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श्रीदेव सुमन जी के पोस्टर का अनावरण टिहरी का असल नाम त्रिहरि है। तीन नदियों का मिलन। यहां पर भागीरथी, भिलंगना और घृत गंगा का संगम था। स्कंदपुराण के केदारखण्ड में इसे गणेश प्रयाग और धनुषतीर्थ कहा गया है। इसे टिरी और बाद में टिहरी नाम दिया गया। टिहरी 1815 में अस्तित्व में आयी। इसे राजा सुदर्शन शाह ने बसाया। इतिहास के पन्ने इस शहर के साथ जुड़ते गये। टिहरी संस्कृति, सभ्यता और गौरवमयी अतीत की वाहक तो है ही, राजशाही के खिलाफ एकजुट होकर प्रतिकार की आवाज भी बनी। टिहरी का इस रूप में महत्व नहीं है इसे एक राजा ने बसाकर अपनी राजधानी बनाया। टिहरी के व्यापक मायने हैं। इस शहर ने शिक्षा, संस्कृति, आंदोलन और इससे बढ़कर चेतना का एक बड़ा फलक तैयार किया। वर्ष 1902 में जब रामतीर्थ यहां आये तो सामाजिक चेतना का नया अध्याय जुड़ा। इसे रामतीर्थ की तपस्थली के रूप में भी जाना जाने लगा। टिहरी के बारे में भष्यिवाणी की गयी थी कि एक समय बाद इस शहर का अस्तित्व मिट जायेगा। बताया जाता है कि पहले इस क्षेत्र में आछरियां आती थी तो आदमी का हरण कर लेती थी। उन्हें अपनी गुफाओं में ले जाती थी।
अब इस क्षेत्र को न तो त्रिहरि के रूप में जाना जाता है और न आछरियां किसी आदमी का हरण करती है। सांस्कृतिक रूप से सपन्न अब टिहरी बदल गयी है। त्रिहरि से टिरी और टिहरी से नई टिहरी तक की यात्रा में कई ठहराव हैं। कहीं यह बदलती दिखाई देती है तो कहीं अपने अतीत के लिये छटपटाती है। त्रिहरि को बांध दिया गया है। पुरानी टिहरी की जगह नई टिहरी शहर बसा दिया गया है। आछरियां भले ही अब न आती हों लेकिन बांध की सुरंगों में आछरियां और भंयकर रूप ले रही हैं। वह अब एक व्यक्ति को नहीं पूरी सभ्यता को निगलने के इंतजार में हैं। टिहरी को डुबाने की साजिश करने वाले नीति-नियंता लाख चाहकर भी इसे डुबा नहीं पा रहे हैं। कभी देश में टिहरी एकमात्र ऐसी रियासत थी जहां बिजली थी। राजा के महल में बिजली जलती थी और टिहरी के बाशिदें इस चमत्कार को फटी आंखों से देखते थे। आज फिर टिहरी से उम्मीद की जा रही है कि वह अपने 125 गांवों को डुबाकर देश को रोशन करे। फटी आंखों से लोग इस बिजली को बनते देख रहे हैं। टिहरी के जलमग्न होने की पंडितों की भविष्यवाणी साकार हो गयी। राजा ने कभी नहीं सोचा होगा कि जिस नदियों के संगम को वह अपनी राजधानी के लिये चुन रहे हैं वही उसे लील लेगी। खैर यह इतिहास और टिहरी के बनने की तत्तकालीन परिस्थितियां थी। लेकिन टिहरी के असल सवाल आज भी झील में तैर रहे हैं।
श्रीदेव सुमन की जयन्ती पर इस बार जब नई टिहरी जाना हुआ तो बहुत निराशा हुयी। टिहरी हमेशा चेतना की जमीन रही है। पहली बार यह अहसास हुआ कि पुरानी टिहरी जितनी डूबती जा रही है हमारी चेतना भी उसमें समाती जा रही है। नई टिहरी को आधुनिक शहर और टिहरी झील को नये पर्यटक स्थल के रूप में विकसित करने का सरकारी प्रचार बेवजह नहीं है। इसके माध्यम से नीति-नियंता उस बात को प्रमाणित करना चाहते हैं जिसके लिये उन्होंने एक शहर और उसके इर्द-गिर्द के 125 गांवों की जल समाधि दे दी। अब नई टिहरी शहर को बसा दिया गया है। इसमें टिहरी के बाशिदों के लिये नये घर बना दिये गये हैं। सरकार ने वैसा ही टिहरी बसाने की कोशिश की है जैसा वह छोड़ आये हैं। उनके मंदिर, गुरद्वारे, मस्जिद, जैन मंदिर आदि सबको नई टिहरी में स्थापित कर दिया गया है। पार्को, स्कूलों, महाविद्यालयों को उठाकर उपर लाया गया है।
