Author Topic: Uttarakhand Save River Programme 2008 - उत्तराखंड नदी बचाओ वर्ष 2008 अभियान  (Read 24519 times)

पंकज सिंह महर

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इस कार्यक्रम को अभियान या आन्दोलन तक सीमित रखकर कुछ नहीं होगा, इसके लिये व्यापक जनान्दोलन की आवश्यकता है। जब तक आम आदमी इस आन्दोलन में प्रतिभाग नहीं करेगा, तब तक किसी के कान में जूं नहीं रेंगनी वाली।

purushotamsati

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thxx to share this knowledgee here......it was new for new.....i was not aware about this movement....................

purushotamsati

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and congrats...n.....thxxxx..... for all the people who took the initiative for movement..........

पंकज सिंह महर

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उत्तराखंड में 'नदी बचाओ' पदयात्राएं

 उत्तराखंड में बन रहे या प्रस्तावित 220 छोटे-बड़े बांधों के कारण यहां की सदानीरा नदियों का अस्तित्व संकट में है। जल विद्युत परियोजनाओं से प्रभावित होने वाले लाखों लोग आंदोलन की राह पर हैं।
नदियों को तेजी से उजाड़ रही जल विद्युत परियोजनाओं के भारी विस्फोटों के कारण मानवकृत भूस्खलन, भू-धंसाव व भूकंप जैसी स्थितियां पैदा हो रही हैं। अचरज इस बात का है कि बांध निर्माण करने वाली सरकार और कम्पनियां जल विद्युत परियोजनाओं से प्रभावित उत्तरकाशी जिले के गांव भंगेली, सुनगर, तिहार, कुंजन, हुर्री, भुक्की, सालंग, पाला, औंगी, कुमाल्टी, सैंज, भखाड़ी, जामक तथा चमोली जिले में चांई और टिहरी जिले में फलेंडा, चानी, बासी आदि गांवों की सुरक्षा, आजीविका और रोजगार की कोई व्यवस्था करने की बजाय पुलिस दमन के सहारे लोगों की आवाज को दबाने का कार्य कर रही हैं।
उत्तराखंड की नदियां प्राणरेखा हैं, जो सात करोड़ से अधिक लोगों को जीवन देती हैं, ये अब सूखने की कगार पर पहुंच गयी हैं। कोसी, नयार, पनार, गौला, नन्धौर जैसी सदाबहार नदियों ने नालों का रूप ले लिया है। इन्हें पुनर्जीवित करने के लिए सरकार के पास कोई योजना नहीं है। स्थानीय लोग इन नदियों के पुराने स्वरूप को वापस लाने के लिए व्यावहारिक सुझाव दे रहे हैं, आन्दोलन कर रहे हैं, लेकिन सरकारों के कान पर जूं नहीं रेंग रही है। इसके विपरीत पानी वाली नदियों को आंख मूंद कर निजी कंपनियों के हवाले जल विद्युत परियोजनाओं के लिए किया जा रहा है।
उत्तराखंड में इस समय विभिन्न नदियों पर 60 जल विद्युत परियोजनाओं का निर्माण निजी कंपनियां कर रही हैं। अनुमान है कि इन परियोजनाओं के पूरा होने पर 763 मेगावाट विद्युत का उत्पादन होगा। इस विद्युत उत्पादन से भले ही भारी राजस्व की प्राप्ति होगी, लेकिन इन परियोजनाओं के कारण प्रभावित होने वाले लगभग 10 लाख लोगों के गोचर, पनघट, सिंचाई तथा जल-जंगल-जमीन के अधिकार भी हमेशा के लिए खत्म होने जा रहे हैं। अकेले उत्तरकाशी जनपद में ही 10 छोटी जल-विद्युत परियोजनाएं