Author Topic: Various Movements Of Uttarakhand - उत्तराखण्ड के विभिन्न जन आंदोलन  (Read 20798 times)

Devbhoomi,Uttarakhand

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गढ़वाल मैं सर्वदलीय सम्मलेन और डोला-पालकी आन्दोलन

गढ़वाल मैं सवरण शिल्पकार के मध्य तनाव पूर्ण स्तिथि की समीछा करने के लिए प्रांतीय कांग्रेश कमिटी के निर्देश २ फरवरी १९४१ पूरनचंद बिध्यलंकर कोटद्वार गढ़वाल पहुंचे,यहाँ जिला कांग्रेश कमिटी के प्रमुख कत्य्कर्ताओं जिनमें प्रतापसिंहनेगी, भक्त्दर्शन,जयानंद भारती तथा बलदेवसिंह आर्य प्रमुख थे!के साथ समस्या के हल पर विचारविमर्स किया गया,पत्पस्चात सर्वमान्य निर्णय की धोषणा की गई!

जिसके अनिसार कांग्रेश के सत्याग्रही कार्यकर्त्ता मंडोली तथा बिजोली मैं रुकी हुई शिल्पकारों की डोला-पालकी बरातों को बिनाविघ्न के निकालकर शिल्पकारों को सवर्णों के विरूद्व कथित सत्याग्रह के निर्णय को छोड़ने का आग्रह करेंगें!प्रस्ताविक कार्यकर्म को ब्यवहारिक ढंग से चलाने के उद्देश्य से १३ फरवरी १९४१ को सिलोगी मैं कांग्रेश कार्यकर्ताओं की बैठक मैं उपसमिति का गठन किया गया!शिल्पकारों के डोला-पालकी अधिकार को स्वीकारते हुए दोनों पछों मैं परम्परागत,सोहर्द्पूरान संबंधों को बनाये रखने की आवश्यकता पर बल दिया गया,सिलोगी मैं संपन्न जिला कांग्रेश कमिटी के कार्यकर्ताओं की बैठक मैं प्रस्ताव पारित करके महत्मागांधी ब्य्कतिगत सत्याग्रह पर लगाये गए

प्रतिबंध उठाने की मांग की गई! शिल्पकारों को नागरिक अधिकार दिलाने और सद्भाव का वातावरण पुनः स्थापित करने के उद्देश्य से प्रतापसिंह नेगी के नेत्रित्व मैं गठित उपसमिति मैं रमेशचंद्र बहुखंडी,भक्त्दर्शन,श्रीदेव सुमन,दयाशंकर भट्ट,भगवतीचरण निर्मोही को सम्मिलित किया गया था!
इस समिति मैं डोला-पालकी समस्या पर जनमत जानने के लिए गढ़वाल का भार्मन किया गया,तत्पश्चात २३ फरवरी १९४१ को लैंसीदोन मैं सर्व दलीय सम्मलेन आयोजित करने का निश्चय किया गया! गढ़वाल कांग्रेश कमिटी के तत्वाधान मैं आयोजित इस सर्व दलीय सम्मलेन मैं सत्याग्रह कमिटी,आर्य सभा, शिल्पकार सभा,हिमालय सेवा संघ,गढ़वाल तथा सर्वेंट सोसाआईटी ऑफ़ इंडिया के प्रतिनिधियों ने भाग लिया

!इसमें प्र्मिउख रूप से प्रतापसिंह नेगी,भक्त्दर्शन,कलमसिंह नेगी,ज्यनान्द्भारती,बलदेव सिंह आर्य के अतिरिक्त शिछा विभाग के अध्यछ कुंदनसिंह गुसाईं,गोविन्द सिंह रावत,प्र्याग्दत धस्माना,नैनसिंह आदि सुधारवादी प्रविर्ती के ब्यक्तियों ने तत्कालीन ज्वलंत समस्या के शीघ्र हक़ कीमांग करते हुए उन्हें स्वार्थी तत्वों की भर्त्सना की,जिनके कारण इस समस्या को अनावश्यक ढंग से त्वरा मिली थी!

Devbhoomi,Uttarakhand

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यमकेस्वर मैं कांग्रेश का जन-जागरण अभियान और सत्याग्रह
 
गढ़वाल मैं कांग्रेश संघठन सविनय अवाज्ञान आन्दोलन के माध्यम से जनता मैं अपने दल की शक्ति को बढाने के लिए प्रयत्नशील था!१९३० मैं जिला कांग्रेश कमिटी की स्थापना के पश्चात् भी कांग्रेश ग्रामीण छेत्रों तक नहीं पहुँच पायी,अधिकतर युवा वर्ग ही कांग्रेश के सदस्य न होते हुए भी रास्ट्रीय भावनाओं के कारण सत्याग्रह मैं सक्रियता से भाग ले रहा था!

जगमोहन सिंह नेगी द्बारा युवकों को साथ लेकर यमकेस्वर-उदयपुर (ये छेत्र वर्तमान मैं जनपद पोडी मैं आता है)मैं कांग्रेश के चार आना शुल्क लेकर सदस्य बनाने का अभियान प्रारंभ किया !

