उत्तराखंड राज्य बनते ही प्रदेश के लोगों को यहां की सरकारों ने जिस तरह ऊर्जा प्रदेश बनाने के सपने दिखाए थे, उनने यहां के लोगों को न सिर्फ ठगा है, बल्कि उन्हें अपने पैतृक स्थलों से पलायन के लिए भी विवश कर दिया है. लोग नए आसरे की ओर निकलते जा रहे हैं. ऐसे में जो पलायन नहीं कर रहे हैं, वे अपनी धरती, जंगल, पहाड़ और नदियों को बचाने के लिए अपनी कमर कसने लगे हैं.
नदियों की मौजूदा असलियत उत्तराखंड निवासियों के लिए असहनीय हो गई है. उत्तराखंड के पूर्व में काली (शारदा) से लेकर पश्चिम में तमसा (टौंस) तक उत्तराखंड की सभी हिमपोषित नदियों पर बिजली उत्पादन के लिए दो सौ से अधिक परियोजनाएं निर्माणाधीन या प्रस्तावित हैं, जिन्हें बांधों और सुरंगों के माध्यम से क्रियान्वित किया जा रहा है. इसके कारण इन नदियों का सनातन प्रवाह और इनका अस्तित्व ही खतरे में पड़ गया है. बड़े हादसे तो जैसे अभिशाप की तरह जुड़ गए हैं.
पिछले दिनों विष्णुप्रयाग जल विद्युत परियोजना के लिए बनाई गई सुरंग के धंस जाने से उसके ऊपर बसा हुआ चॉई गांव ध्वस्त हो गया और कड़ाके की सर्दी में इस गांव के लोगों को अपने टूटे-फूटे दरकते मकानों को छोड़ कर बेघर होना पड़ा.
जंगल साफ हो रहे हैं सो अलग.
लोग हैरान हैं कि नदियों पर बांध औऱ सुरंग बनाने के प्रस्तावों पर बगैर इसके नतीजे की परवाह किए केंद्रीय वन और पर्यावरण मंत्रालय ने भी अपनी ओर से हरी झंडी कैसे दिखा दी !
लेकिन मामला अकेला चॉई का नहीं है.
उत्तरकाशी के करीब चौदह गांव लोहारी नाग और पाला मनेरी जल विद्युत परियोजनाओं से प्रभावित हैं. इन गांवों की महिलाओं का कहना है कि उनके यहां बांध निर्माण एजेंसियां गांव के पुरुषों को प्रलोभन देकर निर्माण कार्य में मनमानी कर रही हैं. भागीरथी घाटी में सुरंग निर्माण के लिए कंपनियां हर दस मीटर पर विस्फोट कर रही हैं, जिससे मकानों में दरारें आ रही हैं. भूजल का रंग बदल गया है.
इस इलाके में 18 कंपनियां एनटीपीसी के संरक्षण में काम कर रही हैं, जिसमें बड़ी संख्या में बाहरी लोग आ रहे हैं. जाहिर है, इससे इन गांवों में सामाजिक असुरक्षा के मामले बढ़े हैं. दूसरी ओर जिनकी जमीन अधिगृहित की जा रही हैं, उनकी सुरक्षा और आजीविका के लिए कोई बात नहीं की जा रही है.