खीम सिंह जी द्वारा लिखा गया.
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दि हाई हिलर्स ग्रुप
(से मेरा सक्षातकार)
हाँ! हाँ याद आया सितम्बर महिने की 18वीं तारिख थी, विठृठलभाई पटेल भवन मार्ग का हरित प्रांगण में भावी कवि, लेखक, गायक@गायिका, संगीतज्ञ, राजनैतिक नेता, एवं समाजसेवी पर्वतीय युवाओं का समूह एक सुप्त प्रायःसंस्था को पुनः जागृत करने के लिये अपने दृढ संकल्पों, नये उत्साह, व खुले विचारों के साथ एकत्र् हुये थे।
पूर्व सूचनाओं के अनुरूप युवाओं की उपस्थिति बहुत कम थी। कुछ क्षणों की प्रतीक्षा किसी के आने के लिए की गई, मुठ्ठी भर लोगों की उपस्थिति ने मन को विचलित तो किया किन्तु नये समाज से जुडने की जो अनुभूति अन्तःमन को छू रही थी वह सशक्त थी। पहाडी रास्तों की भाँति मन में अनेकानेक उतार-चढाव आते जाते रहे। प्रतीक्षा का क्षण व्यर्थ ही गया आने वाला समय ही था। जो लोग आये थे काफ़ी तो नही थे मगर उत्साह की कमी नही थी। यही आधार था सभा का शुभारम्भ करने का।
ईश्वरीय वन्दना एक स्वर में हुई, तत्प’चात सभा संचालन के लिए एक युवा साथी श्री सुरेश नौटियाल को सर्वसम्मति से चुना गया। संचालक महोदय ने स्वपरिचय देकर उपस्थित युवाओ से अपना अपना परिचय देने का आग्रह किया। संक्षिप्त परिचय में एक बात सभी में समान थी - निस्वार्थ भाव से कार्य करने की ईच्छा। स्वपरिचय का दौर खत्म हुआ, संचालक महोदय की अनुमति से एक युवा साथी श्री मोहन राणा ‘जो संस्था का संस्थापक सदस्यों में थे’ ने संस्था का जीवन वृतांत जन्म से लेकर 18 सितम्बर 1983 तक का सुनाया, गीता के पवित्र् उपदेश की तरह सबने एकाग्रचित से सुना किन्तु बीच-बीच में हल्की-हल्की कानाफूसी की आवाजें आती थी मालूम नही हो सका कि ये आवाजें क्या व्यक्त करना चाहती हैं। विकट परिस्थितियों के उत्पन्न होने के बावजूद लोग इसे जुडें रहे या कार्य करते रहे, सुनने वालों के चेहरे पर आ’चर्य के भाव साफ झलक रहे थे, नये लोगों के उत्साह से आत्म विश्वास जाग उठा सभी एक स्वर मे कह उठे आगे का संचालन हम सब मिलकर करेंगे। इस रस्म अदायगी के बाद आज की बैठक यही पर खत्म तो हो गयी परन्तु विचारों की खत्म न होने वाली उथल पुथल जारी रही।
18 सितम्बर 1983 की बैठक से इतना अनुमान तो लगाया ही जा सकता था कि हर युवा अपनी जीर्ण-क्षीण शक्ति से संस्था को एक नया रूप देना चाहता है। आगामी बैठक 25 सितम्बर 1883 तक के लिये सभी को सोचने के लिए मुक्त कर दिया। सभी के लिये एक सप्ताह था सोचने को।