निजी कंपनियों को सौंपी गयी हैं। इनसे निजी कंपनियां 22.5 मेगावाट विद्युत का उत्पादन करेंगी। उत्तरकाशी जनपद में ही 90 मेगावाट की मनेरी भाली जल विद्युत परियोजना प्रथम चरण के बैराज स्थल मनेरी में पानी रोके जाने से मनेरी से तिलोथ तक गांववालों को पारंपरिक श्मशान घाटों पर अंतिम संस्कार के लिए पानी उपलब्ध नहीं हो पा रहा है। मनेरी भाली के द्वितीय चरण के पूरा होने के बाद यही स्थिति अब उत्तरकाशी से धरासू तक होने जा रही है।
गंगोत्तरी मार्ग पर भी भैरवघाटी, पाला-मनेरी, लोहारीनाग-पाला जल विद्युत परियोजनाओं के निर्माण के बाद तो उत्तरकाशी में गंगा कहीं-कहीं पर नजर आयेगी क्योंकि अधिकतर स्थानों पर गंगा इन तीनों विद्युत परियोजनाओं के कारण सुरंगों के अंदर से प्रवाहित होगी। उल्लेखनीय है कि उत्तराखंड में जो 220 विद्युत परियोजनाएं प्रस्तावित हैं या बन रही हैं उनकी वजह से यहां की उन नदियों को, जिन पर विद्युत परियोजनाएं निर्माणाधीन या प्रस्तावित हैं, लगभग 700 किमी. लंबी सुरंगों से होकर बहना पड़ेगा। इन परियोजनाओं से 22 लाख लोग सीधे तौर पर प्रभावित होंगे। जल, जंगल, जमीन का नुकसान कितना होगा, इसका अनुमान अभी नहीं लगाया जा सका है।
गंगा देश व विदेश के करोड़ों लोगों की आस्था और विश्वास का प्रतीक है। गंगा के उद्भव की कहानी भारतीय संस्कृति और सभ्यता की कहानी है। यह भारतीय परम्पराओं और मूल्यों की प्रतीक भी है। गंगा के अविरल बहाव के कारण ही इसकी पवित्रता और निर्मलता की कहानी कही जाती है। यह आध्यात्मिक तथा वैज्ञानिक सत्य है कि गंगा जल वर्षों तक घर में रखने के बाद भी सड़ता नहीं है। दुनिया में बढ़ते तापमान और पिघलते ग्लेशियरों के कारण गंगा के अस्तित्व पर शोधकर्ता और वैज्ञानिक सवाल उठाने लगे हैं। इसके अलावा भी यदि गंगा के अस्तित्व पर सवाल उठ रहा है तो उसका कारण इस पर बन रही जल विद्युत परियोजनाएं भी हैं, क्योंकि गंगोत्तरी से ही गंगा को सुरंग में कैद करने की योजना आधुनिक योजनाकारों ने बना डाली है। टिहरी से धरासू तक इन दिनों टिहरी बांध का विशालकाय जलाशय ही नजर आ रहा है। एक तरह से लगभग 40 किलोमीटर के दायरे में गंगा मृतप्राय: हो गयी है। धरासू से गंगोत्तरी की दूरी 125 किलोमीटर तक के इस मार्ग में जो छ: बांध बनने वाले हैं उससे गंगा एक सुरंग बांध से, दूसरे सुरंग बांध से होकर गुजरेगी तो यहां गंगा आधा दर्जन पोखर और तालाबों के रूप में बदल जाएगी। हिमालयी पर्यावरण शिक्षा संस्थान के सुरेश भाई कहते हैं, ''हमारे योजनाकार, सरकारें विकास का जो मॉडल हिमालयी क्षेत्र में पर्यावरण की कीमत पर थोप रही हैं, उससे देश व जनता को कोई दीर्घकालीक लाभ मिलने वाला नहीं है। विकास के इस मॉडल से पहाड़ की नदीघाटी सभ्यता तो समाप्त होगी ही, सुरंगों के कारण अनेक गांवों का अस्तित्व भी समाप्त होने वाला है। चमोली जिले में सुरंग आधारित विष्णु प्रयाग जल विद्युत परियोजना से चांईं गांव का विध्वंस तथा उत्तरकाशी जिले में पाला गांव के अस्तित्व का जो संकट खड़ा हुआ है, वे आधुनिक विकास की उस तस्वीर को सामने रखते हैं जो विकास नहीं विनाश ला रही है।''
