Author Topic: Some Famous Historic Places in Uttarakhand-उत्तराखंड के कुछ ऐतिहासिक एव पौराणिक  (Read 10961 times)

एम.एस. मेहता /M S Mehta 9910532720

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    Dosto,

As you are aware, we are  discovering Uttarakhand in many ways. Be it tourism, religious places, literature  etc. We have been always trying to find out some exclusive details and put here  for the Community so that they know about their mother land in details in all  the respect.

There are many villages and  particular places which are famous for historic and mythological perspective.  We will write in details about such places here

We would also request you if have  details of similar nature, please do post there.


Regards,


M S Mehta

एम.एस. मेहता /M S Mehta 9910532720

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  सात भाइयो के प्रसिद्ध घुड दौड़ गाव - सोमेश्वर अल्मोड़ा 

Village of Seven  Brother Famous for Horse Race (Ghuddauda) – District Almora



There s village in District  Almora, Tahseel called Ghud-dauda. It is said that a women had 7 sons who had  inhabited this village and now it has spread as many as 35 families. During the  English Empire, there used to be horse race in this village and the winner was  given the prize of his wishes. There was a very big field in where Horse Riding  used to take place. This village is named after “Ghud-Daud due to horse riding.  This village is now known for Ghud Daud.

एम.एस. मेहता /M S Mehta 9910532720

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सास ब्वारी खेत बागेश्वर उत्तराखंड !

बागेश्वर नगर के समीप बिलौनासेरा के एक भाग जो आज भी सास ब्वारी का खेत कहा जाता है! खेत के बीच में एक छोटा सा टीला है, जो लोक मान्यताओ व् लोक गाथाओ के अनुसार इस बात है साक्षी है यह टीला सास बहु के कलेऊ की डलिया है !

कहानी
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आषाड़ का महीना था , ग्रामीण आंचलो में मडुआ और धान की गुडाई अपने चरम सीमा पर थी ! एक बूडी सास को चिंता सता रही थी सबसे खेतो में गुडाई हो गयी है और उसका खेत छूट गया!  यह उसके लिए बहुत ही इज्जत का सवाल था उनसे अपने बहु के साथ एक योजना बनाई कि वो दोनों मिलकर चार दिन का काम एक दिन में करंगे जोश के साथ, और गाव वाले उनके मेहनत का लोहा मान जायंगे!

उसने अपने परिवार की मान मर्यादा एव इज्जत की दुहाई देते हुए अपने बहु को राजी कर लिया ! योजना यह थी की दुसरे दिन सुबह पौ फटते ही दोनों खेत में जायंगे खेत में अलग-२ हिस्सों में गुडाई करंगे ! कलेऊ (दिन का खाना) खेत में बीच में रख दिया जायेगा और hum दोनों में जो pahale गुडाई समाप्त करके वहां पहुचेगा वही यह कलेऊ खायेगा! बात पक्की हो गयी!

अभी गाव वाले उठे भी नहीं थे ये दोनों कुटला एव कलेऊ लेकर खेत में पहुच गए! बीच में मिटटी का चबूतरा बनाकर कर कलेऊ की डलिया रख दी गयी और दोनों उस खेत के अलग-२ सिरे से गुडाई करने लगे !

अलग-२ चोरो से गुडाई शुरू हो गयी पर किसे पता था आज का दिन कैसा होगा !

दोपहर की तेज धूप भूख प्यास से बहु का मुह उतर गया ! धेरे-२ बहु थकने लगी और खेत के बीच में रखे कलेऊ की डलिया देखकर वह कुल कुला थी ! रहा ना गया उससे और सास से कहने लगी, कलेऊ खा लेते है पर सास बहु की भूख प्यास की परवाह किये बिना कहने लगी! ठहर . जा.

बहु फिर लाचार .. होकर काम करने लगी !  कुछ समय बाद फिर बहु प्रार्थना करने लगी पर बहु फिर से सास ने रुकने को कहा !

