Author Topic: Various Movements Of Uttarakhand - उत्तराखण्ड के विभिन्न जन आंदोलन  (Read 20785 times)

पंकज सिंह महर

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साथियो,
        उत्तराखण्ड आज से ही नहीं बल्कि प्राचीनकाल से आंदोलनों की भूमि रही है, विभिन्न अवसरों पर विभिन्न मांगों को लेकर उत्तराखण्ड की जनता ने कई आंदोलन किये हैं। आंदोलन वहां होते हैं, जहां अभाव हो, शोषण हो और इन सबसे उत्तराखण्ड पीड़ित रहा है।
      इस टोपिक के अन्तर्गत हम उन विभिन्न जनांदोलनों के बारे में जानकारी देंगे, जिनका फैलाव सम्पूर्ण उत्तराखण्ड में तो नहीं रहा, लेकिन क्षेत्र विशेष के लोगों ने अपने हक-हकूकों के लिये यह आंदोलन किये।

सादर,
पंकज सिंह महर

पंकज सिंह महर

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[justify]
तिलाड़ी का जनांदोलन- 1930


१९२७-२८ में टिहरी राज्य में जो वन व्यवस्था की गई उसमें वनों की सीमा निर्धारित करते समय ग्रामीणों के हितों की जान-बूझ कर अवहेलना की गई, इससे वनों के निकट के ग्रामों में गहरा रोष फैल गया। रवांई परगने में वनों की जो सीमा निर्धारित की गई उसमें ग्रामीणॊ ने आने-जाने के रास्ते, खलिहान और पशुओं के बांधने के स्थान भी वन सीमा में चले गये। जिससे ग्रामीणॊं के चरान, चुगान और घास-लकड़ी काटने के अधिकार बंद हो गये। वन विभाग की ओर से आदेश दिये गये कि सुरक्षित वनों में ग्रामीणों को कोई अधिकार नहीं दिये जा सकते।
   टिहरी रियासत की वन विभाग की नियमावली के अनुसार राज्य के समस्त वन राजा की व्यक्तिगत सम्पत्ति मानी जाती थी, इसलिये कोई भी व्यक्ति किसी भी वन्य जन्तु को अपने अधिकार के रुप में बिना मूल्य के प्राप्त नहीं कर सकता। यदि राज्य की ओर से किसी वस्तु को निःशुल्क प्राप्त करने में छूट दी जायेगी तो वह महाराजा की विशेष कृपा पर दी जायेगी। जो सुविधायें वनों में जनता को दी गई है, उन्हें महाराजा स्वेच्छानुसार जब चाहे रद्द कर सकेंगे।

      उस समय आज की जैसी सुविधायें नहीं थी, पशुओं से चारे से लेकर कृषि उपकरणॊं से लेकर बर्तनों तक के लिये भी लोग जंगलों पर ही आश्रित थे, लेकिन जब जनता शासन तंत्र से पूछती कि जंगल बंद होने से हमारे पशु कहां चरेंगे? तो जबाब आता था कि ढंगार (खाई) में फेंक दो। यह बेपरवाह उत्तर ही वहां के लोगों के विद्रोह की चिंगारी बनी। टिहरी रियासत के कठोर वन नियमों से अपने अधिकारों की रक्षा के लिये रवांई के साहसी लोगों नें "आजाद पंचायत" की स्थापना की और यह घोषणा की गई कि वनों के बीच रहने वली प्रजा का वन सम्पदा के उपभोग का सबसे बड़ा अधिकार है। उन्होंने वनों की नई सीमाओं को मानने से अस्वीकार कर दिया तथा वनों से अपएन उपभोग की वस्तुयें जबरन लाने लगे।
        इस प्रकार से रंवाई तथा जौनपुर में ग्रामीणों का संगठन प्रबल हो गया, आजाद पंचायत की बैठक करने के लिये तिलाड़ी के थापले में चन्द्राडोखरी नामक स्थान को चुना गया। इस प्रकार वन अधिकारों के लिये आन्दोलन चरम बिन्दु पर 30 मई, 1930 को पहुंचा, तिलाड़ी के मैदान में हजारों की संख्या में स्थानीय जनता इसका विरोध करने के लिये एकत्रित हुई और इस विरोध का दमन करने के लिये टिहरी रियासत के तत्कालीन दीवान चक्रधर दीवान के नेतृत्व में सेना भी तैयार थी। आजाद पंचायत को मिल रहे जन समर्थन की पुष्टि हजारों लोगों का जनस्मूह कर रहा था, इससे बौखलाये रियासत के दीवान ने जनता पर गोली चलाने का हुक्म दिया। जिसमें अनेक लोगों की जानें चली गई और सैकड़ों घायल हो गये। 28 जून, 1930 को "गढ़वाली" पत्र ने मरने वालों की संख्या १०० से अधिक बताई।
       इस प्रकार से वन अधिकारों के लिये संघार्ष कर रही जनता के आंदोलन को बर्बरतापूर्वक दबा दिया गया।