यमुना नदी पर भी उत्तराखंड में लखवाड़ से यमुनोत्तरी तक छह बांध बनाने की योजना ही इन बांधों के कारण यमुना के दर्शन लोगों को नहीं होंगे, क्योंकि यमुना की जलधारा भी इन बांधों के लिए बनने वाली सुरंगों में कैद हो जाएगी। यमुना नदी के जलग्रहण क्षेत्र में आने वाले बड़कोट, नौगांव, पुरोला विकास खंडों के गांव भूकम्प के अति संवेदनशील क्षेत्र में बसे हुए हैं। यहां सुरंग वाले बांधों के कारण स्थिति और ज्यादा विस्फोटक होने की आशंका है। मनेरी-भाली (प्रथम) परियोजना का दुष्प्रभाव तो सामने भी आ गया है। इस परियोजना के सुरंग के ऊपर जो गांव तथा कृषि भूमि 1991 के भूकम्प में खत्म हो गयी थी, वहां कृषि भूमि की नमी भी अब खत्म हो रही है और गांव के जलस्रोत सूख गए हैं। पर्यावरणीय संकट के कारण उत्तराखंड के गढ़वाल मंडल की चार प्रमुख नदियों टौंस, यमुना, भगीरथी तथा गंगा में लगातार जल स्तर में कमी दर्ज की जा रही है। गत वर्ष इन नदियों में 20 प्रतिशत की गिरावट दर्ज की गयी। आमतौर पर अप्रैल में अच्छी धूप खिलने के कारण उच्च पर्वतीय क्षेत्रों में बर्फ पिघलने से जाड़ों में कम हुआ जलस्तर बढ़ने लगता है, लेकिन गत वर्ष ऐसा नहीं हुआ। इसका एक बड़ा कारण बांध परियोजनाओं के लिए किए जा रहे अंधाधुंध विस्फोटों को भी माना जा रहा है। जिसकी वजह से इन नदियों के किनारों पर बड़ी-बड़ी दरारें पड़ गयी हैं।
एक ओर बांध परियोजनाओं ने गंगा के अस्तित्व पर सवालिया निशान लगा दिए हैं तो दूसरी ओर गंगा को प्रदूषणमुक्त करने के लिए चलायी जा रही योजनाएं सफेद हाथी साबित हो रही हैं। इस योजना के पहले चरण में 21 करोड़ रुपये से ज्यादा खर्च कर देने के बाद भी गंगा का प्रदूषण कम नहीं हो रहा है। उत्तराखंड राज्य प्रदूषण नियंत्रण बोर्ड की एक रिपोर्ट के अनुसार बैक्टीरिया की मात्रा गंगा और उसकी सहायक नदियों में लगातार बढ़ रही है। लक्ष्मण झूला क्षेत्र में कोलीफार्म की मात्रा प्रति मिलीलीटर 1070 पाई गयी तो हरिद्वार में ललतारण पुल के समीप यह मात्रा बढ़कर 5500 प्रति मिलीलीटर हो गयी।
उत्तराखंड के कुमाऊं मंडल में भी कोसी, नयार, पनार, पश्चिमी रामगंगा, गौला, गगास, गोमती, गरुड़ गंगा, नन्धौर आदि सघन वनों से उद्गमित नदियों के सामने भी संकट खड़ा हो गया है। इनकी जलधाराएं प्रतिवर्ष घटती जा रही हैं। एक शोध से पता चला है कि कौसानी के पास पिनाथ पर्वत से निकलने वाली कोसी नदी का जल प्रवाह अल्मोड़ा के निकट 1994 में 995 लीटर प्रति सेकेण्ड था जो 2003 में घटकर केवल 85 लीटर प्रति सेकेण्ड रह गया है। लगभग यही स्थिति दूसरी नदियों की भी है। उत्तराखंड के सामाजिक व प्राकृतिक हलचलों पर गहरी नजर रखने वाले प्रो. शेखर पाठक कहते हैं, ''कौसानी से रामनगर तक 106 किलोमीटर लम्बी कोसी नदी पर आठ लाख से ज्यादा लोग निर्भर हैं। कोसी के किनारे प्राकृतिक स्रोतों के सूखने, भूकटाव, भूस्खलन, जलप्रदूषण से कोसी की दशा सोचनीय होती जा रही है। आलम यह है कि नदी किनारे बसे लोगों को भी सिर में बर्तन रखकर पानी ढोना पड़ रहा है।'' कुमाऊं विश्वविद्यालय के अल्मोड़ा परिसर के वरिष्ठ भूवैज्ञानिक डा. जेएस रावत के एक अध्ययन के अनुसार, ''कोसी नदी में पानी प्रति वर्ष 50 लीटर प्रति सेकेण्ड की दर से कम हो रहा है। कोसी नदी के लिए जल संवर्धन की कारगर योजना नहीं बनाई गयी तो आने वाले डेढ़ दशक में कोसी पूरी तरह से सूख जाएगी क्योंकि इसकी चार सहायक नदियां पहले ही सूख चुकी हैं।