उदयपुर छेत्र मैं सत्याग्रह कार्यकर्म के अर्न्तगत ८ अक्टूबर १९३० को यमकेस्वर मैं जन सभा बुलाई गई!ग्रामीणअंचलों से पुरुष महिलाएं व नवयुवक पैदल चलकर यहाँ पहुंचे थे,सभा से पूर्व जगमोहन सिंह नेगी के नेतृत्व मैं गढ़वाल के प्रएंभिक बाद्य यंत्रों,ढोल-दमाऊं के साथ जलूश निकलकर जनता ने बिर्टिश प्रशासन के विरोध मैं नारे लगाए !पुलिश सत्याग्रहियों से निपटने के लिए यहाँ आ पहुंची,किन्तु सत्याग्रहियों के साथ जनता की उमडती भीड़ के भय से पुलिश ने रक्षात्मक कार्यवाही करते हुए सभा स्थल के चारों ओरघेरा दाल दिया !

सभा मैं उपस्तिथ नेताओं ने जनता को देश की घटनाओं की जानकारी देते हुए बिर्टिश शासन के विरोध मैं संघठित होकर आन्दोलन छेदने के उद्देलित किया,सभा के मध्य मैं नेताओं ने पुलिस को चेतावनी देते हुए कहा कि -वह सभा के समापन तक कोई बाधा उपस्तिथ न करें सभा के अंत मैं जगमोहन सिंह नेगी ने अनुचित व जन-विरोधी कानून को तोड़ने का आह्वान करते हुए प्रशासन कि दमनात्मक नीति की भर्त्सना की!

सभा की समाप्ति पर पुलिस ने जगमोहन सिंह नेगी सहित १८ सत्याग्रहियों की गिरफ्तारी के वारंट दिखाते हुए इन्हें बंदी बना लिया !इनमें श्री छ्वान सिंह,नारायांदत महंत,गोपालसिंह नेगी,स्वरूपचंद उनियाल,खुशहाल सिंह,गंगासिंह,ब्रहमचारी,छब्बी सिंह,वानप्रस्थी,जसराम सिंह,पूर्णानंद,कान्तिचंद उनियाल,भूपाल सिंह,माधोसिंह,आन्दंड सिंह,लालसिंह,चंदनसिंह,तथा महानंद आदि प्रमुख थे!

Devbhoomi,Uttarakhand

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जहरीखाल मैं झंडा सत्याग्रह

कोटद्वार- दुगड्डा,उदयपुर,यम्केस्वर,गुज्डू मई सत्याग्रह किये जाने के उपरांत उत्साही युवकों द्बारा लेंसीडाउन छावनी के निकट शैछिक केंद्र जाहरीखाल हाईस्कूल मैं तिरंगा झंडा फहराने के संकल्प लिया गया!बलदेव सिंह आर्य के नेतृत्व मैं स्वम सेवकों का दल जहारिखाल के लिए चल पडा!

रात्री मैं मार्ग के निकट एक मंदिर मैं शरण लेते हुए दुसरे दिन प्रात सत्याग्रहियों द्वारा बिध्यालय के शिखर पर सफलता के साथ तिरंगा झंडा फहराया गया और प्रार्थना सभा की गयी!बिध्यालय के बिद्यार्थी भी सत्याग्रहियों के युद्घ गान गाने मैं सम्मिलित हो गए थे!सत्याग्रहियों के रास्ट्रीय गीत की आवाज सुनकर पुलिस ने बिध्यालय परिसर मैं पहुंचकर सत्याग्रहियों पर लाठी चालन किया!विद्यार्थियों को पुलिस तितर वितर करने मैं सफल हुयी,किन्तु सत्याग्रहियों ने लाठी का प्रहार झेलते हुए,मैदान नहीं छोडा और युद्घ गान गाते रहे!

अन्तः पुलिस इन्हें बंदी बनाकर लेंसीडाउन ले आई,घटना के तीसरे दिन बंदी सत्याग्रहियों को दुगड्डा मैं मजिस्तेड के सामने उपस्तिथ किया गया!न्याय धीस ने सत्य्ग्रही बलदेव सिंह आर्य सहित चार ब्यक्तियों को तीन-तीन माह की कठोर कारावास की सजा सुनाई,एनी सत्य्ग्राहियों को रिमांड पर रिहा कर दिया गया!

गढ़वाल मैं कांग्रेश के कार्यकर्ताओं के कारावास से रिहाई के उपरांत दुगड्डा मैं सभा बुलाई गई,जिसमें उपस्तिथ कार्यकर्ताओं द्वारा एक स्वर मैं पुलिस की दमनात्मक कार्यवाही की निंदा की गई!इसी तरह की सभाओं का आयोजन कोटद्वार सहित गढ़वाल के एनी भागों मैं हुआ,जनता से सरकारपरस्तऔर पुलिस को सत्याग्रह का भेद देने वालों के विरूद्व सामाजिक बहिस्कार करने की अपील की गई!

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जनता मैं जन-जागरण का प्रभाव न फ़ले,इस उद्देश्य से पुनः कांग्रेश के प्रमुख कार्यकर्ताओं को ढूँढ-ढूँढ कर बंदी बनाया गया!
एक सप्ताह हवालात मैं रखने के बाद इन्हें मजिसटेड के सामने उपस्तिथ किया गया,जनता द्वारा न्यायलय के बहार प्रदर्सन व नारे बाजी से झुंझलाकर पुलिस द्वारा प्र्दार्संकारियों पर लाठी चार्ज किया गया!