पंकज सिंह महर

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30 मई को तिलाड़ी कांड की बरसी मनाई जाती है, वर्ष १९३० में राजा ने यहां पर सैकड़ो निर्दोष लोगों की हत्या करवा दी थी।

तिलाड़ी का मैदान



यह मैदान बड़कोट से 2.5 किलोमीटर दूर है तथा जलियांवाला बाग हत्याकांड को छोड़कर, भारतीय इतिहास के सर्वाधिक निर्दय हत्याकांडों में से एक है। इसे तिलारी कांड कहा जाता है। 30 मई, 1930 को किसानों की एक बड़ी संख्या यहां जुटी एवं गढ़वाल के राजा नरेन्द्र शाह से अपने अधिकारों की मांग की। इनमें से सैकड़ों की निर्मम हत्या राजा के दीवान चक्रधर जुवाल द्वारा कराकर उनके शव को यमुना में फेंक दिया गया।

      तिलारी कांड की जड़ वर्ष 1927-28 के वन बन्दोबस्ती से है जिसके अनुसार वन की सीमाओं का पुननिर्धारण हुआ। नयी सीमाओं से परंपरागत पशु चारागाहों पर अतिक्रमण हुआ जिसके कारण लोगों का आक्रोश बढ़ा। 20 मई, को उन्होंने जंगल में आग लगा दी जिसके कारण वन पदाधिकारियों ने आंदोलन के नेताओं को गिरफ्तार कर लिया। परंतु लोगों ने नेताओं को छुड़ा लिया और वे राजा से मिलने टिहरी की ओर चल पड़े। तभी राजा की सेना ने गोली चलाकर कई विरोधियों को मार डाला और इसीलिये प्रत्येक वर्ष मई में इस दिन को तिलारी शहीद दिवस के रूप में मनाया जाता है।


पंकज सिंह महर

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कुमाऊं-गढ़वाल विश्वविद्यालय बनाओ आन्दोलन-1972-73



वर्ष १९७३ से पहले तक उत्तराखण्ड में कोई विश्वविद्यालय नहीं था, उत्तराखण्ड के सभी डिग्री कालेज और महाविद्यालय आगरा विश्वविद्यालय से संचालित होते थे, जिससे छात्रों को कई असुविधाओं का सामना करना पड़्ता था, मार्कशीट में सुधार से लेकर बैक पेपर, डिग्री लाने तक के लिये छात्रों को चमोली, पिथौरागढ़ से आगरा जाना पड़ता था। उन दिनों यातायात के सुगम साधन भी नहीं थे, इस असमानता ने धीरे-धीरे एक आन्दोलन को जन्म दिया, जिसका नाम था "कुमाऊं-गढ़वाल विश्वविद्यालय बनाओ आन्दोलन"। उत्तराखण्ड के विभिन्न महाविद्यालयों के छात्र संगठित होकर सड़को पर उतर आये और कुमाऊं और गढ़वाल के लिये अलग-अलग विश्वविद्यालय की मांग उठाने लगे, इस आन्दोलन को इण्टर कालेजों में पढ़ रहे छात्रों ने भी समर्थन दिया था, क्योंकि कल उन्हें भी इन्हीं डिग्री कालेजों में एडमीशन लेना था।
        इस आन्दोलन की धधक पूरे उत्तराखण्ड में फैल गई, सारा उत्तराखण्ड आन्दोलन मय हो गया, डिग्री कालेज के इन छात्रों को बुद्धिजीवियों और सामाजिक संगठनों का भी सहयोग और समर्थन मिला। तत्कालीन प्रशासन ने इसका कठोर दमन भी किया, छात्र नेताओं को जेल में डाला जाने लगा, लाठी चार्ज किया जाने लगा और दमन की पराकाष्ठा यहां तक पहुंची कि प्रदर्शन कर रहे छात्रों पर गोलियां भी चलाई गई।
        दिनांक 15 दिसम्बर, 1972 को जब पिथौरागढ़ राजकीय महाविद्यालय के छात्र प्रदर्शन कर रहे थे और उनके साथ जुलूस में इण्टर कालेजों के छात्र, विभिन्न सामाजिक संगठनों के कार्यकर्ता थे, तो पुलिस ने इन पर गोलियां बरसा दीं, जिस कारण एक स्कूली छात्र और एक नेपाली मजदूर की मौत हो गई और वर्तमान में उक्रांद के शीर्ष नेता श्री काशी सिंह ऎरी समेत सैकड़ों छात्र घायल हो गये।