वैज्ञानिक अध्ययनों के अनुसार इन नदियों के संरक्षण व संवर्धन के लिए समय रहते ठोस उपाय नहीं किए गए तो 15-20 वर्ष के बाद इन नदियों का अस्तित्व खत्म हो जाएगा। वनों को काटने, उनमें आग लगने तथा बांज वृक्षों की उपेक्षा करके चीड़ के पेड़ों को प्राथमिकता देने की हमारी वन नीति का यह दुष्परिणाम है। उत्तराखंड के नगर चाहे नदी तट पर बसे हों, या पर्वतों के ऊंचे ढलानों पर, सभी इन नदियों के जल पर जीवित हैं। सरकारों के दृष्टिकोण के कारण विकसित हुई उपभोग जीवन शैली ने जल का उपयोग व अधिकार भाव तो बढ़ाया है, लेकिन उसके लिएर् कत्तव्य निभाने की कोई जिम्मेदारी उन्हें महसूस नहीं होती। इसी के साथ ही उपभोगवादी इस आधुनिक जीवन के कारण नगरों में मलिन जल की मात्रा लगातार बढ़ती जा रही है। बगैर उपचार किए यह मलिन जल नदियों में छोड़कर जल प्रदूषण किया जा रहा है। रुद्रप्रयाग, उत्तरकाशी, अल्मोड़ा, हल्द्वानी, रामनगर, श्रीनगर, ऋषिकेश, हरिद्वार जैसे नदी किनारे बसे नगरों में यही स्थिति है।
चम्पावत जिले के लोहाघाट क्षेत्र में पिछले तीन दशक के दौरान तेजी से जलस्रोतों के सूखने का दौर शुरू हुआ। इस अवधि में गाड़-गधेरों के जल स्तर में भारी कमी आने से नौला-धारे जैसे परम्परागत स्रोतों के जलस्तर में काफी गिरावट आई है। जल निगम ने गांव-गांव में पीने का पानी पहुंचाने के नाम पर पाइपलाइनें गांवों में पहुंचा दी हैं। दुष्परिणाम यह हुआ कि शताब्दियों से गांव वालों की प्यास बुझाते आ रहे नौलों की ओर से लोगों ने मुंह फेर लिया। सरकारी योजनाओं के कारण नौले-धारों व दूसरे जलस्रोतों में सीमेंट का प्रयोग करने से भी पानी के स्रोत सूख रहे हैं। इसकी वजह से सदानीरा नदियों वाले पहाड़ में दिनोंदिन पेयजल का गंभीर संकट खड़ा होता जा रहा है। लक्ष्मी आश्रम कौसानी की राधा बहन यह कहती हैं, ''कौसी, गोमती तथा गगास नदियों के जलस्रोत 45 किलोमीटर नीचे तक सूख चुके हैं। अधिकतर नदियों का जलस्तर घटने से बहाव का आवेग भी निरंतर घटता जा रहा है।''
नदियों व प्राकृतिक जलस्रोतों के ऊपर निरन्तर बढ़ रहे खतरे को देखते हुए ही उत्तराखंड में लोक जलनीति पर काम करने वाले पर्यावरण चिंतक और सामाजिक कार्यकर्ता 'वर्ष-2008' को 'नदी बचाओ' वर्ष के रूप में मना रहे हैं। जिसके पहले चरण में 1 जनवरी से 15 जनवरी 2008 तक राज्य के 15 नदियों के उद्गम स्थानों से 'नदी बचाओ' पदयात्राएं निकाली गयीं। इनके समापन पर रामनगर में 16 व 17 जनवरी 2008 को दो दिवसीय चिंतन बैठक भी की गयी। बैठक के बाद पारित अनेक प्रस्तावों के माध्यम से जल-जंगल-जमीन के अधिकार जनता को देने की मांग की गयी।