इस काण्ड मैं रूपचंद उनियाल और कुछ नेताओं को चोटें भी आई,तनाव पूर्ण वातावरण के बीच न्यायालय द्वारा बंदी सत्याग्रहियों को ६-६ माह की सजा सुने गई! बलदेवसिंह आर्य को सर्वाधिक डेढ़ वर्स की सजा की सजा सुनाकर एनी सत्याग्रहियों के साथ मुरादाबाद जेल भेज दिया गया!गढ़वाल मैं राजनैतिक गतिबिधियों के मुख्य केंद्र दुगड्डा मैं किरपाराम मिश्र,व केशवानंद जोशी को आन्दोलन का नैत्रित्वा करने के आरोप मैं ३-३ माह की कठोर कारावास की सजा दी गई!

एक एनी सत्याग्रही हरिप्रसाद मिश्र को धारा१० के अर्न्तगत ७ माह का कारावास दिया गया,आन्दोलन का प्रभाव जनता मैं न फेले इस उद्देश्य से प्रशासन द्वारा समूचे दुगड्डा छेत्र मैं नेताओं की धर पकड़ प्रारंभ की गई!पुलिस की इन कार्यवाहियों के अर्न्तगत प्रतापसिंह नेगी, भागीरथ लाल,गोकुलसिंह नेगी,सक्लानंद शास्त्री,मोहरसिंह,लाला

लाशिराम,गोविन्दराम,नंदलाल,तथा गंगासिंह त्यागी को जनता को आन्दोलन के संघठित करने के लिए के अरूप मैं बंदी बनाकर कारावास मैं दाल दिया गया!दूसरी ओर  देहरादून मैं भक्तदरसन को गढ़वाल मैं आन्दोलन की रणनीति बनाने के अभियोग मैं ३ माह के कारावास की सजा सुनाई गई!

Devbhoomi,Uttarakhand

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गढ़वाल मैं लगान बंदी कार्यक्रम और दमन की कार्यवाही

गढ़वाल मैं सविनय अव्ग्य्याँ आन्दोलन के अंतर गत भूमि पर लगान न देने के कार्यक्रम रामप्रशाद नौटियाल द्वारा गुज्दु छेत्र के किर्स्कों के सहयोग से तैयार किया गया था!

किन्तु कांग्रेश की नरम मनोविर्तीके नातों जिनका संघठन मैं वर्चस्व भी था,आन्दोलन की सीमाओं को लांघने की चिंता व हिचक के कारण नमक आन्दोलन को प्रमुख अस्त्र नहीं बनाया जा सका !

गढ़वाल मैं नवीन भू सुधारों और ब्यवस्था से किर्श्कों पर ३३% लगान की अतिरिक्त राशि का बिझ दाल दिया गया प्रशासन की राजस्व बढाये जाने की लालासा के कारण पड़ी किर्शों की आर्थिक स्तिथि और जीवन असह्य और कष्ट पद हो हया पर्वतीय किर्शी की उत्पादन शक्ति भौगोलिक और सिंचाई संसाधनों के पिछडेपन के कारण कमजोर रही !

फस्व्रूप किर्स्कों को सरकारी स्तर पर भी उत्पादन शक्ति बढाने के लिए लेश मात्र की सहायता नहीं मिल पा रही थी !ऐसी स्तिथि मैं लगान बढाये जाने से प्रशासन के विरोध मैं किर्स्कों की भावनाएं किर्श्कों को उद्देलित करने लगी थीं ! गढ़वाल कांग्रेश के गरम मनोविर्ती के नेताओं जिसमें रामप्रसाद नौटियाल थानसिंह रावत,छ्वान सिंह,मोतीसिंह,सदानंद सद्गुरु बाबा प्रमुख थे!

हेम पन्त

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30 मई 1930 को टिहरी रियासत के सैनिकों के द्वारा रंवाई क्षेत्र की निहत्थी जनता पर तिलाड़ी के मैदान पर घेरकर गोलियां चलाई गईं. ये मासूम लोग वनों पर अपने अधिकारों की मांग को लेकर एक सभा कर रहे थे. टिहरी रियासत के तत्कालीन वन अधिकारी रतूड़ी व दीवान चक्रधर जुयाल द्वारा कराये गये इस गोलीकाण्ड को "गढवाल का जलियांवाला बाग काण्ड" कहा गया. इस काण्ड का आम जनता ने भारी विरोध किया और इससे सम्बन्धित लोकगीत कई दशकों तक टिहरी व आसपास के क्षेत्रों में गाये जाते रहे. 

ऐसी गढ पैसी,
मैं ना मार चकरधर, मेरि एकात्या भैंसि

तिमला को लाबु
मैं ना मार चकरधर, मेरो बुढया बाबु

लुवा गढ केटि
कुई मारि गोलि चकरधर, कुई गंग पड़ो छूटी


तिलाड़ी का जनांदोलन- 1930


१९२७-२८ में टिहरी राज्य में जो वन व्यवस्था की गई उसमें वनों की सीमा निर्धारित करते समय ग्रामीणों के हितों की जान-बूझ कर अवहेलना की गई, इससे वनों के निकट के ग्रामों में गहरा रोष फैल गया। रवांई परगने में वनों की जो सीमा निर्धारित की गई उसमें ग्रामीणॊ ने आने-जाने के रास्ते, खलिहान और पशुओं के बांधने के स्थान भी वन सीमा में चले गये। जिससे ग्रामीणॊं के चरान, चुगान और घास-लकड़ी काटने के अधिकार बंद हो गये। वन विभाग की ओर से आदेश दिये गये कि सुरक्षित वनों में ग्रामीणों को कोई अधिकार नहीं दिये जा सकते।
   टिहरी रियासत की वन विभाग की नियमावली के अनुसार राज्य के समस्त वन राजा की व्यक्तिगत सम्पत्ति मानी जाती थी, इसलिये कोई भी व्यक्ति किसी भी वन्य जन्तु को अपने अधिकार के रुप में बिना मूल्य के प्राप्त नहीं कर सकता। यदि राज्य की ओर से किसी वस्तु को निःशुल्क प्राप्त करने में छूट दी जायेगी तो वह महाराजा की विशेष कृपा पर दी जायेगी। जो सुविधायें वनों में जनता को दी गई है, उन्हें महाराजा स्वेच्छानुसार जब चाहे रद्द कर सकेंगे।