सांझ की बेला नजदीग थी , खेत की गुडाई भी समाप्ति पर थी ! गुडाई करे-२ सास बहु डलिया के पास पहुचने लगे! डलिया में रखे कलेऊ और पानी की ललक में दोनों के हाथ पाँव थराने लगे ! पहुच से थोड़ी सी दे राखी हुयी वह डलिया उन दोनों के थके हारे मन में जीवन का संचार करने लगी ! कार्य समाप्त की भावना ने थके हारे तन मन में अक आशा का दीपा जला दिया था किन्तु यह क्या !

" डलिया के हाथ पहुचते ही उन दोनों का जीवन दीप सदा के लिए बुझ गया !

एम.एस. मेहता /M S Mehta 9910532720

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Ashoka Pillar Rock Edict

Ashoka Pillar Rock Edict is situated in Kalsi, about five km from Dakpathar, in Dehradun District. The Ashoka Pillar was built in 450 BC. It is made of quartz and is 10 ft long and 8 ft broad. The Pillar is a symbol of the prosperous era of Ashoka, the third emperor of the Maurya Dynasty. The edicts aimed at the moral elevation of his people. The figure of an elephant is inscribed on the right side of the rock. The edict is engraved in Brahmi Script. The Pillar was taken to Delhi by one of the Muslim rulers. Now the Archaeological Survey of India preserves the pillar and the edict.
Yamuna River flows close by. Nearby interesting destinations include Asan Barrage, Sahastra Dhara and Paonta Sahib (14 km.)

The nearest airport is Jolly Grant Airport and the nearest railway station is at Dehradun.

http://www.india9.com/

एम.एस. मेहता /M S Mehta 9910532720

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Lakha Mandal Temple Haridwar

The Lakha Mandal Temple is located 80 kilometers from Mussoorie-Yamunotri Road and has a strong legendary background. It is believed that the wicked son of blind king Dritarashtra conspired against the Pandavas and wished them to be burnt alive inside the Jatugriha, located here. But fortunately they were saved by the power of the Shakti and therefore a Shakti Temple had been constructed here to commemorate the sacred power of Lord Shiva and Goddess Parvati.

(Soruce http://www.indianholiday.com/)

एम.एस. मेहता /M S Mehta 9910532720

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बागेश्वर दानुपर
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बागेश्वर में पहले दानपुर नाम का एक किला था कित्नु इस समय सिर्फ एक चोटी बाकी है! दनपुरिये इस किले को अपने मूल पुरुष दानवो को मानते है इसी के सामने एक शुम्गढ़ नामक गाव है! उसे शुभ दैत्य का किला भी कहते है! यह दैत्य देवी जी से लड़ा था और मारा गया!

यह सूचना कुमाऊ के इतिहास से लिया गया है! (पेज 108  )

यह वही गाव जहाँ 18 अगस्त 2010 को एक बादल फटने से १८ बच्चो की मौत हो गयी थी !

एम.एस. मेहता /M S Mehta 9910532720

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उत्तराखंड के बागेश्वर जिले में अंतिम गाव है झुनी
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उत्तराखंड के दानपुर इलाके में अंतिम गाव है झुनी! एक कहावत है,
"नांग माथी मासु नै, झुनी माथी गौ नै"!

नाखून के ऊपर मॉस नहीं झुनी के ऊपर कोई गाव नहीं! झुनी के ऊपर दुर्गम पहाड़ी है, जहाँ जाना कठिन है!


एम.एस. मेहता /M S Mehta 9910532720

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बागेश्वर का एतिहासिक महत्व
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१९२९ में महात्मा गांधी बागेश्वर में आये थे और वहां देश भक्त मोहन जोशी द्वारा स्थापित स्वराज मंदिर की नीव डाली थी! इसके पश्च्यात महात्मा गाँधी १५ दिनों तक कत्युर व् बैरारो के बीच कौसानी के डाक बंगले में रहे !