साभार-सुजलाम

renu rawat

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kaisi vidambana hai ye ki.gangotri or yamnotri ke humare yahan hote hue bhi hum paani ko tarasne ki kaagar per hai..
per iske jinnedaar bhi to hum hi hai.
or humari nadiyon ko bachchane ke liye bhi hume hi pryatan karna hoga.
tabhi kuch ho sakta hai.aap jo bhi log ye kaam kar rahe hai .bhot achcha hai.
keep it up.& thanx

Devbhoomi,Uttarakhand

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नदियां नहीं बचीं तो मानव सभ्यता भी नहीं बचेगी। यह कहना है अल्मोड़ा-पिथौरागढ़ के सांसद प्रदीप टम्टा का। श्री टम्टा यहां नदियों को खतरा एवं भविष्य विषय पर आयोजित गोष्ठी के उद्घाटन सत्र में बोल रहे थे।

उन्होंने कहा कि तीसरा विश्व युद्ध पानी पर अधिकार को लेकर होने की बात अमूमन सामने आती है। जिस प्रकार नदियों पर बहुराष्ट्रीय कंपनियों का अधिकार हो रहा है और पेयजल किल्लत दिनोंदिन बढ़ रही है, इस आशंका को बल मिल रहा है। प्रदीप टम्टा ने कहा कि जल, जंगल, जमीन मानव संस्कृति व सभ्यता की धरोहर है। इन्हे बचाने का मतलब ही मानव सभ्यता को बचाना है।

अपने संबोधन में नदियों को जोड़ने की बात को सिरे से खारिज करते हुए उन्होंने कहा कि प्रकृति के साथ छेड़छाड़ ठीक नहीं है। सांसद ने समाज में व्याप्त असमानता का भी उल्लेख किया। उनका कहना था कि एक ओर लोग बोतल का पानी पी रहे है, एक तबका नल का पानी पी रहा है और एक वह भी तबका हमारे समाज का है जहां आदमी व पशु एक साथ पानी पी रहे है। यह दुखद पक्ष है।

इस मौके पर गांधी शांति प्रतिष्ठान की अध्यक्ष राधा बहन ने विकास की भोगवादी सोच को बदलने की बात कही। उनका कहना था कि प्रकृति का विनाश और मनुष्य की समृद्धि साथ-साथ नहीं चल सकते। सभ्यता के विनाश से बचने के लिए अलग-अलग इधर-उधर छिटक कर काम कर रहे लोगों को एक साथ आगे आना होगा। तब जाकर सभ्यता के विनाश को रोकने की दिशा में कदम बढ़ाया जा सकता है।

हेम पन्त

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Vanishing WATERS of Uttarakhand
« Reply #56 on: September 04, 2009, 10:40:01 AM »
Source : http://www.hardnewsmedia.com/2009/09/3193

Locals say there were thousands of brooks flowing in this Himalayan region. Not anymore. What flows is often not fit for drinking

Uttarakhand, with its lush green hills, gurgling streams and brooks, seems an idyllic land, where human beings live in harmony with nature. Locals say there were thousands of brooks and streams flowing in this Himalayan region. Not anymore. Rivers across this pristine land are not the full-flowing, life-giving waters rushing down from the Himalayas but showing signs of heaviness, stagnation and slowness. There's scanty rainfall, hill streams and brooks are drying up and ancient water sources are getting depleted.

