ऐसे थे वे सुमन.......
उत्तराखंड में स्थित टिहरी गढ़वाल की मनमोहक पहाड़ियों से घिरी तलहटी में बसे एक छोटे से गाँव "जौल" में जन्म हुआ था एक ऐसे देशभक्त का जो निरंतर अपने नाम के अनुरूप ही अपनी जन्मधरा को अपने पुण्य कर्मों की सुगंध से आच्छादित करता चला आ रहा है। १५ मई सन १९१५ में जन्में श्री देव सुमन जी ने विरोध प्रारंभ किया था एक ऐसे कुशासन का, जिससे पूरी हिमालय की पुण्य भूमि ग्रसित थी। बात उस समय की है, जब उत्तर-भारत छोटी-छोटी रियासतों में बंटा हुआ था और सभी रियासतें राजा महाराजाओं की गुलामी से कुप्रभावित थी।
प्रजा के लिए राजा का दर्जा ईश्वर का व उसकी आज्ञा, देवाज्ञा तुल्य होती थी. उनमें से ही एक थी टिहरी रियासत जहाँ का राजा भोग विलाश में डूबा रहता था और राज-सैनिक प्रत्येक गाँव, प्रत्येक घर से अनाज एकत्रित करवा कर, घर के ही सदस्यों से उस अनाज का ढुलान राजा के महल (कई किलोमीटर ऊंचाई पर स्थित) तक करवाते थे जिसे बेगार अथवा लगान कहा जाता था.
किसी के घर में खाने के लिए हो ना हो उसे बेगार देनी ही होती थी. श्रीदेव सुमन जी ने इसका विरोध किया व इसके उपलक्ष में राजा के सामने अपनी मांगें रखी, राजा ने मांगें सुनने के बजाय ३० दिसम्बर १९४३ को उन्हें विद्रोही मान, ३५ सेर की बेडियाँ पहना कर जेल में डाल दिया।
सुमन जी ने ३ मई १९४४ से आमरण अन्न शन शुरू कर दिया, जेल में उन्हें कई अमानवीय पीडाओं से गुजरना पड़ा, उन्हें कंकड़ मिली दाल और रेत व कांच मिले हुए आटे की रोटियां दी जाती और कडाके की सर्दी में बर्फ की सिल्लियों पर लिटाकर हंटरों से पीटा जाता। आखिरकार जेल में २०९ दिनों की कैद व ८४ दिनों के आमरण अन्न सन्न के पश्चात् २५ जुलाई १९४४ को उन्होंने दम तोड़ दिया। राजा के आदेश पर उनकी लाश का अन्तिम संस्कार न करके भागीरथी नदी में बहा दिया गया।
राजा द्वारा सुमन जी के अस्तित्व को मिटाने का पूर्ण प्रयास किया परन्तु फिर भी सुमन की वीरगाथा सुगंध की तरह ही फैलती चली गयी, इस वीरगाथा के साक्ष्य हैं हिमालय के वे वृक्ष जिसकी छाँव में हमें स्वतंत्र होने का आनंद प्राप्त होता है, वे पहाड़ जिनसे हमें अपने कर्तब्य के प्रति अटल रहने, कभी ना झुकने व जीवन की ऊँचाइयों को छूने की प्रेरणा मिलती है
वह गंगा, भिलंगना, भागीरथी जैसे कई निरंतर प्रवाहित पवित्र नदियाँ जो किसी भी बाधा के समक्ष घुटने नहीं टेकती और अपने प्रयाण का मार्ग स्वयं ढूंड लेती हैं किन्तु दुर्भाग्य कि आज हम उन मूल्यों को विस्मृत कर गए हैं जिन मूल्यों के लिए सुमन जी और उनके जैसे कई देशभक्तों ने समय-समय पर अपने जीवन का परित्याग कर पंचतत्व का आलिंगन किया था.
उन्होंने एक स्वतंत्र राज्य की ही नहीं अपितु कल्पना की थी एक ऐसे स्वतंत्र भारत वर्ष की, जो एक उन्नत, स्वाबलंबी, शांति का द्योतक, गौरवमयी राष्ट्र हो, जिसमें प्रत्येक नागरिक को पूर्ण स्वतंत्रता का अधिकार हो.
-गिरीश भट्ट