Author Topic: गिरीश चन्द्र तिवारी "गिर्दा" और उनकी कविताये: GIRDA & HIS POEMS  (Read 74664 times)

एम.एस. मेहता /M S Mehta 9910532720

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Shashi Mohan Upreti
 
गिर्दा की याद

आज जन कवि गिर्दा की 69 जन्मदिन है। वे उत्तराखंड की संस्कृति और आंदोलनों की पहचान थे। आज के हालातों को गिर्दा ने वर्षों पहले अपने गीतों के माध्यम से हमारे सामने रख दिया था, उनकी यह रचना आज हकीकत प्रतीत हो रही है

इस व्योपारी को प्यास बहुत है

एक तरफ बर्बाद बस्तियां, एक तरफ हो तुम
एक तरफ डूबती कश्तियां, एक तरफ हो तुम
एक तरफ हैं सूखी नदियां, एक तरफ हो तुम
एक तरफ है प्यासी दुनिया, एक तरफ हो तुम

अजी वाह! क्या बात तुम्हारी
तुम हो पानी के व्योपारी
खेल तुम्हारा, तुम्हीं खिलाड़ी
बिछी हुई ये बिसात तुम्हारी

सारा पानी चूस रहे हो
नदी-समुंदर लूट रहे हो
गंगा-यमुना की छाती पर
कंकड़-पत्थर कूट रहे हो

उफ! तुम्हारी ये ख़ुदगर्जी
चलेगी कब तक ये मनमर्ज़ी
जिस दिन डोलेगी ये धरती
सर से निकलेगी सब ये मस्ती

महल-चौबारे बह जायेंगे
खाली रौखड़ रह जायेंगे
बोल व्योपारी- तब क्या होगा
जब बूंद-बूंद को तरसोगे

नगद उधारी- तब क्या होगा
आज भले ही मौज उड़ा लो
नदियों को प्यासा तड़पा लो
गंगा को कीचड़ कर डालो

लेकिन डोलेगी जब धरती
बोल व्योपारी- तब क्या होगा
वर्ल्ड बैंक के टोकनधारी- तब क्या होगा
योजनाकारी- तब क्या होगा
नगद, उधारी- तब क्या होगा

एक तरफ हैं सूखी नदियां, एक तरफ हो तुम
एक तरफ है प्यासी दुनिया, एक तरफ हो तुम

Hisalu

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"ऋतु औन रौली" सुनिए



एम.एस. मेहता /M S Mehta 9910532720

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Tribute to Girda.

 चाहे आम नै ल्या सकी
चाहे बुब न ल्या सक्या
मगर नानतिन तो ल्याला
उ दिन यो दुनि में

(दादी न ला पायी तो क्या
दादा न ला पाये तो क्या
मगर बच्चे तो वो दिन ले ही आएंगे
जिसका हमें इन्तजार है )
 
 


एम.एस. मेहता /M S Mehta 9910532720

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बालकृष्ण डी ध्यानी
Yesterday at 11:35am · Manama, Bahrain · Edited ·

एक कवि गिर्दा अब भी रहता है

मेरे उत्तराखंड के पहाड़ में
एक कवि गिर्दा अब भी रहता है
सादगी से भरा है उसका वो दिल
बस मेरे पहाड़ के लिये वो धड़कता है
मेरे उत्तराखंड के पहाड़ में .......

वो अडिग अटल है विचारों से
हर मोर्चे पर वो आगे पग धरता है
अति विलक्षण यथार्त् का वो धनी
अपनों के लिये वो दिन रात जलता है
मेरे उत्तराखंड के पहाड़ में .......

वो आया और वो चला भी गया
दो बोल जो बोले वो अमर हो गये
कविताओं की जो उन्होंने माला पिरोई
हमे दिन रात वो प्रेरणा देते रहते है
मेरे उत्तराखंड के पहाड़ में .......

बालकृष्ण डी ध्यानी
देवभूमि बद्री-केदारनाथ
मेरा ब्लोग्स
http://balkrishna-dhyani.blogspot.in/search/
में पूर्व प्रकाशित -सर्वाधिकार सुरक्षित

एम.एस. मेहता /M S Mehta 9910532720

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मी उत्तराखंडी छौ!!!!
Yesterday at 10:32am ·

जनकवि गिरदा की पुण्यतिथि पर 'मी उत्तराखंडी छौं ' पन्ने की और से सन्देश [ गढ़वाली - कुमाऊँनी - हिन्दी में ]