Construction of mega dams in Tanakpur on the India-Nepal border, and in Tehri, and submergence of vast areas of water bodies, forests, mountains and villages have contributed to pollution, and ecological degradation, including landslides. In Tehri, the great Bhagirathi has been trapped in tunnels, the Bhilangana which merges with Bhagirathi at Tehri has disappeared, and both the flowing rivers have been turned into stagnant reservoirs.

Even last year, while the discharge in Tauns River (a local name for Ganga) was 392 cubic metre per second (cu m/s), this year it has shrunk to 129 cu m/s. At Manerbhali, Garwhal, in August 2008, the discharge in Yamuna was 539 cu m/s which has gone down to 306 cu m/s. What does this persistent drying up of rivers portend for a land and its people for whom water is the basis of life?

The sluggishness of the Ganga and the Sharada is symptomatic of a deeper change. This involves taking water from a given water source through pipelines laid across the region connecting villages. Also, the installation of hand pumps along roads. It seems of little consequence to the authorities that the water in pipelines now comes in spurts and sometimes does not come at all. Or, that hand pumps which were once a lifeline are now drawing up polluted water.

Lok Kalyan Samiti, an NGO in Bageshwar district, ran tests on drinking water in various panchayats; it threw up hard-hitting facts. The water from about 90 sources across the region was found unfit for drinking. Though the hand pumps were fitted with filters, the water was not safe for human consumption. Interestingly, in most cases, the source of pollution were hand pumps! And, this is happening in the mountains where once pure naturally filtered, drinking mineral water would flow endlessly.

Says Bhaguli Devi, village 'pradhan' of Baijnath Dham, "There is no scheme for Swajal in our village nor any initiative by the government to provide water." Villagers are occupied the whole day collecting water from the river and neighbouring villages.

Waterborne diseases like jaundice and typhoid are spreading. The primary health centre (PHC) in Garud block, Baijnath district, registered 1,500 patients in the last three months reportedly suffering from effects of water pollution. There are reports of abject degradation of main rivers in the country, which are unfit for even agricultural purposes. Is Uttarakhand then only a small part of this larger problem? Does the hilly region require specific attention based on its unique topography, ecology and needs of the communities?

The paddy crop all over the country has been hit by drought. In Uttarakhand, the sowing has been delayed by two months. Vegetables are not being grown due to the absence of rain. In Bageshwar district, water in the rivers has diminished. This has led to panic among farmers who are now competing to draw out water for diverting it to their paddy fields. In this race, poor farmers lose out.

An age-old custom followed in villages in Uttarakhand is a poignant reminder. As part of marriage ceremonies, when a new bride comes to her husband's home, she is taken to the village stream to be 'introduced' to it. A conch is sounded and the stream is worshipped. This signifies the value of a relationship with the village stream that the bride would have to develop (something she has inherited originally in her childhood). It may be because of such traditions, handed down over centuries, that water sources in the hilly terrain of Uttarakhand have been protected and nourished. It is this innate and cultural wisdom that, perhaps, needs to be preserved to save this precious resource, rapidly vanishing away. But the political class cares two hoots.