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मलेथा की गूल

एक सिंह माधो सिंह, एक सिंह गाय का,
एक सिंह माधो सिंह, और सिंह काइ का।


मलेथा पर स्वर्गीय भोला दत्त देवरानी जी द्वारा लिखित ये दो पंक्तिया" "माधु की कीर्ति जस गाद गांदा, आज तै कूल तख बग़द जांद"
उत्तराखंड   एक तरफ़ अपनी खूबसूरती के नाम से परसिद्ध है, तो दूसरी तरफ़ यहाँ के वीर   पुरुषों से भी परसिद्ध है, यहाँ के इन्ही वीर पुरुषों में से एक वीर माधो   सिंह भंडारी परसिद्ध हैं, श्रीनगर गढ़वाल से लगभग ४ किलोमीटर की दूरी पर   तथा देवप्रयाग से लगभग ३० किलोमीटर की दूरी पर स्थित है मलेथा गाँव,   अलकनंदा नदी के दहने तट पर बसा यह गाँव अपनी सुरम्यता, सौन्दर्यता से   परिपूर्ण है। मलेथा गाँव अलकनंदा के तट पर होने के कारन मैदानी भाग की तरह   लगता है क्यूंकि यहाँ पर समतल भूमि है।इसी   मलेथा गाँव में सोलहवीं- सत्रहवीं शताब्दी में कालो भंडारी के यहाँ एक   पुत्र का जन्म हुआ, नाम रखा गया माधो सिंह भंडारी, तमाम बच्चों की तरह माधो   का बचपन भी खेलने में खेतों में घूमने में बीता, जवान हुआ तो उसने अलकनंदा   नदी के तट पर बसे सूखे मलेथा को देखा, जो पानी के सामने होते हुए भी सूखा   था, वहां पर पड़ी खेतों की तरह झंगोरा और कोदा की ही पैदावार होती थी। जवान   होकर माधो सिंह सेना में भरती हो गया, मलेथा तब गढ़वाल के रजा की राजधानी   से बिल्कुल नज्दीग था तो माधो सिंह ने श्रीनगर गढ़वाल में राज महल में   सैनिक बन गया। कुछ लोग अपनी तकदीर को अपने हाथों से लिखते हैं और कुछ लोग   अपने हाथों से अपने भाग्य को लिखते हैं यही माधो ने किया, वीर सूत माधो की   वीरता से रजा ने खुश होकर उसे सेनापति (जनरल) बनाकर तिब्बत भेज दिया।तिब्बत   में माधो ने अपना परचम लहराया और, गढ़वाल राज्य को चारो और फैलाया। कई   दिनों बाद माधों घर वापस आया, और अपनी पत्नी से खाना लेन को कहा, देखता है   की उसकी पत्नी नही आई, गुस्से में आकर चिलाकर उसने पत्नी को आवाज़ दी तो वह   भी गुस्से में बिलबिलाकर बोल पड़ी, की आपको चावल, सब्जी या फल क्या चाहिए।भारतीय   इतिहास में कई कहानियाँ आती हैं जब किसी ने पति को सही राह दिखाई और ओ कुछ   एसा कर बेठे जो उनसे उम्मीद नही की जा सकती थी, यही माधो ने भी किया,   मलेथा गाँव की दहनी तरफ़ चंद्रभागा धारा (गधेरा) बहता है, माधो ने उस धारा   का पानी मलेथा के खेतों(अब स्यारों) में लेन की युक्ति सोची, एक पहाड़ बीच   की रुकावट बन रहा था तो माधो ने लगभग ९० मीटर lambi व ५ फीट चौडी सुरंग   बनाकर पानी की एक गूल बना दी जो लगभग ३ किलोमीटर है।गूल का निर्माण   पूरा होने के बाद पानी मलेथा के खेतों में खोला गया, पर पानी नही आया, तब   कुछ लोगों ने कहा की यह गूल बलि मांग रही है, [/color]माधो का एकलौता जवान बेटा   उसकी नजर में आया और उसने गूल के मुहाने पर उसकी बलि दे दी…आज से पांच सौ   साल पहले शिक्षा एवं तकनीकी ज्ञान का अभाव था। ऐसे समय में माधोसिंह भंडारी   ने अपनी उत्कृष्ट तकनीकी के साथ इस सुरंग का निर्माण कर इतिहास में त्याग,   तपस्या और बलिदान की सच्ची मिसाल कायम की।……धन्य है वह मलेथा की धारा जहाँ   माधो सिंह जैसे वीरों का जन्म हुआ और धन्य है वह मलेथा के खेत जिनमे आज   सरसों के पीले फूलों से है बहार रहती है, जहाँ आज बासमती चावल उगता है।(Source :http://aajkapahad.blogspot.com)