इस आन्दोलन में शहीदों के नाम-

१- स्व० श्री सज्जन लाल शाह
२- स्व० श्री शोबन सिंह (नेपाली मजदूर)


     इस गोलीकांड के बाद यह आन्दोलन और प्रचण्ड हो गया, जगह-जगह आन्दोलन की आग और तेज हो गई, अंततः परिणाम यह हुआ कि 1 मार्च, 1973 को कुमाऊं और गढ़वाल विश्वविद्यालय की स्थापना की गई। यह ७० के दशक का सबसे प्रभावी छात्र और जनांदोलन था, जो दो बलियां देने के बाद सफल हुआ।

पंकज सिंह महर

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कुमाऊं-गढ़वाल विश्वविद्यालय बनाओ आन्दोलन में शहीद हुये स्व० श्री सज्जन लाल शाह के बलिदान को अक्षुण्ण रखने के लिये उनके पिता और पिथौरागढ़ के लोगों द्वारा राजकीय स्नातकोत्तर महाविद्यालय, पिथौरागढ़ के कैम्पस में एक छात्रावास का निर्माण किया गया, जिसका नाम उनके नाम पर "सज्जन छात्रावास" रखा गया।
     

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गढ़वाल मैं डोला-पालकी समस्या और शिल्पकार आन्दोलन

उत्तराखंड मैं पारम्पारिक सामाजिक ब्यवस्था के अर्न्तगत सवर्ण हिन्दुओं की तरह विवाह के अवसरों पर शिल्पकार वर वधुओं को डोला-पालकी तथा एनी सवारियों पर बैठने का सामजिक अधिकार नहीं दिया गया था! इस नियम के प्रतिकूल आचरण करने वाले शिल्पकारों को प्र्तंडित किया जाता था,

यह वर सवर्णों की अपेछा आर्थिक देर्ष्टि से भी बहुत पिछड़ा हुआ था!२० वीं सताब्दी के नवजागरण के प्रभाओं से उत्पन्न चेतना के फलस्वरूप शिल्पकार नेतृत्व के रूप मैं जयानंद भारती का आविर्भाव हुआ,सन १९२० के प्स्च्हत जयानंद भारती के नेतृत्व मैं शिल्पकारों की सामजिक,आर्थिक,समस्याओं तथा,उनमें ब्याप्त कुरीतियों के हल के लिए संघठित प्रयास किये गए!

गढ़वाल मैं आर्य समाज की स्थापना के पूर्व २० वीं सदी के आरम्भिक दसक मैं गंगादत जोशी (तहसीलदार)जोतसिंह नेगी (सेंताल्मेंट आफसर),नरेंद्र सिंह (चीफ रीडर)आदि प्र्भांत लोगों ने आर्य के विचारों को जनता तक पहुँचाने का कार्य किया था!किन्त असंघथित और कम ब्यापकता के कारण इनके प्रयत्न शिमित छेत्र तक प्रभाव स्थापित कर सके,इस अधर पीठिका के बलबूते शिल्पकार नेता जयानंद भारती ने सवर्ण नरेंद्र सिंह तथा सुरेन्द्र सिंह के साथ मिलकर शिल्पकारों मैं ब्याप्त कुरीतियाँ दूर करने बच्चों को शिछा के लिए स्कूल भेजने के लिए प्रेरित किया!

कुमाओं मैं लालालाजपत राय की उपस्तिथिति मैं सन १९१३ मैं आर्य समाज के शुद्धिकरण के समाहरोह मैं शिल्पकारों को जनेऊ देने का कार्य कर्म चलाया गया!

शिल्पकारों को जनेऊ दिए जाने के फलस्वरूप गढ़वाल मैं आर्य समाज द्वारा सन १९२० के पश्चात् जनेऊ देने का कार्यक्रम चलाया गया था!शिल्पकारों के मध्य जन-जागरण कार्यक्रम के अर्न्तगत सवर्णों के एक वर्ग विशेष द्वारा शिल्पकारों के साथ संघर्स की घटनाएं इस तथ्य की ओर संकेत करती हैं कि रूढिवादी ब्यक्ति समाज मैं परिवर्तन गतिजता मैं अवरोधक बन गए थे!