 

Devbhoomi,Uttarakhand

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जलयात्रा से हुआ नदी बचाओ आंदोलन तेज

श्रीनगर (पौड़ी गढ़वाल)। प्रदेश में नदियों के पानी के प्रवाह को प्राकृतिक रूप से जारी रखने को जलयात्रा अभियान के माध्यम से आंदोलन में तेजी लायी जा रही है।

जलयात्रा गुरुवार को श्रीनगर पहुंची। नदी बचाओ अभियान से जुड़े लोगों का कहना है कि बांधों के निर्माण से पर्यावरण और समाज पर पड़ने वाले प्रभावों का आंकलन भी इस जलयात्रा के माध्यम से किया जा रहा है। बांधों के निर्माण से जलवायु परिवर्तन में हो रहे दुष्परिणामों के संकेत भी साफ दिखाई देने लगे हैं।

 जिसका प्रभाव सामाजिक जीवन और मानवीय गतिविधियों पर भी पड़ रहा है। रक्षा सूत्र आंदोलन के सुरेश भाई का कहना है कि अकेले उत्तराखंड में ही जिन 558 जलविद्युत परियोजनाओं पर कार्य किया जा हरा है। उनकी प्रस्तावित सुरंगों के ऊपर पांच हजार गांव बसे हैं, जिनकी आबादी 25 लाख है।

 मौसम परिवर्तन के कारण बांध निर्माण से प्रभावित जनता दैवीय आपदा जैसी स्थिति का भी सामना कर रही है। उनके सामने आजीविका की भी समस्या अधिक खड़ी हो गयी है। समाज सेवी बिहारी लाल का कहना है कि परियोजनाओं के निर्माण से पहले राज्यों ने पुनर्वास, रोजगार और जलनीति को लेकर व्यवहारिक नीतियां ही नहीं बनायी। इससे आए दिन जनता आंदोलित हो रही है।

पर्वतीय विकास शोध केंद्र के नोडल अधिकारी डा. अरविंद दरमोड़ा का कहना है कि जलविद्युत की छोटी परियोजनाएं बनायी जाए और उनकी जिम्मेदारी गांव समुदाय को दी जाय। जलयात्रा समिति के सदस्य जगत सिंह चौधरी का कहना है कि उत्तराखंड के लोगों का जल संकट दूर करने के लिए जल का उपयोग सबसे पहले होना चाहिए।



http://in.jagran.yahoo.com/news/local/uttranchal/4_5_5797880.html

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उत्तराखंड में नदियों को लेकर पहली बार एक ऐसी लड़ाई शुरू है, जो सिर्फ उत्तराखंड तक सीमित नहीं रहने वाली है। यह लड़ाई नदी, पानी, गांव, जीवन, संस्कृति- सभ्यता और आजीविका के संसाधनों की भी लड़ाई है, जो इन दिनों देश के कई हिस्सों में भी लड़ी जा रही है। आंदोलनकारियों के मुताबिक स्थिति इतनी भयावह हो गई है कि अब देश के अलग-अलग हिस्सों में नदियों पर काम कर रहे लोगों को भी अपनी लड़ाई को राष्ट्रीय स्तर पर लाना होगा। और इस जरूरत को देखते हुए इसकी पहल उत्तराखंड नदी बचाओ अभियान ने कर दी है।

 अभियान देश भर में रवि चोपड़ा के संयोजन में जल यात्र निकालने की तैयारी कर रहा है ताकि यह लड़ाई अधिक प्रभावी हो और वास्तविक विकास का रास्ता साफ हो।

नदियों को लेकर उत्तराखंड में शुरू यह लड़ाई अब भले पूरे राज्य में सतह पर उभर कर एकजुट दिखने लगी है। लेकिन इसकी अलग-अलग शुरुआत विभिन्न नदी घाटियों में कई साल पहले से ही हो गई थी, क्योंकि टिहरी शहर के डूबने और चार्इं जैसे गांव के जमींदोज हो जाने की घटनाएं उन्हें कभी चैन से सोने नहीं दे रही हैं। उत्तराखंड राज्य बनते ही प्रदेश के लोगों को यहां की सरकारों ने जिस तरह ऊर्जा प्रदेश बनाने के सपने दिखाए थे उसने यहां के लोगों को न सिर्फ ठगा है बल्कि उन्हें अपने पैतृक स्थलों से पलायन के लिए भी विवश कर दिया है।

