डा नन्द किशोर हटवाल, ध्रुब रावत, गुणा नन्द थपलियाल, कैलाश बहुखंडी, मोहन बैरागी, सुरेश पोखरियाल, मनोज घिल्डियाल, कुटज भारती , नागेन्द्र जगूड़ी नीलाम्बर, दिनेश ध्यानी , देवेन्द्र चमोली , सुरेन्द्र दत्त सेमालती, चक्रधर कुकरेती , विजय कुमार भ्रमर, , बलवंत सिंह रावत , सुरेन्द्र पाल,  भवानी शंकर थपलियाल, खुशहाल सिंह रावत, रजनी कुकरेती, दिनेश कुकरेती, श्री प्रसाद गैरोला, राम कृष्ण गैरोला, राकेश भट्ट, महेशा नन्द गौड़, शक्त ध्यानी, jabr सिंह kainturaa , डा राजेश्वर उनियाल, संजय सुंदरियाल, प्रीतम अप्छ्याँ , डा मनोरमा ढौंडियाल, देवेन्द्र कैरवान, अनसूया प्रसाद डंगवाल, विपिन पंवार, विवेक पटवाल, जगमोहन सिंह जयरा, विनोद जेठुरी , सुशिल पोखरियाल, शशि हसन राजा, हेमू भट्ट हेमू, गणेश खुग्साल, डा नन्द किशोर ढौंडियाल, डा प्रेम लाल गौड़ शाश्त्री, मोःन लाल ढौंडियाल, सतेन्द्र chauhan, शकुंतला इश्त्वाल, विश्व प्रकाश बौदाई , अनसूया प्रसाद उपाध्याय , राजेन्द्र प्रसाद भट्ट , शिव दयाल शलज, शशि भूसन बडोनी , बच्ची राम बौदाई, संजय ढौंडियाल, कुलबीर सिंह छिल्ब्ट, चित्र सिंह कंडारी, अनिल कुमार सैलानी, रणबीर दत्त, चन्दन, रामस्वरूप सुन्द्रियाल, सुशिल चन्द्र, अशोक कुमार उनियाल यग्य , दर्शन सिंह बिष्ट तोताराम ढौंडियाल, ओम प्रकाश सेमवाल, सतीश बलोदी, सुखदेव दर्द, देवेश जोशी, गिरीश पन्त मृणाल, मया राम ढौंडियाल, लीला नन्द रतूड़ी, रमेश चन्द्र संतोषी, गजेन्द्र नौटियाल, सिद्धि लाल विद्यार्थी, विमल नेगी, नरेन्द्र कठैत, रमेश चन्द्र घिल्डियाल, हरीश मैखुरी,  मुरली सिंह दीवान, विनोद उनियाल, अमर देव बहुगुणा, गिरीश बेंजवाल, ब्रजमोहन शर्मा, ब्रज मोहन नेगी , सुनील कैंथोला , हरीश बडोला, उद्भव भट्ट, दिनेश जुयाल, दीपक रावत, पृथ्वी सिंह केदार्खंदी, बनवारी लाल सुंदरियाल, व एन शर्मा, मदन सिंह धयेडा, मनोज खर्कवाल, सतीश रावत, मृत्युंजय पोखरियाल, हरिश्चंद्र बडोला मुख्य कवि हैं
            इस तरह हम पाते हैं कि आधुनिक गढ़वाली काव्य अपने समय कि सामाजिक परिस्थितियों को समुचित रूप से दर्शाने में सक्षम राही हाई हैं और समय के साथ संरचना व नए सिधान्तो को भी अपनाती रही है
  Copyright @ Bhishma Kukreti, Mumbai, India, 2010
 

नवीन जोशी

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गढ़वाली कविता पर बहुत ही गंभीर व उपयोगी जानकारी देने के लिए धन्यवाद मेहता[/size] [/size]जी.

Devbhoomi,Uttarakhand

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मेहता जी बहुत बहुत धनयवाद आपका इस महत्वपूरण जानकारी देने के लिए

 

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