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गढ़वाल मैं इसाई कमिश्नरों के सामाजिक,आर्थिक कार्यकर्मों के प्रति निर्बल शिल्पकार वर्ग की लालसा और धर्मांतरण की बढती रूचि उच्च वर्ग के लिए एक चुनोती थी!फलस्वरूप सर्वणों द्वारा इसाई कर्ण की प्रविर्ती को रोकने के उद्देश्य से शिल्पकारों के मध्य उनके सामाजिक, आर्थिक पिछडेपन को दूर करने के लिए प्रयत्न किये गए,इन प्रयासों मैं १९१० को दुग्गाडा मैं पहला आर्य समाजी स्कूल स्थापित किया गया था!

तत्पश्चात १९१३ मैं स्वामी श्र्धानंद द्वारा भूख हड़ताल मैं आर्य समाज का स्कूल प्रारंभ किया गया,गढ़वाल मैं आर्य समाज से इन प्रारम्भिक प्रयत्नों से एक ओर जन्हाँ आर्य समाज के कार्य छेत्र मैं अपेछित विर्धि हुई,वहीँ दूसरी ओर शिल्पकार मैं शिछा के प्रति बढती रूचि के कारण ईसाईकरण के प्रयास शिथिल पड़ने लगे!

गढ़वाल मैं आर्य समाज द्वारा शिल्पकारों के मध्य उनके शैछिक पिछडेपन को दूर करने के की भी अनुकूल प्रतिकिर्या हुई,प्रथम विश्व युद्घ से पूर्व तक गढ़वाल मैं एक भी शिल्पकार इंट्रेस परीछा उतीरण नहीं था!

 गढ़वाल मैं आर्य समाज को विस्तार देकर शिल्प्वर्ग की सहानुभूति अपने पछ मैं करने के उद्देश्य से आर्य प्रतिनिधि सभा के उपदेशक सन १९२० मैं गढ़वाल के प्रमुख नगरो कोटद्वार,दुगड्डा,लेंसिदौन,प ोडी,श्रीनगर,तक पहुंचे! इसके उपरांत गुरुकुल कांगडी के प्रचारक जिनमें नरदेव शास्त्री प्रमुख ब्यक्ति थे!

गढ़वाल मैं आर्य समाज के आन्दोलन के रूप मैं गाँवों तक पहुँचने के उद्देश्य से नगर-कस्बों के पश्चात् चेलू सैन,बीरोंखाल,उदयपुर,अवाल्सु ं,खाटली,रिन्ग्वाद्स्युं आदि ग्रामीण छेत्रों मैं आर्य समाज की शाखाएं ओए स्कूल स्थापित कर इसाई मिशनरी की चुनोती को स्वीकार किया गया!

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गढ़वाल मैं डोला-पालकी आन्दोलन का विकास

 गढ़वाल मैं अव्स्य्क्तानुसार सवर्णों तथा स्थानीय मुसलमान युवक -युवतियां के विवाह के अवसरों पर डोला-पालकी के उपयोग परंपरा सदियों से रही है!बरात मैं डोला-पालकी ढ़ोने का कार्य मुख्यत शिल्पकार ही करते थे,किन्तु इसी परम्परावादी समाज ने उन्हें अपने पुत्र पुत्रियों के विवाह के अवसर पर डोला-पालकी के प्रयोग से वंचित किया,

२०विन सदी के नवजागरण के काल मैं भारत मैं चल रहे सुधारवादी आन्दोलन का प्रभाव इस पर्वतीय संभाग मैं भी आया!१९२० मैं आर्य समाज के तत्वावधान मैं अकाल राहत व शैछानिक कर्यकर्मों के प्रारम्भ होने के पश्चात् शिल्पकारों को सव्रानो के समछ सामजिक अधिकार दिलाने के उद्देश्य से उनका जनेऊ संस्कार किया गया!

इस जनेऊ धरी आर्यों ने शिल्पकारों को डोला-पालकी का प्रयोग करने के लिए प्रेरित किया!इस प्रकार सन १९२४ मैं स्थानीय शिल्पकार नेता जयानंद भारती के नेत्रित्व मैं डोला-पालकी बारातें संघधित की गयीं इस प्रयास मैं कुरिखाल तथा बिनदाल्गन्व के शिल्पकारों की बारात ने डोला-पालकी के साथ क्रिखाल से बिंदल गाँव के लिए प्रस्थान किया मार्ग मैं कहीं भी सवर्णों के गाँव नहीं पड़ते थे!