In addition to this:



धान की रोपाई अनुष्ठान है यहां

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नई टिहरी गढ़वाल। धान की रोपाई का तरीका देश में एक जैसा है। कई   स्थानों पर इसे पूजा-अर्चना के साथ किया जाता है। उत्तराखंड राज्य के टिहरी   जनपद के मलेथा में पंचांग के मुताबिक धान रोपाई के लिए विधिवत ढंग से दिन   निकाला जाता है और समापन पर पशु बलि दी जाती है।  कीर्तिनगर ब्लाक मुख्यालय से महज तीन किमी दूरी पर ऋषिकेश-बदरीनाथ मोटर   मार्ग पर बसा हैे गांव मलेथा।  वीर शिरोमणि माधो सिंह भंडारी की कर्म   स्थली मलेथा में पिछले कई सदियों से धान की रोपाई अपने आप मिसाल है। इस   गांव में वर्षो से यह परंपरा है कि धान की रोपाई से पूर्व ग्रामीण गांव की   राशि के आधार पर पंचांग से रोपाई शुरू करने के लिए दिन निकालते हैं।   नागराजा देवता को मानने वाले मलेथावासी दिन निकल आने पर सबसे पहले एक खेत   में नागराजा देवता की  सामूहिक रूप से पूजा अर्चना के साथ रोपाई का   श्रीगणेश करते हैं। परंपरा बनी हुई है कि इस खेत में रोपाई के बाद ग्रामीण   फिर अपने-अपने खेतों में रोपाई का काम प्रारंभ करते हैं। इसके बाद पाटा का   बौलू नामक तोक में स्थित गांव के अंतिम खेत में रोपाई के दिन समापन पर बकरे   की बलि देने के बाद रोपाई का विधिवत ढंग से समापन किया जाता है। बुजुर्गो   के अनुसार मलेथा गांव में एक समय में सिंचाई का कोई विकल्प न होने पर यहां   पर माधो सिंह भंडारी ने छेंडाधार के पहाड़ पर सुरंग गूल बनाकर चन्द्रभागा   नदी से मलेथा के खेतों में पानी लाने की व्यवस्था सोची। इसके बाद उन्होंने   पहाड़ को खोदकर अंदर ही अंदर गूल (सिंचाई की छोटी नहर) बनाने में सफलता भी   हासिल कर ली, लेकिन इसके बाद भी इस गूल में पानी नहीं आया। ग्रामीणों में   मान्यता है कि जब भंडारी द्वारा बनाई गई गूल में पानी नहीं आया तो एक रात   माधो सिंह के सपने में देवी मां आई और बताया कि जब तक वह नरबलि नहीं देंगे   तब तक गूल में पानी आगे नहीं बढ़ेगा। कहा जाता है कि देवी मां के इस संदेश   के बाद भंडारी ने जहां से गूल शुरू होती है वहां पर अपने बेटे की बलि दी   थी। बताया जाता है कि आज जिस खेत में ग्रामीण रोपाई का समापन करते हैं उसी   खेत में बलि के बाद भंडारी के बेटे का सिर पानी में बहकर आया था। इसके बाद   ही समापन पर तब से अब तक यह परंपरा चली आ रही है और इस खेत में बकरे की बलि   दी जाती है और बलि के बाद बकरे का मांस पूरे गांव में प्रसाद के तौर पर    बांटा जाता है।  यदि मलेथा के खेतों को इस गूल से पानी नहीं मिलता तो आज यह खेत सोना   नहीं उगल रहे होते। आज भी दूर से देखने पर ही मलेथा के यह खेत हर किसी का   मन मोह लेते हैं। यात्रा सीजन में तो बाहर से आने वाले तीर्थ यात्री व   पर्यटक भी मलेथा में रुककर कुछ देर  हरियाली से भरे खेतों को निहारते देखे   जा सकते हैं।