      उस समय आज की जैसी सुविधायें नहीं थी, पशुओं से चारे से लेकर कृषि उपकरणॊं से लेकर बर्तनों तक के लिये भी लोग जंगलों पर ही आश्रित थे, लेकिन जब जनता शासन तंत्र से पूछती कि जंगल बंद होने से हमारे पशु कहां चरेंगे? तो जबाब आता था कि ढंगार (खाई) में फेंक दो। यह बेपरवाह उत्तर ही वहां के लोगों के विद्रोह की चिंगारी बनी। टिहरी रियासत के कठोर वन नियमों से अपने अधिकारों की रक्षा के लिये रवांई के साहसी लोगों नें "आजाद पंचायत" की स्थापना की और यह घोषणा की गई कि वनों के बीच रहने वली प्रजा का वन सम्पदा के उपभोग का सबसे बड़ा अधिकार है। उन्होंने वनों की नई सीमाओं को मानने से अस्वीकार कर दिया तथा वनों से अपएन उपभोग की वस्तुयें जबरन लाने लगे।
        इस प्रकार से रंवाई तथा जौनपुर में ग्रामीणों का संगठन प्रबल हो गया, आजाद पंचायत की बैठक करने के लिये तिलाड़ी के थापले में चन्द्राडोखरी नामक स्थान को चुना गया। इस प्रकार वन अधिकारों के लिये आन्दोलन चरम बिन्दु पर 30 मई, 1930 को पहुंचा, तिलाड़ी के मैदान में हजारों की संख्या में स्थानीय जनता इसका विरोध करने के लिये एकत्रित हुई और इस विरोध का दमन करने के लिये टिहरी रियासत के तत्कालीन दीवान चक्रधर दीवान के नेतृत्व में सेना भी तैयार थी। आजाद पंचायत को मिल रहे जन समर्थन की पुष्टि हजारों लोगों का जनस्मूह कर रहा था, इससे बौखलाये रियासत के दीवान ने जनता पर गोली चलाने का हुक्म दिया। जिसमें अनेक लोगों की जानें चली गई और सैकड़ों घायल हो गये। 28 जून, 1930 को "गढ़वाली" पत्र ने मरने वालों की संख्या १०० से अधिक बताई।
       इस प्रकार से वन अधिकारों के लिये संघार्ष कर रही जनता के आंदोलन को बर्बरतापूर्वक दबा दिया गया।


हेम पन्त

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चिपको और नशा विरोध आन्दोलन के दौर में गीत और कविताओं के माध्यम से जनजागरण की लहर उठाने में घनश्याम भट्ट "शैलानी" जी का अमूल्य योगदान है, उनके द्वारा लिखे गये गीत "खड़ा उठा भाई-बंदो, सब कठा होला, सरकारि नीति से जंगल बचौंला" ने दूरस्थ क्षेत्र के लोगों में भी जंगलों को बचाने की जरूरत के विचार पैदा किये. इससे पहले 1971 में नशा विरोधी आन्दोलन के दौर में शैलानी जी ने "हिटा दिदी, हिटा भुली, चला गौं बचौला, दारु कु दैंत लाग्यौं तै दैंत भगौंला" जैसे गीत गाकर लोगों को नशा उन्मूलन आन्दोलन के लिये एकजुट किया.

निम्न गीत भी चिपको आन्दोलन के समय लिखा गया था. इसमें घनश्याम भट्ट "शैलानी" जी ने सरकार की जनविरोधी नीतियों से जंगलों के ठेकों को रोकने के लिये महिलाओं से आगे आने का आह्वान किया है और जंगल कटने पर होने वाले दुष्प्रभावों को भी बताया है.

धरती को हरण ह्वैगे, मिट्टी को क्षरण ह्वैगे
मनख्यूं को मरण ह्वैगे, जंगलु दु:शासन लै गे
कृष्ण बणी कु आलु धरती की लाज थामण लि.
तैयार ह्वै जावा बैणियो, गौं-गौं कि स्याणि सय्याणियों
पहाड़ कि तुम आंछरियों, शक्ति की मातरियों
घी-दूध को बण तुमरु मैत लुटै गैन लो
ह्यूंचुलि ड़ाण्यूं मां आब ह्यूं कखन जामलो.


धरती का हरण और मिट्टी क्षरण हो चुका है. मनुष्य की मृत्यु होने लगी है और जंगलों पर दु:शासन (ठेकेदारों) का राज हो गया है. कोई तो आयेगा कृष्ण बनकर जो धरती की लाज बचायेगा. गांव की बहनों-महिलाओ तुम तैयार हो जाओ, तुम शक्ति का अवतार हो. यह वन जो तुम्हारे मायके के समान है वो लुट रहा है. यदि यह जंगल नहीं रहे तो ऊंची पहाड़ियों पर बर्फ कैसे जमेगी.