कुरिखाल के कोली शिल्पकार भूमि हिस्सेदार हों के कारण अन्य शिल्पकारों की तुलना मैं संपन्न थे!दूसरी ओर उन्नी ब्यवसाय के कुशल शिल्पी के रूप मैं इनके कुटीर उद्योग भी समृद्ध थे!इस स्तिथि का लाभ उठाकर जातीय श्रेस्त्ता को चुनोती देने के उद्देश्य से मैदानी आर्य समाजी नेताओं के संरछां मैं डोला-पालकी बारात निकली गई!किन्तु एक घटना के अनुसार दुगड्डा के निकट चर गाँव के संपन्न मुस्लिम परिवार के हैदर नामक युवक के नेत्रित्व मैं हिन्दू सवर्णों द्वारा जुड़ा स्थान पर शिल्पकारों की बारात रोकी गयी!

तत्पश्चात डोला-पालकी तोड़कर बारातियों के साथ मार- पीट की गयी!प्रशासन के हस्तछेप किये जाने के उपरांत भी चार दिन तक बारात मार्ग मैं ही रुकी रही!

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इस प्रकार २५ जनवरी १९४१ को गढ़वाल के ब्य्गातिगत सत्याग्रह पर रोक लगा दी गयी,इससे गढ़वाल कान्ग्रेह कार्यकर्ताओं मैं तीव्र असंतोष फ़ैल गया!ब्याक्तिगत सत्याग्रह स्थगित किये जाने की समस्या से संपन्न संकट पर विचार-विमर्स के लिए सिलोगी गाँव मैं कांग्रेश कमिटी के कार्यकर्ताओं की बैठक आयोजित की गयी,बैठक मैं सर्व्समती से पारित प्रस्ताओं मैं सत्याग्रह के स्थगित किये जाने की दुर्भाग्यपूर्ण,निर्णय पर असंतोष प्रकट करते हुए प्रांतीय कांग्रेश कमिटी से इसे पूरा प्रकरण की निष्पछ जांच की मांग की गई!

 गढ़वाल कांग्रेश कमिटी की इस मांग पर प्रांतीय कांग्रेश कमिटी के अध्यछ पुर्शोतम दास टंडन द्वारा गांधी सेवा संघ के सदस्य पूरनचंद बिध्यान्लकर को डोला-पालकी प्रकरण जांच के लिए गढ़वाल भेजने का फैसला किया गया!

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सन १९४१ को रमेशचंद्र बहुखंडी ने पत्र लिखकर सूचित किया कि-"गढ़वाल के सत्याग्रह दलितोधार के विषय मैं कोई दिलचस्पी नहीं रखते हैं,ये झगडे वातव मैं दकियानूसी तथा हरिजनों मैं भी केवल आर्य सामाजिकों मैं होते हैं"इस डोला-पालकी आन्दोलन के विकार के अर्न्तगत सन १९४० से ही महत्मागांधी को स्थानीय कार्यकताओं और समाचार पत्रों के प्रतिनिधियों द्वारा प्रेषित संवादों के माध्यम से रास्ट्रीय नेताओं को शिल्पकारों कि स्थिति से अवगत कराया जाने लगा!इस संधर्व मैं कन्या गुरुकुल के मैनेजर व सामाजिक कार्यकर्त्ता रमेशचंद्र बहुखंडी के अतिरिक्त नंदप्रयाग (चमोली गढ़वाल)से लीडर समाचार के सम्बादाता गोविन्द पर्षद नौटियाल ने उत्तेजनात्मक समाचार भेजा,जिसमें कहा गया था कि गढ़वाल के शिल्पकार-सवर्णों कि विरूद्व सत्याग्रह प्रारंभ करने वाले हैं
,और शीघ्र ही धर्म परिवर्तन करेंगें !इसे पड़कर गाँधी पर तीव्र प्रतिकिर्या हुयी,परिणाम स्वरूप महात्मागांधी ने गढ़वाल के ब्य्कतिगत सत्याग्रह पर रोक लगाने कि घोषणा करते हुए कहा,कि-जहाँ आज भी शिल्पकारों पर अत्याचार होते हैं,वहां कि जनता को सत्याग्रह करने का अधिकार नहीं है!उन्होंने आगे स्पस्ट किया कि बिर्टिश गढ़वाल मैं पुनः ब्य्कतिगत सत्याग्रह प्रारंभ कर्ण से पूर्व डोला-पालकी अत्यचारों से शिल्पकारों को मुक्त करना होगा!

 

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