लोग नए आसरे की और निकलते जा रहे हैं। ऐसे में जो पलायन नहीं कर रहे हैं वे अपनी धरती, जंगल, पहाड़ और नदियों को बचाने के लिए अपनी कमर कसने लगे हैं।

अहिंसक तरीके से शुरू हुई इस लड़ाई की पहली कामयाबी तो यह हुई है कि गढ़वाल और कुमाऊं के बीच भेद खत्म हो गए। उत्तराखंड नदी बचाओ अभियान द्वारा आयोजित जलयात्र के तहत साल के शुरू में प्रदेश की पंद्रह नदी घाटियों से आई पदयात्र टोलियों ने गढ़वाल और कुमाऊं के संगम स्थल रामनगर में सभा की और यहीं नदियों को बचाने का सामूहिक संकल्प लिया।

अभियान को इसलिए भी गति मिलने लगी है कि इसका नेतृत्व चिपको आंदोलन सहित शराबबंदी व खनन उद्योगों के खिलाफ और उत्तराखंड राज्य बनाने के आंदोलनों के अनुभवों से तपी-तपाई और गांधी शांति प्रतिष्ठान की अध्यक्ष राधा भट्ट ने स्वीकार कर लिया है।

इस लड़ाई में प्रदेश की करीब तीस से अधिक संस्थाएं और संगठन एकजुट हो गए हैं। पचहत्तर वर्षीय राधा भट्ट ने देश के सर्वोच्च गांधीवादी महिला संस्थानों की सचिव रहते हुए अनेक उल्लेखनीय कार्य किए हैं।

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उत्तराखंड नदी बचाओ आंदोलन के बैनर तले आज मंदाकिनी क्षेत्र की प्रभावित जनता ने पहाड़ में बन रही जल विद्युत परियोजनाओं के निर्माण पर चिंता जताई। उन्होंने कहा कि सिंगोली-भटवाड़ी परियोजना का विरोध जारी रहेगा।

ब्लाक सभागार अगस्त्यमुनि में आयोजित बैठक की अध्यक्षता करते हुए जिला पंचायत अध्यक्ष चंडी प्रसाद भट्ट ने कहा कि कोई भी परियोजना बिना जनता की सहमति के नहीं बनने दी जाएंगी। उन्होंने स्पष्ट किया कि यदि विद्युत परियोजना प्रभावित गांव क्षेत्र के पर्यावरण सामाजिक ताने बाने को नुकसान पहुंचाती है, तो उस कंपनी को काम नहीं करने दिया जाएगा।
रक्षासूत्र आंदोलन के सुरेश भाई ने कहा सरकारों के व्यवसायिक दृष्टिकोण ने नदियों के साथ ऐसे रिश्ते को जन्म दिया है, जो प्राकृतिक स्त्रोतों व नदियों की उपेक्षा के साथ-साथ उनके शोषण का आधार बना हुआ है। वरिष्ठ पत्रकार रमेश पहाड़ी ने कहा कि पहाड़ में छोटी-छोटी जल विद्युत परियोजनाएं बनाई जानी चाहिए।

 गढ़वाल विश्वविद्यालय के पर्वतीय विकास शोध केन्द्र के नोडल अधिकारी डा. अरविंद दरमोड़ा ने कहा कि उत्तराखंड भूकंप जोन 4 व 5 में आता है, लेकिन बड़ी खेद की बात है कि यहां पर आज 540 परियोजना चिह्नत की गई है। जो कि चिंताजनक स्थिति है। बैठक में सुशीला भंडारी, रणजीत सिंह, राजेश्वरी रावत, लक्ष्मण सिंह भंडारी, जगमोहन सिंह भण्डारी, देवेन्द्र पडियार, मायाराम सेमवाल, राजेन्द्र प्रसाद, अनिल लाल, नरेन्द्र दत्त, कस्तूरबा देवी, गजपाल सिंह सहित फलई, रायड़ी, अरकुड, पाली, टिमरया, डामर, कोशलपुर, क्यार्क, नेलकुण्ड, सिंगोली गांवों के ग्रामीण मौजूद थे।

 

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