Devbhoomi,Uttarakhand

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भारत छोडो आन्दोलन और उत्तराखंड

अंतर्रास्तिरी स्तर पर द्वितीय विश्व युद्ध के प्रसार तथा युद्ध मैं बिर्टेनकी भूमिका के विरोध मैं जनमत की अभिब्यक्ति इस तथ्य की धोतक समझी गई है! किबिर्टिश साम्राज्य वादी निति के विरोध मैं ब्यापक व संघठित चेतना जन साधारण तक को प्रभावित करने लगी थी !

दूसरी ओर के भीतर साम्यवादी तथा समाजवादी विचारधारा के प्रबल होने तथा इनके रस्त्र्वादी प्रयत्नों के फलस्वरूप जन साधारण कि अभिकाषा बिर्टिश साम्राज्यवाद के विरोध मैं निर्णायक संघर्ष प्रारम्भ करने कि ओर उन्मुख हो रही थी !फलस्वरूप ७ से १४ जुलाई तक वर्धा मैं आयोजित कांग्रेश कार्यकारी  समिती मैं भारत छोडो आन्दोलन से सम्बंधित पस्ताव पारित कर आन्दोलन कि भूमिका तैयार की गई !

कांग्रेश दल द्वारा वर्धा कार्य समिती के प्रस्तावों पर कार्यकर्ताओं की सहमती के किये ७-८ अगस्त को मुंबई मैं अखिल भारतीय कांग्रेश कार्यसमिति की बैठक आयोजित कर कुछ संशोधन के साथ प्रस्ताव का अनमोदन कर महत्मागांधी को आन्दोलन की बागडोर सौंपी गई !गाँधी आन्दोलन को अहिंसात्मक ढंग से जन संघर्स का विषय बनाना चाहते थे !

धनेश कोठारी

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टिहरी रियासत की बादशाहत का आखिरी दिन साबित हुआ था ११ जनवरी १९४८  