25 सितम्बर 1983 का दिन,फिर वही नव युवक उत्तराखण्ड की संकुचित विचार धारा, अर्धविकसित क्षेत्र् की संस्कृति से भारत की राजधानी में अपनी पहचान बनाने के लिये फिर वही संकल्प लेकर पुनः एकत्र्ति हुये। कुछ नये लोगों के आने से मन में आंशिक उत्साह की वृद्धि हुयी। पुराने सदस्यों को मौखिक व लिखित सूचना मिलने पर भी उनकी अनुपस्थिति किसी अज्ञात भय का आभास दिला गयी, खैर ! नये लोगो का परिचय से ज्ञात हुआ कि ये लोग इस आशय से आये थे कि संस्था पूर्ण विकसित है, क्यों न हम भी उसमें सम्मलित होकर अपने सुदूर निरीह पहाडों से जुड जाये, यहाँ पर उन्होने जो देखा वह आशा के विपरीत सपने बिखरने जैसा था, क्योकि प्रकृति के खुले प्रंगण में अनुभवहीन युवा शल्य चिकित्सकों द्वारा जीवन मृत्यु से जुझते हुए संस्था का मात्र् अवलोकन किया जा रहा था।
साधानों का अत्यन्त अभाव होने के बाद भी भावी कार्यक्रम को एक व्यवस्थित ढंग से चलाने पर विचार किया गया। जहाँ चाह वहाँ राह की कहावत सौ फीसदी ठीक बैठी। एक एक कर सभी ने अपने विचारों से अवगत कराया, विचारों में नवीनता का अभाव, विरासत में मिली भेडचाल के समर्थक नयी क्रान्ति की प्रतीक्षा में थे। सभी विचारों को सुनकर संस्था के जन्मदाता श्री सुरेश नौटियाल जी ने अपने विचार व अन्तिम निर्णय में कहा कि हमारे संस्कार पूर्वजों से जुडे हुए हैं क्यों न हम भी कुछ समय के लिए उनके बनायी राह पर चलें शायद हमारी लग्नशीलता या बेबसी से प्रभावित हो कर लोग रसीदें काटने शुरू कर दें फिर और था भी क्या रास्ता घ् चन्द युवाओं को छोडकर अधिाकतर युवा लोग बेरोजगारी की लाईन मे खडे थे। न ही इतने सम्पन्न थे, शायद होते तो इस तरह बेवश लोगो के साथ जीवन का आनन्द नही खोते। कुछ लोग इसके अपवाद भी हैं उनका पहाडी प्रेम है, हो सकता हो पागलपन !
परिस्थितियों की मार कहें या अभिमान की विजय जो भी हो सम्भलना अब इतना आसान नही है, जिस कार्य पर हमें स्वाभिमान था आचार विचारों के अशुद्ध होने से अपनी गरिमा खो बैठा है। बचपन के भेालेपन से जिन्होंने यौवन का श्रृंगार अपने हाथों से किया वही यौवन की मादकता के खरीदार बन गये। भूल गये जिसको सवारने में हमने अपने अमूल्य समय, धान की आहुति दी थी बिगाडने का कटिला ताज भी हमारे सिर पर शोभा देता है।
क्या मिला इन सब से - पहले परिचय की अनुभूति श्रद्धा व विश्वास की प्रतीक थी वही आज अपनत्व की खिचडी ने हाथ मिलाने कभी कभी जै राम जी की तक सीमित कर दिया है मैं सोच भी नही सकता था कि इन संस्थाओं से भाईचारा बढने के बजाय नफरत की ऑधी आ जाती है।
फिर भी संस्था अपने आप में महान अस्थित्व रखती है। और रखती रहेगी। आने वाली खरपतवार इसे नये नाम से नये आयाम देगी।
खीमसिंह रावत
22.08.1985
दिनेश जी, 25 फरवरी 1985 को एक लम्बी बिमारी के बाद हमारी पुज्य माता जी का स्वर्गवास हो गया था परिवार की विड्ढम परिस्थितियों ने दि हाई हिलर्स ग्रुप से विदा लेने के लिए मजबूर कर दिया था। जब बॉजी गौडी का मंचन हुआ था तब मैं सिर्फ वित्तीय मदद कर पाया था। श्री सुरेश नौटियाल जी ने भी अपनी सक्रियता कुछ कम कर दी थी। श्री नौटियाल जी उत्तराखण्ड आन्दोलन के प्रवक्ता बन गये। आप जरूर बताते रहें की मिटिंग कब और कहाँ होगी। एक बार कोशिश करूगा जाने की।
अब आगे की यात्रा को आप जारी रखे। साधुवाद
खीम