पूरा शहर सीढ़ियों और सड़कों से पटा है। सबकुछ आधुनिक। कंकरीट की इस नई टिहरी में नाते-रिश्ते समाप्त हो गये हैं। लोगों की चेतना वैसी ही पत्थर हो गयी है जैसा यह शहर। इससे यह भी साफ हो गया कि मुनाफाखोंर व्यवस्था हमारी चेतना को कुंद करने का पूरा इंतजाम करती है। टिहरी जब डूबी तो उसकी झील ने 85 किलोमीटर आकार ले लिया। इसमें जो गांव अभी तक दो किलोमीटर दूर थे वे अब सालीस से पचास किलोमीटर दूर है। इस दूरी को पाटने के लिये अब पुलों और रोपवे का इस्तेमाल किया जा रहा है। पुरानी टिहरी ने रोटी-बेटी के रिश्तों को भी दूर कर दिया। नई टिहरी बसी। उसमें अलग-अलग ब्लाक लोगों के लिये रहने के लिये बने। अपार्टमेंट की तरह। सबके घर आमने-सामने। अब कोई किसी से बात नहीं करता। एक मित्र बता रहे थे वे अपने किसी मित्र को देखने जिला अस्पताल गये। पता चला कि उनके बगल वाले फलैट वालों का बच्चा पिछले चार दिन से यहां भर्ती है। यह एक उदाहरण है। नई टिहरी में कहीं पेड़ नहीं हैं। दिन भर घरों में पंखे चलते हैं। बिजली का उत्पादन कर देश को रोशन करने वाला शहर कटौती की मार झेल रहा है। किसी भी रास्ते नई टिहरी आयें सड़क पर पानी के लिये बर्तन लिये महिलाओं और बच्चों की कतार देखने को मिल जायेगी। सरकार ने जो हैंडपंप भी लगाये हैं वे सब खराब पड़े हैं। अब पत्थरों की टिहरी प्रतिकार नहीं करती।
श्री राजेन्द्र धस्माना जी को सम्मानित करते श्री पुष्पेश त्रिपाठी, साथ में श्री ओमगोपाल टिहरी में मौलिक
त्रिहरि संस्था ने श्रीदेव सुमन की जयन्ती पर दो दिन का आयोजन किया था। इसमें श्रीदेव सुमन को याद करने के अलावा एक संगोष्ठी और सुमन के पोस्टर का विमोचन भी था। सुप्रसिद्ध कथाकार पंकज बिष्ट, प्रदीप पंत, वरिष्ठ पत्रकार रामशरण जोशी, डा. शमशेर बिष्ट, वरिष्ठ पत्रकार और दूरदर्शन के संपादक राजेन्द्र धस्माना के अलावा विभिन्न क्षेत्रों में काम कर रहे लोगों ने भागीदारी की। इस संगोष्ठी के प्रति समाचार पत्रों और इलेक्टॉनिक्स मीडिया की बेरुखी हैरान कर देने वाली थी। समाचार पत्रों में दो कॉलम की खबरों में इस आयोजन का जिक्र तो कम था लोगों के नाम अधिक थे। अपने को राष्टीय कहने वाले एक समाचार पत्र ने तो इस कार्यक्रम का जिक्र भी नहीं किया। इलेक्टॉनिक्स मीडिया में तो खबर थी ही नहीं।
बाद में पता चला कि इस आयोजन में लोगों का न आने और समाचार पत्रों में ज्यादा न छप पाने का कारण शिक्षा मंत्री और स्थानीय सांसद के शहर के आसपास कार्यक्रम होना रहा। वह तो अच्छा हुआ स्थानीय विधायक किशोर उपाध्याय, नरेन्द्रनगर के विधायक ओमगोपाल रावत, द्वाराहाट के विधायक पुष्पेश त्रिपाठी और अंतिम समय में राज्य के मंत्री खजानदास पहुंच गये नहीं तो अखबारों में इस श्रीदेव सुमन जयंती कार्यक्रम को स्थान नहीं मिल पाता। हमारे लिये यह पहला अनुभव नहीं था। पिछले साल बागेश्वर में कुली बेगार आंदोलन से जुड़े स्वतंत्रता संग्राम सेनानियों के पोस्टरों के विमोचन के अवसर पर भी यही हुआ था। वहां तो हद हो गयी थी। किसी भी अखबार ने उस कार्यक्रम की एक लाइन नहीं छापी। अलबत्ता एक अखबार ने 25-25 हजार रुपये लेकर विभिन्न पार्टियों के खनन से जुड़े कार्यकर्ताओं का परिचय छापकर उन्हें बागेश्वर के मील का पत्थर बता दिया था। श्रीदेव सुमन की जयन्ती पर एकजुट हुयी महिलाओं ने जिस तरह से बेहतर समाज बनाने का आहवान किया उससे उम्मीद की जानी चाहिये आने वाले दिनों में टिहरी की आंदोलनों की विरासत आगे बढेगी।
http://charutiwari.merapahad.in/no-protest-from-tihri/