   टिहरी अपनी अल्पायु के बाद अब भले ही अपने भूगोल के साथ उन तमाम किस्सों को भी जलमग्न कर समाधिस्थ हो चुकी है। जिनमें एक सभ्यता सूर्योदय से सूर्यास्त तक और स्याह रातों के अन्धेरों में जीवन समग्रता में जीती रही। वहीं कई ज्वलंत प्रश्नों को भी सुलझाती रही। इन्हीं में शामिल है, टिहरी रियासत की उस क्रुर सत्ता की दास्तान भी जिसमें ‘राजा’ को जिंदा रखने के लिए दमन की कई कहानियां बुनी और गढ़ी गई। आज भी जिनसे सामन्ती सड़ांध बखुबी आती है। तो, दूसरी तरफ रियासत की जिंदादिल अवाम का वह संघर्ष भी कि, जिसने इस बेदिल बादशाहत को भारतीय आजादी के १४८ दिन बाद ही टिहरी से खदेड़ दिया था। यहां से शुरू होता है उन रणबांकुरों का इतिहास जिन्होंने सामन्ती बेड़ियों को तोड़ते हुए प्रमाण दिया था कि, भड़ इसी धरती पर जन्में थे।
   १५ अगस्त १९४७ के दिन जब भारतीय क्षितिज पर उगा सूर्य ब्रिटिश हकूमत के सूर्यास्त का पैगाम लेकर आया और हवाओं के जोर पर तिरंगा आजादी का ध्वजवाहक बनकर लहराया। मगर, उत्तराखण्ड के इस हिस्से में राजनरेशों की ठसक तब भी जारी थी, और जमीन पर जनता पंवार वंशीय राजतंत्र के अमानवीय जख्मों की टीस से कराह रही थी। ३० मई १९३० का दिन राजा के दमन की पराकाष्ठा थी। जब अपनी हदों को पार करते हुए उत्तरकाशी (तब टिहरी में शामिल) में बड़कोट के समीप तिलाड़ी के मैदान में वनों से जुड़े हकूकों के लिए संघर्षरत हजारों किसानों व ग्रामीणों पर गोलियां बरसा दी गई। उस दिन तिलाड़ी के मैदान में जलियांवाला बाग की याद ताजा हो गई थी। यही वह क्षण था, जहां से टिहरी की बेकसूर और मासूम जनता में तीखा आक्रोश फैला और यही घटना टिहरी राज्य में सत्याग्रही संघर्ष के अभ्युदय का कारण भी बनी।
   तब टिहरी रियासत में जनान्दोलन की पैनी और कौंधती आवाज को दफन करने के लिए राजतंत्र का जुल्म ही अकेला नहीं था। बल्कि अंग्रेज सरकार ने भी राजसत्ता के विरूद्ध खड़ी ताकतों के उत्पीड़न में राजा की हमकदमी की। हालांकि जुल्मोगारत की अन्तहीनता की स्थिति में अवाम ने संघर्ष का आखिरी हथियार थाम लिया था। रियासत के आन्दोलनकारियों ने बगैर झुके-टुटे अपनी मंजिल तक बगावत का झण्डा बुलंद रखा। जिसकी बदौलत जनतांत्रिक मूल्यों की नींव पर प्रजामण्डल की स्थापना हुई। जिसका पहला नेतृत्व जनसंघर्ष की अग्रिमपांत के युवा क्रांतिकारी श्रीदेव सुमन को मिला। इसे जनक्रांति की पहली उपलब्धी भी माना गया। यह राजतंत्र के गहराते जुल्मों के खिलाफ़ समान्तर खड़े होने जैसा ही था। जिसने राजगद्‍दी के पायों में तब भूकम्प सा ला दिया था। कि, तभी अचानक इस आन्दोलन में एक शून्य उभरा और राजशाही क्रूरता की असह्‍य वेदनाओं के बीच चौरासी दिनों की ऐतिहासिक ‘भूख हड़ताल’ के बाद क्रांतिकारी श्रीदेव सुमन जेल की बेड़ियों-सलाखों के बीच राजा के दमन से भी २५ जुलाई १९४४ के दिन हमेशा-हमेशा के लिए रिहा हो गये। जनान्दोलन यहां भी नहीं रुका। क्योंकि अवाम तब तक लोकशाही व राजशाही में फर्क जान चुके थी।
   राजतंत्र के अमानवीय जुल्मों में जन्मी इस जनक्रांति की जिम्मेदारी को तब एक और योद्धा कामरेड नागेन्द्र सकलानी ने संभाला। यह नागेन्द्र और उनके साथियों का ही मादा था कि, उन्होंने अपनी आखिरी सांसों तक बारह सौ साला पंवार वंशीय सत्ता की हकूमत से टिहरी राज्य को रिहाई दिलाई थी। तब नागेन्द्र महज २७ बसंत ही देख पाये थे।
   १२०० वर्ष पुरानी सामन्ती जंक-जोड़ को पिघलाने वाले इस जांबाज का जन्म टिहरी जनपद की सकलाना पट्टी के पुजारगांव में हुआ था। काबिलेगौर कि १६ साला उम्र में ही नागेन्द्र का मन सामाजिक सरोकारों को समझने लगा। हाईस्कूल की शिक्षा के बाद वे सक्रिय साम्यवादी कार्यकर्त्ता बन गये थे। इसी बीच १९४४ में रियासत अकाल के दैवीय प्रकोप से गुजरी। कि, राजा ने कोष की रिक्तता को पोषित करने और आयस्रोतों की मजबूती के लिए भू-व्यवस्था व पुनरीक्षण के नाम पर जनता के ऊपर करों का अतरिक्त बोझ लाद दिया। इस घटना ने जनक्रांति में जैसे घी का काम किया, और इसी दौरान कामरेड नागेन्द्र ने तंगहाली के दौर से गुजर रहे किसानों, जनता में भड़की आग को पैना और धारदार नेतृत्व दिया। गांव-गांव अलख जगाने लगे। तो, दूसरी तरफ उन्हीं की कार्यशैली व वैचारिकता के इर्दगिर्द एक और आक्रामक योद्धा दादा दौलतराम भी उनके हमकदम हो गये। नतीजा, हकहकूकों के प्रति सचेत होते जनमानस में शोषण के विरूद्ध लामबंदी मुखर होने लगी। ऐसे में राजा का तय भू-बंदोबस्त कानून लागू होने के बाद भी प्रभावी नहीं हो सका।
   राजा से एक कदम आगे राज्य कार्मिकों द्वारा लागू कानूनों की पेशबंदी में आमजन को बेतरह परेशान किया जाने लगा। विरोध की सूरत में अमानवीय यातनायें देना मानों उनका शगल सा बन गया था। फलत: राजशाही की इन्हीं अलोकतांत्रिक नीतियों ने जनक्रांति को एक नई दिशा दी। बगावत का श्रीगणेश हुआ पट्टी कड़ाकोट(डांगचौरा) से। जहां की जनता ने का. नागेन्द्र सकलानी और दादा दौलतराम के नेतृत्व में लामबद्ध होकर लादे गये करों का भुगतान न करने का ऐलान कर डाला। फिर दौर चला किसानों और राजा की सेना के बीच जुल्म-संघर्ष का। हालांकि तब एक बार तो सेना ने निहत्थे ग्रामीणों पर हथियार उठाने से ही इंकार कर दिया था। सैनिकों को भी इस बगावत का दण्ड भुगतना पड़ा। आंदोलनकारियों के साथ उन्हें भी राजद्रोह में निबद्ध किया गया। अब तक तो जुल्म ओ सितम आजादी के मतवालों की आदतों में शुमार हो चुके थे।
   राजद्रोह के इलजाम में गिरफ़्तार नागेन्द्र सकलानी ने राज्य की ओर से बारह साल की सजा अवधि को ठुकराकर श्रीदेव सुमन के नक्शेकदम पर चलते हुए १० फ़रवरी १९४७ को आमरण अनशन शुरू कर दिया। मजबूरन राजा को अपनी अनचाही हार स्वीकारनी पड़ी। आखिरकार का. नागेन्द्र सकलानी और उनके साथियों को रिहा किया गया। राजा जानता था कि, श्रीदेव सुमन के बाद उसी तरह सकलानी की शहादत खतरनाक साबित हो सकती है।