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कर्णप्रयाग का इतिहास
 
अलकनंदा एवं पिंडर नदी के संगम पर बसा कर्णप्रयाग धार्मिक पंच प्रयागों में तीसरा है जो मूलरूप से एक महत्त्वपूर्ण तार्थ हुआ करता था। बद्रीनाथ मंदिर जाते हुए साधुओं, मुनियों, ऋषियों एवं पैदल तीर्थयात्रियों को इस शहर से गुजरना पड़ता था। यह एक उन्नतिशील बाजार भी था और देश के अन्य भागों से आकर लोग यहां बस गये क्योंकि यहां व्यापार के अवसर उपलब्ध थे। इन गतिविधियों पर वर्ष 1803 की बिरेही बाढ़ के कारण रोक लग गयी क्योंकि शहर प्रवाह में बह गया। उस समय प्राचीन उमा देवी मंदिर का भी नुकसान हुआ। फिर सामान्यता बहाल हुई, शहर का पुनर्निर्माण हुआ तथा यात्रा एवं व्यापारिक गतिविधियां पुन: आरंभ हो गयी।
वर्ष 1803 में गोरखों ने गढ़वाल पर आक्रमण किया। कर्णप्रयाग भी सामान्यत: शेष गढ़वाल की तरह ही कत्यूरी वंश द्वारा शासित रहा जिसकी राजधानी जोशीमठ के पास थी। बाद में कत्यूरी वंश के लोग स्वयं कुमाऊं चले गये जहां वे चंद वंश द्वारा पराजित हो गये।
कत्यूरियों के हटने से कई शक्तियों का उदय हुआ जिनमें सर्वाधिक शक्तिशाली पंवार हुए। इस वंश की नींव कनक पाल ने चांदपुर गढ़ी, कर्णप्रयाग से 14 किलोमीटर दूर, में डाली जिसके 37वें वंशज अजय पाल ने अपनी राजधानी श्रीनगर में बसायी। कनक पाल द्वारा स्थापित वंश पाल वंश कहलाया जो नाम 16वीं सदी के दौरान शाह में परिवर्तित हो गया तथा वर्ष 1803 तक गढ़वाल पर शासन करता रहा।
गोरखों का संपर्क वर्ष 1814 में अंग्रेजों के साथ हुआ क्योंकि उनकी सीमाएं एक-दूसरे से मिलती थी। सीमा की कठिनाईयों के कारण अंग्रेजों ने अप्रैल 1815 में गढ़वाल पर आक्रमण किया तथा गोरखों को गढ़वाल से खदेड़कर इसे ब्रिटिश जिले की तरह मिला लिया तथा इसे दो भागों– पूर्वी गढ़वाल एवं पश्चिमी गढ़वाल– में बांट दिया। पूर्वी गढ़वाल को अंग्रेजों ने अपने ही पास रखकर इसे ब्रिटिश गढ़वाल नामित किया। वर्ष 1947 में भारत की आजादी तक कर्णप्रयाग भी ब्रिटिश गढ़वाल का ही एक भाग था।
ब्रिटिश काल में कर्णप्रयाग को रेल स्टेशन बनाने का एक प्रस्ताव था, पर शीघ्र ही भारत को आजादी मिल गयी और प्रस्ताव भुला दिया गया। वर्ष 1960 के दशक के बाद ही कर्णप्रयाग विकसित होने लगा जब उत्तराखंड के इस भाग में पक्की सड़कें बनी। यद्यपि उस समय भी यह एक तहसील था। उसके पहले गुड़ एवं नमक जैसी आवश्यक वस्तुओं के लिये भी कर्णप्राग के लोगों को कोट्द्वार तक पैदल जाना होता था।
वर्ष 1960 में जब चमोली जिला बना तब कर्णप्रयाग उत्तरप्रदेश में इसका एक भाग रहा और बाद में उत्तराखंड का यह भाग बना जब वर्ष 2000 में इसकी स्थापना हुई।
   "http://hi.wikipedia.org/wiki से लिया गया

 

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