गढ़वाली :
"जैंता एक दिन ता आलू उ दिन ये दुनी में" जना क्रांतिकारी बोलों का रचनाकार गिरीश तिवाड़ी उर्फ़ गिर्दा की आज पुण्यतिथि च। गिर्दा मात्र एक कबि ही ना बल्कि एक लेख्वार, नाटककार, राज्य आन्दोलन कर्मी अर समाज सेवक बी छाई,चिपको आन्दोलन मा उन्की भी एक मुख्य भूमिका छाई।आवा आज सर्र्या राज्य मीलिक वा अमर कबि ते नमन कारा। [अनुवाद :निखिल उत्तराखंडी ]

कुमाऊँनी:
"जैंता एक दिन ता आलू उ दिन ये दुनी में" जस बोलोन क रचनाकार गिरीश तिवारी उर्फ़ गिर्दा क आज पुण्यतिथि छ। गिर्दा मात्र एक कवि नि थ्या बल्कि एक लेखक, नाटककार, राज्य आंदोलनकारी और समाज सेवक ले थ्या। चिपको आंदोलन मा उनरी एक मुख्य भूमिका थी। आवो आज पूरो राज्य मिलिबेर वी अमर कवि कै नमस्कार करनू। [ अनुवाद हिमांशु करगेती]

हिन्दी:
"जैंता एक दिन ता आलू उ दिन ये दुनी में" जैसे कन्र्तिकारी बोलों के रचेयता गिरीश तिवारी उर्फ़ गिर्दा की आज पुण्य तिथि है। गिर्दा मात्र एक कवि नहीं बल्कि एक लेखक,नाटककार,राज्य आन्दोलन कर्मी और समाज सेवक भी थे,चिपको आन्दोलन में उनकी भी एक अहम् भूमिका थी। आइये आज सारा राज्य मिलकर उस अमर कवि को नमन करें।

एम.एस. मेहता /M S Mehta 9910532720

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जोड़ – आम-बुबु सुणूँ छी
गदगदानी ऊँ छी
रामनङर पुजूँ छी
कौशिकै की कूँ छी
पिनाथ बै ऊँ छी मेरि कोसि हरै गे कोसि।
कौशिकै की कूँ छी मेरि कोसि हरै गे कोसि।।

क्या रोपै लगूँ छी मेरि कोसि हरै गे कोसि।
क्या स्यारा छजूँ छी मेरि कोसि हरै गे कोसि।।

घट-कुला रिङू छी मेरि कोसि हरै गे कोसि।
कास माछा खऊँ छी मेरि कोसि हरै गे कोसि।।

जतकाला नऊँ छी मेरि कोसि हरै गे कोसि।
पितर तरूँ छी मेरि कोसि हरै गे कोसि।।

पिनाथ बै ऊँछी मेरि कोसि हरै गे कोसि।
रामनङर पुजूँ छी मेरि कोसि हरै गे कोसि।।

जोड़ – रामनङर पुजूँ छी,
आँचुई भर्यूँ छी, – (ऐ छू बात समझ में ? जो चेली पहाड़ बै रामनगर बेवई भै, उ कूँणै यो बात) -
पिनाथ बै ऊँ छी,
रामनगङर पुजूँ छी,
आँचुई भर्यूँ छी,
मैं मुखड़ि देखूँ छी,
छैल छुटी ऊँ छी,
भै मुखड़ि देखूँ छी,
अब कुचैलि है गे मेरि कोसि हरै गे कोसि।
तिरङुली जै रै गे मेरि कोसि हरै गे कोसि।
हाई पाँणी-पाणि है गे मेरि कोसि हरै गे कोसि।।

~~~~साभार-- गिरीश चन्द्र तिवारी,"गिर्दा"

एम.एस. मेहता /M S Mehta 9910532720

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प्रयाग पाण्डे
December 17 at 8:30pm
ओ हो रे ओ दिगौ लाली।
सावनी साँझ आकाश खुला है
ओ हो रे ओ दिगौ लाली।
छानी खरीकों में धुआं लगा है
ओ हो रे ओ दिगौ लाली।
थन लागी बाछी कि गै पंगुरी है
द्वी - द्वा, द्वी - द्वा दुधी धार छूटी है
दुहने वाली का हिया भरा है
ओ हो ये मन धौ धिनाली।
ओ हो रे ओ दिगौ लाली।
मुश्किल से आमा का चूल्हा जला है
गीली है लकड़ी कि गीला धुआं है
साग क्या छौंका है कि गौं महका है
ओ हो रे गंध निराली।
ओ हो रे ओ दिगौ लाली।
कांसे की थाल - सा चाँद टंका है
ओ हो रे साँझ जुन्याली।
ओ हो रे ओ दिगौ लाली।
दूर कहीं कोई छेड़ रहा है
ओ हो रे न्योली "सोरयाली"
जौल्यां मुरुली का "सोर" लगा है
आइ - हाइ रे लागी कुतक्याली
ओ हो रे ओ दिगौ लाली।
- गिरीश तिवाड़ी "गिर्दा"

 

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