   तभी रियासत की जनता ने राजा के सामने वनाधिकार कानून में संसोधन, बरा-बेगार, पौंणटोंटी जैसी कराधान व्यवस्था को समाप्त करने की मांग उठायी। मगर राजा ने इसे अनसुना कर दिया। राजा ने आन्दोलन को कमजोर करने के लिए एक बार फिर नागेन्द्र सकलानी के साथी दादा दौलतराम को गिरफ्तार किया। तो आन्दोलन का समूचा भार उन्हीं के कन्धों पर आ गया। जिसे नागेन्द्र ने अपनी काबलियत के बूते बखुबी पूरा भी किया। मुकाबले के इस दौर में ही प्रजामण्डल को राज्य से मान्यता मिली। २६-२७ मई १९४७ को प्रजामण्डल का पहला अधिवेशन आहूत हुआ, जिसमें कम्यूनिस्टों के साथ ही अन्य वैचारिक धाराओं ने भी शिरकत की। यह अधिवेशन आजादी के मतवालों के लिए संजीवनी साबित हुआ।
   १५ अगस्त १९४७ को देश में स्वाधीनता के सूर्य ने इतिहास के हरफ़ों में इस दिन को अमर कर डाला। किंतु टिहरी का इतिहास तब भी बादशाही हकूमत की तंग गलियों में छटपटा रहा था। ठीक इस वक्त सकलाना की जनता ने तत्कालीन शासन से स्कूलों, सड़कों और चिकित्सालयों जैसी मौलिक सुविधाओं की मांग की, तो साथ ही उधर राजस्व की अदायगी को भी रोक दिया। तब इस आवाज को दबाने के लिए राजा ने फौज के साथ एक विशेष जज सकलाना भेजा। सकलाना में आम लोगों को उत्पीड़त किया जाने लगा। कई घरों को नीलामी की भेंट चढ़ा दिया गया। निर्दोंषों को भी जेलों में ठूंस दिया गया। ऐसे में राजतंत्र के दमन की ढाल के लिए प्रजामण्डल ने सत्याग्रहियों की भर्ती शुरू की। रियासत की सीमा में ही कई जगहों पर शिविर लगाये गये। इसी दौरान सकलाना के मुआफ़ीदारों ने नागेन्द्र के नेतृत्व में आजाद पंचायत की स्थापना कर डाली। इसका असर कीर्तिनगर परगना तक हुआ। जिससे आन्दोलन में बढ़ती जन भागीदारी से भयभीत राज्यकर्मी टिहरी की राजधानी नरेन्द्रनगर कूच करने लगे। क्रांति का यह दौर कामयाबी के कदम बढ़ाता हुआ बडियार की तरफ बढ़ा। वहां भी आजाद पंचायत की स्थापना हुई।
   १० जनवरी १९४८ को कीर्तिनगर में राजतंत्र के बंधनों से मुक्ति के लिए जनसैलाब उमड़ आया। दूसरी ओर वहां राजा के चंद सिपाही ही आन्दोलनकारियों से मुकाबिल सामने थे। मौजुद सिपाही यहां भी जनाक्रोश के डर से कांप उठे। उन्होंने अपनी हिफ़ाजत की एवज में बंदूकें जनता को सौंप दी। इस बीच सभा का आयोजन हुआ। जिसमें कमेटी का गठन करते हुए कचहरी पर कब्जा करने का फैसला किया गया। कमेटी ने अपने पहले ही एक्शन में कचहरी पर ‘तिरंगा’ गाड़ दिया। यह खबर जैसे ही राजधानी नरेन्द्रनगर पहुंची तो वहां से फौज के साथ मेजर जगदीश, पुलिस अधीक्षक लालता प्रसाद और स्पेशल मजिस्ट्रेट बलदेव सिंह ११ जनवरी को कीर्तिनगर पहुंचे। कीर्तिनगर में अब भी आन्दोलनकारियों का सैलाब खिलाफ डटा हुआ था। ११ जनवरी को फौज के साथ राज्य प्रशासन ने कचहरी को वापस हासिल करने की पुरजोर कोशिश की। लेकिन जनाक्रोश के समन्दर में वे ऐसा कर नहीं पाये। फौज ने भीड़ में डर पैदा करने की नीयत से आंसू गैस के गोले भी फेंके। मगर आग और भड़की और भीड़ ने कचहरी को ही आग के हवाले कर दिया।
   उधर प्रजामण्डल ने शासन के अधीन राज्यकर्मियों के खिलाफ गिरफ्तारी वारंट जारी कर सत्याग्रहियों को इन्हें पकड़ने का जिम्मा सौंपा। जनता ने तैनात सिपाहियों को घेरकर अपनी गिरफ्त में ले लिया। हालातों को हदों से बाहर होता देख अधिकारी जंगल की तरफ भागने लगे। आन्दोलनकारियों के साथ जब यह खबर नागेन्द्र सकलानी को लगी तो उन्होंने अपने एक साथी भोलू भरदारी के साथ अधिकारियों का पीछा करके दो को पकड़ लिया। आक्रोश में सकलानी जब स्पेशल मजिस्ट्रेट बलदेव सिंह के सीने पर चढ़ गये तो बलदेव को खतरे में भांपकर मेजर जगदीश ने मातहतों को फायरिंग का आदेश दे दिया। फायरिंग में दो गोलियां नागेन्द्र और भरदारी को लगी और संघर्ष के बूते दोनों क्रांतिकारियों ने मौत को अपने सीने से लगा लिया। शहादत के इस गमगीन माहौल में राजतंत्र एक बार फिर हावी होता कि, तब ही पेशावर कांड के वीर योद्धा चन्द्रसिंह गढ़वाली ने नेतृत्व को अपने हाथ में ले लिया था।
   १२ जनवरी १९४८ के दिन अमर शहीद कामरेड नागेन्द्र सकलानी और भोलू भरदारी की पार्थिव देहों को लेकर आंदोलनकारी अश्रुपुरित आंखों के साथ टिहरी के लिए रवाना हुए। पूरे रास्ते रियासत की जनता ने दोनों अमर बलिदानियों को फूलों की वर्षा करके भावपूर्ण श्रद्धांजलि दी। इस गमगीन माहौल के साथ शहीद यात्रा १५ जनवरी को टिहरी पहुंची। टिहरी में इससे पहले ही भारी जनाक्रोश फैल चुका था। जिसे भांपकर राजा मय लाव-लश्कर १४ जनवरी को ही नरेन्द्रनगर भाग खड़े हुए। तब सत्ता के तमाम हथियार जनता के हाथ आ चुके थे।
   टिहरी में सुमन चौक स्थित आजाद मैदान में अमर बलिदानी नागेन्द्र व भोलू भरदारी को अंतिम विदाई दी गई। साथ ही वहां मौजुद जनसमूह ने शपथ ली कि, अब राजशाही के अधीन नहीं रहा जायेगा। सकलानी व भरदारी के शरीरों के पंचतत्व में विलीन होते ही आंदोलनकारियों ने टिहरी में भी आजाद पंचायत की घोषणा की। देखते ही देखते टिहरी के राज कार्यालयों, न्यायालय और थाने पर आजाद पंचायत का झण्डा फहराने लगा। १६ जनवरी को एक बार फिर आमसभा हुई, जिसमें भारत सरकार को राज्य की संपति सौंपने का निर्णय लिया गया। तदुपरांत माह फरवरी में अंतरिम सरकार का गठन हुआ और फिर लम्बे संघर्षों के बाद १ अगस्त १९४९ को टिहरी के इतिहास में वह दिन आ पहुंचा जब भारत सरकार की एक विज्ञप्ति के जरिये उसे उत्तर प्रदेश में शामिल कर पृथक जिला घोषित कर दिया गया।
   इतिहास के संदर्भों में देखें तो टिहरी जनपद उत्तराखण्ड में पहली जनक्रांति का प्रतिनिधि रहा है। जहां वीर भड़ माधो सिंह ने ही नहीं बल्कि श्रीदेव सुमन, कामरेड नागेन्द्र सकलानी व भोलू भरदारी सरीखे कई वीर योद्धाओं ने सामाजिक प्रगतिशीलता के लिए अमर बलिदान किया। निश्चित ही आज नया राज्य इसी अवधारणा का फलित है, और ‘एक बेहतर आदमी की सुनिश्चितता’ के बाद ही हम शहीदों की ‘मनसा’ को पूरा कर पायेंगे।

धनेश कोठारी
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पंकज सिंह महर

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खीराकोट का आन्दोलन

खीराकोट आन्दोलन ग्रामीण स्त्रियों की जुझारु संघर्ष शक्ति का एक प्रेरक उदाहरण है, अल्मोड़ा जिले का हरा-भरा गांव खीराकोट जब खदान मालिकों के दोहन का शिकार बना तो खेत-खलिहान और नन्हे पौधों की दुर्दशा देखकर वहां की स्त्रियों ने खदान का काम बंद कराने की ठान ली। मई 1981 में खीराकोट गांव में मूसलाधार वर्षा के कारण खेत हिमपात जैसे श्वेत दिखाई पड़ रहे थे। गांव की पचास वर्षीय महिला मालती देवी ने इस बात पर ध्यान दिया कि जिसे हम बर्फ समझ रहे हैं, वह वास्तव में खड़िया मिट्टी की परत है, जो वर्षा के जल के साथ खेतों में बह आई है।१९७८ के आस-पास अल्मोड़ा-कौसानी के मध्य बसे इस छोटे से गांव के निवासियों ने देखा कि उनकी दैनिक आवश्यकताओं, घास, लकड़ी के अधिकार आदि समाप्त हो रहे हैं। ज्ञात हुआ कि ग्राम पंचायत की जमीन पर खडि़या मिट्टी का अकूत भण्डार है और कानपुर की कटियार मिनरल्स ने इस 14001 हैक्टेयर भूमि पर खड़िया खुदाई के अधिकार लीज पर प्राप्त किये हुये हैं। खड़ी फसल को इस तरह से चौपट होते देखना उनके लिये भारी आघात था। उनकी आंखों में आंसू आ गये उन्होंने तय किया कि खान का काम बंद करवाना होगा अन्यथा गांव के खेत चौपट हो जायेंगे। उपजाऊ मिट्टी के खेत खड़िया से ढक जाने के कारण रेगिस्तान बन जायेंगे।
मालती देवी ने गांव की महिलाओं को साथ लिया और लक्ष्मी आश्रम, कौसानी में राधा बहन से मिलने चल दीं। राधा बहन के निर्देशन में महिलायें संगठित हुई और गांव में रोज सभायें करने लगीं। राधा बहन ने गांव में पर्यावरण शिविर लगाये, सिअमें मैगसेसे पुरस्कार से सम्मानित चंडी प्रसाद भट्ट भी आये। इससे महिलाओं का आत्मबल बढ़ा, महिलाओं ने  उत्तराखण्ड संघार्ष वाहिनी द्वारा विभिन्न अधिकारियों तक अपनी आवाज पहुंचानी शुरु की, वनाधिकारी, खदान नियंत्रणाधिकारी तथा पेयजल योजना के इंजीनियर्स को निरीक्षण हेतु आना पढ़ा।.................जारी

 

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